हमारा समाज जिस तीव्रता से प्रगति व आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर है, उसका प्रभाव मानव-मस्तिष्क पर भी पड़ा है। आज हर व्यक्ति में 'ईगो' की भावना पनाप रही है। ईगो यानी अहम् व 'स्वाभिमान' का वास्तविक अर्थ अब अहंकार बन चुका है।
अहंकार, कभी धन, कभी शिक्षा, तो कभी सौंदर्य और वैभव आदि के रूप में मानव के हृदय में इस कदर समा चुका है कि व्यक्ति जाने-अनजाने दूसरे का अनादर कर बैठता है।
अहंकारी व्यक्ति को लगता है कि सारी दुनिया उसी के अनुसार चल रही है तथा वह जो चाहे, पल भर में हो सकता है। वह हर समय अपने झूठे गर्व भरे मार्ग पर चलता रहता है भले ही इससे किसी का अहित हो, लेकिन उस पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। उसका एकमात्र उद्देश्य अपनी कल्पनाओं व अहम् की उड़ान भरना होता है।
अहंकार के शिकार लोगों का मानना है कि वही संसार के सर्वेसर्वा हैं। वे हर समय, हर किसी के समक्ष अपने छोटे-छोटे कारनामों को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। ऐसा करने के पीछे उनकी यही मानसिकता होती है कि वे अत्यंत महान और आत्मविश्वासी हैं और सहज ही किसी को अपनी ओर आकर्षित करने की कला में पारंगत हैं जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसे लोग मात्र मुंह के शेर होते हैं। उनके मन में किसी कोने में यह आत्मबोध भी छुपा होता है कि वे डरपोक और कमजोर है और अपनी इसी खामी को छुपाने के लिए वे अपनी झूठी तारीफों के पल बांधते हैं।
यद्यपि अहंकार और अहं भाव में काफी अंतर है तथापि आज अपने बढ़ते महत्व को देखते हुए अहंकार ने अहंभाव को भी अपना दाल बना लिया है। धन, पद, विद्या, रूप, बल व सौंदर्य आदि में पारंगत होना कोई बुरी बात नहीं और इसमें भी कोई बुरी बात नहीं और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इन सभी गुणों से युक्त व्यक्ति का स्वाभिमान और सर्वयुक्त स्वभाव उसे दूसरों से उच्च रखता है लेकिन इस स्वाभिमान व गर्व को अहंकार में बदल देना वाकई निंदनीय है।
सही मायनों में इन सभी गुणों में वास्तविक प्रवीण वह व्यक्ति है जो इनका उपयोग समाज के हित और उन्नति में करते हैं। जिस प्रकार सूर्य व चन्द्रमा अपनी रोशनी व शीतलता प्रकृति को बांटते हैं धरती अपना सारा अन्न जीवों को बांटती है, उसी प्रकार व्यक्ति को अपने गुण समाज को समर्पित कर देने चाहिए।
अहंकार की विस्तृत विवेचना की जाये तो यही सार निकलता है कि अहंकार का अर्थ है भौतिक वस्तुओं एवं शारीरिक क्षमताओं व उपलब्धियों पर इतराना मात्र। अहंकारी व्यक्ति यह भूल जाता है कि अहंकार एक असत्य और झूठ जिसका कोई अस्तित्व नहीं। वह अकेला है, उसके साथ संसार नहीं होता। सभी सत्य के साथ होते हैं। मधुर वाणी सभी को मोहित कर लेती है तथा सहृदयी व्यक्ति अपने गुणों से सभी के हृदय पर राज कर सकता है, तो फिर अहंकार का मूल्य क्या है, केवल शून्य!
बलशाली, धनवान, ज्ञानवान और जनप्रिय व्यक्ति के पास जब इतने अमूल्य गुण हैं तो उसके हृदय में अहंकार का काम क्या? उसे अहंकार से ग्रसित होने से क्या फायदा और यदि वह फिर भी अहं का दास बनता है तो इसका मतलब है कि इन गुणों को उसने पूरी तरह प्राप्त नहीं किया और यदि कर लिया है तो अहंकार उन सभी को शीघ्र नष्ट कर देगा। एक शायर ने इसी संदर्भ में कितना सुंदर व सटीक शेर कहा है-
जो माहिर होते हैं, फन में, उछलकर वो नहीं चलते।
छलक जाता है पानी, कायदा है ओछे बरतन का॥
मनोचिकित्सिकों का मानना है कि अहंकार एक प्रकार से मानसिक रोग है, जो मानव की मानसिक विषमता से पनपता है। इसके पीछे घृणा, वैर और अत्यधिक उपलब्धियों का सहयोग होता है।
एक अन्य अध्ययन के अनुसार यदि अहंकार का की प्रवृत्ति पर ध्यान दिया जाये तो पता चलता है कि अहंकार के प्रमुख कारक शारीरिक बलिष्ठता, धन व सौंदर्य आदि क्षणिक मात्र है अर्थात् शारीरिक बलिष्ठता पर अहंकार करना आपराधिक प्रवृत्ति है।
धन पर अहंकार करना लोभी होने का इशारा करता है और सौंदर्य पर गर्व करने से वासना का उपासक होने का संकेत मिलता है। इन भौतिक संपदाओं पर कैसा अहंकार करना, जब यह इस शरीर के साथ यही समाप्त हो जायेंगी।
अहंकार व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ता नहीं बल्कि रिश्ते बिखेर देता है और यदि कुछ देता है तो सिर्फ आपसी वैमनस्य, घृणा, कुंठा व रंजिशें, अत: अपने गुणों पर गर्व करें लेकिन अहंकार नहीं। उन्हें दूसरों के हित में उपयोग करें न कि अपनी ही तारीफें बटोरने हेतु।
Wednesday, December 15, 2010
Thursday, December 9, 2010
मानसिक सदमे से बचें
जीवन में किसी चीज से मोह, लगाव या आशा न होने पर क्या जीना संभव है? बिल्कुल नहीं। कहने की बात है कि व्यक्ति को कमल के पत्ते पर बूंद की भांति निर्लिप्त रहकर जीना चाहिए।
मोह पर व्यक्ति को होता है और कितनी हो चीजों, बातों व व्यक्तियों से होत है। इनका छिन जाना तो दुःखदायी है ही, किसी व्यक्ति चाहे वह बेटा-बेटी, पति-पत्नी, मित्र कोई भी हो सकता है जिससे आपको लगाव हो, ऐसे व्यक्ति का बिछुड़ना सभी को मानसिक कष्ट देता है। इस सदमे से लगभग सभी को गुजरना पड़ता है। जिनमें इनर पावर मजबूत होती है वे इस दुःख से जूझने की पुरजोर कोशिश करते हैं सफल भी हो जाते हैं, लेकिन अत्यन्त संवेदनशील लोग टूटकर बिखरने लगते हैं व जीवन से विरक्त हो जाते हैं।
ऐसे में उन्हें जरूरत होती है सही मार्गदर्शन की, सच्ची सहानुभूति की व एक विलॉस्कर एंड गाइड की। जो उनकी प्रतिभा को पहचानकर उन्हें उसे मांजने चमकाने की सही राय दे सके। यह स्त्री-पुरुष कोई भी हो सकता है।
मोहाच्छन्न होने पर शॉक लगने जैसी स्थिति हो जाती है। विश्वास का टूटना, बेरोजगारी, बेरोजगारी, गिरती सेहत, असफलता, सास-बहू का तालमेल न बैठना, पति-पत्नी का आशाओं पर खरा न उतरना, संतान का नालायक निकलना ये सब स्थितियां शॉकिंग होती हैं। जिसेक लिए कोई भी पहले से तैयार नहीं होता। आधुनिकता के नाम पर समाज में आई बुराइयों ने आज जरूर व्यक्ति को कई बातों को लेकर शॉक प्रूफ कर दिया है, लेकिन फिर भी जैसा कि पहले कहा गया है सब्जबाग न हों अगर जीवन में तो जीना संभव नहीं होगा, क्योंकि जीने के लिये यही सहारा है। क्या होता है जब-जब कोई मित्र पीठ में छुरा भौंक दे, पति-पत्नी बेवफाई करने लगें, बेट, मां-बाप का शत्रु बन जाये। बेटी के कारनामें मां-बाप को समाज में मुंह दिखाने के काबिल न छोड़ें, तब व्यक्ति अवसाद में धिरकर टूट जाता है। उसकी जिन्दगी में जानलेवा ठहराव आजाता है, जिससे उसका व्यक्तित्व कुंठित होने लगता है। ऐसे में कई बार व्यक्ति आत्महत्या तक कर बैठता है या करने की नाकाम कोशिश करता है। मोहाच्छन होने की स्थिति में देखा जाए तो हर व्यक्ति की प्रतिक्रिया अलग होती है। यह उसकी फितरत पर निर्भर होता है। पुरुष नशाखोरी या वेश्यावृत्ति की ओर कई बार ऐसी स्थिति में कदम बढ़ाने लगते हैं। युवतियां घर से भाग सकती हैं या सहानुभूति दिखाकर गलत राह पर डालने वालों के बहकावे में आकर जीवन तबाह कर लेती हैं, क्योंकि दिल टूटने से उनका मनोबल भी टूट जाता है और ऐसे में वे इतनी कमजोर हो जाती हैं कि किसी भी गलत आदमी के लिये उनका शोषण करना आसान हो जाता है।
इस तरह से व्यथित लोग आम जिन्दगी (स्ट्रीम आफ लाइफ) से कटकर कई बार पागलपन की कगार तर पहुंच जाते हैं, कभी दिमागी संतुलन खो बैठते हैं। निःसंदेह ऐसे लोगों को मदद की सख्त जरूरत होती है। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए चंडीगढ़ में ब्रोकन हार्ट, पुनर्वास संस्था की स्थापना हुई है। इसका उद्देश्य जीवन से निराश लोगों के अन्दर छिपे गुणों को विकसित कर उन्हें समाज की मुख्य धारा में फिर से शामिल करने का प्रयास करना है। इस प्रयास में ये सफलतापूर्वक कार्य करते हुए असंख्य लोगों की मदद कर चुकी है। ऐसी कई संस्थाएं देश भर में स्थापित होनी चाहिए।
मोह पर व्यक्ति को होता है और कितनी हो चीजों, बातों व व्यक्तियों से होत है। इनका छिन जाना तो दुःखदायी है ही, किसी व्यक्ति चाहे वह बेटा-बेटी, पति-पत्नी, मित्र कोई भी हो सकता है जिससे आपको लगाव हो, ऐसे व्यक्ति का बिछुड़ना सभी को मानसिक कष्ट देता है। इस सदमे से लगभग सभी को गुजरना पड़ता है। जिनमें इनर पावर मजबूत होती है वे इस दुःख से जूझने की पुरजोर कोशिश करते हैं सफल भी हो जाते हैं, लेकिन अत्यन्त संवेदनशील लोग टूटकर बिखरने लगते हैं व जीवन से विरक्त हो जाते हैं।
ऐसे में उन्हें जरूरत होती है सही मार्गदर्शन की, सच्ची सहानुभूति की व एक विलॉस्कर एंड गाइड की। जो उनकी प्रतिभा को पहचानकर उन्हें उसे मांजने चमकाने की सही राय दे सके। यह स्त्री-पुरुष कोई भी हो सकता है।
मोहाच्छन्न होने पर शॉक लगने जैसी स्थिति हो जाती है। विश्वास का टूटना, बेरोजगारी, बेरोजगारी, गिरती सेहत, असफलता, सास-बहू का तालमेल न बैठना, पति-पत्नी का आशाओं पर खरा न उतरना, संतान का नालायक निकलना ये सब स्थितियां शॉकिंग होती हैं। जिसेक लिए कोई भी पहले से तैयार नहीं होता। आधुनिकता के नाम पर समाज में आई बुराइयों ने आज जरूर व्यक्ति को कई बातों को लेकर शॉक प्रूफ कर दिया है, लेकिन फिर भी जैसा कि पहले कहा गया है सब्जबाग न हों अगर जीवन में तो जीना संभव नहीं होगा, क्योंकि जीने के लिये यही सहारा है। क्या होता है जब-जब कोई मित्र पीठ में छुरा भौंक दे, पति-पत्नी बेवफाई करने लगें, बेट, मां-बाप का शत्रु बन जाये। बेटी के कारनामें मां-बाप को समाज में मुंह दिखाने के काबिल न छोड़ें, तब व्यक्ति अवसाद में धिरकर टूट जाता है। उसकी जिन्दगी में जानलेवा ठहराव आजाता है, जिससे उसका व्यक्तित्व कुंठित होने लगता है। ऐसे में कई बार व्यक्ति आत्महत्या तक कर बैठता है या करने की नाकाम कोशिश करता है। मोहाच्छन होने की स्थिति में देखा जाए तो हर व्यक्ति की प्रतिक्रिया अलग होती है। यह उसकी फितरत पर निर्भर होता है। पुरुष नशाखोरी या वेश्यावृत्ति की ओर कई बार ऐसी स्थिति में कदम बढ़ाने लगते हैं। युवतियां घर से भाग सकती हैं या सहानुभूति दिखाकर गलत राह पर डालने वालों के बहकावे में आकर जीवन तबाह कर लेती हैं, क्योंकि दिल टूटने से उनका मनोबल भी टूट जाता है और ऐसे में वे इतनी कमजोर हो जाती हैं कि किसी भी गलत आदमी के लिये उनका शोषण करना आसान हो जाता है।
इस तरह से व्यथित लोग आम जिन्दगी (स्ट्रीम आफ लाइफ) से कटकर कई बार पागलपन की कगार तर पहुंच जाते हैं, कभी दिमागी संतुलन खो बैठते हैं। निःसंदेह ऐसे लोगों को मदद की सख्त जरूरत होती है। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए चंडीगढ़ में ब्रोकन हार्ट, पुनर्वास संस्था की स्थापना हुई है। इसका उद्देश्य जीवन से निराश लोगों के अन्दर छिपे गुणों को विकसित कर उन्हें समाज की मुख्य धारा में फिर से शामिल करने का प्रयास करना है। इस प्रयास में ये सफलतापूर्वक कार्य करते हुए असंख्य लोगों की मदद कर चुकी है। ऐसी कई संस्थाएं देश भर में स्थापित होनी चाहिए।
Friday, November 5, 2010
तनाव का उपचार-आध्यात्मिक जीवन
तनाव आधुनिक युग का अभिशाप है। यह जीवन पध्दति का एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है। यह दीमक की तरह अंदर से शरीर और मन को खोखला करता रहता है। तनाव के अनेक कारण एवं प्रकार हो सकते हैं किन्तु इसका मुख्य कारण है परमात्मा पर अविश्वास तथा मन:स्थिति और परिस्थिति के बीच सामंजस्य न होना। इसका शरीर और मन पर इतना दबाव पड़ता है कि हार्मोन और जैव रसायनों का संतुलन तार-तार हो जाता है। परिणामस्वरूप शारीरिक स्वास्थ्य एव मानसिक सुख-संतुलन क्रमश: क्षय होने लगते हैं और जीवन तरह-तरह के कायिक एवं मनोरोगों से ग्रसित होकर नारकीय यंत्रणा एवं संताप से भरने लगता है। 'इनसाइक्लोपीडिया आफ अमेरिकाना' के अनुसार सर्वप्रथम हैंस सेली ने तनाव (ीींीशीी) शब्द का प्रयोग किया। द्वितीय विश्व युध्द के दौरान इस शब्द का काफी प्रचलन हुआ। सेली के अनुसार, तनाव मन:स्थिति और परिस्थिति के असंतुलन से उठा एक आवेग है। इसकी दाहक क्षमता अप्रत्यक्ष और अति खतरनाक होती है। द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान विषम परिस्थितियों के रहते इसके भयंकर परिणाम व्यापक स्तर पर देखे गये और यह विषय वैज्ञानिक शोध-अनुसंधान के दायरे में आ गया।
अव्यवस्था और विसंगतियां
दो अमेरिकी मनोचिकित्सक थामस एच.होलेमस और रिचर्ड राडे ने तनाव के विषय पर व्यापक शोध-अनुसंधान किया। इन्होंने पाया कि व्यक्तिगत जीवन की अव्यवस्था तथा विसंगतियों के कारण 53 प्रतिशत गंभीर तनाव उत्पन्न होते हैं। इन्होंने विविध तनावों के मापन की 'स्केल' भी निर्धारित की, जिसके अनुसार तलाक से 63 प्रतिशत, मित्र या संबंधित परिजन की मौत से 36 प्रतिशत, बेरोजगारी से 56 प्रतिशत तनाव होता है। उनके अनुसार तनाव की गंभीरता में व्यक्ति मानसिक संतुलन खो बैठता है और यदि मनोबल दुर्बल है तो आत्महत्या जैसे जघन्य दुष्कृत्य तक कर बैठता है। पश्चिमी देशों में 55 से 80 प्रतिशत लोग तनावजन्य रोगों से पीड़ित हैं और अपनी बढ़ी-चढ़ी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये उन्हें कई प्रकार की प्रतिस्पर्धाओं से गुजरना पड़ता है। उसमें तनिक भी असफलता नकारात्मक सोच एवं तनाव को जन्म देती है। इसी तरह अप्राकृतिक आहार-विहार एवं अति औपचारिक आचार-व्यवहार भी तनाव को जन्म देते हैं। साथ हीर् ईष्या, द्वेष, संदेह, दंभ जैसे मनोविकार तनाव के अन्य महत्वपूर्ण कारण हैं। इस तरह आज तथाकथित विकास की भागती जिंदगी में तनाव जीवन का अनिवार्य घटक बन गया है। यह तनावरूपी अभिशाप किस तरह मन एवं मस्तिष्क की सूक्ष्म संरचना को प्रभावित कर गंभीर एवं असाध्य रोगों का कारण बनता जा रहा है, इसका अपना विज्ञान है, जिस पर शोधकर्ता गंभीर अनुसंधान कर रहे हैं। हैंस सेली के अनुसार, तनाव की प्रक्रिया को तीन अवस्थाओं में समझा जा सकता है। प्रथम अवस्था में, एड्रीनल कार्टेक्स में तनाव की सूचना का संप्रेषण होता है। दूसरी अवस्था में लिंफेटिक तंत्र की सक्रियता द्वारा शरीर में उत्पन्न इस अप्रिय स्थिति के प्रति संघर्ष छेड़ा जाता है। इसमें प्रतिरक्षा प्रणाली के अंतर्गत आने वाले थाइमस व स्पूलीन प्रमुख कार्य करते हैं। तीसरी अवस्था में तनाव की अधिकता पूरे मनोकायिक तंत्र को अपने नियंत्रण से ले लेती है। इस कारण शरीर व मन में थकान तथा गहन उदासी के लक्षण स्पष्ट परिलक्षित होते हैं।
तनाव की चार अवस्थाएं
कर्टसीन ने सेरिब्रल कार्टेक्स में तीन तरह के मस्तिष्क खंडों का वर्णन किया है, मेंटल ब्रेन, सेमेटिक ब्रेन तथा विसरल ब्रेन। सोमेटिक ब्रेन मांसपेशियों को तथा विसरल ब्रेन 'आटोनॉमिक नर्वस सिस्टम' को नियंत्रित करता है। मेंटल ब्रेन फ्रंटल लोब से परिचालित होकर समस्त विचार व चेतना तंत्र को नियमित व संचालित करता है। सामान्यतया इन तीनों मस्तिष्क खंडों का आपस में अच्छा अंतर्संबंध रहता है। तनाव इनके बीच असंतुलन पैदा कर देता है और यहीं से मनोकायिक रोगों की शुरुआत हो जाती है।
इस संदर्भ में तनाव को चार अवस्थाओं में विश्लेषित किया गया है, साइकिक फेज, साइकोसोमेटिक फेज, सोमेटिक फेज तथा आर्गेनिक फेज। साइकिक फेज में व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान रहता है तथा इस दौरान केंद्रीय तंत्रिका तंत्र अति क्रियाशील हो उठता है। रक्त में एसिटील कोलाइन की मात्रा बढ़ जाती है। इसकी अधिकतम मात्रा मस्तिष्क के काडेट नाभिक में तथा न्यूनतम सेरीविलम में होती है। मस्तिष्कीय क्रियाकलापों के आधार पर इसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है। तनाव सर्वप्रथम मस्तिष्क पर दबाव डालता है और एसिटील कोलाइन का स्राव बढ़ जाता है। इससे उद्विग्नता, अति उत्साह, चिंता व अनिद्रा जैसे विकार पैदा हो जाते हैं। यह अवस्था कुछ दिनों से कुछ महीनों तक चलती है। यदि यह स्थिति और लंबी हुई तो यह साइकोसोमेटिक अवस्था में परिवर्तित हो जाती है। इस अवधि में हाइपरटेंशन, कंपकंपी तथा हृदय की धड़कन बढ़ जाती है।
सोमेटिक फेज में कैटाकोलामाइंस अधिक स्रवित होता है। कैटाकोलामाइंस में तीन हार्मोन आते हैं, एडेनेलीन नार एड्रेनेलीन तथा डोपालीन। तनाव से इन हार्मोन के स्तर में वृध्दि हो जाती है। नशे का प्रयोग भी इनकी मात्रा को बढ़ा देता है। तनाव का प्रभाव मनुष्य ही नहीं पशुओं में भी देखा गया है। तनाव से प्रभावित पशुओं के मूत्र परीक्षण में एड्रेनेलीन की मात्रा 2 से 3 नानोग्राम प्रति मिनट तथा नार एड्रेनेलीन 6 से 10 नानोग्राम प्रति मिनट पाई गयी। सर्दी, गर्मी, दर्द आदि से उत्पन्न तनाव में नार एड्रेनेलीन का स्राव बढ़ जाता है। इससे पेशाब के समय जलन होती है। आर्गेनिक फेज, तनाव की अगली अवस्था है। इसमें तनाव शरीर की प्रतिरोधी क्षमता पर बहुत बुरा असर डालता है। तनाव इस अवस्था में आकर मधुमेह, अस्थमा तथा कोरोनरी रोग का रूप धारण कर लेता है। इस दौरान डोपालीन के बढ़ने से व्यवहार में भी गड़बड़ी पायी गयी है।
बाहरी परिस्थितियों की उपज
इसके अलावा भी अनेक ऐसे हार्मोन हैं, जो तनाव से सीधा संबंध रखते हैं। सिरोटीनिन मस्तिष्क की तीन क्रियाओं को संचालित करता है, निद्रा, अनुभव तथा तापमान। तनाव से इसका स्तर बढ़ जाता है। फलस्वरूप अनिद्रा, भूख काम लगना तथा शरीर के तापमान में वृध्दि हो जाने की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। हिस्टामीन शारीरिक विकास तथा प्रजनन में मुख्य भूमिका निभाता है। तनाव की अधिकता इसमें भी व्यक्तिक्रम डालती है। तनाव मुख्य रूप से श्रवणेद्रियों तथा आंखों के माध्यम से मस्तिष्क के सेरिब्रल कार्टेक्स तक पहुंचता है तथा वहां से समस्त शरीर में प्रसारित होता है। पेप्टिक अल्सर, गठिया, दिल का दौरा, मधुमेह आदि बीमारियां इसी के दुष्परिणाम हैं। द्वितीय विश्वयुध्द में युध्द प्रभावित क्षेत्रों में पेप्टिक अल्सर तथा हाइपरटेंशन की अधिकता पाई गयी थी। यह स्थिति बाढ़, भूकंप तथा अन्य प्राकृतिक प्रकोपों से प्रभावित प्रदेशों में भी देखी गयी है। इसके मूल में तनाव को ही जिम्मेदार माना गया है।
