Wednesday, December 19, 2012

नकारात्मक विचार हानिकारक हैं स्वास्थ्य के लिये

बुरे विचारों का मस्तिष्क में हर समय चिंतन करते रहना रोगों का मूल कारण है। नीच और हीन विचारों से मनुष्य का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता चला जा रहा है।


बुरे विचार अपने साथ चिंता, भय, क्रोध, कलह आदि लाते हैं। ये ऐसी अग्नियां हैं जो थोड़े ही दिनों में सारा भाग जलाकर आदमी को खोखला कर देती है।

हर घड़ी स्वार्थ, भय, चिंता, अनुदारता और लोभ से भरे विचार मस्तिष्क में रहने से गंभीर बीमारी का आगमन दिखाने लगता है। अच्छी और कीमती दवाइयां भी बेअसर होने लगती हैं। असयम मानसिक रोगी को मौत के मुंह में जाते देखा जाता है।

शरीर में समस्त ज्ञान तंतुओं का संबंध मस्तिष्क से रहता है और वहीं से प्रेरणा प्राप्त होती है। मन मस्तिष्क में उठने वाले विचारों का, रस उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों, पाचन अवयवों और शरीर के अंगों पर असर पड़ता रहता है। इस संबंध में कुछ शरीर शास्त्रियों की सम्मतियां इस प्रकार हैं।

डा.आल्टन लिखते हैं कि भय,र् ईष्या, घृणा, निराशा, अविश्वास और मानसिक विकार शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं को मंद करके खून को सुखा देते हैं। डा. वेन लिखते हैं संताप और मनोव्यथा के कारण कई लोगों की मृत्यु हो गयी और अनेकों का मस्तिष्क खराब हो गया।

डारबिन साहब कहते हैं चिरकालीन चिंता से रक्त की गति धीमी हो जाती है और चेहरे पर पीलापन मांस-पेशियों में शुष्कता आ जाती है, पलकें झूल पड़ती हैं, छाती बैठ जाती है, गरदन झुक जाती है एवं होंठ, जबड़ा और सिर आदि गिर जाते हैं। हंसते आदमी पर घोर उदासी छा जाती है।

डा. तुकेने का कथन है कि पागलपन, लकवा, हैजा, यकृत रोग, बालों का जल्दी सफेद होना, गंजापन, रक्त की कमी, गर्भपात, मूत्र रोग, चर्म रोग, फोड़े, पसीने की अधिकता, दांत जल्दी गिरना आदि रोगों की जड़ में भय या संताप छिपा रहता है।

उपरोक्त सम्मतियों से यह स्पष्ट होता है कि मन में बुरे विचार लाने से शरीर का अनिष्ट होता है, अत: स्वस्थ रहने की इच्छा रखने वालों को चाहिये कि सदैव प्रसन्न रहें, दुष्ट विचारों को पास न फटकने दें। जिन्हें बुरे विचार घेरे रहते हैं, उन्हेंं स्वास्थ्य एवं सतसंग करना चाहिये। अच्छा साहित्य जो समाधानकारी हो का पठन पाठ्न करना अति उत्तम रहता है।

व्रत, अनुष्ठान, जप, गोदान, अन्नदान आदि कार्य बीमारी दूर करने के लिये कराने का हिंदू धर्म शास्त्रों में विधान है और उसका पालन निष्ठापूर्वक होता है। इन कार्यों में रहस्य यह है कि रोगी में त्याग, उदारता वाली भावनाएं पनप जाएं और कठिन कष्ट को दूर कर दें। जिन रोगियों को धन की सुविधा न हो, उन्हें 'राम नाम' या 'गायत्री महामंत्र' अथवा अन्यमंत्र जपने की क्रिया करनी चाहिये।

इस तरह भावनाओं में परिवर्तन से मानसिक स्तर पर रोगी को काफी राहत महसूस होगी। मन के कोने में जगह बनाकर बैठे दुष्ट विचारों का निष्कासन प्रारंभ होगा और उनके स्थान पर सदवृत्तियों से परिपूर्ण विचार स्थान लेने लगेंगे। रोगी जो मानसिक स्तर पर बीमार था। अपने को हल्का व स्वस्थ अनुभव करने लगेगा। ऐसा तत्काल तो नहीं लेकिन कुछ समय गुजरने पर स्थायी लाभ अवश्य मिल कर रहता है। शर्त एक ही है कि क्रम बना रहना चाहिये।



बड़ा शक्तिशाली है हमारा मन

मन को एक महाशक्ति माना गया है। जिस तरह हमारे समूचे कायतंत्र-संचालन मन द्वारा होता है, उसी प्रकार सृष्टि का-समूचे विश्व-ब्रह्माण्ड नियमन-संचालन विराट मन से होता है। मानवीय मन चेतन और अचेतन नामक दो प्रमुख भागों में विभक्त होता है। अचेतन मन रक्तभिसरण, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास जैसे अनवरत गति से होते रहने वाले क्रियाकलापों का नियंत्रण करता है। चेतन मन के आदेश से ज्ञानेंद्रियां, कर्मेद्रियां, एवं दूसरे अवयव काम करते हैं। अनियंत्रित मन अस्त-व्यस्त हो जाता है और विभिन्न प्रकार की बेढंगी हरकतें-हलचलें करने लगता है। शरीर को नीरोग एवं परिपुष्ट रखने के लिए मन को संयमी और सदाचारी, निर्मल और पवित्र बनाना पड़ता है।