इस तरह की आपात परिस्थितियों में तनाव की अपरिहार्यता अपनी जगह है किन्तु जीवन की सामान्य स्थिति में भी तनाव को पूरी तरह बाहरी परिस्थितियों की उपज मानना, तनाव के उपचार के रहस्य से वंचित रह जाना है, क्योंकि तनाव पारिस्थितियों से अधिक मन:स्थिति पर निर्भर करता है। तनाव को बाहरी परिस्थितियों की उपज मानने के कारण ही हम प्राय: उसके उपचार के लिये दवाइयों पर निर्भर रहने की भूल करते हैं, जबकि कोई भी दवा तनाव से उत्पन्न बीमारी को ठीक करने में सफल नही हो सकती। तनाव से न्यूरान व हार्मोन तंत्र बुरी तरह से प्रभावित होता है। तनाव के उपचार के लिये ली गयी दवा, हार्मोन की अतिरिक्त मात्रा को तो नियंत्रित कर लेती है किन्तु ग्रंथि पूर्ववत् ही बनी रहती है और दवा का असर कम होते ही ग्रांथियां पुन: हार्मोन का अत्यधिक स्राव करने लगती हैं तथा रोगी की स्थिति और भी चिंतानजक हो जाती है। अत: तनाव का उपचार मात्र चिकित्सकीय औषधियों द्वारा संभव नहीं है। इसके लिये रोगी को स्वयं अपना चिकित्सक बनना होगा, तभी इसका प्रभावी उपचार हो सकेगा। और इसके लिये आवश्यक है, प्राकृतिक आहार एवं नियमित दिनचर्या, सदचिंतन एवं उदात्त भावनाएं। इसे अपनाकर व्यक्ति तनावजन्य विषाक्त परिस्थिति को क्रमश: तिरोहित करते हुए सुख-शांति से भरी-पूरी स्वर्णिम, परिस्थितियों का निर्माण कर सकता है।
परिस्थितियों से तालमेल जरूरी
इस संदर्भ में कुछ आधारभूत बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। हर व्यक्ति अपने विचारों व भावनाओं में जीता है। उसकी अपनी अच्छाइयां व बुराइयां होती हैं। इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिये कि कहीं हमारी बातों एवं व्यवहार से उसकी भावनाएं तो आहत नहीं हो रही हैं, विचारों को तो चोट नहीं पहुंच रही है। अगर ऐसा हुआ तो वातावरण तनाव के कसैलेपन से भर उठेगा और व्यक्ति तनवग्रस्त हो जायेगा। अत: हमारा व्यवहार ऐसा हो जो किसी के मर्म बिंदु को न छुए। बुराई को सार्वजनिक करने का तात्पर्य है- कीचड़ उछालना। बुराई को रोकने के लिये व्यक्ति को अकेले में प्रेमपूर्वक समझना चाहिये। इसी में इसका समाधान है। कहीं भी व्यक्तिगत तौर पर प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उलझना बुध्दिमानी नहीं है। परिस्थितियां अपनी जगह हैं और व्यक्ति अपनी जगह। परिस्थितियों से तालमेल एवं सामंजस्य बैठाकर आगे बढ़ने में ही समझदारी है। परिस्थिति से तालमेल न बैठा पाना ही तनाव को जन्म देता है। अत: इनसे पलायन नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण समझौता ही एकमात्र निदान है।
इस संदर्भ में व्यक्ति का दृढ़ मनोबल एवं सकारात्मक मनोभूमि अपनी निर्णायक भूमिका निभाती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दृढ़ मनोबल वाले व्यक्ति पर तनाव का प्रभाव अधिक नहीं होता है। 'स्ट्रेस एंड इट्स मैनेजमेंट बाई योगा' नामक सुविख्यात ग्रंथ में के.एन. उडुप्पा, तनावमुक्ति के लिए विधेयात्मक विचारों को अपनाने पर बल देते हैं। वे इसके लिये अनेक प्रकार की यौगिक क्रियाओं का भी सुझाव देते हैं। उडुप्पा ईश्वर पर आस्था को तनावमुक्ति का सर्वश्रेष्ठ व असरदार उपचार मानते हैं। इनका कहना है कि ईश्वर विश्वासी को तनाव स्पर्श नहीं करता है। यह सत्य है कि ईश्वर पर आस्था और विश्वास का मार्ग तनाव के तपते मरुस्थल से दूर शांति के प्रशांत समुद्र की ओर ले चलता है। ईश्वरनिष्ठ व्यक्ति विषम से विषम परिस्थिति में भी तनावरूपी व्याधि को पास फटकने नहीं देता। कबीरदास विपन्न आर्थिक स्थिति में भी अपनी फकीरी शान में मगन रहते थे। मीराबाई अनेक लांछनों एवं अत्याचारों के बावजूद अपने कृष्ण में लीन रहती थी। घोर पारिवारिक कलह के बीच भी तुकाराम की मस्ती में कोई कमी नहीं आती थी। क्रूस पर चढ़ने वाले ईसा, जहर का प्याला पीने वाले सुकरात को परमात्मा पर अगाध और प्रगाढ़ विश्वास था। उनको तनाव स्पर्श तक नहीं कर पाया था। वस्तुत: दाहक व दग्ध तनाव ईश्वर को प्रेमरूपी शीतल जल का स्पर्श पाते ही वाष्प बनकर उड़ जाता है। अत: व्यक्ति को नित्य आत्मबोध एवं तत्वबोध का चिंतन तथा भगवद् भजन करना चाहिये। शिथिलीकरण एवं प्राणायाम जैसी सरल यौगिक क्रियाओं का भी अनुसरण किया जाता है। इन्हीं उपायों से मन को शांत कर तनाव से मुक्त हो पाना संभव है। अत: ईश्वर के प्रति समर्पित भाव से जिया गया आस्था एवं श्रध्दापूर्ण जीवन और सामंजस्यपूर्ण व्यवहार ही तनावरूपी महाव्याधि के उपचार का एकमात्र प्रभावी उपाय है।
अव्यवस्था और विसंगतियां
दो अमेरिकी मनोचिकित्सक थामस एच.होलेमस और रिचर्ड राडे ने तनाव के विषय पर व्यापक शोध-अनुसंधान किया। इन्होंने पाया कि व्यक्तिगत जीवन की अव्यवस्था तथा विसंगतियों के कारण 53 प्रतिशत गंभीर तनाव उत्पन्न होते हैं। इन्होंने विविध तनावों के मापन की 'स्केल' भी निर्धारित की, जिसके अनुसार तलाक से 63 प्रतिशत, मित्र या संबंधित परिजन की मौत से 36 प्रतिशत, बेरोजगारी से 56 प्रतिशत तनाव होता है। उनके अनुसार तनाव की गंभीरता में व्यक्ति मानसिक संतुलन खो बैठता है और यदि मनोबल दुर्बल है तो आत्महत्या जैसे जघन्य दुष्कृत्य तक कर बैठता है। पश्चिमी देशों में 55 से 80 प्रतिशत लोग तनावजन्य रोगों से पीड़ित हैं और अपनी बढ़ी-चढ़ी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये उन्हें कई प्रकार की प्रतिस्पर्धाओं से गुजरना पड़ता है। उसमें तनिक भी असफलता नकारात्मक सोच एवं तनाव को जन्म देती है। इसी तरह अप्राकृतिक आहार-विहार एवं अति औपचारिक आचार-व्यवहार भी तनाव को जन्म देते हैं। साथ हीर् ईष्या, द्वेष, संदेह, दंभ जैसे मनोविकार तनाव के अन्य महत्वपूर्ण कारण हैं। इस तरह आज तथाकथित विकास की भागती जिंदगी में तनाव जीवन का अनिवार्य घटक बन गया है। यह तनावरूपी अभिशाप किस तरह मन एवं मस्तिष्क की सूक्ष्म संरचना को प्रभावित कर गंभीर एवं असाध्य रोगों का कारण बनता जा रहा है, इसका अपना विज्ञान है, जिस पर शोधकर्ता गंभीर अनुसंधान कर रहे हैं। हैंस सेली के अनुसार, तनाव की प्रक्रिया को तीन अवस्थाओं में समझा जा सकता है। प्रथम अवस्था में, एड्रीनल कार्टेक्स में तनाव की सूचना का संप्रेषण होता है। दूसरी अवस्था में लिंफेटिक तंत्र की सक्रियता द्वारा शरीर में उत्पन्न इस अप्रिय स्थिति के प्रति संघर्ष छेड़ा जाता है। इसमें प्रतिरक्षा प्रणाली के अंतर्गत आने वाले थाइमस व स्पूलीन प्रमुख कार्य करते हैं। तीसरी अवस्था में तनाव की अधिकता पूरे मनोकायिक तंत्र को अपने नियंत्रण से ले लेती है। इस कारण शरीर व मन में थकान तथा गहन उदासी के लक्षण स्पष्ट परिलक्षित होते हैं।
तनाव की चार अवस्थाएं
कर्टसीन ने सेरिब्रल कार्टेक्स में तीन तरह के मस्तिष्क खंडों का वर्णन किया है, मेंटल ब्रेन, सेमेटिक ब्रेन तथा विसरल ब्रेन। सोमेटिक ब्रेन मांसपेशियों को तथा विसरल ब्रेन 'आटोनॉमिक नर्वस सिस्टम' को नियंत्रित करता है। मेंटल ब्रेन फ्रंटल लोब से परिचालित होकर समस्त विचार व चेतना तंत्र को नियमित व संचालित करता है। सामान्यतया इन तीनों मस्तिष्क खंडों का आपस में अच्छा अंतर्संबंध रहता है। तनाव इनके बीच असंतुलन पैदा कर देता है और यहीं से मनोकायिक रोगों की शुरुआत हो जाती है।
इस संदर्भ में तनाव को चार अवस्थाओं में विश्लेषित किया गया है, साइकिक फेज, साइकोसोमेटिक फेज, सोमेटिक फेज तथा आर्गेनिक फेज। साइकिक फेज में व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान रहता है तथा इस दौरान केंद्रीय तंत्रिका तंत्र अति क्रियाशील हो उठता है। रक्त में एसिटील कोलाइन की मात्रा बढ़ जाती है। इसकी अधिकतम मात्रा मस्तिष्क के काडेट नाभिक में तथा न्यूनतम सेरीविलम में होती है। मस्तिष्कीय क्रियाकलापों के आधार पर इसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है। तनाव सर्वप्रथम मस्तिष्क पर दबाव डालता है और एसिटील कोलाइन का स्राव बढ़ जाता है। इससे उद्विग्नता, अति उत्साह, चिंता व अनिद्रा जैसे विकार पैदा हो जाते हैं। यह अवस्था कुछ दिनों से कुछ महीनों तक चलती है। यदि यह स्थिति और लंबी हुई तो यह साइकोसोमेटिक अवस्था में परिवर्तित हो जाती है। इस अवधि में हाइपरटेंशन, कंपकंपी तथा हृदय की धड़कन बढ़ जाती है।
सोमेटिक फेज में कैटाकोलामाइंस अधिक स्रवित होता है। कैटाकोलामाइंस में तीन हार्मोन आते हैं, एडेनेलीन नार एड्रेनेलीन तथा डोपालीन। तनाव से इन हार्मोन के स्तर में वृध्दि हो जाती है। नशे का प्रयोग भी इनकी मात्रा को बढ़ा देता है। तनाव का प्रभाव मनुष्य ही नहीं पशुओं में भी देखा गया है। तनाव से प्रभावित पशुओं के मूत्र परीक्षण में एड्रेनेलीन की मात्रा 2 से 3 नानोग्राम प्रति मिनट तथा नार एड्रेनेलीन 6 से 10 नानोग्राम प्रति मिनट पाई गयी। सर्दी, गर्मी, दर्द आदि से उत्पन्न तनाव में नार एड्रेनेलीन का स्राव बढ़ जाता है। इससे पेशाब के समय जलन होती है। आर्गेनिक फेज, तनाव की अगली अवस्था है। इसमें तनाव शरीर की प्रतिरोधी क्षमता पर बहुत बुरा असर डालता है। तनाव इस अवस्था में आकर मधुमेह, अस्थमा तथा कोरोनरी रोग का रूप धारण कर लेता है। इस दौरान डोपालीन के बढ़ने से व्यवहार में भी गड़बड़ी पायी गयी है।
बाहरी परिस्थितियों की उपज
इसके अलावा भी अनेक ऐसे हार्मोन हैं, जो तनाव से सीधा संबंध रखते हैं। सिरोटीनिन मस्तिष्क की तीन क्रियाओं को संचालित करता है, निद्रा, अनुभव तथा तापमान। तनाव से इसका स्तर बढ़ जाता है। फलस्वरूप अनिद्रा, भूख काम लगना तथा शरीर के तापमान में वृध्दि हो जाने की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। हिस्टामीन शारीरिक विकास तथा प्रजनन में मुख्य भूमिका निभाता है। तनाव की अधिकता इसमें भी व्यक्तिक्रम डालती है। तनाव मुख्य रूप से श्रवणेद्रियों तथा आंखों के माध्यम से मस्तिष्क के सेरिब्रल कार्टेक्स तक पहुंचता है तथा वहां से समस्त शरीर में प्रसारित होता है। पेप्टिक अल्सर, गठिया, दिल का दौरा, मधुमेह आदि बीमारियां इसी के दुष्परिणाम हैं। द्वितीय विश्वयुध्द में युध्द प्रभावित क्षेत्रों में पेप्टिक अल्सर तथा हाइपरटेंशन की अधिकता पाई गयी थी। यह स्थिति बाढ़, भूकंप तथा अन्य प्राकृतिक प्रकोपों से प्रभावित प्रदेशों में भी देखी गयी है। इसके मूल में तनाव को ही जिम्मेदार माना गया है।
इस तरह की आपात परिस्थितियों में तनाव की अपरिहार्यता अपनी जगह है किन्तु जीवन की सामान्य स्थिति में भी तनाव को पूरी तरह बाहरी परिस्थितियों की उपज मानना, तनाव के उपचार के रहस्य से वंचित रह जाना है, क्योंकि तनाव पारिस्थितियों से अधिक मन:स्थिति पर निर्भर करता है। तनाव को बाहरी परिस्थितियों की उपज मानने के कारण ही हम प्राय: उसके उपचार के लिये दवाइयों पर निर्भर रहने की भूल करते हैं, जबकि कोई भी दवा तनाव से उत्पन्न बीमारी को ठीक करने में सफल नही हो सकती। तनाव से न्यूरान व हार्मोन तंत्र बुरी तरह से प्रभावित होता है। तनाव के उपचार के लिये ली गयी दवा, हार्मोन की अतिरिक्त मात्रा को तो नियंत्रित कर लेती है किन्तु ग्रंथि पूर्ववत् ही बनी रहती है और दवा का असर कम होते ही ग्रांथियां पुन: हार्मोन का अत्यधिक स्राव करने लगती हैं तथा रोगी की स्थिति और भी चिंतानजक हो जाती है। अत: तनाव का उपचार मात्र चिकित्सकीय औषधियों द्वारा संभव नहीं है। इसके लिये रोगी को स्वयं अपना चिकित्सक बनना होगा, तभी इसका प्रभावी उपचार हो सकेगा। और इसके लिये आवश्यक है, प्राकृतिक आहार एवं नियमित दिनचर्या, सदचिंतन एवं उदात्त भावनाएं। इसे अपनाकर व्यक्ति तनावजन्य विषाक्त परिस्थिति को क्रमश: तिरोहित करते हुए सुख-शांति से भरी-पूरी स्वर्णिम, परिस्थितियों का निर्माण कर सकता है।
परिस्थितियों से तालमेल जरूरी
इस संदर्भ में कुछ आधारभूत बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। हर व्यक्ति अपने विचारों व भावनाओं में जीता है। उसकी अपनी अच्छाइयां व बुराइयां होती हैं। इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिये कि कहीं हमारी बातों एवं व्यवहार से उसकी भावनाएं तो आहत नहीं हो रही हैं, विचारों को तो चोट नहीं पहुंच रही है। अगर ऐसा हुआ तो वातावरण तनाव के कसैलेपन से भर उठेगा और व्यक्ति तनवग्रस्त हो जायेगा। अत: हमारा व्यवहार ऐसा हो जो किसी के मर्म बिंदु को न छुए। बुराई को सार्वजनिक करने का तात्पर्य है- कीचड़ उछालना। बुराई को रोकने के लिये व्यक्ति को अकेले में प्रेमपूर्वक समझना चाहिये। इसी में इसका समाधान है। कहीं भी व्यक्तिगत तौर पर प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उलझना बुध्दिमानी नहीं है। परिस्थितियां अपनी जगह हैं और व्यक्ति अपनी जगह। परिस्थितियों से तालमेल एवं सामंजस्य बैठाकर आगे बढ़ने में ही समझदारी है। परिस्थिति से तालमेल न बैठा पाना ही तनाव को जन्म देता है। अत: इनसे पलायन नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण समझौता ही एकमात्र निदान है।
इस संदर्भ में व्यक्ति का दृढ़ मनोबल एवं सकारात्मक मनोभूमि अपनी निर्णायक भूमिका निभाती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दृढ़ मनोबल वाले व्यक्ति पर तनाव का प्रभाव अधिक नहीं होता है। 'स्ट्रेस एंड इट्स मैनेजमेंट बाई योगा' नामक सुविख्यात ग्रंथ में के.एन. उडुप्पा, तनावमुक्ति के लिए विधेयात्मक विचारों को अपनाने पर बल देते हैं। वे इसके लिये अनेक प्रकार की यौगिक क्रियाओं का भी सुझाव देते हैं। उडुप्पा ईश्वर पर आस्था को तनावमुक्ति का सर्वश्रेष्ठ व असरदार उपचार मानते हैं। इनका कहना है कि ईश्वर विश्वासी को तनाव स्पर्श नहीं करता है। यह सत्य है कि ईश्वर पर आस्था और विश्वास का मार्ग तनाव के तपते मरुस्थल से दूर शांति के प्रशांत समुद्र की ओर ले चलता है। ईश्वरनिष्ठ व्यक्ति विषम से विषम परिस्थिति में भी तनावरूपी व्याधि को पास फटकने नहीं देता। कबीरदास विपन्न आर्थिक स्थिति में भी अपनी फकीरी शान में मगन रहते थे। मीराबाई अनेक लांछनों एवं अत्याचारों के बावजूद अपने कृष्ण में लीन रहती थी। घोर पारिवारिक कलह के बीच भी तुकाराम की मस्ती में कोई कमी नहीं आती थी। क्रूस पर चढ़ने वाले ईसा, जहर का प्याला पीने वाले सुकरात को परमात्मा पर अगाध और प्रगाढ़ विश्वास था। उनको तनाव स्पर्श तक नहीं कर पाया था। वस्तुत: दाहक व दग्ध तनाव ईश्वर को प्रेमरूपी शीतल जल का स्पर्श पाते ही वाष्प बनकर उड़ जाता है। अत: व्यक्ति को नित्य आत्मबोध एवं तत्वबोध का चिंतन तथा भगवद् भजन करना चाहिये। शिथिलीकरण एवं प्राणायाम जैसी सरल यौगिक क्रियाओं का भी अनुसरण किया जाता है। इन्हीं उपायों से मन को शांत कर तनाव से मुक्त हो पाना संभव है। अत: ईश्वर के प्रति समर्पित भाव से जिया गया आस्था एवं श्रध्दापूर्ण जीवन और सामंजस्यपूर्ण व्यवहार ही तनावरूपी महाव्याधि के उपचार का एकमात्र प्रभावी उपाय है।
Sunday, October 31, 2010
बच्चों को तनावमुक्ति का परिवेश दें
मासूम चेहरे की उदासी दु:ख, तनाव तथा चिड़चिड़ेपन को प्रकट करती है। बच्चों के कोमल मन पर परिवेश का सीधा असर पड़ता है। घर आंगन में गूंजती बच्चों की किलकारी डर से चुप हो जाती है जिससे उनका मानसिक तनाव बढ़ता है।
बच्चों के मन पर घर के परिवेश का असर सदा ही बना रहता है और उनके विचारों को प्रभावित करता है। जहां पर पति-पत्नी नौकरी करते हैं, वे अपने बच्चों को बहुत कम समय दे पाते हैं। थके, हारे पति-पत्नी घर लौटते हैं तो वातावरण तनाव से परिपूर्ण होता है। इसी कारण आपसी कलह क्लेश झगड़े का रूप धारण कर लेता है जिसे बच्चे देखते हैं।
कुछ पिता ऐसे भी हैं जो दफ्तर से लौटते वक्त नशे में चूर होकर आते हैं। यदि बच्चे कॉपी, पेंसिल कुछ मांगते हैं उन्हें बदले में मारपीट मिलती है। ऐसे परिवेश में बच्चों की कोमल भावनाएं बहुत आहत होती हैं। यदि बच्चों के हंसने-खेलने पर रोक लगा दी जाये तो वे तनाव और घुटन भरे परिवेश में जीवन गुजारते हैं।
कुछ बच्चे माता-पिता की नियमित पिटाई को सहते हुए दब्बू एवं डरपोक बन जाते हैं। वे जीवन में सदा ही असफल होते जाते हैं। यदि बच्चों को हर समय प्रताड़ित किया जाता है तो वे सदा के लिए हीन भावना का शिकार हो जाते हैं। रिश्तेदारों एवं मित्रों के सामने लज्ज्ाित करना बच्चों में तनाव के रोग को जन्म देता है।
अक्सर तनावयुक्त बच्चे सहमे-सहमे से अलग ही बैठे नजर आयेंगे। कुछ बच्चे नाखूनों को डर के मारे चबाना शुरू कर देते हैं। देखने में आया है कि हाफपैंट में भी बच्चे पेशाब कर देते हैं। ऐसा ही दबाव किशोरावस्था में बना रहता है। बच्चों के मन में दूसरों की तारीफ सुनकर चिढ़ होती है। उनके आत्म सम्मान को ठेस लगती है। यदि उन्हें कोई प्रोत्साहित न करे तो वे सदा-सदा के लिए कुंठित भावना का शिकार हो जाते हैं। बच्चे ज्यादा काम और काम की बात सुनकर जिद्दी बन जाते हैं। वे काम से भी मन चुराने लगते हैं।
प्यार और दुलार के परिवेश से बच्चों को तनाव से मुक्त रखा जा सकता है। बच्चों को प्रोत्साहित करते रहें। उनकी योग्यता को बढ़ाने के लिए उनके काम की प्रशंसा करें। धन कमाने के साथ-साथ बच्चों का चरित्र निर्माण करने के सही समय को भी पहचानें।
बच्चों को दें ऐसा परिवेश
1) पति-पत्नी के झगड़ों से बच्चों को सदा दूर रखें। बच्चों में एक पक्ष की तरफदारी से तनाव बढ़ता है।
2) नशीले पदार्थों के सेवन करने की आदत को घर के परिवेश से दूर रखें। मारपीट की बुरी आदतों को त्याग कर अच्छे माता-पिता का दायित्व निभाएं।
3) बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखायी का परिवेश बनाएं।
4) माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी चिल्लाने की आदत को छोड़ दें। इससे बच्चों में डिप्रेशन एवं तनाव नहीं बढ़ेगा।
5) बच्चों को नियमित रूप से खेलने एवं हंसने का अवसर दें। दबाव के कारण बच्चों की बुध्दि का विकास नहीं होता।
6) बच्चों को झूठे वादे करके भ्रमित न करें।
7) दिन में एक समय अवश्य एक साथ भोजन करें
8) तनावपूर्ण वातावरण से कोई भी सुकून नहीं पा सकता।
बच्चों के मन पर घर के परिवेश का असर सदा ही बना रहता है और उनके विचारों को प्रभावित करता है। जहां पर पति-पत्नी नौकरी करते हैं, वे अपने बच्चों को बहुत कम समय दे पाते हैं। थके, हारे पति-पत्नी घर लौटते हैं तो वातावरण तनाव से परिपूर्ण होता है। इसी कारण आपसी कलह क्लेश झगड़े का रूप धारण कर लेता है जिसे बच्चे देखते हैं।