मन मस्तिष्क की जानकारी

निष्कपट, पवित्र, सुसंस्कारित एवं प्रखर मन जब विराट मन से जुड़ जाता है तो वह सुपरचेतन स्तर को प्राप्त कर लेता है। यही वह क्षेत्र है, जिसे ॠध्दि-सिध्दियों का भांडागार कहा जाता है। आत्मा को परमात्मा से, व्यष्टि से समष्टि को मिलाने में यही मन सेतु का काम करता है। अब तो मनोविज्ञानियों, परामनोवेत्ताओं एवं अनुंसधार्नकत्ता चिकित्साविदों ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि मानसिक क्षेत्र की विकृतियां ही शरीर और मस्तिष्क को रुग्ण एवं विक्षुब्ध बनाती हैं। मानसिक परिशोधन के बिना न तो आरोग्य समस्या का पूर्ण समाधान हो सकता है और न जीवन की अन्यान्य समस्याएं ही सुलझ सकती हैं। मानसिक परिष्कार के बिना अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में तो एक पग भी आगे नहीं, बढ़ा जा सकता। मनःशक्ति जड़ जगत और चेतन जगत के बीच का एक महत्वपूर्ण सेतु है, घटक है। इसलिए लौकिक जीवन में इसका सर्वोपरी महत्त्व है। जेनेटिक साइंस के नवीनतम शोधों ने यह भी रहस्योद्धाटन किया है कि शरीर की समस्त कोशाएं तथा परमाणु पूरी तरह मनःशक्ति के नियंत्रण में हैं। यही क्रम वंश -परंपरा में भी तथा मरणोत्तर जीवन में समानरूप से गतिशील बना रहता है। मनोवेत्ता फ्रायंड के 'सुपरईगो' आदि की परिधि तक सीमित मन को प्रख्यात जर्मन मनोवैज्ञानिक हेंस बेंडर अतींद्रिय क्षमता तक ले जाने में सफल हुए। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। टेलीपैथी पर अत्यधिक खोज-बीन करने वाले मूर्ध्दन्य परामनोवेत्ता रेनेबार्क लियर के अनुसार मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिध्दांतों द्वारा संभव नहीं है। अतः इसके क्रियाकलापों के लिए भी इससे परे सोचने-समझने की बुध्दि विकसित की जानी चाहिए। तभी चेतना से अथवा चेतना से परे जाकर संबंध, संपर्क बना पाना संभव है और यह सब मानसिक परिष्कार के बिना संभव नहीं हैं। यों तो भौतिक विज्ञानी मन-मस्तिष्क को एक मानकर उसी की खोज-बीन में गंभीरतापूर्वक संलग्न हैं। इतने पर भी तन-मस्तिष्क की समूची जानकारी अभी उनके हाथ नहीं लगी, अन्यथा उसमें एक से एक बढ़कर विलक्षणाताएं और संभाावनाएं सन्निहित हैं। मस्तिष्कीय परमाणु में भार, घनत्व, विस्फूटन तथा चुंबकीय क्षेत्र का भौतिक परिचय देने वाले तत्त्वों की खोज करते समय वैज्ञानिक ऐसे अतिसूक्ष्म विद्युतीय कणों के संपर्क में आए हैं, जिनमें भौतिक परमाणु जैसे लक्षण नहीं हैं। ये विद्युतकण आकाश में स्वच्छंद बिचरण करने में सक्षम हैं। इनमें भौतिक परमाणुओं को वेधकर निकल जाने की क्षमता है। इन कणों का नियंत्रण-नियमन भी संभव नहीं है। इन्हें पकड़कर स्थिर भी नहीं किया जा सकता। इन कणों की उपस्थिति का बोध भी परस्पर टकराव कारण हो पाता है। वैज्ञानिक इन कणों को ही अतींद्रिय क्षमताओं के विकास के लिए उत्तरदायी मानते हैं। सुप्रसिध्द, गणितज्ञ एवं विज्ञानवेत्ता एड्रियो हॉब्स ने इन काणों को 'न्यूट्रिनो' नाम दिया है, तो कुछ वैज्ञानिक इन्हें 'माइण्डास', 'साइन्नोंस', आदि नामों से पुकारते हैं। अनुसंधार्नकत्ता वैज्ञानिकों का कथन है कि जब मस्तिष्क के न्यूरोन कण इन माइण्डांस कणों के संपर्क में आते हैं, तब पूर्वाभास जैसी घटनाओं की अनुभूति होती है। इससे सिध्द होता है कि ब्रह्मांडव्यापी घटनाओं का मूल उद्गम एक है तथा मानवीय मनश्चेतन का उससे किसी न किसी रूप में संबंध अवश्य है। साइन्नोन कणों का मस्तिष्कीय चेतन पर किस तरह प्रभाव पड़ता है, इस पर वैज्ञानिक गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं। सुप्रसिध्द विज्ञानी एक्सेल फेरिसिस का इस संबंध में कहना है कि जब साइन्नोन कण न्यूरोन कणों से मिलते हैं, तब माइण्डान या माइन्जेन नामक ऊ र्जा कणों का जन्म होता है। इससे मनुष्य का ब्रह्मांडव्यापी चैतन्य ऊर्जा से स्वतः संबंध स्थापित हो जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणों से समूचा विश्व-ब्रह्मांड भरा पड़ा है और ये प्रकाश की गति से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचते हैं। उनके अनुसार ये कण निर्बाध रूप से अहर्निश हमारी काया के आर-पार आते-जाते रहते हैं। एक गणितीय आकलन के अनुसार एक व्यक्ति के पूरे जीवनकाल में कुल 1024 माइण्डान्स या न्यूट्रिनो कण शरीर से गुजर चुके होते हैं। हमारी मानसिक विचार-तरंगें इन्हीं तरंगों पर, कणों पर सवार होकर सृष्टि के एक कोने से दूसरे कोने तक तथा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचती हैं। इसमे प्रमुख भूमिका इसके वाहक कणों की ही रहती है। हमारे माइण्डान्स जितने परिशोधित, परिष्कृत एवं प्रचंड होंगे, हम दूसरों को प्रभावित करने एवं सहयोगी बनाने में उतने ही अधिक सफल होंगे।

ध्यान धारण के प्रयोग

हमारी मनश्चेतना विराट मन से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। भूल व अज्ञानतावश हम इस तथ्य से अनभिज्ञ बने रहते हैं और विराट चेतना के दिव्य अनुदानों से वंचित रहते हुए, दी-हीन जीवन व्यतीत करते हुए अंततः इस संसार से खाली हाथ विदा हो जाते हैं। मन पर चढ़े हुए कषाय-कल्मषों की परतों को यदि उतार फेंका जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि हम उसी विराट चेतना के अंश हैं और घनिष्टता से उससे जुड़े भी हुए हैं। परमाणु सत्ताकी सूक्ष्मप्रवृत्ति का विश्लेषण करते हएु भौतिक विज्ञानी भी अब इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि एक ही अणु के दो सक्रिय इलेक्ट्रॉन यदि पृथक दिशा में कर दिए जाएं, तब भी वे अपना संबंध एवं संपर्क-सूत्र बनाए रखते हैं। वे कितनी ही दर क्यों न रहें, दर्पण के प्रतिबिंब की तरह अपनी स्थिति का परिचय एक दूसरे को देते रहते हैं। किसी प्रकार यदि एक इलेक्ट्रॉन को प्रभावित किया जाए, तो दूर रहते हुए दूसरा स्वतः प्रभावित होता है। चेतना के क्षेत्र में तो यह बात और भी घनिष्ठता से लागू होती है। वेद-उपनिषद्, दर्शन सहित समूचा आर्य वाड्मय इस सत्य को प्रमाणित करता है। आइस्टीन, रोजेन, पॉटोलस्की जैसे विश्वविद्यालय व महान वैज्ञानिकों ने भी इसी सत्य का प्रतिपादन करते हुए यह माना है कि इस छोटे से घटक की तरह ही समूचा विश्व-ब्रह्मांड एक सूत्र-संबंध में पिरोया हुआ है।



Thursday, November 8, 2012

तनाव की समस्या एवं उपाय

आज की आपाधापी एवं तेज रफ्तार जीवन शैली में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है तो तनाव से युक्त न हो। आज के युग में छोटे-छोटे बच्चे भी तनावग्रस्त रहने लगे हैं। तनाव एक ऐसी समस्या है जो व्यक्ति को अंदर अंदर ही खोखला बना देती है। जब इसकी अति हो जाती है यह एक गंभीर रोग का रूप ले लेता है। तनाव से हर कोई व्यक्ति ग्रस्त है। कुछ लोग तनाव को बेवजह पालते हैं तो कुछ लोग व्यर्थ की चिंताओं में ग्रस्त होकर अपने वर्तमान और भविष्य को नष्ट करते हैं। इसके साथ ही तनाव अनेक रोगों और समस्याओं को जन्म देता है जिसमें भूख न लगना, काम में मन न लगना, चिड़िचिड़ापन, क्रोध, कब्ज आदि मुख्य है।


तनाव से हानियां :-

* तनाव के कारण व्यक्ति को भूख कम लगती है जिससे व्यक्ति का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है।

* तनाव रक्तचाप को बढ़ाता है जो हृदय रोग का कारण बनता है।

* तनाव सिरदर्द की समस्या को उत्पन्न करता है। अत्यधिक तनाव आयु को कम करता है।

* तनाव के कारण शरीर असंतुलित हो जाता है जिसके कारण बदहजमी और पेट दर्द की समस्या उत्पन्न होती है। नींद नहीं आने से स्वास्थ्य में गिरावट आती है।

* मानसिक तनाव के कारण चेहरे की मांसपेशियों पर अनावश्यक दबाव पड़ता है जिसके कारण त्वचा में झुर्रियों पड़ता है जिसके कारण त्वचा में झुर्रियों की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

तनाव कम करने के उपाय :-

* धार्मिक कार्यों में रूचि उत्पन्न करें, इससे आपको आत्म संतुष्टि प्राप्त होगी।

* परिवार के लोगों के साथ मिलकर बैठें, साथ भोजन करें और अपनी समस्या पर विचार करें।

* अपनी रूचि का कार्य करें। बागवानी, चित्रकला संगीत, सिलाई कला, पेंटिंग, यदि विद्वान हों तो रचनाएं लिखकर या आलेख लिखकर अपने तनाव को कम किया जा सकता है।