कुछ पिता ऐसे भी हैं जो दफ्तर से लौटते वक्त नशे में चूर होकर आते हैं। यदि बच्चे कॉपी, पेंसिल कुछ मांगते हैं उन्हें बदले में मारपीट मिलती है। ऐसे परिवेश में बच्चों की कोमल भावनाएं बहुत आहत होती हैं। यदि बच्चों के हंसने-खेलने पर रोक लगा दी जाये तो वे तनाव और घुटन भरे परिवेश में जीवन गुजारते हैं।
कुछ बच्चे माता-पिता की नियमित पिटाई को सहते हुए दब्बू एवं डरपोक बन जाते हैं। वे जीवन में सदा ही असफल होते जाते हैं। यदि बच्चों को हर समय प्रताड़ित किया जाता है तो वे सदा के लिए हीन भावना का शिकार हो जाते हैं। रिश्तेदारों एवं मित्रों के सामने लज्ज्ाित करना बच्चों में तनाव के रोग को जन्म देता है।
अक्सर तनावयुक्त बच्चे सहमे-सहमे से अलग ही बैठे नजर आयेंगे। कुछ बच्चे नाखूनों को डर के मारे चबाना शुरू कर देते हैं। देखने में आया है कि हाफपैंट में भी बच्चे पेशाब कर देते हैं। ऐसा ही दबाव किशोरावस्था में बना रहता है। बच्चों के मन में दूसरों की तारीफ सुनकर चिढ़ होती है। उनके आत्म सम्मान को ठेस लगती है। यदि उन्हें कोई प्रोत्साहित न करे तो वे सदा-सदा के लिए कुंठित भावना का शिकार हो जाते हैं। बच्चे ज्यादा काम और काम की बात सुनकर जिद्दी बन जाते हैं। वे काम से भी मन चुराने लगते हैं।
प्यार और दुलार के परिवेश से बच्चों को तनाव से मुक्त रखा जा सकता है। बच्चों को प्रोत्साहित करते रहें। उनकी योग्यता को बढ़ाने के लिए उनके काम की प्रशंसा करें। धन कमाने के साथ-साथ बच्चों का चरित्र निर्माण करने के सही समय को भी पहचानें।
बच्चों को दें ऐसा परिवेश
1) पति-पत्नी के झगड़ों से बच्चों को सदा दूर रखें। बच्चों में एक पक्ष की तरफदारी से तनाव बढ़ता है।
2) नशीले पदार्थों के सेवन करने की आदत को घर के परिवेश से दूर रखें। मारपीट की बुरी आदतों को त्याग कर अच्छे माता-पिता का दायित्व निभाएं।
3) बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखायी का परिवेश बनाएं।
4) माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी चिल्लाने की आदत को छोड़ दें। इससे बच्चों में डिप्रेशन एवं तनाव नहीं बढ़ेगा।
5) बच्चों को नियमित रूप से खेलने एवं हंसने का अवसर दें। दबाव के कारण बच्चों की बुध्दि का विकास नहीं होता।
6) बच्चों को झूठे वादे करके भ्रमित न करें।
7) दिन में एक समय अवश्य एक साथ भोजन करें
8) तनावपूर्ण वातावरण से कोई भी सुकून नहीं पा सकता।
Thursday, October 28, 2010
आत्महत्या से बचने के उपाय
आज के दौर की देन है डिप्रेशन या अवसाद जो लोगों को आत्मघात या आत्महत्या की तरफ ले जाता है। बच्चे, बड़े और बूढ़े, सभी उम्र के लोग आत्महत्या कर बैठते हैं जो सामाजिक और कानूनी अपराध माना जाता है।
बच्चों पर स्कूल और अध्ययन का बहुत बोझ होता है। गरीबी, असफलता,र् ईष्या और दुख आत्महत्या या डिप्रेशन की तरफ ले जाते हैं। गरीबी अकर्मण्यता से आती है, असफलता निकम्मेपन से आती है और दुख दुष्कर्मों से आते हैं।
बूढ़े लोग रोग एवं पश्चाताप या परिवार में परित्याग भाव या सेवा भाव की कमी के कारण आत्महत्या करते हैं। बहुएं ससुराल वालों से तंग आकर आत्मदाह करती है।
जो लोग आत्महत्या करते हैं, वे या तो दूसरों को मजा चखाने के लिए आत्महत्या करते हैं या सहानुभूति या सहायता पाने की इच्छा से आत्महत्या करते हैं। जब सहायता को कोई नहीं पहुंच पाता तो उतनी देर में काम तमाम हो जाता है।
एक होस्टल में एक छात्र को बहुत से मित्र तंग करते थे। एक बार उसने रस्सी गले में डालकर पंखे से लटककर मरना चाहा तो रस्सी टूट गयी। वह बच गया। दूसरों ने बचा लिया। दूसरी बार उसने दोबारा कोशिश की, तब वह सचमुच चल बसा।
एक पुत्र अपने पिता को होरो होण्डा लेने की जिद करता था। पिता अध्यापक थे। उनकी हैसियत नहीं थी कि बेटे की इच्छा पूरी कर सकें। एक दिन पुत्र ने पिता को धमकी दी कि वे उसकी इच्छा पूरी करें अन्यथा वह मिट्टी का तेल डालकर आत्मदाह कर लेगा। पिता की असहमति के कारण वह सचमुच अपने ऊपर तेल डालकर तीली लगा बैठा कि पिता बचा लेंगे लेकिन जब तक पिता सहायता करने पहुंचते, तब तक किस्सा तमाम हो गया।
दु:खी व्यक्ति प्राय: आत्महत्या से पहले कहते जरूर हैं, तेरी दुनियां में जीने से बेहतर है कि मर जाएं, 'ऐसे जीवन से मरना अच्छा' या वे पूछते फिरते हैं कि कितनी गोली खाने से आदमी मर जाता है। वह प्राय: एकाकी जीवन जीता है और सबसे नाता तोड़ने की कोशिश करता है। कई परिवारों का इतिहास होता है कि जीन या क्रोमोसोम्ज में आत्महत्या के लक्षण होते हैं। सभी सदस्य पागल होकर आत्महत्या से जीवन समाप्त कर लेते हैं।
भावुक लोग थोड़ी सी असफलता से विचलित होकर यह पग उठा लेते हैं और दुनिया से कूच कर जाते हैं।
शराबी या नशेड़ी भी अवसाद के कारण मरना पसंद कर लेते हैं। कर्ज लेकर मरने की खबरें प्राय: छपती रहती हैं। शादी के बाद दूसरी स्त्रियों से संबंध रखने वाले लोगों के पकड़े जाने पर उनको आत्महत्या का मार्ग सरल जान पड़ता है।
आत्महत्या का आवेग आने पर यदि रोगी मित्र या दूसरे व्यक्ति द्वारा बचा लिया जाता है तो वह उसकी ऐसे ऋणी हो जाता है जैसे किसी को एक भयंकर दुर्घटना से बचा लिया गया हो।
प्राय: लोग आत्महत्या करने से पहले संकेत जरूर दे देते हैं। बातों-बातों में लेकिन हर आत्महत्या करने वाला यह जरूर आशा रखता है कि वह बचा लिया जाए। यदि कोई समय पर नहीं पहुंचता तो उसे मजबूरन मरना पड़ता है। यह एक मानसिक आवेग है। कई लोग संभल जाते हैं और बच जाते हैं।
धनी व्यक्ति ज्यादा आत्महत्या करते पाए जाते हैं। धन का आना या जाना दोनों आत्मघात के कारण बन जाते हैं। कई बार आत्महत्या करना वंशानुगत होता है।
आत्महत्या से बचने के अचूक नुस्खे :-
* अपनी भूलों को मान जाइए। इनको दूर करें। घमंड का परित्याग करें। अपनी आलोचना स्वयं करें। दूसरों को सुख देकर अपने दुख भूल जाइये।
* यदि भाग्य में खटास मिले तो उसे मिठास में बदलें। अंधेरे को कोसने की बजाए एक दीया जला लें। दूसरों की नकल मत करें। जो है वहीं बने रहे। दिखावा मत करें।
* ईश्वर की नियामतों को याद रखें। जो आपके पास नहीं है, उसका रोना मत रोएं। जैसे के साथ-तैसा मत करें। क्षमाशील बनें।
* अपने दिमाग में आशावादी, साहस, स्वास्थ्य, शांति की विचार लहरियां आने दें। होनी से लड़िये मत। जो होना है, उसके लिये तैयार रहें। चिंता मत करें।
* आज की परिधि में जियें। कल परसों या बीते समय का रोना मत रोएं। अपने निर्णय खुद लें।
* ईश्वर में विश्वास रखें। उसने आपको धरती पर किसी विशेष कार्य को सम्पन्न करने को भेजा है। अपनी निष्क्रियता से निकम्मे मत बनें।
* झूठे सपने देखना छोड़ दें। समय और मन की शक्ति को पहचानें। जो भी कार्य करें, लगन व परिश्रम से।
* अच्छी व प्रेरणादायक पुस्तकें जरूर पढ़ें। घर में अच्छी पुस्तकों की लाइब्रेरी बनाए जिनसे आपको जीने की प्रेरणा मिलेगी।
* भाग्य के भरोसे मत बैठें। भाग्य नाम की वस्तु दुनिया में कमजोर और निकम्मे लोगों के लिये है। विवेक से काम लें। जोश में होश मत खोएं।
* धन का सदुपयोग करें। शादी-विवाह या व्यर्थ लेन-देन में पैसा व्यर्थ मत गवाएं। नशा छोड़ दें। नशा नाश कर देता है।
* विपक्षी का धैर्य, साहस, हिम्मत से मुकाबला करें। धन प्राप्त करने के गलत रास्ते मत अपनाएं। किसी की सम्पति पर नजर मत रखें। लोभ, लालच व चोरी मत करें।
* स्वयं खुश रहें और दूसरों को भी रखें। लड़ने वाली बातों और गुस्से से दूर रहें। राई का पहाड़ मत बनाए परन्तु पहाड़ की राई बना डालें। अपना दुखड़ा दूसरों के सामने मत रोएं। दूसरों के दुख में खुशी मत मनाएं।
* अंधविश्वासी मत बनें। दूसरों की गलत बातें मत मानें। ठीक को ठीक और गलत को गलत मान कर चलें। न दूसरों को धोखा दें, न ही खाएं। मूर्ख, दुष्ट, धोखेबाज एवं छली कपटी लोगों से दूर रहने की चेष्टा करें।
* ईश्वर ने हमें सुंदर शरीर दिया है। इसको स्वस्थ रखें। इसे चिंता, बीमारी से बचाएं। इसे नशे एवं कुसंगत से बचाएं। इसे अपनी क्षमता से दुनिया में अद्वितीय बनाए क्योंकि हर व्यक्ति विलक्षण है।
बच्चों पर स्कूल और अध्ययन का बहुत बोझ होता है। गरीबी, असफलता,र् ईष्या और दुख आत्महत्या या डिप्रेशन की तरफ ले जाते हैं। गरीबी अकर्मण्यता से आती है, असफलता निकम्मेपन से आती है और दुख दुष्कर्मों से आते हैं।
बूढ़े लोग रोग एवं पश्चाताप या परिवार में परित्याग भाव या सेवा भाव की कमी के कारण आत्महत्या करते हैं। बहुएं ससुराल वालों से तंग आकर आत्मदाह करती है।
जो लोग आत्महत्या करते हैं, वे या तो दूसरों को मजा चखाने के लिए आत्महत्या करते हैं या सहानुभूति या सहायता पाने की इच्छा से आत्महत्या करते हैं। जब सहायता को कोई नहीं पहुंच पाता तो उतनी देर में काम तमाम हो जाता है।
एक होस्टल में एक छात्र को बहुत से मित्र तंग करते थे। एक बार उसने रस्सी गले में डालकर पंखे से लटककर मरना चाहा तो रस्सी टूट गयी। वह बच गया। दूसरों ने बचा लिया। दूसरी बार उसने दोबारा कोशिश की, तब वह सचमुच चल बसा।
एक पुत्र अपने पिता को होरो होण्डा लेने की जिद करता था। पिता अध्यापक थे। उनकी हैसियत नहीं थी कि बेटे की इच्छा पूरी कर सकें। एक दिन पुत्र ने पिता को धमकी दी कि वे उसकी इच्छा पूरी करें अन्यथा वह मिट्टी का तेल डालकर आत्मदाह कर लेगा। पिता की असहमति के कारण वह सचमुच अपने ऊपर तेल डालकर तीली लगा बैठा कि पिता बचा लेंगे लेकिन जब तक पिता सहायता करने पहुंचते, तब तक किस्सा तमाम हो गया।
दु:खी व्यक्ति प्राय: आत्महत्या से पहले कहते जरूर हैं, तेरी दुनियां में जीने से बेहतर है कि मर जाएं, 'ऐसे जीवन से मरना अच्छा' या वे पूछते फिरते हैं कि कितनी गोली खाने से आदमी मर जाता है। वह प्राय: एकाकी जीवन जीता है और सबसे नाता तोड़ने की कोशिश करता है। कई परिवारों का इतिहास होता है कि जीन या क्रोमोसोम्ज में आत्महत्या के लक्षण होते हैं। सभी सदस्य पागल होकर आत्महत्या से जीवन समाप्त कर लेते हैं।
भावुक लोग थोड़ी सी असफलता से विचलित होकर यह पग उठा लेते हैं और दुनिया से कूच कर जाते हैं।
शराबी या नशेड़ी भी अवसाद के कारण मरना पसंद कर लेते हैं। कर्ज लेकर मरने की खबरें प्राय: छपती रहती हैं। शादी के बाद दूसरी स्त्रियों से संबंध रखने वाले लोगों के पकड़े जाने पर उनको आत्महत्या का मार्ग सरल जान पड़ता है।
आत्महत्या का आवेग आने पर यदि रोगी मित्र या दूसरे व्यक्ति द्वारा बचा लिया जाता है तो वह उसकी ऐसे ऋणी हो जाता है जैसे किसी को एक भयंकर दुर्घटना से बचा लिया गया हो।
प्राय: लोग आत्महत्या करने से पहले संकेत जरूर दे देते हैं। बातों-बातों में लेकिन हर आत्महत्या करने वाला यह जरूर आशा रखता है कि वह बचा लिया जाए। यदि कोई समय पर नहीं पहुंचता तो उसे मजबूरन मरना पड़ता है। यह एक मानसिक आवेग है। कई लोग संभल जाते हैं और बच जाते हैं।
धनी व्यक्ति ज्यादा आत्महत्या करते पाए जाते हैं। धन का आना या जाना दोनों आत्मघात के कारण बन जाते हैं। कई बार आत्महत्या करना वंशानुगत होता है।
आत्महत्या से बचने के अचूक नुस्खे :-
* अपनी भूलों को मान जाइए। इनको दूर करें। घमंड का परित्याग करें। अपनी आलोचना स्वयं करें। दूसरों को सुख देकर अपने दुख भूल जाइये।
* यदि भाग्य में खटास मिले तो उसे मिठास में बदलें। अंधेरे को कोसने की बजाए एक दीया जला लें। दूसरों की नकल मत करें। जो है वहीं बने रहे। दिखावा मत करें।
* ईश्वर की नियामतों को याद रखें। जो आपके पास नहीं है, उसका रोना मत रोएं। जैसे के साथ-तैसा मत करें। क्षमाशील बनें।
* अपने दिमाग में आशावादी, साहस, स्वास्थ्य, शांति की विचार लहरियां आने दें। होनी से लड़िये मत। जो होना है, उसके लिये तैयार रहें। चिंता मत करें।
* आज की परिधि में जियें। कल परसों या बीते समय का रोना मत रोएं। अपने निर्णय खुद लें।
* ईश्वर में विश्वास रखें। उसने आपको धरती पर किसी विशेष कार्य को सम्पन्न करने को भेजा है। अपनी निष्क्रियता से निकम्मे मत बनें।
* झूठे सपने देखना छोड़ दें। समय और मन की शक्ति को पहचानें। जो भी कार्य करें, लगन व परिश्रम से।
* अच्छी व प्रेरणादायक पुस्तकें जरूर पढ़ें। घर में अच्छी पुस्तकों की लाइब्रेरी बनाए जिनसे आपको जीने की प्रेरणा मिलेगी।
* भाग्य के भरोसे मत बैठें। भाग्य नाम की वस्तु दुनिया में कमजोर और निकम्मे लोगों के लिये है। विवेक से काम लें। जोश में होश मत खोएं।
* धन का सदुपयोग करें। शादी-विवाह या व्यर्थ लेन-देन में पैसा व्यर्थ मत गवाएं। नशा छोड़ दें। नशा नाश कर देता है।
* विपक्षी का धैर्य, साहस, हिम्मत से मुकाबला करें। धन प्राप्त करने के गलत रास्ते मत अपनाएं। किसी की सम्पति पर नजर मत रखें। लोभ, लालच व चोरी मत करें।
* स्वयं खुश रहें और दूसरों को भी रखें। लड़ने वाली बातों और गुस्से से दूर रहें। राई का पहाड़ मत बनाए परन्तु पहाड़ की राई बना डालें। अपना दुखड़ा दूसरों के सामने मत रोएं। दूसरों के दुख में खुशी मत मनाएं।
* अंधविश्वासी मत बनें। दूसरों की गलत बातें मत मानें। ठीक को ठीक और गलत को गलत मान कर चलें। न दूसरों को धोखा दें, न ही खाएं। मूर्ख, दुष्ट, धोखेबाज एवं छली कपटी लोगों से दूर रहने की चेष्टा करें।
* ईश्वर ने हमें सुंदर शरीर दिया है। इसको स्वस्थ रखें। इसे चिंता, बीमारी से बचाएं। इसे नशे एवं कुसंगत से बचाएं। इसे अपनी क्षमता से दुनिया में अद्वितीय बनाए क्योंकि हर व्यक्ति विलक्षण है।
Saturday, October 23, 2010
उदासी भगाने के राज जानें
जी हां, आशा जहां जीवन में आक्सीजन की तरह है, उदासी जानलेवा और दमघोटू लेकिन लोग हैं कि उदासी ही ओढ़े रहना चाहते हैं। जरा सी कोई समस्या हुई नहीं कि खुशियों के परिंदे हवा में उड़ जाते हैं।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि मन को हम ने इसी तरह ट्रेन्ड किया है। लेकिन जरा सोचिए, क्या यह जीवन बार-बार मिलेगा। कितना सुंदर कितना अद्भुत है यह संसार और मनुष्य जीवन एक करिश्मा ही तो है। खुशियां हमारे चारों ओर बिखरी हैं। बस समेटने की कला आनी चाहिए। मजे की बात यह है कि इनकी कोई कॉस्ट नहीं होती। ये मुफ्त मिलती हैं। न आपको फॉरेन टूर लगाने की जरूरत है, न डायमंड के लाखों के जेवरात खरीदने और इंपोर्टेंड बड़ी शानदार गाड़ियों में बैठकर पेट्रोल फूंकने की। ‘मैन इज ए सोशल एनीमल’ यह मानव जीवन का सच है। लोगों से इंटरएक्ट करके ही व्यक्तित्व पनपता है, संवरता है और संतुलित रहता है।
लोगों से संपर्क में रहें : अकेला व्यक्ति पागलपन की कगार पर पहुंच सकता है इसलिए सामाजिक बनें। किसी संस्था से जुड़ जाएं जहां आपको विभिन्न प्रकृति के लोग मिलेंगे। आपके पास करने को जब सोशल वर्क होगा तो यह आपका सेल्फ कॉनफिडेंस बढ़ाएगा और आपको संतुष्टि प्रदान करेगा।
मनुष्य की उपस्थिति मात्र में एक ऊष्मा होती है। इसका सेंक लें। इसके लिये आप किसी भी भीड़ भरे स्थान पर जा सकते हैं। किसी मंदिर, गुरुद्वारे या कहीं भीड़ भरे पार्क में बेंच पर आसन जमा लें या किसी खाली दुकान की ओट लेकर बैठ जाएं या अगर बैठ चौबारे जग का मुजरा देखने को मन तरस रहा है तो रेलवे स्टेशन सबसे बढ़िया जगह है। दौड़ते भागते लोग हों या परिवारों के साथ चादर पर लंबी ताने आराम करते या चाय सिप करते लोग हों, उन्हें देखते आपका बढ़िया मनोरंजन हो सकता है बशर्तें आपकी संवेदनाएं जीवित बची हों। खुश रहने का यह एक बढ़िया नुस्खा है।
लिखिए और स्वस्थ रहिए : लेखन ध्यान की तरह मस्तिष्क को स्थिरता प्रदान करता है। तनाव कम करता है। जिंदगी सतत संघर्ष है। राह में दुश्वारियां ज्यादा हैं। रिश्तों में मिठास कम, कड़वाहटें ज्यादा हैं मगर रिश्ते मिठास कम कड़वाहटें ज्यादा है मगर रिश्ते जिंदगी में अहम हैं। उनके बिना चल भी नहीं सकते। यही रिश्ते अक्सर तनाव का कारण बन जाते हैं।
आप किसी से अच्छा व्यवहार करती हैं लेकिन फिर भी वो जाने किन कुंठाओं, गलतफहमियों यार् ईष्या के कारण बेवजह आपको आहत करने पर तुला रहे तो आपकी नाराजगी जायज है लेकिन आप जानते हैं कि नाराजगी प्रगट करने से बात और बिगड़ जाएगी। ऐसे में आप क्या करें? अपनी छटपटाहट, बेचैनी नफरत जैसी नकारात्मक फीलिंग्स से कैसे निजात पाएं? सिंपल आप अपनी सारी कड़वाहट, शिकायतें, मलाल किसी कागज पर लिख डालें और पढ़कर तुरंत उसे नष्ट कर दें। ये फंडा आपको तुरंत राहत देगा। आप भार मुक्त महसूस करेंगे और कह उठेंगे व्हाट ए ग्रेट रिलीफ।
अटैक द आफर : कई बार हम लोगों को शिकायत करते सुनते हैं कि लोग उनके सीधेपन का फायदा उठाते हैं। अक्सर होता यह है कि कई लोगों को दूसरों को नीचा दिखाने में बहुत आनंद आता है या बेवजह आलोचना करना भी कइयों का शगल होता है।
अब ऐसे में कुछ निरीह प्राणी सफाई देते-देते थक जाते हैं। कंप्लेन और एक्सप्लेन का यह गेम एक्सप्लेन करने वाले पर कुछ ज्यादा भारी पड़ने लग जाता है। एक उक्ति है आक्रमण सुरक्षा की सबसे बड़ी नीति है। आप इसे मॉडिफाइड वे में अपनाएं।
आप आलोचना से त्रस्त होने, सफाई देने, डिफेंस मेकेनिज्म अपनाने के बजाय आलोचक से आलोचना की विवेचना करने को कहें। कारण बताओ नोटिस दें। निश्चय ही वह बगले झांकने लगेगा। अब तक उसका हौसला इसलिए बुलंद था कि आप सुरक्षात्मक रवैया अपना रहे थे यानी कि वो आपके सीधेपन का फायदा उठा रहा था। आप भी जरा टेढ़े होकर देखें।सामने वाला लाइन पर आ जाएग। अब आप के मन में भी न कोई दंश पलेगा, न कोई टीस आपको तकलीफ देगी।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि मन को हम ने इसी तरह ट्रेन्ड किया है। लेकिन जरा सोचिए, क्या यह जीवन बार-बार मिलेगा। कितना सुंदर कितना अद्भुत है यह संसार और मनुष्य जीवन एक करिश्मा ही तो है। खुशियां हमारे चारों ओर बिखरी हैं। बस समेटने की कला आनी चाहिए। मजे की बात यह है कि इनकी कोई कॉस्ट नहीं होती। ये मुफ्त मिलती हैं। न आपको फॉरेन टूर लगाने की जरूरत है, न डायमंड के लाखों के जेवरात खरीदने और इंपोर्टेंड बड़ी शानदार गाड़ियों में बैठकर पेट्रोल फूंकने की। ‘मैन इज ए सोशल एनीमल’ यह मानव जीवन का सच है। लोगों से इंटरएक्ट करके ही व्यक्तित्व पनपता है, संवरता है और संतुलित रहता है।