* योग करना तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है।

* अपने अंदर छुपी रूचि को विकसित करने का प्रयास करें।

* कभी भी किसी विषय पर अत्यधिक गंभीर न हो।

* नींद न आना या फिर कम सोना भी तनाव का महत्वपूर्ण कारण है इसलिये भरपूर नींद लें। यदि नींद नहीं आती हो तो सोने से पूर्व अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करें।

* नियमित सैर व व्यायाम का अभ्यास करें। प्रात: जल्दी उठकर ताजी हवा में सांस लें। एकांत में रहने के विपरीत साथ समूह में बैठें। मनोरंजन के लिये टीवी देखें।

* हंसने और मुस्कराने की आदत डालें, ये दोनों आदतें तनाव को कम करने में प्रभावशाली हैं।

* आदतों में बदलाव लाएं, कभी-कभी गलत आदतें और व्यवहार भी हमें तनावग्रस्त में रखता है।

* आपसी विवाद से बचें एवं किसी मामले में झगड़ा फसाद व क्रोध न करें।

Monday, October 1, 2012

मुस्कराकर सामना कीजिए जीवन की समस्याओं का

अक्सर अपने दैनिक जीवन में किसी भी छोटी या बड़ी समस्या के उठने पर हम सहायता-सलाह के लिये झट से दूसरों के पास दौड़ जाते हैं। अपनी समस्या किसी एक से नहीं कई से कहते हैं और कई तरह के हल भी पाते हैं। अच्छा यही है कि ऐसे में सुनी समझी तो सभी की जाए पर किया वही जाए जो हमें हमारी स्थिति, सुविधा के हिसाब से सही प्रतीत हो। कई बार दूसरों के सुझाए तरीकों से काम करने के कारण जब असफलता हाथ लगती हैं, तब जहां नुकसान होता है, वहीं मन भी क्लेश पाता है। संबंधों में भी दरार पड़ने की संभावना रहती है। शिकायत करने पर सलाह देने वाला बड़ी आसानी से, 'अरे, क्या हम कहेंगे कि कुएं में गिर पड़ो तो कूद जाओगे? अपनी बुध्दि भी तो चलाते' कहकर, हाथ झाड़ू, न केवल अलग हो जाता है वरन् हमारी समस्या, बुध्दि के दिवालिएपन का बखान करेगा, हमें मूर्ख साबित करेगा।

जीवन उतार-चढ़ाव का नाम है। यहां केवल फूल ही फूल नहीं हैं। सुख और दु:ख दोनों ही जीवन में होते हैं। इन्हें हिम्मत से, कभी सुख व कभी दु:ख महसूस करके ही पार किया जाता है। कोई भी समस्या चाहे कितनी ही गहन, गंभीर हो, जी घबरा दे, पर यदि धीरज से, अपने तमाम हालात को ध्यान में रखकर इनका मुकाबला किया जाए तो सफलता मिल सकती है व बखूबी आत्मविश्वास को दृढ़ बनाकर आगे से आगे बढ़ा जो सकता है। बशर्ते प्रक्रिया व मानसिकता मौलिक व सुचारू हो। शुरू-शुरू में छोटी अनपेक्षित बात, व्यवहार या स्थिति भी तीखी प्रतीत होती है। इस पर हमारी प्रतिक्रिया भी तीखी व आक्रामक ही होती है पर यदि कुछ समय मौन रहकर पूरी समस्या पर सिलसिलेवार ढंग से विचार किया जाए तो कई हल भी खुद ही सूझ पड़ेंगे। हलों के इन तमाम विकल्पों से तब कोई भी एक अच्छा विकल्प खोजा जा सकता है। किसी भी समस्या के उठने पर उसके बारे में परिणाम बुरे से बुरे क्या हो सकते हैं, सोचकर अब यत्न करना कि कैसे हालात ठीक किये जाएं। ज्यादा व्यवहारिक सोच है।