लोगों से संपर्क में रहें : अकेला व्यक्ति पागलपन की कगार पर पहुंच सकता है इसलिए सामाजिक बनें। किसी संस्था से जुड़ जाएं जहां आपको विभिन्न प्रकृति के लोग मिलेंगे। आपके पास करने को जब सोशल वर्क होगा तो यह आपका सेल्फ कॉनफिडेंस बढ़ाएगा और आपको संतुष्टि प्रदान करेगा।
मनुष्य की उपस्थिति मात्र में एक ऊष्मा होती है। इसका सेंक लें। इसके लिये आप किसी भी भीड़ भरे स्थान पर जा सकते हैं। किसी मंदिर, गुरुद्वारे या कहीं भीड़ भरे पार्क में बेंच पर आसन जमा लें या किसी खाली दुकान की ओट लेकर बैठ जाएं या अगर बैठ चौबारे जग का मुजरा देखने को मन तरस रहा है तो रेलवे स्टेशन सबसे बढ़िया जगह है। दौड़ते भागते लोग हों या परिवारों के साथ चादर पर लंबी ताने आराम करते या चाय सिप करते लोग हों, उन्हें देखते आपका बढ़िया मनोरंजन हो सकता है बशर्तें आपकी संवेदनाएं जीवित बची हों। खुश रहने का यह एक बढ़िया नुस्खा है।
लिखिए और स्वस्थ रहिए : लेखन ध्यान की तरह मस्तिष्क को स्थिरता प्रदान करता है। तनाव कम करता है। जिंदगी सतत संघर्ष है। राह में दुश्वारियां ज्यादा हैं। रिश्तों में मिठास कम, कड़वाहटें ज्यादा हैं मगर रिश्ते मिठास कम कड़वाहटें ज्यादा है मगर रिश्ते जिंदगी में अहम हैं। उनके बिना चल भी नहीं सकते। यही रिश्ते अक्सर तनाव का कारण बन जाते हैं।
आप किसी से अच्छा व्यवहार करती हैं लेकिन फिर भी वो जाने किन कुंठाओं, गलतफहमियों यार् ईष्या के कारण बेवजह आपको आहत करने पर तुला रहे तो आपकी नाराजगी जायज है लेकिन आप जानते हैं कि नाराजगी प्रगट करने से बात और बिगड़ जाएगी। ऐसे में आप क्या करें? अपनी छटपटाहट, बेचैनी नफरत जैसी नकारात्मक फीलिंग्स से कैसे निजात पाएं? सिंपल आप अपनी सारी कड़वाहट, शिकायतें, मलाल किसी कागज पर लिख डालें और पढ़कर तुरंत उसे नष्ट कर दें। ये फंडा आपको तुरंत राहत देगा। आप भार मुक्त महसूस करेंगे और कह उठेंगे व्हाट ए ग्रेट रिलीफ।
अटैक द आफर : कई बार हम लोगों को शिकायत करते सुनते हैं कि लोग उनके सीधेपन का फायदा उठाते हैं। अक्सर होता यह है कि कई लोगों को दूसरों को नीचा दिखाने में बहुत आनंद आता है या बेवजह आलोचना करना भी कइयों का शगल होता है।
अब ऐसे में कुछ निरीह प्राणी सफाई देते-देते थक जाते हैं। कंप्लेन और एक्सप्लेन का यह गेम एक्सप्लेन करने वाले पर कुछ ज्यादा भारी पड़ने लग जाता है। एक उक्ति है आक्रमण सुरक्षा की सबसे बड़ी नीति है। आप इसे मॉडिफाइड वे में अपनाएं।
आप आलोचना से त्रस्त होने, सफाई देने, डिफेंस मेकेनिज्म अपनाने के बजाय आलोचक से आलोचना की विवेचना करने को कहें। कारण बताओ नोटिस दें। निश्चय ही वह बगले झांकने लगेगा। अब तक उसका हौसला इसलिए बुलंद था कि आप सुरक्षात्मक रवैया अपना रहे थे यानी कि वो आपके सीधेपन का फायदा उठा रहा था। आप भी जरा टेढ़े होकर देखें।सामने वाला लाइन पर आ जाएग। अब आप के मन में भी न कोई दंश पलेगा, न कोई टीस आपको तकलीफ देगी।
Thursday, September 16, 2010
तनाव का आत्मीय इलाज है म्यूजिक थैरपी
क्या तनाव बढ़ता जा रहा है? अगर दवाओं के बिना कुछ राहत चाहते हैं तो कुछ संगीत सुनने का प्रयास कीजिए। अपनी जड़ों पर वापस लौटना इतना कूल कभी नहीं था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि तनाव से मुक्ति पाने के लिए बहुत लोग गैर-परम्परागत उपचारों का सहारा ले रहे हैं जैसे म्यूजिक थैरपी।तनाव दूर करने की सूची पर शायद संगीत को पहली वरीयता प्राप्त हो। लेकिन इस तथ्य को कम लोग जानते हैं कि इस विज्ञान आधारित थैरपी का वास्तव में बहुत अधिक प्रयोग किया जाता है। चाइल्ड बर्थ के दौरान दर्द से राहत देने से सेन्ट्रल नर्वस डिसआर्डर को ठीक करने तक सा रे गा मा का प्रयोग किया जाता है। शोधों से मालूम हुआ है कि विभिन्न साइक्रोमेटिक और सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम बीमारियों के उपचार में संगीत का इस्तेमाल किया जा सकता है। विशेषज्ञों ने संगीत का प्रयोग ट्रेन्कुलाइजर के रूप में किया है ताकि सिडेटिव्स का प्रयोग कम या पूरी तरह से समाप्त किया जा सके और खासकर ओटिज्म क्लीनिकल डिप्रेशन, ब्लड प्रेशर और हृदय रोग की स्थितियों में। गंभीर बीमारियों के अलावा म्यूजिक थैरपी कम्युनिकेशन क्षमता और आत्मविश्वास विकसित करने में भी मदद करती है, खासकर बच्चों में। कुछ विशेषज्ञों ने ध्यान और शास्त्रीय संगीत का गठबंधन बनाया है ताकि तन और आत्मा की बुलंदियों पर पहुंचा जा सके। इसे सुचारू ढंग से प्रयोग करने के लिए भारत में अब तक 8000 छात्र इसकी ट्रेनिंग ले चुके हैं। प्राचीन सोच यह है कि खुश रहने के लिए मानव जीवन के सभी सात चक्र ट्यून्ड रहें। यह चक्र हैं- महत्वाकांक्षा, उत्तेजना, प्रेम, अच्छे संबंध, उत्साह, फोकस और अध्यात्म। ध्यान व संगीत थैरपी कार्यक्रम में इन्हीं चक्रों को ट्यून करना सिखाया जाता है। दिल्ली की फरजाना समीन बताती हैं, ‘म्युजिक थैरपी सत्र के शुरूआत में मेरा ऑटिस्टिक बेटा बिल्कुल सहयोग नहीं करता था। लेकिन उसके टीचर ने उसकी मदद की और अब उसका आत्मविश्वास काफी हद तक बढ़ गया है। वह संगीत को तनाव दूर करने के लिए इस्तेमाल करता है। आज वह इतना इन्टरैक्टिव हो गया है कि उसने बिना घबराहट व झिझक के स्टेज पर भी परफार्म करना शुरू कर दिया है।’ ओक्युपेशनल थैरपिस्ट और आटिस्टिक बच्चों के लिए विशेष स्कूल की संस्थापिका रिशा घूलप को विश्वास हो गया है कि जो आटिस्टिक बच्चे म्युजिक थैरपी से गुजरते हैं वह अधिक सतर्क और इंटरैक्टिव हो जाते हैं उन बच्चों की तुलना में जो म्युजिक थैरपी नहीं करते।
Sunday, September 12, 2010
मोह के बंधन मत बढ़ाइये
विश्व की विभिन्न वस्तुओं का मोह आत्मा को कैद कर लेता है। मनुष्य की छोटी-छोटी वस्तुओं में मनोवृत्ति संलग्न बनी रहती है। जितना अधिक मोह, उतना ही अधिक बंधन, उतनी ही अधिक मानसिक अशांति। विश्व की चमक-दमक में जितना विलीन होंगे, उतना ही आत्मबल गुप्त होता जाएगा।
एक सन्त विश्व से वैराग्य लेकर, संसार की सम्पूर्ण माया-ममता का बंधन तोड़कर, संन्यास लेकर वन में तप हेतु चले गए। विश्व का परित्याग कर निरन्तर साधना में लीन हो गए। साधना करते-करते अनेकानेक वर्ष बीत गए। मन पर संयम तथा उन्नत वृत्तियों पर शासन करने लगे। एक दिन क्या देखते हैं कि उनके आश्रम में दो सौ फुट की दूरी पर जानवरों का झुण्ड हरी घास चरने आ रहा है। इतने में एक भेड़िया आक्रमण करके झुण्ड से एक बकरी ले भागा। उस बकरी का बच्चा छूट गया। सन्त महोदय को दया आ गई, वे उस बकरी के बच्चे को उठा लाए। पालने लगे, उस बच्चे हेतु जल और हरी घास की व्यवस्था करने लगे। दो महीने में ही मेमने का स्वास्थ्य बनने लगा। मोह-ममता गहरी होने लगी। उस बकरी के बच्चे की छाया हेतु एक झोपड़ी का सन्त ने निर्माण किया। घास आदि की व्यवस्था की। तात्पर्य यह कि जिस विश्व को छोड़कर सन्तजी घर से चले गए थे मोहवश फिर उसी भवसागर में फंस गए। उनकी आत्मा बकरी के बच्चे में तल्लीन हो गई।
व्यक्ति का मोह घर, वैभव-विलास, पुत्र-पुत्री तथा छोटी-छोटी अनेक वस्तुओं के प्रति होता है। यही मोहवश है। जब उनकी किसी चीज को किसी तरह की हानि मिलती है या किसी स्वार्थ पर चोट आती है, तब आत्मा को कष्ट मिलता है। मन की शान्ति भंग हो जाती है। व्यक्ति भीतर ही भीतर कष्ट का अनुभव करने लगता है। पुत्र का मोह व्यक्ति की आत्मा का सबसे बड़ा बंधन है। परिवार में किसी को कुछ हो जाये तो आपका मन दु:ख से भर जाता है। पुत्र से आप कुछ आशा करते हैं, पूरी न होने पर आपको पीड़ा होती है।
आपके पास एक घर है परन्तु आप एक फ्लैट और खरीदना चाहते हैं। यही नया बंधन है। आवश्यकता से अधिक कुछ भी रखना, विभिन्न प्रकार के शौक, धन की तृष्णा, फैशनपरस्ती, भोग-विलास की अतृप्त कामना ही आत्मा के बंधन हैं। इनमें से प्रत्येक वस्तु में बंधकर मनुष्य फड़फड़ाया करता है। आपको बांधे हुए हैं। जब कभी आपका मन शान्ति का लाभ उठाना चाहते हैं, तब इनमें से कोई भोग-पदार्थ आपको खींचकर पुन: पहले वाली स्थिति में ला पटकता है।
उदाहरण के लिए, आप घर पर एक कुत्ता पाल लेते हैं। एक प्राणी का परिवार में आगमन आत्मा पर एक नवीन बंधन होगा। उसके स्वास्थ्य, भोजन, आवास, हर्ष-विषाद की अनेक चिन्ताएं आपको जकड़ लेंगी। परिवार में पला हुआ प्रत्येक जीव आपकी आत्मा को जकड़ कर रखता है। आपके परिवार का प्रत्येक सदस्य आपसे एक प्राकर से बंधा है। यही ऋण-बंधन है। विलास की वस्तुएं, जिनके एक दिन न होने से आप दु:ख का अनुभव करते हैं, आपका बंधन है। मादक द्रव्य जैसे शराब सुरा, तम्बाकू, सिगरेट, पान-मसाला, काफी-चाय आदि वस्तुएं, जिनसे आप बंधे हैं, आपको आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने नहीं देते। आपका प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक उत्तरदायित्व आप पर बंधन स्वरूप होकर आता है। यदि आपको बढ़िया परिधान व कीमती कपड़े पहनने का व्यसन है तो इनकी अनुपलब्धता में आप अपने मन की शान्ति भंग कर लेंगे। यदि किसी दिन सामान्य भोजन प्राप्त हुआ और आप नाक-भौं सिकोड़ने लगे तो यह भी मन की शान्ति को भंग करने वाला है। दो-चार दिन के लिए भी आपको साधारण घर, कुटी या धर्मशाला में रहना पड़े तो आप बिगड़ ही उठते हैं।
यह सब इसलिए है कि आपने विविध रूपों से अपने आपको कृत्रिमताओं से बांध लिया है। आत्मतत्व को खो दिया है। आप आवश्यकता से ज्यादा सांसारिक वस्तुओं में लिप्त हैं। अपनी आत्मा के प्रति ईमानदारी से व्यवहार नहीं करते हैं। आपका सम्बन्ध विश्व की इन अस्थिर एवं क्षणिक सुख देने वाली वस्तुओं से नहीं हो सकता। आप उत्तम वस्त्रों में अपने जीवन के निरपेक्ष सत्य को नहीं भूल सकते। आप स्वतंत्र, संसार के क्षुद्र बंधनों से उन्मुक्त आत्मा हैं। आप वस्त्र नहीं, आभूषण नहीं, संसार के भोग-विलास नहीं, प्रत्युत सत्-चित्-आनन्द स्वरूप आत्मा हैं। आपका निकट संबंध आदि स्रोत परम-परमात्मा से है। उसी सत्ता में विलीन होने से आत्मसंतोष प्राप्त होता है। आपके जो संबंध अपने संसार में बंधे हुए हैं, वे दु:ख स्वरूप हैं। मृत्यु से जो आपको भय प्रतीत होता है, उसका कारण यही सांसारिक मोह है। माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि कोई भी संबंधी आपके साथ हमेशा नहीं रह सकता। यह बाहरी बंधन है। सबसे उत्तम मार्ग तो यह है कि इनमें रहते हुए भी सदा अपने आपको अलग समझा जाए। जैसे कमल जल में रहते हुए भी सदा जल से पृथक रहता है, उसी प्रकार सांसारिक बंधनों में रहते हुए, गृहस्थ केर् कत्तव्यों का पालन करते हुए भी सदैव अपने आपको विश्व से पृथक देखिए।
एक सन्त विश्व से वैराग्य लेकर, संसार की सम्पूर्ण माया-ममता का बंधन तोड़कर, संन्यास लेकर वन में तप हेतु चले गए। विश्व का परित्याग कर निरन्तर साधना में लीन हो गए। साधना करते-करते अनेकानेक वर्ष बीत गए। मन पर संयम तथा उन्नत वृत्तियों पर शासन करने लगे। एक दिन क्या देखते हैं कि उनके आश्रम में दो सौ फुट की दूरी पर जानवरों का झुण्ड हरी घास चरने आ रहा है। इतने में एक भेड़िया आक्रमण करके झुण्ड से एक बकरी ले भागा। उस बकरी का बच्चा छूट गया। सन्त महोदय को दया आ गई, वे उस बकरी के बच्चे को उठा लाए। पालने लगे, उस बच्चे हेतु जल और हरी घास की व्यवस्था करने लगे। दो महीने में ही मेमने का स्वास्थ्य बनने लगा। मोह-ममता गहरी होने लगी। उस बकरी के बच्चे की छाया हेतु एक झोपड़ी का सन्त ने निर्माण किया। घास आदि की व्यवस्था की। तात्पर्य यह कि जिस विश्व को छोड़कर सन्तजी घर से चले गए थे मोहवश फिर उसी भवसागर में फंस गए। उनकी आत्मा बकरी के बच्चे में तल्लीन हो गई।
व्यक्ति का मोह घर, वैभव-विलास, पुत्र-पुत्री तथा छोटी-छोटी अनेक वस्तुओं के प्रति होता है। यही मोहवश है। जब उनकी किसी चीज को किसी तरह की हानि मिलती है या किसी स्वार्थ पर चोट आती है, तब आत्मा को कष्ट मिलता है। मन की शान्ति भंग हो जाती है। व्यक्ति भीतर ही भीतर कष्ट का अनुभव करने लगता है। पुत्र का मोह व्यक्ति की आत्मा का सबसे बड़ा बंधन है। परिवार में किसी को कुछ हो जाये तो आपका मन दु:ख से भर जाता है। पुत्र से आप कुछ आशा करते हैं, पूरी न होने पर आपको पीड़ा होती है।
आपके पास एक घर है परन्तु आप एक फ्लैट और खरीदना चाहते हैं। यही नया बंधन है। आवश्यकता से अधिक कुछ भी रखना, विभिन्न प्रकार के शौक, धन की तृष्णा, फैशनपरस्ती, भोग-विलास की अतृप्त कामना ही आत्मा के बंधन हैं। इनमें से प्रत्येक वस्तु में बंधकर मनुष्य फड़फड़ाया करता है। आपको बांधे हुए हैं। जब कभी आपका मन शान्ति का लाभ उठाना चाहते हैं, तब इनमें से कोई भोग-पदार्थ आपको खींचकर पुन: पहले वाली स्थिति में ला पटकता है।
उदाहरण के लिए, आप घर पर एक कुत्ता पाल लेते हैं। एक प्राणी का परिवार में आगमन आत्मा पर एक नवीन बंधन होगा। उसके स्वास्थ्य, भोजन, आवास, हर्ष-विषाद की अनेक चिन्ताएं आपको जकड़ लेंगी। परिवार में पला हुआ प्रत्येक जीव आपकी आत्मा को जकड़ कर रखता है। आपके परिवार का प्रत्येक सदस्य आपसे एक प्राकर से बंधा है। यही ऋण-बंधन है। विलास की वस्तुएं, जिनके एक दिन न होने से आप दु:ख का अनुभव करते हैं, आपका बंधन है। मादक द्रव्य जैसे शराब सुरा, तम्बाकू, सिगरेट, पान-मसाला, काफी-चाय आदि वस्तुएं, जिनसे आप बंधे हैं, आपको आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने नहीं देते। आपका प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक उत्तरदायित्व आप पर बंधन स्वरूप होकर आता है। यदि आपको बढ़िया परिधान व कीमती कपड़े पहनने का व्यसन है तो इनकी अनुपलब्धता में आप अपने मन की शान्ति भंग कर लेंगे। यदि किसी दिन सामान्य भोजन प्राप्त हुआ और आप नाक-भौं सिकोड़ने लगे तो यह भी मन की शान्ति को भंग करने वाला है। दो-चार दिन के लिए भी आपको साधारण घर, कुटी या धर्मशाला में रहना पड़े तो आप बिगड़ ही उठते हैं।
यह सब इसलिए है कि आपने विविध रूपों से अपने आपको कृत्रिमताओं से बांध लिया है। आत्मतत्व को खो दिया है। आप आवश्यकता से ज्यादा सांसारिक वस्तुओं में लिप्त हैं। अपनी आत्मा के प्रति ईमानदारी से व्यवहार नहीं करते हैं। आपका सम्बन्ध विश्व की इन अस्थिर एवं क्षणिक सुख देने वाली वस्तुओं से नहीं हो सकता। आप उत्तम वस्त्रों में अपने जीवन के निरपेक्ष सत्य को नहीं भूल सकते। आप स्वतंत्र, संसार के क्षुद्र बंधनों से उन्मुक्त आत्मा हैं। आप वस्त्र नहीं, आभूषण नहीं, संसार के भोग-विलास नहीं, प्रत्युत सत्-चित्-आनन्द स्वरूप आत्मा हैं। आपका निकट संबंध आदि स्रोत परम-परमात्मा से है। उसी सत्ता में विलीन होने से आत्मसंतोष प्राप्त होता है। आपके जो संबंध अपने संसार में बंधे हुए हैं, वे दु:ख स्वरूप हैं। मृत्यु से जो आपको भय प्रतीत होता है, उसका कारण यही सांसारिक मोह है। माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि कोई भी संबंधी आपके साथ हमेशा नहीं रह सकता। यह बाहरी बंधन है। सबसे उत्तम मार्ग तो यह है कि इनमें रहते हुए भी सदा अपने आपको अलग समझा जाए। जैसे कमल जल में रहते हुए भी सदा जल से पृथक रहता है, उसी प्रकार सांसारिक बंधनों में रहते हुए, गृहस्थ केर् कत्तव्यों का पालन करते हुए भी सदैव अपने आपको विश्व से पृथक देखिए।
Wednesday, September 8, 2010
शांति चाहिये तो ध्यान लगाइये
काफी मानसिक कशमकश के बाद आखिरकार आपने तय किया कि शांति और तरोताजा के लिए बेहतरीन रास्ता ध्यान है। आप सुबह उठने का फैसला करते हैं ताकि रोता हुआ बच्चा, प्यारा जीवन साथी, शोर मचाने वाला पड़ोसी आदि आपके रंग में भंग डाल न सकें। आप अपने सबसे आरामदायक कपड़े पहनते हैं। एक शांत स्थान का चयन करते हैं और सही मुद्रा में बैठकर अमन व शांति की तलाश शुरू करना चाहते हैं। लेकिन आपको अहसास होता है कि ध्यान सही मुद्रा में शांति से एक जगह बैठने से कहीं बढ़कर है। कुछ चुनौतियां आपके सामने आ जाती हैं। उनका सामना करने के तरीके यह है :-सीधा नहीं बैठ सकतासाधु संत तो बिल्कुल सीधे बैठ सकते हैं। लेकिन हम जैसे साधारण लोगों के लिए प्रैक्टिस और अधिक प्रैक्टिस की आवश्यकता होती है, मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये। ऐसा विशेषज्ञों का मानना है। अगर आप दिलो-दिमाग लगाकर कुछ हासिल करना चाहते हैं तो सब कुछ मुमकिन है। लेकिन असल बात यह है कि शुरूआत करने वाले के लिये सीधा और स्थिर, वह भी लगातार बैठना असंभव है। व्यवहारिक तरीका यह है कि दीवार या पिलर का पहरा लिया जाये कम से कम शुरूआती दौर में। यदि ध्यान की शुरूआत कर रहे हों तो इस पर यह न सोचें कि पिलर के सहारे ऐसा करने से क्या फायदा?अनगिनत अटकाने वाली चीजेंइसमें शक नहीं कि मन भटकाने वाली अनेक चीजें मौजूद हैं। इस बात से हम भी सहमत हैं। इसलिये हमारा सुझाव है कि ध्यान सत्र सुबह के वक्त शुरू किया जाय। लेकिन अगर आपको सुबह नाश्ता तैयार करना हो, बच्चों को स्कूल और पति को दफ्तर भेजना हो तो सुबह के वक्त ध्यान लगाना कठिन है। जब तक घर काम खत्म होता है, बेहद थकान हो जाती है। अब अगर शाम को ध्यान लगायें तो पड़ोसी काफी या बतियाने के लिए बुला लेते हैं या टीवी पर कार्यक्रम अच्छा होता है।सुबह की जम्हाई…इसमें संयुक्त जम्हाइयां और ओह हो सुनाई दे रही हैं। सबेरे से हमारा मतलब सुबह 3 बजे नहीं है। अगर आप सोने वालों की बस्ती में रहते हैं तो सुबह 6 बजे ही ध्यान लगाने की शुरूआत में कोई बुराई नहीं है। जब एक बार घर में कोई उठ जाता है तो कुछ न कुछ काम लगा ही रहता है। सुबह सबेरे या देर शाम आदर्श समय है ध्यान लगाने के लिये।क्या ध्यान नींद के बराबर हैं?ध्यान से संबंधित यह सबसे आम गलतफहमी है। ध्यान अवसर है अपनी जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं का मूल्यांकन करने के लिये। कुछ लोग ध्यान लगाने में श्लोक व मंत्री पढ़ते हैं। साथ ही आप साधारण श्वांस एक्सरसाइज कर सकते हैं ताकि आपका सिस्टम नियमित रहें।सवाल यह है कि ध्यान लगाने पर इतना जोर क्यों लगाया जा रहा है? अगर तनाव, थकान आपको घेरे रखते हैं। तो इनसे बचने का आसान और प्रभावी तरीका ध्यान लगाना है। इसके अलावा ध्यान से मन, शरीर और आत्मा शांत रहती है। यही कारण पर्याप्त है ध्यान लगाने के लिये। क्या आप इस बात से सहमत नहीं हैं?
क्या आप सदैव तनावग्रस्त रहते हैं
आज के जीवन में किशोर हों या वयस्क, सभी का अक्सर तनाव से सामना होता है। तनाव के क्षण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। क्या स्वयं को हम तनावमुक्त कर सकते हैं? जी हां, सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर आप शांत भाव से उसके कारणों पर चिंतन-मनन करें तो।अपने किशोर होते बच्चे (पुत्र अथवा पुत्री) के आज्ञाकारी न होने पर आप स्वयं में संस्कारों की कमी मानें और सदैव यह प्रयास करें कि आप उनका जैसा व्यवहार अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार आप भी अपने बड़ों के प्रति करें। जो जैसा करता है उसे वैसा ही लौटकर मिलता है, यही जीवन का सत्य है। इसके साथ ही बच्चे और किशोर सदैव अपने बड़ों का अनुकरण करते हैं। वे परिवार में जैसा देखते हैं वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं।यदि आप अपने खराब स्वास्थ्य के प्रति निराश और तनावग्रस्त हैं तो नियमित आहार-विहार अपनाएं। निराशा के समय अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करें या मनपसंद संगीत सुनें।आर्थिक कष्ट होने पर अपने से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों पर नजर डालें कि उन्हें कितने कम साधन उपलब्ध हैं, फिर भी वे संतुष्ट हैं। ‘संतोषधन’ से बढ़कर जीवन में और कुछ भी नहीं है। यह हर व्यक्ति को तनावमुक्त रखता है। व्यापार में हानि या तो गलत निर्णय लेने पर होती है अथवा कर्मों का फल समझकर। अपने कार्यों को सही दिशा दें। अपने पारिवारिक कर्तव्यों को कभी न भूलें, इससे आप तनाव मुक्त रहेंगे।परीक्षा में तनावमुक्त रहने का सबसे बढ़िया उपाय है, वर्ष भर नियमित रूप से अध्ययन करते रहना।नौकरी न मिल पाने पर हताश, निराश और तनावग्रस्त रहने की बजाय अपनी कमियों की ओर देखें। निरंतर प्रयास जारी रखें और कड़ी मेहनत के साथ दृढ़ विश्वास रखें।अफसर या बॉस की नाराजगी पर शांत भाव से पहले अपनी गलतियों को समझें, ताकि भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति न होवे।जीवनसाथी से मनमुटाव की स्थिति में जो जैसा है, उसे उसी प्रकार स्वीकार करना सीखें। छोटी-छोटी बातों को तूल देकर ‘प्रतिष्ठा’ का प्रश्न न बनायें। मन मुटाव की स्थिति में भी वह आपको प्यार करते हैं, यह स्मरण रखें।मित्रों और संबंधियों द्वारा आपकी बात का समर्थन न किए जाने पर ध्यान रखें कि यह आवश्यक नहीं है कि जिस बात को आप सही समझते हैं, वह दूसरे को भी सही लगे ही। उनके न कहने पर आप तनावग्रस्त होकर अपने व्यवहार को प्रभावित न करें। शान्त रहकर सोचें।जब कभी आप तनावग्रस्त हों, दूसरों की गलतियों पर ध्यान देने की बजाय अपने में कमजोरियों को ढूंढने का प्रयास करें। ईश्वर में विश्वास बनाए रखें। असफलताओं और बुरे दिनों को सच्चाई से स्वीकारना सीखें। सदैव अच्छे के लिए प्रयास करें किंतु बुरे के लिए भी हमेशा तैयार रहें। दूसरों की भलाई के कार्य करते रहें और सभी की शुभकामनाएं साथ पाकर तनावमुक्त हो जाएं।बोलें तो मधुर और सकारात्मक बोलें वरना चुप रहकर सामने वाले को जीत लें। बोलने से पहले सोचें। स्थान के अनुरुप बोलें और उचित सम्बोधन कर बोलें। सरल भाषा व स्पष्ट उच्चारण से बोलें, संक्षिप्त बोलें। अच्छा वक्ता बनने से पूर्व अच्छा श्रोता बनें। आत्मप्रशंसा से बचें। स्ेहपूर्वक संवाद बनाये रखें, क्रोध न करें। बोलते समय सामने वाले की आंख से आंख मिलाकर बात करें, न कि सिर नीचा कर अपनी बात कहें।किसी के व्यक्तिगत मामले में दखल न दें।तटस्थ रहकर सबको जीता जा सकता है। ‘मौन’ सर्वश्रेष्ठ औषधि है, अत: बढ़ते तनाव में मौन धारण कर लें।
Wednesday, September 1, 2010
यदि बढ़ने लगे मानसिक तनाव
तकरीबन हर इंसान कोई-न-कोई जिम्मेदारी निभा रहा है, फिर चाहे वह जिम्मेदारी घर की हो या दफ्तर अथवा समाज या फिर देश की। लेकिन जो इन जिम्मेदारियों को एक बोझ समझकर ढोने लगते हैं, वे मानसिक दबाव में जिन्दगी गुजारते हैं, जिसके कारण उनके शरीर में विभिन्न रोग घर कर लेते हैं, जैसे रक्तचाप का बढ़ना, चिड़चिड़ापन, नकारात्मक नजरिया, गैस, कब्ज, अम्लपित्त इत्यादि।भटिण्डा से करुणा धारीवाल बताती हैं कि विवाह के कुछ दिनों बाद तक मेरे पति काम-धंधा करते थे लेकिन अब दो बच्चे होने के बाद वो कुछ नहीं करते बल्कि घरेलू सामान की ही बिक्री करके शराब के नशे में गलियों में घूमते हैं। सास-ससुर मुझे बोलते हैं कि तुम उसे समझाओ लेकिन वो हैं कि कुछ मानने, समझने को तैयार ही नहीं। घरेलू परेशानियों के कारण मेरा रक्तचाप अक्सर घट जाता है, यहां तक कि कभी-कभी तो मैं बेहोश भी हो जाती हूं।अधिकांश लोग दूसरे के सुख को देखकर दुखी होते हैं। कुछ ही ऐसे लोग हैं, जो वास्तव में परेशान होते हैं, जिन्हें अपनी जिम्मेदारी का बोझ दबाता है। हमारे एक पड़ोसी हैं, जो अपने या अपने परिवार के बजाय दूसरों के बारे में ज्यादा बातें जानकर परेशानियां सिर पर लेकर घूमते हैं। उन्हें असमय कई बीमारियों ने घेर लिया। बात-बात में चिड़चिड़ापन इसी बात का प्रतीक है।निराशावादी स्त्री-पुरुष थोड़ा काम या जिम्मेदारी आ जाने पर घबरा जाते हैं। उसके बारे में सोच-सोचकर ही उनके हाथ-पैर फूलने लगते हैं। डर के मारे वे आशंकित हो जाते हैं। थोड़ी-सी परेशानी होने पर ही ज्योतिषियों, फकीरों एवं झाड़-फूक वालों के चक्कर में पड़ने लगते हैं। धागे, ताबीजों एवं पत्थर के टुकड़ों को हाथ अथवा गले में पहनकर उन्हें ‘सुरक्षा कवच’ समझकर अपने कर्तव्य मार्ग से विमुख हो जाते हैं और जब असफलता मिलती है तो परेशान हो उठते हैं।कुछ लोग झूठी शान-शौकत दिखाने के चक्कर में किश्तों में घरेलू सामान खरीदने के लिए अपनी आमदनी से ज्यादा कर्ज ले लेते हैं, जो आगे चलकर उनके लिए मानसिक तनाव का एक बहुत बड़ा कारण बनता है। फिजूल की पार्टियों में ऐश-आराम के शौक पालने के कारण भी तरह-तरह की नयी-नयी मुसीबतें सामने आती रहती हैं।बहरहाल, अगर आप चाहते हैं कि आप बेवजह मानसिक तनाव के शिकार न हों तो इसके लिए जरूरी है कि मानसिक तनाव से बचने के लिए यहां प्रस्तुत किये जा रहे कुछ कारगर उपायों पर एक नजर डाल लें और यथासंभव इन पर अमल करें-* छोटी-छोटी बातें हर घर में होती ही रहती हैं, इन्हें ज्यादा तूल न पकड़ने दें। यदि ऐसी बातें आपकी समझ से दूर है तो उनका बोझ अपने सिर पर रखकर मत घूमें।* बाह्य लोगों की बातों पर ध्यान न दें। उन्हें आपके परिवार की खुशी अच्छी नहीं लगती, इसलिए हो सकता है कि ऐसे लोग आपको बहकाकर आपके घर में तनाव पैदा कराकर खुशी महसूस करते हों।* जिम्मेदारियों का खुले दिल से स्वागत करें और उन्हें प्रेमपूर्वक खुशी-खुशी बखूबी निभाएं। इससे आपकी मानसिकता में भी सहज बदलाव आएगा।* प्रत्येक कार्य की शुरुआत उत्साहपूर्वक करें। हर कार्य को धैर्य और लग्न से पूरा करें तथा आशाजनक परिणामों का इंतजार करें।* यदि शरीर में कोई बीमारी घर कर ले तो बेवजह की चिन्ता पालने के बजाय इलाज के लिए किसी अच्छे चिकित्सक से सम्पर्क करें। आज तो कैंसर जैसी लाइलाज समझी जाने वाली गंभीर बीमारी का भी इलाज संभव हो गया है। चिन्ता करने से तो शरीर में कई अन्य रोग भी घर कर लेते हैं।
Monday, August 30, 2010
बढ़ती मानसिक बीमारियां, घटती खुशियां
खुशियां हाथ फैलाए आज भी हमारे ईर्द-गिर्द हैं, बस हमें ही उनसे हाथ मिलाना नहीं आता। ये खुशियां ही हैं जो जीवन खुशगवार बनाती हैं। यह जानते हुए भी अनजान बने हम फिजूल के काल्पनिक डर, गलतफहमियों, असंभव बातों, शेखचिल्ली जैसे ऊंचे ख्वाबों को लेकर कई तरह की मानसिक बीमारियां पाल लेते हैं।
समाज में ऐसे कई स्त्री-पुरुष, बच्चे मिल जाएंगे जो बाहरी रूप से नार्मल दिखते हैं, पढ़ाई में सुपर इंटेलिजेंट और कैरियर में तरक्की करने के बावजूद कई तरह के मानसिक रोग, कुंठाओं, एवनॉमेलिटीज से घिरे होते हैं।
ऐसी प्रॉब्लम से घिरे लोगों को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं। कई कहानियां लिखी गई हैं। पत्र-पत्रिकाओं के 'समस्या और सुझाव' कालमों में इनकी भरमार दर्शाती है कि कितने लोग मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। ट्रेजेडी तो यह है कि प्रॉपर काउंसिंलिंग या चिकित्सा के अभाव में गहरा डिप्रेशन होने या क्षणिक उन्माद में ऐस लोग आत्महत्या का प्रयत्न करते हैं और कभी बचा लिए जाते हैं मगर कभी नहीं भी। यह मानवीय जीवन की बर्बादी की इंतिहा होती है।
भारत में ही फिलहाल पन्द्रह करोड़ ऐसे लोग हैं, जिनको मनोचिकित्सा, काउंसिलिंग आदि की जरूरत है। इनमें दो करोड़ से ज्यादा ऐसे हैं, जिनको नशे की लत है। एक करोड़ से ज्यादा बच्चे मानसिक रूप से असंतुलित हैं। 30-40 आयु वर्ग में जो ऐसे लोग हैं, उनमें से 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों में आत्मघाती प्रवृत्ति है।
अनुमान यह है कि 2025 तक मानसिक रूप से असंतुलित सीनियर सिटीजंस की संख्या नौ करोड़ तक पहुंच जाएगी, क्योंकि जिस रफ्तार से उनमें अकेलापन, असुरक्षा, उनके उपेक्षा बढ़ी है, बुजुर्गों को इतना संत्रास देती है कि वह दिमागी संतुलन खो सकते हैं। उनका मनोबल तोड़ने, उन्हें हाशिये पर फेंकने में पूरा समाज जुट जाता है। आज का यही चलन देखने में आता है। उनकी खुशहाली सिर्फ विशफुल थिंकिंग बनकर रह जाती है।
उस पर दुखद पहलू यह है कि इलाज के लिए मनोचिकित्सकों की संख्या बहुत कम है। आज से एक दशक पूर्व प्रशिक्षित किए गए मनोचिकित्सकों की संख्या बहुत ही कम थी। आज भी क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की संख्या मात्र चार हजार है, जो कि रोगियों को देखते हुए बहुत कम है। शहरों में यह आलम है तो कस्बों, गांवों में हालत तो और भी चिंताजनक है।
मेंटल हॉस्पिटल में एक रोगी को रखन का खर्च प्रतिदिन 500 रुपए आता है, लेकिन इस संदर्भ में राष्ट्र प्रति व्यक्ति इसका आधा भी खर्च नहीं उठाता।
मेंटल हॉस्पिटलों में कुछ समय पूर्व तक 22000 बैंड थे, जबकि जापान जिसकी जनसंख्या हमसे छह गुना कम है, में दो लाख से ज्यादा बैड थे। सरकार को इस विषय में अतिरिक्त ध्यान देने की आवश्यकता है। यह रोग छूत की बीमारी की तरह फैलने लगा है। डिप्रेशन, तनाव, ड्रगएडिक्शन, आत्महत्या समाज का एक कड़वा सच बन गया है, जिसके लिए जागरूकता लानी होगी। दीर्घजीवन में बढ़ोत्तरी जरूर हुई है, लेकिन हम लाइफ में सिर्फ ईयर्स जोड़ रहे हैं, ईयर्स में लाइफ नहीं।मानसिक बीमारियों का निदान झाड़-फूंक, टोने-टोटके नहीं। न ये ऊपर की हवा या बुरी आत्माओं का प्रवेश जैसी अनर्गल बातें हैं, जिन्हें ओझा, तांत्रिक, बाबा, सूफी आदि ठीक करन का दावा करते हैं। आज जागरूकता बढ़ी है तो इस दिशा में भी लोगों में अवेयरनेस बढ़ी जरूर है। सरकार भी करोड़ों रुपए मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है, लेकिन अभी काफी कुछ अपेक्षित है। जीवन की शाम कैसे सुखद बीते? इसके लिए जहां व्यक्ति को खुद यह कला सीखनी होगी। समाज को भी साथ देना होगा। जनसाधारण की पहुंच आशावादी, प्रेरक, मनोरंजक, साहित्यिक सीरियल्स, मूवीज तक हो, ऐसी कोशिश होनी चाहिए।
समाज में ऐसे कई स्त्री-पुरुष, बच्चे मिल जाएंगे जो बाहरी रूप से नार्मल दिखते हैं, पढ़ाई में सुपर इंटेलिजेंट और कैरियर में तरक्की करने के बावजूद कई तरह के मानसिक रोग, कुंठाओं, एवनॉमेलिटीज से घिरे होते हैं।
ऐसी प्रॉब्लम से घिरे लोगों को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं। कई कहानियां लिखी गई हैं। पत्र-पत्रिकाओं के 'समस्या और सुझाव' कालमों में इनकी भरमार दर्शाती है कि कितने लोग मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। ट्रेजेडी तो यह है कि प्रॉपर काउंसिंलिंग या चिकित्सा के अभाव में गहरा डिप्रेशन होने या क्षणिक उन्माद में ऐस लोग आत्महत्या का प्रयत्न करते हैं और कभी बचा लिए जाते हैं मगर कभी नहीं भी। यह मानवीय जीवन की बर्बादी की इंतिहा होती है।
भारत में ही फिलहाल पन्द्रह करोड़ ऐसे लोग हैं, जिनको मनोचिकित्सा, काउंसिलिंग आदि की जरूरत है। इनमें दो करोड़ से ज्यादा ऐसे हैं, जिनको नशे की लत है। एक करोड़ से ज्यादा बच्चे मानसिक रूप से असंतुलित हैं। 30-40 आयु वर्ग में जो ऐसे लोग हैं, उनमें से 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों में आत्मघाती प्रवृत्ति है।
अनुमान यह है कि 2025 तक मानसिक रूप से असंतुलित सीनियर सिटीजंस की संख्या नौ करोड़ तक पहुंच जाएगी, क्योंकि जिस रफ्तार से उनमें अकेलापन, असुरक्षा, उनके उपेक्षा बढ़ी है, बुजुर्गों को इतना संत्रास देती है कि वह दिमागी संतुलन खो सकते हैं। उनका मनोबल तोड़ने, उन्हें हाशिये पर फेंकने में पूरा समाज जुट जाता है। आज का यही चलन देखने में आता है। उनकी खुशहाली सिर्फ विशफुल थिंकिंग बनकर रह जाती है।
उस पर दुखद पहलू यह है कि इलाज के लिए मनोचिकित्सकों की संख्या बहुत कम है। आज से एक दशक पूर्व प्रशिक्षित किए गए मनोचिकित्सकों की संख्या बहुत ही कम थी। आज भी क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की संख्या मात्र चार हजार है, जो कि रोगियों को देखते हुए बहुत कम है। शहरों में यह आलम है तो कस्बों, गांवों में हालत तो और भी चिंताजनक है।
मेंटल हॉस्पिटल में एक रोगी को रखन का खर्च प्रतिदिन 500 रुपए आता है, लेकिन इस संदर्भ में राष्ट्र प्रति व्यक्ति इसका आधा भी खर्च नहीं उठाता।
मेंटल हॉस्पिटलों में कुछ समय पूर्व तक 22000 बैंड थे, जबकि जापान जिसकी जनसंख्या हमसे छह गुना कम है, में दो लाख से ज्यादा बैड थे। सरकार को इस विषय में अतिरिक्त ध्यान देने की आवश्यकता है। यह रोग छूत की बीमारी की तरह फैलने लगा है। डिप्रेशन, तनाव, ड्रगएडिक्शन, आत्महत्या समाज का एक कड़वा सच बन गया है, जिसके लिए जागरूकता लानी होगी। दीर्घजीवन में बढ़ोत्तरी जरूर हुई है, लेकिन हम लाइफ में सिर्फ ईयर्स जोड़ रहे हैं, ईयर्स में लाइफ नहीं।मानसिक बीमारियों का निदान झाड़-फूंक, टोने-टोटके नहीं। न ये ऊपर की हवा या बुरी आत्माओं का प्रवेश जैसी अनर्गल बातें हैं, जिन्हें ओझा, तांत्रिक, बाबा, सूफी आदि ठीक करन का दावा करते हैं। आज जागरूकता बढ़ी है तो इस दिशा में भी लोगों में अवेयरनेस बढ़ी जरूर है। सरकार भी करोड़ों रुपए मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है, लेकिन अभी काफी कुछ अपेक्षित है। जीवन की शाम कैसे सुखद बीते? इसके लिए जहां व्यक्ति को खुद यह कला सीखनी होगी। समाज को भी साथ देना होगा। जनसाधारण की पहुंच आशावादी, प्रेरक, मनोरंजक, साहित्यिक सीरियल्स, मूवीज तक हो, ऐसी कोशिश होनी चाहिए।
Saturday, June 12, 2010
मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक
ईश्वर की रची इस सृष्टि में मानव एक अद्भुत प्राणी है, जो अपने बुध्दि-विवेक के कारण समाज का एक अभिन्न अंग है। सामाजिक परिवेश में मानवीय जीवन चक्र में परिस्थिति एवं वातावरण हर पल बदलता रहता है। यहां तक कि सिध्दांतों के मूल्यांकन व जीवन शैली में भी नित नया परिवर्तन आता रहता है। इसी कारण आजकल मनुष्य तनावग्रस्त रहने लगा है और अनेक मानसिक रोगों का शिकार रहने लगा है, जबकि प्रत्येक अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति में संतुलन बनाये रखना स्वस्थ मानसिकता का द्योतक है।
व्यक्ति कल्पना-लोक में विचरण न करके आत्मविश्वासी हो तथा हर हाल में यथार्थ के धरातल पर सूझ-बूझ से परिपूर्ण होकर रहें, किन्तु इसके विपरीत प्राय: देखने में यह आता है कि मनुष्य अपनी योग्यता, अपने कौशल को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है कि अपनी कमियों को नकार देता है, जिसका परिणाम प्राय: असफलता की ओर जाना और तनावग्रस्त होना है। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किशोर हो या वयस्क, प्रौढ़ हो या वृध्द, जीवन से संघर्षरत हैं। यहां तक कि आजकल शिशुओं का शैशव भी खो गया है। इस संसार में संघर्ष के विभिन्न रूप में जिसे व्यक्ति को जूझना पड़ता है। जिसके पास जितना है उसमें संतोष न कर अधिक और अधिक पाने की लालसा, भौतिक सुखों की अंधी दौड़, रातों रात अमीर बनने के सपने ने मनुष्य को इतना तनावपूर्ण कर दिया है कि उसमेंर् ईष्या, द्वेष, नैराश्य, क्रोध, दुख, चिंता, वैमनस्य, आक्रोश आदि मनोभावों का प्राचुर्य हो गया है जिससे नाना प्रकार के शारीरिक रोग अल्पायु से ही घेरने लगते हैं।
मन और शरीर का अटूट संबंध
मन और शरीर का अटूट संबंध है। मानसिक तनाव से शारीरिक रोग जैसे एसिटिडी, जोड़ों का दर्द रक्तचाप का बढ़ना, मलमूत्र में असंयमिता, भूख प्यास न लगना एवं विक्षप्तता के रोग हो जाते हैं।
मानव मन का अंत:करण से गहरा संबंध है, मन ही इंद्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अंत:करण से बाह्य वातावरण का संपर्क कराता है। अंत:करण के चार उपकरण है- मन, बुध्दि, चित्त एवं अहंकार। मन का काम है, संकल्प विकल्प करना, बुध्दि उन पर निर्णय देती है और चित द्वारा वह निर्णय आत्मा तक पहुंचता है। अहंकार के कारण संवेगों का प्रादुर्भाव होता है। मन की कार्यशाला मस्तिष्क है जो मनुष्य के व्यक्तित्व का तथा विचार तरंगों का प्रतिनिधित्व करता है। मन में जैसी विचारधाराएं उठती हैं शरीर पर उनका वैस ही प्रभाव पड़ता है। मन में विकृति आने पर जीवन लड़खड़ाने लगता है। जैसे क्रिया शक्ति में विकृति का अर्थ है शारीरिक रोग होना, ज्ञान शक्ति में विकृति का अर्थ है मनुष्य का अधर्मी होना तथा इच्छा शक्ति की विकृति का अर्थ है मानसिक रोग होना। वैसे तो तीनों शरीर अर्थात् आत्मा, मन, बुध्दि एक-दूसरे से संबंधित हैं मनुष्य में इच्छा शक्ति की प्रबलता सर्वोपरि तथा अति आवश्यक है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि शरीर और मन का बहुत गहरा संबंध है। यदि मन स्वस्थ है तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा। कहा भी गया है 'मन स्वस्थता की कुंजी है', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' मानव मन जैसा विचार करता है वैसी ही उसकी इच्छा शक्ति बनती जाती है, और वह वैसा ही अपने आपको महसूस करने लगता है। अन्वेषकों ने अनेक प्रयासों द्वारा यह सिध्द कर दिया कि यदि मनुष्य अपने शरीर में किसी रोग की कल्पना करने लगता है तो वास्तव में उस रोग के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। यदि वह दृढ़ इच्छ शक्ति से रोग के निदान के बारे में विचार करता है तो वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है। चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य में चालीस प्रतिशत रोग तो शरीर की व्याधि है, तथा साठ प्रतिशत रोग 'मन' के कारण होते हैं। वेद कहता है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात धर्म व कर्म के लिये शरीर में स्थित मन व मस्तिष्क के दिव्य भंडार को सुरक्षित रखो।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में चिकित्सकों ने मन की सत्ता को स्वीकार कर लिया है। विज्ञानवेत्ता इस बात पर शोध कर रहे हैं कि यदि मनुष्य के मन की इच्छा शक्ति दृढ़ है तो रोग प्रतिरोधक शक्ति मानव शरीर में किसी अभेद्य दुर्ग की भांति रक्षा करती है। डा.एरिक का मानना है कि यदि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर अधिक विकसित एवं उन्नत होता है तो विषैले जीवाणुओं का शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेदों में इसी सूक्ष्म शरीर के विकास के लिए प्राणायाम एवं योगविद्या को प्रभावी बताया गया है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं कि या सामाजिक बंधनों अथवा मर्यादाओं के कारण कुछ इच्छाएं दब जाती हैं। इनका निवारण चिकित्सा शास्त्र के साथ-साथ योग मनोविज्ञान एवं प्राणायाम के माध्यम से रोगी की मानसिक शक्ति को दृढ़ बना कर किया जाता है।
मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक
हमारा शरीर पंच तत्व अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश व जल से बना है। अग्नि तत्व से स्मरण शक्ति, दूरदर्शिता व तीव्र बुध्दि के प्रधानता रहती है। शरीर की चमक, उत्साह, उमंग, आशा इसी अग्नि तत्व से ही आती है। शरीर की बलिष्ठता, क्रियाशीलता तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति इसी अग्नि तत्व की प्रधानता से आती है, क्योंकि जितना हमारा मानस तत्व, मन का आत्मविश्वास एवं संकल्प दृढ़ होगा उतनी ही तीव्र हमारी इच्छा शक्ति होगी, उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें उतनी ही शीघ्रता से तथा गहराई से शरीर को सुरक्षित व निरोग करने लगती हैं। अपने को स्वस्थ रखने का जितना अधिक विश्वास एवं आस्था होगा उतना शीघ्र रोग दूर हो जायेगा। बड़े से बड़े रोग का कष्ट भी कम ही अनुभव होगा। इसका उत्कृष्ट उदाहरण सुधा चंद्रन है जो टांग कटने के बावजूद भी अपनी इच्छा शक्ति के बल पर उत्कृष्ट नृत्यांगना बन सकी। विश्वप्रसिध्द फुटबाल खिलाड़ी बैले ने, जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य फुटबाल खेलना था पैर में गैंगरीन हो जाने के कारण पैर काटने की सलाह को नहीं माना और इच्छा शक्ति के बल पर रोग ठीक करके विश्व प्रसिध्द खिलाड़ी बन गये।