अनेक बार ऐसी विपरीत स्थितियां उपजने लगती हैं, जो तन-मन को व्यथित करती हैं। बहुत संभव है कि ऐसे हालात को हम बदल न पाएं पर इस स्थिति में भी यह तो संभव है कि हम उन घटनाओं, स्थितियों व हालात को देखने का नजरिया ही बदल लें। अब विचार बदलते ही भावनाएं भी बदलने लगेंगी। हौसला, उमंग, उत्साह बढ़ेगा व चिंता दूर होगी। समस्याओं से जूझने वाले जुझारू व्यक्ति ही मनचाही सफलता पा सकते हैं। आत्मविश्वास बनाये रख पाते हैं और फिर आगे के जीवन में उसी स्तर की व उससे हल्की समस्या को देखकर तनिक भी नहीं घबराते।

अपने अंदर ऐसा गुण विकसित करना जरूरी है, दो दु:खों में भी संतुलन रख पाए व कठिनाइयों का भयावह रूप नहीं, बल्कि उसका भी कोई भला पक्ष देख सके। यह प्रकृति का शाश्वत नियम है कि बुरे से बुरे में भी कोई न कोई अच्छाई छिपी रहती है। हम चूंकि काला चश्मा लगाकर संसार को देखते हैं। अत: हमें सब कुछ बेमानी, समस्या भरा ही दिखता है, जबकि उजला पक्ष भी है। बस, देखने भर की जरूरत है। अपनी परेशानियों में घिरकर, उनका जहां-तहां बखान करेक उसके तनाव के मकड़जाल में खुद को कैद करने व फड़फड़ाने से कहीं बेहतर व सुरक्षित उपाय है अपने अस्तित्व को अब भी बनाए रखना। अपनी दिक्कतों को अनदेखा कर उन साधनों, उपलब्धियों को महसूस करना, जो हमारे पास हैं। विपरीत हालात में भी धैर्य न खोकर सिर ऊंचा करके हंस सकना हमारे मानसिक संबल व साहस का प्रतीक है। कहा भी है- 'हंसी साहस का नाम है। खासकर तब, जब वह खुद पर हंसी जाए।'

प्राय: लोग व्यवसाय, स्वास्थ्य व परिवार में संतुलन नहीं रख पाते व सुख का कोई न कोई छोर गंवा देते हैं। अवसाद के क्षणों में एकाकी हो जाना, सबसे कटना व अवसादी हो जाना, घुटनों में सिर छिपाकर यह आस करना कि सुख व अनुकूल हालात आपका दरवाजा खटखटाएंगे, भूल है। सुख खुद खोजना होता है। सुख हमारी सोच में हैं। अत: जरूरी है कि हर हाल में खुश बने रहने की आदत पालें। अपने लिये भी जियें व जो सुख हमें उपलब्ध है, को शिद्दत से महसूस करें। प्राय: अनुकूल हालात बड़ी कठिनाइयों से मिलते हैं पर प्रतिकूलता हम स्वयं अपनी नादानी से जुटा लेते हैं। जो है, उसे महसूस करके चैन पाना व जो नहीं है, उसे प्राप्त करने का यत्र करना ही जीवन है। अपने भीतर स्फूर्ति, उत्साह महसूस करना जरूरी है। इसके लिये अपनी रूचि, पसंद का कोई काम करना, अपेक्षाओं को न पालना जरूरी है, जो बदला जा सकना संभव है, उसके लिये यत्न जरूरी है पर जो बदला नहीं जा सकता, उसे स्वीकार कर लेना ही समझदारी है।