इसी प्रकार अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगता है कि जब मन की शक्ति के आगे रोग गौण हो जाता है क्योंकि मन की तीव्रता का परिणाम यह होता है कि उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें रक्त शोधन कर शारीरिक शक्ति देती है। शरीर ईश्वरीय देन है, इसमें अस्थि मज्जा, रक्त, नाड़ियां, अंग-प्रत्यंग ईश्वर के अनुपम खजाने हैं जिनका संचालन अंत:करण के भाव संवेग से तथा मन की शक्ति से होता है। यह एक कटु सत्य है कि मनुष्य ने अपनी बुध्दि के बल पर संसार में एक से एक अजूबे तैयार कर लिये हैं, किन्तु जीवित मनुष्य बनाना उसके लिये संभव नहीं हो सका। इसलिए ईश्वर ने जहां शरीर दिया है वहीं उसके रोगों को नष्ट करने की शक्ति भी साथ-साथ दी है। प्रकृति ने हर जहरीली घास के पास ही उसकी प्रतिरोधी घास भी उत्पन्न की है, केवल आवश्यकता है उसे खोजने की।हमारा मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक है। आवश्यकता है अपने मन के साथ शरीर का सामंजस्य रखने की। इस मन को वश में रखने, आत्मविश्वास जागृत करने तथा इच्छाशक्ति को सबल बनाने के लिये वेदों में प्राणायाम, योग, ध्यान, जप, साधना, सात्विक आहार-विहार का ज्ञान दिया है। ईश्वर में विश्वास इस सबकी बड़ी शक्ति है। नियमित साधना भी मन की शक्ति को दृढ़ करती है। इसके लिये प्रतिदिन आंखे बंद करें मैं स्वस्थ हूं, 'मैं प्रसन्न हूं,''मैं प्रभु पर निश्चिंत हूं।' इसका पालन करें। मानव शरीर की यह विशेषता है कि वह जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है।
व्यक्ति कल्पना-लोक में विचरण न करके आत्मविश्वासी हो तथा हर हाल में यथार्थ के धरातल पर सूझ-बूझ से परिपूर्ण होकर रहें, किन्तु इसके विपरीत प्राय: देखने में यह आता है कि मनुष्य अपनी योग्यता, अपने कौशल को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है कि अपनी कमियों को नकार देता है, जिसका परिणाम प्राय: असफलता की ओर जाना और तनावग्रस्त होना है। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किशोर हो या वयस्क, प्रौढ़ हो या वृध्द, जीवन से संघर्षरत हैं। यहां तक कि आजकल शिशुओं का शैशव भी खो गया है। इस संसार में संघर्ष के विभिन्न रूप में जिसे व्यक्ति को जूझना पड़ता है। जिसके पास जितना है उसमें संतोष न कर अधिक और अधिक पाने की लालसा, भौतिक सुखों की अंधी दौड़, रातों रात अमीर बनने के सपने ने मनुष्य को इतना तनावपूर्ण कर दिया है कि उसमेंर् ईष्या, द्वेष, नैराश्य, क्रोध, दुख, चिंता, वैमनस्य, आक्रोश आदि मनोभावों का प्राचुर्य हो गया है जिससे नाना प्रकार के शारीरिक रोग अल्पायु से ही घेरने लगते हैं।
मन और शरीर का अटूट संबंध
मन और शरीर का अटूट संबंध है। मानसिक तनाव से शारीरिक रोग जैसे एसिटिडी, जोड़ों का दर्द रक्तचाप का बढ़ना, मलमूत्र में असंयमिता, भूख प्यास न लगना एवं विक्षप्तता के रोग हो जाते हैं।
मानव मन का अंत:करण से गहरा संबंध है, मन ही इंद्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अंत:करण से बाह्य वातावरण का संपर्क कराता है। अंत:करण के चार उपकरण है- मन, बुध्दि, चित्त एवं अहंकार। मन का काम है, संकल्प विकल्प करना, बुध्दि उन पर निर्णय देती है और चित द्वारा वह निर्णय आत्मा तक पहुंचता है। अहंकार के कारण संवेगों का प्रादुर्भाव होता है। मन की कार्यशाला मस्तिष्क है जो मनुष्य के व्यक्तित्व का तथा विचार तरंगों का प्रतिनिधित्व करता है। मन में जैसी विचारधाराएं उठती हैं शरीर पर उनका वैस ही प्रभाव पड़ता है। मन में विकृति आने पर जीवन लड़खड़ाने लगता है। जैसे क्रिया शक्ति में विकृति का अर्थ है शारीरिक रोग होना, ज्ञान शक्ति में विकृति का अर्थ है मनुष्य का अधर्मी होना तथा इच्छा शक्ति की विकृति का अर्थ है मानसिक रोग होना। वैसे तो तीनों शरीर अर्थात् आत्मा, मन, बुध्दि एक-दूसरे से संबंधित हैं मनुष्य में इच्छा शक्ति की प्रबलता सर्वोपरि तथा अति आवश्यक है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि शरीर और मन का बहुत गहरा संबंध है। यदि मन स्वस्थ है तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा। कहा भी गया है 'मन स्वस्थता की कुंजी है', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' मानव मन जैसा विचार करता है वैसी ही उसकी इच्छा शक्ति बनती जाती है, और वह वैसा ही अपने आपको महसूस करने लगता है। अन्वेषकों ने अनेक प्रयासों द्वारा यह सिध्द कर दिया कि यदि मनुष्य अपने शरीर में किसी रोग की कल्पना करने लगता है तो वास्तव में उस रोग के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। यदि वह दृढ़ इच्छ शक्ति से रोग के निदान के बारे में विचार करता है तो वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है। चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य में चालीस प्रतिशत रोग तो शरीर की व्याधि है, तथा साठ प्रतिशत रोग 'मन' के कारण होते हैं। वेद कहता है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात धर्म व कर्म के लिये शरीर में स्थित मन व मस्तिष्क के दिव्य भंडार को सुरक्षित रखो।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में चिकित्सकों ने मन की सत्ता को स्वीकार कर लिया है। विज्ञानवेत्ता इस बात पर शोध कर रहे हैं कि यदि मनुष्य के मन की इच्छा शक्ति दृढ़ है तो रोग प्रतिरोधक शक्ति मानव शरीर में किसी अभेद्य दुर्ग की भांति रक्षा करती है। डा.एरिक का मानना है कि यदि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर अधिक विकसित एवं उन्नत होता है तो विषैले जीवाणुओं का शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेदों में इसी सूक्ष्म शरीर के विकास के लिए प्राणायाम एवं योगविद्या को प्रभावी बताया गया है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं कि या सामाजिक बंधनों अथवा मर्यादाओं के कारण कुछ इच्छाएं दब जाती हैं। इनका निवारण चिकित्सा शास्त्र के साथ-साथ योग मनोविज्ञान एवं प्राणायाम के माध्यम से रोगी की मानसिक शक्ति को दृढ़ बना कर किया जाता है।
मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक
हमारा शरीर पंच तत्व अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश व जल से बना है। अग्नि तत्व से स्मरण शक्ति, दूरदर्शिता व तीव्र बुध्दि के प्रधानता रहती है। शरीर की चमक, उत्साह, उमंग, आशा इसी अग्नि तत्व से ही आती है। शरीर की बलिष्ठता, क्रियाशीलता तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति इसी अग्नि तत्व की प्रधानता से आती है, क्योंकि जितना हमारा मानस तत्व, मन का आत्मविश्वास एवं संकल्प दृढ़ होगा उतनी ही तीव्र हमारी इच्छा शक्ति होगी, उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें उतनी ही शीघ्रता से तथा गहराई से शरीर को सुरक्षित व निरोग करने लगती हैं। अपने को स्वस्थ रखने का जितना अधिक विश्वास एवं आस्था होगा उतना शीघ्र रोग दूर हो जायेगा। बड़े से बड़े रोग का कष्ट भी कम ही अनुभव होगा। इसका उत्कृष्ट उदाहरण सुधा चंद्रन है जो टांग कटने के बावजूद भी अपनी इच्छा शक्ति के बल पर उत्कृष्ट नृत्यांगना बन सकी। विश्वप्रसिध्द फुटबाल खिलाड़ी बैले ने, जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य फुटबाल खेलना था पैर में गैंगरीन हो जाने के कारण पैर काटने की सलाह को नहीं माना और इच्छा शक्ति के बल पर रोग ठीक करके विश्व प्रसिध्द खिलाड़ी बन गये।
इसी प्रकार अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगता है कि जब मन की शक्ति के आगे रोग गौण हो जाता है क्योंकि मन की तीव्रता का परिणाम यह होता है कि उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें रक्त शोधन कर शारीरिक शक्ति देती है। शरीर ईश्वरीय देन है, इसमें अस्थि मज्जा, रक्त, नाड़ियां, अंग-प्रत्यंग ईश्वर के अनुपम खजाने हैं जिनका संचालन अंत:करण के भाव संवेग से तथा मन की शक्ति से होता है। यह एक कटु सत्य है कि मनुष्य ने अपनी बुध्दि के बल पर संसार में एक से एक अजूबे तैयार कर लिये हैं, किन्तु जीवित मनुष्य बनाना उसके लिये संभव नहीं हो सका। इसलिए ईश्वर ने जहां शरीर दिया है वहीं उसके रोगों को नष्ट करने की शक्ति भी साथ-साथ दी है। प्रकृति ने हर जहरीली घास के पास ही उसकी प्रतिरोधी घास भी उत्पन्न की है, केवल आवश्यकता है उसे खोजने की।हमारा मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक है। आवश्यकता है अपने मन के साथ शरीर का सामंजस्य रखने की। इस मन को वश में रखने, आत्मविश्वास जागृत करने तथा इच्छाशक्ति को सबल बनाने के लिये वेदों में प्राणायाम, योग, ध्यान, जप, साधना, सात्विक आहार-विहार का ज्ञान दिया है। ईश्वर में विश्वास इस सबकी बड़ी शक्ति है। नियमित साधना भी मन की शक्ति को दृढ़ करती है। इसके लिये प्रतिदिन आंखे बंद करें मैं स्वस्थ हूं, 'मैं प्रसन्न हूं,''मैं प्रभु पर निश्चिंत हूं।' इसका पालन करें। मानव शरीर की यह विशेषता है कि वह जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है।
Tuesday, June 8, 2010
तनाव से कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है
कोलेस्ट्रॉल एक ऐसा रासायनिक यौगिक है जो धमनियों को अवरुध्द करने का कारण बनता है। यह शरीर के लिए अत्यंत आवश्यक भी है। मस्तिष्क के अंदर जो ठोस पदार्थ विद्यमान है, उसका 5 प्रतिशत अंश कोलेस्ट्रॉल है। यही पदार्थ स्त्री पुरुष हार्मोनों का जनक है। कोलेस्ट्रॉल शरीर में स्वत: निर्मित होता है तथा इसे आहार के माध्यम से भी सीधे ग्रहण किया जाता है। शरीर में कोलेस्ट्रॉल का अनुपात बढ़ जाने पर रक्त में भी इसका अनुपात बढ़ जाता है। बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल रक्त -नलिकाओं की दीवारों पर जमने लगता है। ऐसा होने पर रक्त प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। फलत: रक्त प्रवाह की गति मंद हो जाती है और फिर रक्त की मंद गति के कारण अधिक कोलेस्ट्रॉल दीवारों पर जमने लगता है।
भावनात्मक तनाव उत्पन्न होने पर रक्त में चर्बीयुक्त नलिकाओं की बीमारियों में उपरोक्त पदार्थ ही बीमारी का कारण बनते हैं। मन के तनावों से सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है और यह कुछ पदार्थों (कोटेकोलेमाइन) के स्राव को बढ़ाता देता है। सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम के उत्तेजित हो जाने के कारण चर्बी शरीर के टिशुओं से विलग होकर पूरे शरीर में भ्रमण करते हुए रक्त-प्रवाह में मिल जाती है। चर्बी शरीर का ईंधन है जो सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम के उद्वेग, उड़ान और उड़ान की प्रतिक्रिया (फ्लाइट, फाइट और रिएक्शन आफ फ्लाइट) की स्थिति में काम आती है। इस प्रकार चर्बी वास्तव में शरीर के लिए उपयोगी है। प्रतिदिन जब हमें तनाव सहने पड़ते हैं, उस समय इस चर्बी की खपत होती है। प्रतिदिन के कार्यों में इसका व्यय होता है, जिसके फलस्वरूप विषाक्त पदार्थ और इसका एकत्रीकरण नहीं हो पाता।
यदि हमारे तनाव जीर्ण हों अथवा काल्पनिक ही हों (वास्तव में अधिकांशत: तनाव अवास्तविक ही हुआ करते हैं) तब सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम वातावरण से अनुपयुक्त व न्यूरोटिक प्रकार के संवेदन ग्रहण करने लगता है। फलस्वरूप उच्च-रक्तचाप, अत्यधिक कोलेस्ट्रॉल मिश्रित रक्त, रक्त में उपस्थित पदार्थों में बढ़ी हुई चिपचिपाहट और एक बार थक्के बन जाने के बाद पुन: थक्के घुल न पाने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस प्रकार रक्त-नलिकाओं की व्याधियों को बढ़ावा मिलता है।
फ्राइडमैन और रोजमैन (टाइप ए बिहेवियर एंड युअर हार्ट, नोफ, एन.बाय. 1974) के अनुसार अधिकांश लोग जो अपने हृदय को लेकर कार्डियोलाजिस्टों के पास जाने वाले होते हैं, वे समाज में उच्च-पद या इसी तरह का कोई उतावलापन पाले रहते हैं। ऐसे लोगों के रक्त-प्रवाह में चर्बी का उच्च स्तर रहता है तथा एड्रैनेलिन जैसे तनाव-हार्मोन अधिक मात्रा में उपस्थित रहते हैं।
जब रक्त में चर्बी का स्तर 250 मिग्रा. कोलेस्ट्रॉल और 160 मिग्रा. ट्राइग्लिसेराइड के लिए खतरनाक स्थिति तक बढ़ जाता है तब दवायें देकर इस स्तर को कम करने का प्रयास किया जाता है। तथापि देखा गया है कि ये दवायें एक बार हृदय-दौरा शुरू होने के बाद कारगर नहीं होती हैं।
दवायें उन लोगों की मदद कर सकती हैं जिनका रोग अभी गहरी अवस्था में नहीं है। वस्तुत: हमें किसी ऐसे तरीके की आवश्यकता है जिससे किसी भी स्तर पर हृदय रोग को पूरी तरह ठीक किया जा सके।
देखा गया है कि शाकाहार रक्त की चर्बी को घटाने हेतु उत्तम है। मांसाहार रक्त चर्बी को बढ़ाता है। आहार नियंत्रण, दवायें, आसन, प्राणायाम और ध्यान इन सबके मिले-जुले उपचार से स्वास्थ्य-लाभ की संभावना बढ़ सकती है।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डा. उडुप्पा ने दर्शाया है कि श्वासन आसन- प्राणायाम से सामान्य व्यक्तियों में रक्त-कोलेस्ट्रॉल की मात्रा घटायी जा सकती है। के.एस. गोपाल ने देखा कि छह महीने तक नियमित रूप से यौगिक प्रशिक्षण देने के बाद उनके 55 प्रतिशत प्रशिक्षणार्थियों का रक्त-कोलेस्ट्रॉल कम हो गया था।
ध्यान और योग के शिथिलीकरण के अभ्यासों से तनाव, उच्च-रक्तचाप और दूसरे रोगों की उपस्थिति का उन्मूलन होता है। इन प्रभावों का कारण सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम की बढ़ी हुई क्रियाशीलता है और पैरासिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम की न्यून हुई क्रियाशीलता होती है। अभ्यासी को आक्सीजन की कम खपत, श्वास-प्रश्वास की घटी हुई गति, कार्डियक उत्पादन में कमी, हृदय गति में कमी, आर्टरियों के रक्त सेक्टेट की कमी का स्वत: अनुभव होने लगता है। साथ ही शांति और अच्छेपन का अनुभव भी होता है। यह अवस्था स्वस्थ हृदय की परिचायक है। इस समय व्याधि-ग्रस्त टिशु स्वास्थ्य-लाभ करने लगते हैं। इस प्रकार की विश्रांत अवस्था हृदय की आक्सीजन आवश्यकता को कम कर देती हैं। शरीर की फाइब्रीओलाइटिक-क्रियाशीलता अर्थात् रक्त के थक्कों के पुन: विलयन की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है। वास्तव में मन व शरीर को उस अवस्था तक चिंता व तनाव से मुक्त करना होता है कि रक्त के थक्के बने ही नहीं। ध्यान के अभ्यास से यह अवस्था प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि देखा गया है कि इससे सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम की क्रियाशीलता कम हो जाती है जो ऐसी परिस्थितियों के उत्पादक होते हैं।
शोधकर्ताओं ने अब अच्छी तरह पता लगा लिया है कि ध्यान से सीधे रक्त-चर्बी स्तर पर प्रभाव पड़ता है। ध्यान से सिरम कोलेस्ट्रॉल के स्तर को न्यून करने में मदद मिलती है तथा शिथिलीकरण अभ्यासों से उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर को कम किया जा सकता है।
Sunday, June 6, 2010
उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है मन पर अंकुश
अध्यात्म शास्त्रों में मन को ही बंधन और मोक्ष का कारण बताया गया है। मनोवेत्ता भी इस तथ्य से परिचित हैं कि मन में अभूतपूर्व गति, दिव्यशक्ति, तेजस्विता एवं नियंत्रण शक्ति है। इसकी सहायता से ही सभी कार्य होते हैं। मन के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता।
भूत, भविष्य और वर्तमान सभी मन में ही रहते हैं। ज्ञान, चिंतन, मनन, धैर्य आदि इसके कारण ही बन पड़ते हैं। शुध्द मन जहां अनेक दिव्य क्षमताओं का भांडागार है, वहीं अशुध्द या विकृत मन:स्थिति रोग, शोक एवं आधि व्याधि का कारण बनता है।
महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अनियंत्रित, अस्त-व्यस्त और भ्रांतियों में भटकते वाली मन:स्थिति को मानवी क्षमताओं के अपव्यय एवं भक्षण के लिए उत्तरदायी बताया है और इसे दिशा विशेष में नियोजित रखने का परामर्श भी दिया है। गीतकार ने भी मन को ही मनुष्य का मित्र एवं शत्रु ठहराया है और इसे भटकाव से उबारकर अपना भविष्य बनाने का परामर्श दिया है।
सुप्रसिध्द मनोविज्ञानी हेक ड्यूक ने अपनी पुस्तक-'माइंड एण्ड हेल्थ' में शरीर पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का सुविस्तृत पर्यवेक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि शरीर पर आहार के व्यतिक्रम का प्रभाव तो पड़ता ही है, अभाव व पोषक तत्वों की कमी भी अपनी प्रतिक्रिया छोड़ती है। काया पर सर्वाधिक प्रभाव व्यक्ति की अपनी मन:स्थिति का पड़ता है। यह प्रभाव-प्रतिक्रिया नाडीमंडल पर 36 प्रतिशत, अंत:स्रावी हार्मोन ग्रंथियों पर 56 प्रतिशत एवं मांसपेशियों पर 8 प्रतिशत पाई गई है।
आज की प्रचलित तमाम उपचार-विधियों-पैथियों एवं नवीनतम औषधियों के बावजूद अनेक प्रकार के रोगों की बाढ़-सी आयी हुई है। ऐसी परिस्थितियों में रोग निवारण का सबसे सस्ता एवं हानिरहित सुनिश्चित तरीका निर्धारण करना होगा। इसके लिए रोगोत्पत्ति के मूल कारण मन:स्थिति की गहन जांच-पड़ताल अपनाने पर ही रूग्णता पर विजय पायी जा सकती है।
अब समय आ गया है जब 'होप' अर्थात् आशा, 'फेथ' अर्थात् श्रध्दा, 'कॉन्फीडेंस' अर्थात् आत्मविश्वास, 'विल' अर्थात् इच्छाशक्ति एवं 'सजेशन' अर्थात् स्वसंकेत जैसे प्रयासों को स्वास्थ्य संवर्ध्दन के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। मन की अतल गहराई में प्रवेश करके दूषित तत्वों की खोजबीन करके, उन्हें बाहर करने में यही तत्व समर्थ हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
आज के वैज्ञानिकों ने काया के बाद बुध्दि को अधिक महत्व दिया है। बुध्दि मनुष्य की प्रतिभा-प्रखरता को निखारने, योग्यता बढ़ाने के काम आती है। प्रत्येक क्षेत्र में इसी का बोलबाला या वर्चस्व है। अभी तक मानवी व्यक्तित्व की इन दोनों स्थूल परतों-शरीर और बुध्दि को ही सर्वत्र महत्व मिलता रहा है। इन दोनों की अपेक्षा मन अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्ष रूप से इसकी भूमिका दिखाई नहीं पड़ने से अधिकांश व्यक्ति इसको महत्वहीन समझते हैं जबकि बुध्दि और शरीर दोनों ही मन के इशारे पर ही चलते हैं। इस तथ्य की पुष्टि अब अनुसंधानकर्ता, मनोवेत्ताओं ने भी की है कि बीमारियों की जड़ें शरीर में नहीं, मन में छिपी होती हैं।
पोषण अथवा आहार-विहार के संतुलन के अभाव में काया रूग्ण बन जाती है और अपनी शक्ति-सामर्थ्य गंवा बैठती हैं। इसी तरह वैचारिक खुराक न मिलने से बुध्दि कुंठित होती चली जाती है। अधिक से अधिक वे अपने 'जीवनशकट' को किसी तरह खींचने जितना सहयोग ही दे पाते हैं। उपेक्षा की प्रताड़ना मन को सबसे अधिक मिलती है। फलत: उसकी असीम संभावनाओं से भी मनुष्य जाति को वंचित रहना पड़ता है।
मनोबल, संकल्प बल, इच्छाशक्ति का प्रचण्ड सामर्थ्य आज के समय में बहुत कम लोगों में ही दिखाई देता है। अधिकांश व्यक्तियों से मन की प्रचण्ड क्षमता को न तो उभारते बनता है और न ही वे उसका लाभ ही उठा पाते हैं। मन को सशक्त बनाना, उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं संतुलित रखना भी कठिन हो जाता है। फलत: रूग्णता की स्थिति में वह विकृति आकांक्षाओं-इच्छाओं को ही जन्म देता है।
रूग्णमानस, रूग्ण समाज को ही जन्म देने वाला होता है। अगर मन रोगी हो तो काया भी अपना स्वास्थ्य अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख सकती। अनुसंधानकर्ता मूर्ध्दन्य मनोवैज्ञानियों ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए यह रहस्योद्धाटन किया है कि मन:संस्थान में कितने ही शारीरिक रोगों की जड़ें विद्यमान हैं। अगर मन का उपचार ठीक ढंग से किया जाये तो उन रोगों से भी मुक्ति मिल सकती है जिन्हें असाध्य एवं शारीरिक मूल का कभी ठीक न होने वाला रोग माना जाता रहा है।
रायल मेडिकल सोसायटी के चिकित्साविज्ञानी डा. ग्लॉस्टन का इस संदर्भ में कहना है कि शारीरिक रोगों के उपजने-बढ़ने से लेकर अच्छे होने या कष्टसाध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। मन को सशक्त एवं विधेयात्मक बनाकर कठिन से कठिन रोगों पर विजय पाई जा सकती है और दीर्घकालीन का आनन्द उठाया जा सकता है। विकृति मन:स्थिति मनुष्य को राक्षस या जिंदा लाश बनाकर छोड़ देती है। यह सब हमारी इच्छा-आकांक्षा एवं विचारणा पर निर्भर करता है कि हम स्वास्थ्य-समुन्नत बनें अथवा रूग्ण एवं हेय।रोगोत्पत्ति या रोगों के उतार-चढ़ाव में जितना गहरा संबंध शारीरिक कारणों अथवा परिस्थितियों का माना जाता है उससे कहीं अधिक गहरा प्रभाव मनोदशा का पड़ता है। यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो तो फिर रोगों की संभावना बहुत ही कम रह जाती है। आक्रमण करने पर भी रोग बहुत समय तक ठहर नहीं सकेंगे। मन की प्रगति या अवगति ही रूग्णता या निरोगता का मूल है। इस तथ्य को समझना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
भूत, भविष्य और वर्तमान सभी मन में ही रहते हैं। ज्ञान, चिंतन, मनन, धैर्य आदि इसके कारण ही बन पड़ते हैं। शुध्द मन जहां अनेक दिव्य क्षमताओं का भांडागार है, वहीं अशुध्द या विकृत मन:स्थिति रोग, शोक एवं आधि व्याधि का कारण बनता है।
महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अनियंत्रित, अस्त-व्यस्त और भ्रांतियों में भटकते वाली मन:स्थिति को मानवी क्षमताओं के अपव्यय एवं भक्षण के लिए उत्तरदायी बताया है और इसे दिशा विशेष में नियोजित रखने का परामर्श भी दिया है। गीतकार ने भी मन को ही मनुष्य का मित्र एवं शत्रु ठहराया है और इसे भटकाव से उबारकर अपना भविष्य बनाने का परामर्श दिया है।
सुप्रसिध्द मनोविज्ञानी हेक ड्यूक ने अपनी पुस्तक-'माइंड एण्ड हेल्थ' में शरीर पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का सुविस्तृत पर्यवेक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि शरीर पर आहार के व्यतिक्रम का प्रभाव तो पड़ता ही है, अभाव व पोषक तत्वों की कमी भी अपनी प्रतिक्रिया छोड़ती है। काया पर सर्वाधिक प्रभाव व्यक्ति की अपनी मन:स्थिति का पड़ता है। यह प्रभाव-प्रतिक्रिया नाडीमंडल पर 36 प्रतिशत, अंत:स्रावी हार्मोन ग्रंथियों पर 56 प्रतिशत एवं मांसपेशियों पर 8 प्रतिशत पाई गई है।
आज की प्रचलित तमाम उपचार-विधियों-पैथियों एवं नवीनतम औषधियों के बावजूद अनेक प्रकार के रोगों की बाढ़-सी आयी हुई है। ऐसी परिस्थितियों में रोग निवारण का सबसे सस्ता एवं हानिरहित सुनिश्चित तरीका निर्धारण करना होगा। इसके लिए रोगोत्पत्ति के मूल कारण मन:स्थिति की गहन जांच-पड़ताल अपनाने पर ही रूग्णता पर विजय पायी जा सकती है।
अब समय आ गया है जब 'होप' अर्थात् आशा, 'फेथ' अर्थात् श्रध्दा, 'कॉन्फीडेंस' अर्थात् आत्मविश्वास, 'विल' अर्थात् इच्छाशक्ति एवं 'सजेशन' अर्थात् स्वसंकेत जैसे प्रयासों को स्वास्थ्य संवर्ध्दन के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। मन की अतल गहराई में प्रवेश करके दूषित तत्वों की खोजबीन करके, उन्हें बाहर करने में यही तत्व समर्थ हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
आज के वैज्ञानिकों ने काया के बाद बुध्दि को अधिक महत्व दिया है। बुध्दि मनुष्य की प्रतिभा-प्रखरता को निखारने, योग्यता बढ़ाने के काम आती है। प्रत्येक क्षेत्र में इसी का बोलबाला या वर्चस्व है। अभी तक मानवी व्यक्तित्व की इन दोनों स्थूल परतों-शरीर और बुध्दि को ही सर्वत्र महत्व मिलता रहा है। इन दोनों की अपेक्षा मन अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्ष रूप से इसकी भूमिका दिखाई नहीं पड़ने से अधिकांश व्यक्ति इसको महत्वहीन समझते हैं जबकि बुध्दि और शरीर दोनों ही मन के इशारे पर ही चलते हैं। इस तथ्य की पुष्टि अब अनुसंधानकर्ता, मनोवेत्ताओं ने भी की है कि बीमारियों की जड़ें शरीर में नहीं, मन में छिपी होती हैं।
पोषण अथवा आहार-विहार के संतुलन के अभाव में काया रूग्ण बन जाती है और अपनी शक्ति-सामर्थ्य गंवा बैठती हैं। इसी तरह वैचारिक खुराक न मिलने से बुध्दि कुंठित होती चली जाती है। अधिक से अधिक वे अपने 'जीवनशकट' को किसी तरह खींचने जितना सहयोग ही दे पाते हैं। उपेक्षा की प्रताड़ना मन को सबसे अधिक मिलती है। फलत: उसकी असीम संभावनाओं से भी मनुष्य जाति को वंचित रहना पड़ता है।
मनोबल, संकल्प बल, इच्छाशक्ति का प्रचण्ड सामर्थ्य आज के समय में बहुत कम लोगों में ही दिखाई देता है। अधिकांश व्यक्तियों से मन की प्रचण्ड क्षमता को न तो उभारते बनता है और न ही वे उसका लाभ ही उठा पाते हैं। मन को सशक्त बनाना, उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं संतुलित रखना भी कठिन हो जाता है। फलत: रूग्णता की स्थिति में वह विकृति आकांक्षाओं-इच्छाओं को ही जन्म देता है।
रूग्णमानस, रूग्ण समाज को ही जन्म देने वाला होता है। अगर मन रोगी हो तो काया भी अपना स्वास्थ्य अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख सकती। अनुसंधानकर्ता मूर्ध्दन्य मनोवैज्ञानियों ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए यह रहस्योद्धाटन किया है कि मन:संस्थान में कितने ही शारीरिक रोगों की जड़ें विद्यमान हैं। अगर मन का उपचार ठीक ढंग से किया जाये तो उन रोगों से भी मुक्ति मिल सकती है जिन्हें असाध्य एवं शारीरिक मूल का कभी ठीक न होने वाला रोग माना जाता रहा है।
रायल मेडिकल सोसायटी के चिकित्साविज्ञानी डा. ग्लॉस्टन का इस संदर्भ में कहना है कि शारीरिक रोगों के उपजने-बढ़ने से लेकर अच्छे होने या कष्टसाध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। मन को सशक्त एवं विधेयात्मक बनाकर कठिन से कठिन रोगों पर विजय पाई जा सकती है और दीर्घकालीन का आनन्द उठाया जा सकता है। विकृति मन:स्थिति मनुष्य को राक्षस या जिंदा लाश बनाकर छोड़ देती है। यह सब हमारी इच्छा-आकांक्षा एवं विचारणा पर निर्भर करता है कि हम स्वास्थ्य-समुन्नत बनें अथवा रूग्ण एवं हेय।रोगोत्पत्ति या रोगों के उतार-चढ़ाव में जितना गहरा संबंध शारीरिक कारणों अथवा परिस्थितियों का माना जाता है उससे कहीं अधिक गहरा प्रभाव मनोदशा का पड़ता है। यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो तो फिर रोगों की संभावना बहुत ही कम रह जाती है। आक्रमण करने पर भी रोग बहुत समय तक ठहर नहीं सकेंगे। मन की प्रगति या अवगति ही रूग्णता या निरोगता का मूल है। इस तथ्य को समझना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
Saturday, June 5, 2010
वर्तमान युग में बढ़ता मानसिक तनाव
वर्तमान युग को भौतिकवाद का युग भी कहा जाता है। अतीत से लेकर अब तक मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधाएं पाने के लिए निरंतर प्रयास किए और उपलब्धियां हासिल कीं। एक कहावत है 'मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की'। इसी प्रकार जैसे मनुष्य सुविधाएं पाने के लिए लालायित होता गया और उन्हें पाने के लिए दुःखी होता रहा एवं तनावग्रस्त होता गया।
पिछले लगभग दो दशक से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने आम आदमी के जीवन में दखल देना शुरू किया। केवल टी.वी. के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को नई-नई सुख-सुविधाओं से अवगत कराया गया। यह मानव प्रकृति है कि वह हर संभव व असंभव सुविधाओं को पाने की लालसा करता है और अधिक सुविधा संपन्न होने के लिए स्वप्न देखने लगता है। अब चूंकि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएं अलग-अलग होती है अतः सुख-सुविधाएं वह अपनी क्षमता के अनुसार ही जुटा पाता है और जो सुविधाएं वह प्राप्त नहीं कर पाता उसके लिए मानसिक तनाव पाल लेता है।
केवल टी.वी. के माध्ययम से प्रसारित विज्ञापनों द्वारा जनता को लुभाने का प्रयास किया जाता है, विज्ञापनदाता का उद्देश्य अपने माल की बिक्री अधिक से अधिक बढ़ाना होता है। अतः जितना लुभावना विज्ञापन होगा, दर्शक अधिक से अधिक जेब खाली करने के लिए प्रेरित होगा। परंतु सीमित आय वाला व्यक्ति अपनी आर्थिक क्षमता से अधिक स्वप्न देखने लगता है और फिर अधिक धन कमाने की होड़ में शामिल हो जाता है। वह नैतिक या अनैतिक किसी भी तरह से धन अधिक इकट्ठा करने की योजना बनाता रहता है। अधिक समय देकर, अधिक काम कर अपने स्वप्न पूरा करने में व्यस्त हो जाता है परंतु जिस उद्देश्य को पूरा हो जाने पर संपूर्ण आनंद प्राप्ति की उम्मीद लगाए बैठा था, उस लक्ष्य को प्राप्त कर भी उसे इच्छित संतोष प्राप्त नहीं होता। क्योंकि लक्ष्य तक पहुंचते-पहुंचते उसके लक्ष्य की सीमा भी बढ़ जाती है। पहले लक्ष्य को पाने के उपरांत कोई नई इच्छा जाग्रत हो जाती है। वह चक्रव्यूह उसे जीवन भर बेचैन और तनावग्रस्त रखता है और मानसिक तनाव के कारण अनेक रोगों को आमंत्रित कर लेता है।
अतः इस भौतिकवादी युग में अपने को अनेक बीमारियों एवं परेशानियों से बचाने के लिए अपने भौतिक साधनों द्वारा अर्जित धन से ही स्वयं की संतुष्ट करना होगा तब ही हम सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। यह जान लेना आवश्यक है जैसे समुद्र की गहराई नापना असंभव है इसी प्रकार दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं जुटा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। किसी न किसी स्तर पर आकर तो संतोष करना ही होगा। उदाहरण के तौर पर यदि एक व्यक्ति अपना लक्ष्य दस लाख रुपए पाने का रखता है ओर येन-केन प्रकारेण किसी प्रकार जुटा लेता है तो उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने पर आत्मसंतोष हो जाना चाहिए परंतु होता बिल्कुल उल्टा हैं वह अधिक असंतुष्ट हो जाता है। क्योंकि वह एक करोड़पति के ठाठ देखकर अपने अंदर हीन भावना उत्पन्न कर लेता है और अपने सारे प्रयासों को निरर्थक मानने लगता है। इसी प्रकार करोड़पति, अरबपति की समृध्दि को देखकर अपन सुख-चैन खो देता है। इसी प्रकार जिसे ज्ञान पिपासा होती है वह अधिक से अधिक ज्ञानवान बनना चाहता है। जब वह अथक प्रयासों से कुछ डिग्रियां प्राप्त कर लेता है और अपने से अधिक डिग्रियां धारण किए हुए किसी को देखता है तो वह विचलित एवं तनावग्रस्त हो जाता है। यह स्थिति उसे बेचैन जीवन जीने को मजबूर करती है। क्योंकि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। अतः एक व्यक्ति अवांछित लाभों को पाने के लिए अपने जीवन के अमूल्य समय को कब तक नष्ट करता रहेगा? कहीं न कहीं संतोष करना आवश्यक है। उपरोक्त व्याख्या से यही निष्कर्ष निकलता है कि आवश्यक नित्य प्रयास करते हुए जितना प्राप्त कर सते हो, उसमें ही अपने को संतुष्ट रखने से ही सुख और आनंदित जीवन की प्राप्ति हो सकती है। हमें यह जीवन एक ही बार जीने को प्राप्त होता है। अतः उसे व्यर्थ की दौड़-धूप में शामिल कर बर्बाद नहीं करना चाहिए। कम सुविधाओं के बाद भी जीवन आनंद पूर्वक जिया जा सकता है।
पिछले लगभग दो दशक से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने आम आदमी के जीवन में दखल देना शुरू किया। केवल टी.वी. के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को नई-नई सुख-सुविधाओं से अवगत कराया गया। यह मानव प्रकृति है कि वह हर संभव व असंभव सुविधाओं को पाने की लालसा करता है और अधिक सुविधा संपन्न होने के लिए स्वप्न देखने लगता है। अब चूंकि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएं अलग-अलग होती है अतः सुख-सुविधाएं वह अपनी क्षमता के अनुसार ही जुटा पाता है और जो सुविधाएं वह प्राप्त नहीं कर पाता उसके लिए मानसिक तनाव पाल लेता है।
केवल टी.वी. के माध्ययम से प्रसारित विज्ञापनों द्वारा जनता को लुभाने का प्रयास किया जाता है, विज्ञापनदाता का उद्देश्य अपने माल की बिक्री अधिक से अधिक बढ़ाना होता है। अतः जितना लुभावना विज्ञापन होगा, दर्शक अधिक से अधिक जेब खाली करने के लिए प्रेरित होगा। परंतु सीमित आय वाला व्यक्ति अपनी आर्थिक क्षमता से अधिक स्वप्न देखने लगता है और फिर अधिक धन कमाने की होड़ में शामिल हो जाता है। वह नैतिक या अनैतिक किसी भी तरह से धन अधिक इकट्ठा करने की योजना बनाता रहता है। अधिक समय देकर, अधिक काम कर अपने स्वप्न पूरा करने में व्यस्त हो जाता है परंतु जिस उद्देश्य को पूरा हो जाने पर संपूर्ण आनंद प्राप्ति की उम्मीद लगाए बैठा था, उस लक्ष्य को प्राप्त कर भी उसे इच्छित संतोष प्राप्त नहीं होता। क्योंकि लक्ष्य तक पहुंचते-पहुंचते उसके लक्ष्य की सीमा भी बढ़ जाती है। पहले लक्ष्य को पाने के उपरांत कोई नई इच्छा जाग्रत हो जाती है। वह चक्रव्यूह उसे जीवन भर बेचैन और तनावग्रस्त रखता है और मानसिक तनाव के कारण अनेक रोगों को आमंत्रित कर लेता है।
अतः इस भौतिकवादी युग में अपने को अनेक बीमारियों एवं परेशानियों से बचाने के लिए अपने भौतिक साधनों द्वारा अर्जित धन से ही स्वयं की संतुष्ट करना होगा तब ही हम सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। यह जान लेना आवश्यक है जैसे समुद्र की गहराई नापना असंभव है इसी प्रकार दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं जुटा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। किसी न किसी स्तर पर आकर तो संतोष करना ही होगा। उदाहरण के तौर पर यदि एक व्यक्ति अपना लक्ष्य दस लाख रुपए पाने का रखता है ओर येन-केन प्रकारेण किसी प्रकार जुटा लेता है तो उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने पर आत्मसंतोष हो जाना चाहिए परंतु होता बिल्कुल उल्टा हैं वह अधिक असंतुष्ट हो जाता है। क्योंकि वह एक करोड़पति के ठाठ देखकर अपने अंदर हीन भावना उत्पन्न कर लेता है और अपने सारे प्रयासों को निरर्थक मानने लगता है। इसी प्रकार करोड़पति, अरबपति की समृध्दि को देखकर अपन सुख-चैन खो देता है। इसी प्रकार जिसे ज्ञान पिपासा होती है वह अधिक से अधिक ज्ञानवान बनना चाहता है। जब वह अथक प्रयासों से कुछ डिग्रियां प्राप्त कर लेता है और अपने से अधिक डिग्रियां धारण किए हुए किसी को देखता है तो वह विचलित एवं तनावग्रस्त हो जाता है। यह स्थिति उसे बेचैन जीवन जीने को मजबूर करती है। क्योंकि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। अतः एक व्यक्ति अवांछित लाभों को पाने के लिए अपने जीवन के अमूल्य समय को कब तक नष्ट करता रहेगा? कहीं न कहीं संतोष करना आवश्यक है। उपरोक्त व्याख्या से यही निष्कर्ष निकलता है कि आवश्यक नित्य प्रयास करते हुए जितना प्राप्त कर सते हो, उसमें ही अपने को संतुष्ट रखने से ही सुख और आनंदित जीवन की प्राप्ति हो सकती है। हमें यह जीवन एक ही बार जीने को प्राप्त होता है। अतः उसे व्यर्थ की दौड़-धूप में शामिल कर बर्बाद नहीं करना चाहिए। कम सुविधाओं के बाद भी जीवन आनंद पूर्वक जिया जा सकता है।
Tuesday, May 4, 2010
What is Major Depressive Disorder
Major depression is a common and serious medical illness affecting more than 13 million Americans, or approximately 6.6 percent of the population in a given year. Unlike the normal ups and downs of everyday life, Major Depression is persistent and can significantly interfere with an individual's thoughts, behavior, mood, and even physical health. Mental illness is the leading cause of disability in the U.S. often impairing social, academic and work functioning and causing significant emotional distress. Depression is the most predominant illness within the mental health arena.
Women are almost twice as likely as men to suffer from depression. However, some experts feel that depression in men is significantly under-reported. Major depression can occur at any age, including childhood, the teenage years and adulthood. Major depression has no racial, ethnic, or socioeconomic boundaries. About two-thirds of those who experience an episode of depression will have at least one other episode in their lives. It is not unusual for depression sufferers to have more than one episode in any given year.
Major depression, also known as unipolar depression, is only one type of depressive disorder. Other depressive disorders include dysthymia (a type of chronic depression) and bipolar depression (the depressed phase of bipolar disorder or manic depression). Individuals suffering from bipolar disorder experience both depression and mania in a cyclical fashion. Mania often involves abnormally and persistently elevated mood or irritability, elevated activity, grandiosity, rapid speech and racing thoughts.
Women are almost twice as likely as men to suffer from depression. However, some experts feel that depression in men is significantly under-reported. Major depression can occur at any age, including childhood, the teenage years and adulthood. Major depression has no racial, ethnic, or socioeconomic boundaries. About two-thirds of those who experience an episode of depression will have at least one other episode in their lives. It is not unusual for depression sufferers to have more than one episode in any given year.
Major depression, also known as unipolar depression, is only one type of depressive disorder. Other depressive disorders include dysthymia (a type of chronic depression) and bipolar depression (the depressed phase of bipolar disorder or manic depression). Individuals suffering from bipolar disorder experience both depression and mania in a cyclical fashion. Mania often involves abnormally and persistently elevated mood or irritability, elevated activity, grandiosity, rapid speech and racing thoughts.
Saturday, May 1, 2010
Causes of Major Depressive Disorder
Scientists have not yet determined the root cause of major depression. However, there is strong evidence there may be several contributors to the illness. Psychological, biological and environmental factors may all contribute to its development. Whatever the specific causes, research has firmly established that major depression is a biological brain disorder.
Serotonin, norepinephrine and dopamine are three neurotransmitters (chemical messengers that transmit electrical signals between brain cells) thought to be involved with major depression. Several theories attempting to explain depression are based on an imbalance of these chemical messengers. It is thought that most antidepressant medications work by increasing the availability of neurotransmitters or by changing the sensitivity of the receptors for these chemicals.
Scientists have also found evidence of a genetic predisposition to major depression. There is an increased risk for developing depression when there is a family history of the illness. Not everyone with a genetic predisposition develops depression, but some people probably have a biological make-up that leaves them particularly vulnerable to developing depression. Life events, such as the death of a loved one, chronic stress, and alcohol and drug abuse, may trigger episodes of depression. Some illnesses such as heart disease and cancer and some medications may also trigger a depressive episode. Often, however, depressive episodes occur spontaneously and are not triggered by a life crisis or physical illness.
Serotonin, norepinephrine and dopamine are three neurotransmitters (chemical messengers that transmit electrical signals between brain cells) thought to be involved with major depression. Several theories attempting to explain depression are based on an imbalance of these chemical messengers. It is thought that most antidepressant medications work by increasing the availability of neurotransmitters or by changing the sensitivity of the receptors for these chemicals.
Scientists have also found evidence of a genetic predisposition to major depression. There is an increased risk for developing depression when there is a family history of the illness. Not everyone with a genetic predisposition develops depression, but some people probably have a biological make-up that leaves them particularly vulnerable to developing depression. Life events, such as the death of a loved one, chronic stress, and alcohol and drug abuse, may trigger episodes of depression. Some illnesses such as heart disease and cancer and some medications may also trigger a depressive episode. Often, however, depressive episodes occur spontaneously and are not triggered by a life crisis or physical illness.
Symptoms of Major Depressive Disorder
The onset of the first episode of major depressive disorder may not be obvious if it is gradual or mild. The symptoms of this disorder characteristically represent a significant change from how a person functioned before the illness. The symptoms of depression may include:
· feelings of worthlessness, hopelessness, helplessness or guilt
· persistently sad or irritable mood
· pronounced changes in sleep habits and energy levels
· pessimistic feelings about the future
· trouble making decisions
· significant weight gain or loss
· difficulty thinking or concentrating
· low libido
· increased agitation
· lack of interest in or pleasure from activities typically enjoyed
· recurrent thoughts of death and/or suicide
When several of these symptoms occur at the same time, last longer than two weeks, and interfere with ordinary functioning, individuals should seek professional advice and treatment. If left untreated, major depression can lead to attempted suicide.
· feelings of worthlessness, hopelessness, helplessness or guilt
· persistently sad or irritable mood
· pronounced changes in sleep habits and energy levels
· pessimistic feelings about the future
· trouble making decisions
· significant weight gain or loss
· difficulty thinking or concentrating
· low libido
· increased agitation
· lack of interest in or pleasure from activities typically enjoyed
· recurrent thoughts of death and/or suicide
When several of these symptoms occur at the same time, last longer than two weeks, and interfere with ordinary functioning, individuals should seek professional advice and treatment. If left untreated, major depression can lead to attempted suicide.
Friday, April 30, 2010
Treatment for Major Depressive Disorder
Several types of treatment for major depression are available, and the type chosen depends on the individual and the severity of their illness. There are three basic types of treatment for depression in common use today: psychotherapy, medications and electroconvulsive therapy (ECT). They may be used singly or in combination. NeuroStar® TMS Therapy is currently testing a fourth type.
Psychotherapy: There are several types of psychotherapy that have been shown to be effective for depression including cognitive- behavioral therapy (CBT) and interpersonal therapy (IPT). Research has shown that some individuals with mild to moderate depression can at times be treated successfully with either of these therapies used alone. Other research on Major Depressive Disorder has indicated that the use of medication and psychotherapy together is more useful than either one utilized alone.
Cognitive-behavioral therapy (CBT) – helps to change the negative thinking and unsatisfying behavior associated with depression, while training people how to break the behavioral patterns that contribute to their illness.
Interpersonal therapy (IPT) – focuses on improving troubled personal relationships and on adapting to new life situations that may have contributed to an individual’s depression.
Medication: The first antidepressant medications were introduced in the 1950s. Research has shown that imbalances in neuro- transmitters like serotonin, dopamine and norepinephrine can be modulated with antidepressants. The response to medication is gradual often taking 4-6 weeks to fully respond. Five groups of antidepressant medications are most often prescribed for depression:
Selective serotonin reuptake inhibitors (SSRIs) – useful as a first-line treatment, they act specifically on the neurotransmitter serotonin. In general, SSRIs cause fewer side effects than TCAs and MAOIs.
Serotonin and norepinephrine reuptake inhibitors (SNRIs) – useful as first-line treatments in people taking an anti-depressant for the first time and for people who have not responded to other medications. In general, SNRIs cause fewer side effects than TCA and MAOIs.
Dopamine reuptake blocker – a newer antidepressant medication, it acts on the neurotransmitters dopamine and norepinephrine. In general, this class of medication causes fewer side effects than TCAs and MAOIs.
Tricyclic antidepressants (TCAs) – still widely used for severe depression. TCAs elevate mood in depressed individuals, re-establish their normal sleep, appetite and energy level. The often times greater side effects of the tricyclic antidepressants may limit their usefulness in some individuals
Monoamine oxidase inhibitors (MAOIs) – are often effective in individuals who do not respond to other medications or who have "atypical" depressions with marked anxiety, excessive sleeping, irritability, hypochondria or phobic characteristics. These medications are harder to use and require following a low tyramine diet.
Electroconvulsive therapy (ECT) - ECT is an effective treatment for severe depressive episodes. ECT employs the use of anesthesia and muscle relaxers during the procedure which involves the application of an electrical field to the head in order to produce a physical seizure. These treatments are given in the hospital.
For individuals where medication, psychotherapy, and a combination of the two prove to be ineffective, or work too slowly to relieve severe symptoms such as psychosis or thoughts of suicide, ECT is often used. ECT may also be indicated for those who are not able to take antidepressant medications and do not respond to psychotherapy. Side effects on memory recall are troublesome for some individuals. Vagus Nerve Stimulation (VNS Therapy™) – is a non-drug treatment available specifically for treatment-resistant depression. The actual procedure takes about an hour and is usually performed under general anesthesia on an outpatient basis. Two small incisions are required: one on the upper chest area for the pulse generator and one on the left neck for the thin, flexible wires that connect the pulse generator to the vagus nerve. This treatment is infrequently utilized. Trancranial Magnetic Stimulation (TMS Therapy):
Neurostar TMS Therapy is a new treatment cleared by the US Food and Drug Administration (FDA) for patients suffering from depression who have not achieved satisfactory improvement from prior antidepressant treatment. TMS stands for "transcranial magnetic stimulation."
TMS Therapy is a treament that can be performed in a psychiatrist's office, under their supervision, using medical device called the NeuroStar TMS Therapy system. NeuroStar TMS Therapy is;
Non-invasive, meaning that it does not involve surgery. It does not require any anesthesia or sedation, as the patient remains awake and alert during the treatment.
Non-systemic, meaning that it is not taken by mouth and does not circulate in the blood stream throughout the body.
The typical initial treatment course consists of 5 treatments per week over a 4-6 week period, for an average of 20-30 total treatments. Each treatment session lasts approximately 40 minutes.
Note: Information on this site is for reference purposes only. It is not intended to be nor should it be taken as medical advice. Individuals who think they may suffer from major depressive disorder should see a medical professional regarding their symptoms
Psychotherapy: There are several types of psychotherapy that have been shown to be effective for depression including cognitive- behavioral therapy (CBT) and interpersonal therapy (IPT). Research has shown that some individuals with mild to moderate depression can at times be treated successfully with either of these therapies used alone. Other research on Major Depressive Disorder has indicated that the use of medication and psychotherapy together is more useful than either one utilized alone.
Cognitive-behavioral therapy (CBT) – helps to change the negative thinking and unsatisfying behavior associated with depression, while training people how to break the behavioral patterns that contribute to their illness.
Interpersonal therapy (IPT) – focuses on improving troubled personal relationships and on adapting to new life situations that may have contributed to an individual’s depression.
Medication: The first antidepressant medications were introduced in the 1950s. Research has shown that imbalances in neuro- transmitters like serotonin, dopamine and norepinephrine can be modulated with antidepressants. The response to medication is gradual often taking 4-6 weeks to fully respond. Five groups of antidepressant medications are most often prescribed for depression:
Selective serotonin reuptake inhibitors (SSRIs) – useful as a first-line treatment, they act specifically on the neurotransmitter serotonin. In general, SSRIs cause fewer side effects than TCAs and MAOIs.
Serotonin and norepinephrine reuptake inhibitors (SNRIs) – useful as first-line treatments in people taking an anti-depressant for the first time and for people who have not responded to other medications. In general, SNRIs cause fewer side effects than TCA and MAOIs.
Dopamine reuptake blocker – a newer antidepressant medication, it acts on the neurotransmitters dopamine and norepinephrine. In general, this class of medication causes fewer side effects than TCAs and MAOIs.
Tricyclic antidepressants (TCAs) – still widely used for severe depression. TCAs elevate mood in depressed individuals, re-establish their normal sleep, appetite and energy level. The often times greater side effects of the tricyclic antidepressants may limit their usefulness in some individuals
Monoamine oxidase inhibitors (MAOIs) – are often effective in individuals who do not respond to other medications or who have "atypical" depressions with marked anxiety, excessive sleeping, irritability, hypochondria or phobic characteristics. These medications are harder to use and require following a low tyramine diet.
Electroconvulsive therapy (ECT) - ECT is an effective treatment for severe depressive episodes. ECT employs the use of anesthesia and muscle relaxers during the procedure which involves the application of an electrical field to the head in order to produce a physical seizure. These treatments are given in the hospital.
For individuals where medication, psychotherapy, and a combination of the two prove to be ineffective, or work too slowly to relieve severe symptoms such as psychosis or thoughts of suicide, ECT is often used. ECT may also be indicated for those who are not able to take antidepressant medications and do not respond to psychotherapy. Side effects on memory recall are troublesome for some individuals. Vagus Nerve Stimulation (VNS Therapy™) – is a non-drug treatment available specifically for treatment-resistant depression. The actual procedure takes about an hour and is usually performed under general anesthesia on an outpatient basis. Two small incisions are required: one on the upper chest area for the pulse generator and one on the left neck for the thin, flexible wires that connect the pulse generator to the vagus nerve. This treatment is infrequently utilized. Trancranial Magnetic Stimulation (TMS Therapy):
Neurostar TMS Therapy is a new treatment cleared by the US Food and Drug Administration (FDA) for patients suffering from depression who have not achieved satisfactory improvement from prior antidepressant treatment. TMS stands for "transcranial magnetic stimulation."
TMS Therapy is a treament that can be performed in a psychiatrist's office, under their supervision, using medical device called the NeuroStar TMS Therapy system. NeuroStar TMS Therapy is;
Non-invasive, meaning that it does not involve surgery. It does not require any anesthesia or sedation, as the patient remains awake and alert during the treatment.
Non-systemic, meaning that it is not taken by mouth and does not circulate in the blood stream throughout the body.
The typical initial treatment course consists of 5 treatments per week over a 4-6 week period, for an average of 20-30 total treatments. Each treatment session lasts approximately 40 minutes.
Note: Information on this site is for reference purposes only. It is not intended to be nor should it be taken as medical advice. Individuals who think they may suffer from major depressive disorder should see a medical professional regarding their symptoms
Thursday, April 29, 2010
मन पर तनाव का बोझ नहीं लायें
एक पुरानी एवं प्रसिध्द कहावत है 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' इस कहावत के निहितार्थ बहुत गहरे हैं। सहज ही समझ में आ जाता है कि यह उक्ति जीवन के गहरे अनुभवों से उपजी होगी। रोजमर्रा के जीवन में भी कभी-कभी यह देखने को मिल जाता है कि यदि मन किसी कारणवश प्रसन्न है तो उस दिन की परेशानियां अन्य दिनों की तरह बोझिल नहीं लगती। अन्यथा इसके ठीक विपरीत स्थिति में जब मन पर किसी चिन्ता-फिक्र का बोझ होता है, तब व्यक्ति को हर कदम पर, हर बात में तनाव की अनुभूति होती है।
यह चिन्ता-फिक्र स्वयं में कई आयाम समाये होती है। यह एक ऐसी जटिल संरचना की तरह है जो किसी भी छोर से शुरू होकर किसी भी अनचाहे मुकाम या तमाम मुकामों तक पहुंच सकती है। व्यक्ति बस एक बार चिन्ता-फिक्र की डोर से जुड़-भर जाये, फिर आगे की गति उसके नियंत्रण से बाहर होती है। मन किसी बिन्दु से शुरू करता है और उसका अन्त वहां होता है, जिसकी उसने कभी कामना भी नहीं की होती है। मानसिक तनाव व्यक्ति को इस प्रकार नियंत्रित कर लेते हैं कि उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक दिवास्वप्न बनकर रह जाती है।
तनाव एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता दो विरोधाभासी बातें हैं। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि मन पर तनाव का बोझ ढोता हुआ व्यक्ति उस बोझ के दबाव से सर्वथा अनभिज्ञ होकर जिये जा रहा है। उसे एहसास ही नहीं हो पाता है कि वह किसी किस्म का तनावपूर्ण जीवन जी रहा है। अगर आप इस किस्म के किसी व्यक्ति, जो कि आपको प्रत्यक्षत: तनावमय जीवन जीता हुआ दिखाई दे रहा है, कहें कि आप इतना तनाव न लिया करें तो उसे विस्मय होता है। वास्तव में वह झूठ नहीं बोल रहा होता है, जब वह आपको चौंका देने वाला उत्तर देता है कि- 'मैं तो मजे में हूं। मैं तो कभी टेंशन लेता ही नहीं हूं।' ऐसा इसलिए होता है कि व्यक्ति धीरे-धीरे तनाव के साथ ही जीने का इस कदर आदी हो चुका होता है कि वह भूल ही जाता है कि तनावरहित मन:स्थिति कैसी होती है।
आपने अक्सर पाया होगा कि घर में या आफिस में किसी से हॉट-टॉक हो जाने पर, एक बार मन का संतुलन, उसकी लय खो जाने के बाद आप न जाने कितने लोगों से व्यवहार करने में बिना चाहे ही क्रोध से या भय युक्त आचरण करने लगते हैं। कभी बच्चों पर चिल्लाते हैं तो कभी पत्नी पर, कभी सहकर्मियों से दुखड़ा रोते हैं तो कभी अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं।
यह सारी स्थितियां स्वस्थ वातावरण को बिगाड़ देती हैं। अत: यह जरूरी हो जाता है कि मन को यथासंभव प्रसन्नता से युक्त रखा जाए। यह बात कहने-सुनने में जितनी आसान है, अभ्यास करने में उतनी ही कठिन है। यदि मन की प्रसन्नता पाना इतना ही आसान होता तो हर व्यक्ति सुखी होता और संसार स्वर्ग से सुहावना स्थल होता। फिर कोई भी ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' नहीं कहता।
दरअसल, मन को प्रसन्नता से युक्त रखने के लिए लगातार प्रयास करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए कोई जादुई पध्दति नहीं है। यह सतत् प्रयास पूर्वक स्वयं के व्यक्तित्व में झांककर, उसका विश्लेषण करके उसके कमजोर घटकों को रूपान्तरित करके ही पायी जा सकती है। सुखी जीवन के लिए प्रसन्नता से बड़ी संजीवनी शक्ति कोई नहीं है। अत: इसके लिये आवश्यक प्रयास फिर वे चाहे कितने ही श्रमसाध्य क्यों न हों, अवश्य किये जाना चाहिए।तनावरहित मन शरीर को भी स्वस्थ रखता है। चित्त की प्रसन्नता से आस-पास का वातावरण भी महकने लगता है। जिस प्रकार तनाव एक संक्रामक बीमारी है जो अपने चारों तरफ तनाव के स्पन्दन फैला देती है, उसी प्रकार प्रसन्नता भी संक्रामक होती है जो अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को उत्साह, उमंग एवं सकारात्मक से भर देती है। अत: यह कतई समझदारी नहीं कही जा सकती कि आप अपने ऊपर तनाव का बोझ लादे फिरते रहें, जबकि प्रयास करके आप उस बोझ को न सिर्फ उतार फेंक सकते हैं, बल्कि उसके स्थान पर प्रसन्नता की संजीवनी शक्ति धारण कर सकते हैं। समझ गये न! देर किस बात की। शीघ्रस्य शुभम्।
यह चिन्ता-फिक्र स्वयं में कई आयाम समाये होती है। यह एक ऐसी जटिल संरचना की तरह है जो किसी भी छोर से शुरू होकर किसी भी अनचाहे मुकाम या तमाम मुकामों तक पहुंच सकती है। व्यक्ति बस एक बार चिन्ता-फिक्र की डोर से जुड़-भर जाये, फिर आगे की गति उसके नियंत्रण से बाहर होती है। मन किसी बिन्दु से शुरू करता है और उसका अन्त वहां होता है, जिसकी उसने कभी कामना भी नहीं की होती है। मानसिक तनाव व्यक्ति को इस प्रकार नियंत्रित कर लेते हैं कि उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक दिवास्वप्न बनकर रह जाती है।
तनाव एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता दो विरोधाभासी बातें हैं। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि मन पर तनाव का बोझ ढोता हुआ व्यक्ति उस बोझ के दबाव से सर्वथा अनभिज्ञ होकर जिये जा रहा है। उसे एहसास ही नहीं हो पाता है कि वह किसी किस्म का तनावपूर्ण जीवन जी रहा है। अगर आप इस किस्म के किसी व्यक्ति, जो कि आपको प्रत्यक्षत: तनावमय जीवन जीता हुआ दिखाई दे रहा है, कहें कि आप इतना तनाव न लिया करें तो उसे विस्मय होता है। वास्तव में वह झूठ नहीं बोल रहा होता है, जब वह आपको चौंका देने वाला उत्तर देता है कि- 'मैं तो मजे में हूं। मैं तो कभी टेंशन लेता ही नहीं हूं।' ऐसा इसलिए होता है कि व्यक्ति धीरे-धीरे तनाव के साथ ही जीने का इस कदर आदी हो चुका होता है कि वह भूल ही जाता है कि तनावरहित मन:स्थिति कैसी होती है।
आपने अक्सर पाया होगा कि घर में या आफिस में किसी से हॉट-टॉक हो जाने पर, एक बार मन का संतुलन, उसकी लय खो जाने के बाद आप न जाने कितने लोगों से व्यवहार करने में बिना चाहे ही क्रोध से या भय युक्त आचरण करने लगते हैं। कभी बच्चों पर चिल्लाते हैं तो कभी पत्नी पर, कभी सहकर्मियों से दुखड़ा रोते हैं तो कभी अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं।
यह सारी स्थितियां स्वस्थ वातावरण को बिगाड़ देती हैं। अत: यह जरूरी हो जाता है कि मन को यथासंभव प्रसन्नता से युक्त रखा जाए। यह बात कहने-सुनने में जितनी आसान है, अभ्यास करने में उतनी ही कठिन है। यदि मन की प्रसन्नता पाना इतना ही आसान होता तो हर व्यक्ति सुखी होता और संसार स्वर्ग से सुहावना स्थल होता। फिर कोई भी ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' नहीं कहता।
दरअसल, मन को प्रसन्नता से युक्त रखने के लिए लगातार प्रयास करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए कोई जादुई पध्दति नहीं है। यह सतत् प्रयास पूर्वक स्वयं के व्यक्तित्व में झांककर, उसका विश्लेषण करके उसके कमजोर घटकों को रूपान्तरित करके ही पायी जा सकती है। सुखी जीवन के लिए प्रसन्नता से बड़ी संजीवनी शक्ति कोई नहीं है। अत: इसके लिये आवश्यक प्रयास फिर वे चाहे कितने ही श्रमसाध्य क्यों न हों, अवश्य किये जाना चाहिए।तनावरहित मन शरीर को भी स्वस्थ रखता है। चित्त की प्रसन्नता से आस-पास का वातावरण भी महकने लगता है। जिस प्रकार तनाव एक संक्रामक बीमारी है जो अपने चारों तरफ तनाव के स्पन्दन फैला देती है, उसी प्रकार प्रसन्नता भी संक्रामक होती है जो अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को उत्साह, उमंग एवं सकारात्मक से भर देती है। अत: यह कतई समझदारी नहीं कही जा सकती कि आप अपने ऊपर तनाव का बोझ लादे फिरते रहें, जबकि प्रयास करके आप उस बोझ को न सिर्फ उतार फेंक सकते हैं, बल्कि उसके स्थान पर प्रसन्नता की संजीवनी शक्ति धारण कर सकते हैं। समझ गये न! देर किस बात की। शीघ्रस्य शुभम्।
Wednesday, April 28, 2010
Thoughts on Depression and Suicide
It wasn't until I lost my son to suicide that I began to learn lots and lots about depression and suicide. There are a few things that, by now, you probably know but I want to tell you (again?). Maybe this will help to put things in perspective.
First, we have to learn to accept our past and know that we can't change it. We have to come to terms with it and get past any guilt or shame. It can be done. Just because something bad has happened, or because we have done something wrong, does not make us bad. Frequently, we have disproportionately built those things up in our own minds. When we can put the past behind us, we can go on with our lives. That's accepting the things that we cannot change.
To live our lives in the present, we must stop doing things that cause us guilt or shame. Guilt and shame are like vampires. When they are exposed to the sunlight of truth and openness, they burn away to nothing. This means we must be honest with ourselves and in our dealings with others; but we still must use caution when dealing with some people. No Iframes
A life that is satisfactory also includes all of the good character traits that we can think of. The Boy Scout oath comes to mind, but this really depends on our own personal definitions and which traits you can take pride in. You and I can do, or be, anything that we (not someone else) can comfortably live with. We have that choice, that ability, and that much power over our lives.
Secondly, we have to take charge, and face our lives with boldness and be responsible and active (as opposed to passive) in our lives. We must stand up for what we think and believe, make our position clear, and not let people walk on us figuratively or literally. That empowers us to be leaders (someone has to be in charge), to make our own way in the world, and gives us self-pride where there would otherwise be shame, self-blame, and surrender.
Mahatma Ghandi said A no uttered from deepest conviction is greater than a yes mearly uttered to please, or what is worse, to avoid trouble. I must caution you though to start with small decisions and progress slowly because that will give you a successful history to draw on. This is changing the things we can change.
Thirdly, I was a member of a social/civic organization that opened each and every meeting with a creed, part of which was:
We believe that faith in God gives meaning and purpose to human life ...
I believe it does, and that faith can carry us when things are tough. Now this statement is not to make people go right out and join up, but we humans need faith in something, if only because it is our nature to do so. If you had faith in God, and depression has caused you to feel so bad as to lose it, remember that God has not moved, He is just where you left Him.
The Alcoholics Anonymous (A.A.) organization uses a prayer for it's members. I think they only use the first verse, but here is the whole prayer:
***
GOD, grant me the Serenityto accept the things I cannot changeCourage to change the things I canand the Wisdom to know the difference.
Living ONE DAY AT A TIME;Enjoying one moment at a time;Accepting hardship as thepathway to peace.
Taking, as He did, thissinful world as it is,not as I would have it.
Trusting that He will makeall things right if I surrender to His Will;
That I may be reasonably happyin this life, and supremelyhappy with Him forever inthe next.
Amen
By Reinhold Neibuhr
Fourth, there are better ways of handling all of our feelings than turning them inward. If we turn the feelings inward (bottle them up), they will consume us from within. We must feel them and deal with them to get rid of them.
We can learn to express those feelings in a variety of ways. For instance, anger can be expressed by telling someone about it, by taking a tennis racket and beating (violently) on the seat of a stuffed chair, and by writing and expressing the anger. Also, we could express our feelings in painting, music, acting, dance, or other arts. And, of course, if we're going to point that anger at someone, we should point it towards the people that caused and deserve it. We should never direct it at innocent people.
Fifth, exercise is vital to healthy living. I can't tell you how important this is to our well-being. If you think that you can do nothing (and I know how depression can paralyze people) and be happy, you are wrong. Exercise is the most effective way to feel better right now. If you will do some exercise daily, you will feel better and sleep better. If you make it a regimen, you can do it from habit even if you have a bad day or several bad days. No Iframes
This is a very concentrated version of things that have made me able to live a better life in the last few years than I have ever had before. I have suffered depression all of my life, and I know the desolate feelings that were in Edgar Allen Poe's poems, in Van Gogh's paintings, and the feelings that make us think the world will be better off without us, that we are burdens to other people; and the self-hate that makes us want to die. Those are false and distorted thoughts that uselessly cost thousands of people their lives every year from suicide. The loss of those lives to the world is incalculable.
I hope this helps to put things in better order for you, and I pray that you will never be one of those people. This is a total package and should be interpreted as an overall view of what is going on with your depression. It is as good of a summary as I could muster.
It has taken me years to understand these things, and be able to put them in a form that I could communicate to other people. With these tools, you can start to see the way things really are, and start to rebuild your life if it is out of control. Being out of our control make us feel worthless. This should also change your approach to fighting depression and suicidal thinking to fighting the source of the disease (To change, so that we are in charge of our lives, and we decide and we control how we live) instead of unsuccessfully trying to fight the symptoms.
It may not cure you, but it will help you to live a more successful and a happier life, even with depression. Remember that you are the person to decide your wants and needs and you determine how you will live. Learn by starting small, to decide and take responsibility for your life, then progress slowly.
Written by Roger
Sunday, April 25, 2010
Mail Me
hi,
this help is help every one you have to mail me and peopel will read your problem and they may also solve your problem. you have to give your detail
Name Age City Adsress Nearest Police Station No.
your detail will be safe and this needed only for help you.
mail me on savedepresslife@rediffmail.com.
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save depresion life
I have created this blog for people who suffer from depression in India. I want help those people who suffer from depression and some time they attempt to commite suciede. This blog is for all people as students, youths, teenagers, men, women.
There is so many reason that make depression as studying tensoin, love tension, husband and wife misunderstanding tension, family disput, zelous with other, office tension etc.
Any tension, sorrow which make us depress our life we can say that is depression.
Now these cases increasing day by day, due to this some people can not tolrarte their tension and they commit sucide they do not think about their past or future after their death. They do not think about anything for their relative as well as parent.
This blog will help to save life those who try to commit sucide.
you may share your problem my team will try to solve your problem or sugest you about life.
you may mail me or contact me.
any one can share problem and solve this also.
i hope you will copreate me.
soon....i update my id and no.
There is so many reason that make depression as studying tensoin, love tension, husband and wife misunderstanding tension, family disput, zelous with other, office tension etc.
Any tension, sorrow which make us depress our life we can say that is depression.
Now these cases increasing day by day, due to this some people can not tolrarte their tension and they commit sucide they do not think about their past or future after their death. They do not think about anything for their relative as well as parent.
This blog will help to save life those who try to commit sucide.
you may share your problem my team will try to solve your problem or sugest you about life.
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