किसी को यह पता नहीं कि उसके साथ कब क्या घटने वाला है। किसी दुर्घटना के लिये तैयार रहने की पूर्व योजना बना लेना संभव ही नहीं है। अच्छा यही है कि मानसिक तौर पर सदैव किसी भी अनपेक्षित समस्या के लिये तैयार रहा जाए, किसी समस्या के किसी भी रूप से निपटने के लिये मानसिक तौर पर तैयार व्यक्ति उस समस्या के उठने पर ज्यादा सामान्य व्यवहार कर पाता है। जो ऐसा नहीं करते, उनके लिये इस बात की पूरी-पूरी संभावना रहती है कि उन्हें जब-तब आहत होना पड़े, हौसला गंवाना पड़े। यदि हम अप्रत्याशित बातों की अपेक्षा करना सीख लें तो उनके उभरने पर उनकी उपेक्षा कर पाएंगे और तब जीवन के सुख-दु:खों का मुकाबला धैर्य से बिना टूटे कर भी पाएंगे। आत्मविश्वास और मनोबल तो हमारी थाती रहेगा ही, जो हमें जीने को उत्साही बनाये रखेगा।

ध्यान : जिन्दादिली के लिए केवल दो क्षण...

स्वास्थ्य अर्थात 'स्व' में स्थिति हम सहज, संतुलित, सुखी नहीं है इसलिए स्वस्थ भी नहीं है। शरीर का मात्र निरोग या बलवान होना स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य का संबंध मन, मस्तिष्क, प्राण व आत्मा से भी है। सभी स्तरों पर विकार सेगमुक्त व मजबूत रहे बिना स्वस्थ नहीं रहा जा सकता।


लोभ, आसक्ति, क्रोध, वासना वगैरह से सनी दिन भर की भागदौड़, रात में भी तनाव के साथ सोना, सुबह उठने पर शरीर, मन, मस्तिष्क भारी दुखन चुभन थकावट ये स्वास्थ्य के लक्षण तो नहीं है। कसौटी है जिंदादिली। इसकी उपलब्धि के कई सोपान हैं, कई आयाम हैं। यहां प्रस्तुत हैं ध्यान की एक निहायत सरल विधि जो चाहेगी आपसे सिर्फ दो क्षण।

जब सुबह आप आंखें खोलो तो अपने ऊ र्जा से आते-आते आपकी गति कम होती जाए। रात तक आप ढीले हल्के हो जाएं। जब नींद की ओर अग्रसर हों, तो न कोई विचार न उत्तेजना, बस एक ठहराव की स्थिति। सैक्स सेलिब्रेशन हो तो वह भी तनावमुक्त, बिल्कुल नार्मल, कोरे कागज की अवस्था में समर्पित स्थिति में एक जिस्म, एक जान की अनुभूति के लिए। यही नैसर्गिक हैं, लेकिन है हमसे सर्वथा दूर।

शयन से पूर्व बिस्तर पर लेटे हुए यह भावे लाओ कि सुबह मैं प्रसन्न व तरोताजा महसूस करूंगा। संसार भावनामय है। इमोशन से हीन इंसान यंत्र है। उसकी जिंदगी में आनंद के निसर्ग के फूल नहीं खिल सकते। आप विचार शून्य, तनाव रहित होकर हृदय से केवल भाव करो। स्वयं को सुझाव दो तो भी सिर्फ भाव करो कि ऐसा होगा इस सुझाव में आदेश न हो कि ऐसा होना चाहिए। प्रतिज्ञा हठ या दृढ़ संकल्प से कठोरता आती है। आदेश अचेतन में द्वंद्व पैदा करता है। कुछ भी सहज व नैसर्गिक नहीं रह जाता। हमारा समाज आज एक विक्षिप्त मनोदश में जी रहा है। हर चीज निसर्ग के विपरित है, अप्राकृतिक है, यांत्रिक है। जरूरत मौलिकता की है, परम आंनद फलित तभी होगा।

बस सहज भाव से आदेशित नहीं, समर्पित स्वभाव से सुझाव दो कि ऐसा होगा। अगर चित्त की इस दशा से नींद में प्रवेश होगा तो सुबह प्रसन्नता व ऊर्जा से भरी मिलेगी। इसलिए कि शरीर व मन के बीच संवाद हो सकेगा। यह ध्यान मन के अवचेतन में प्रवेश कर इतना गहरा विश्राम और सुकून देता है कि जो गहरी से गहरी निंद्रा में भी संभव नहीं। नींद में तन सोता है मगर मन जागा रहकर, दिन में जो नहीं कर पाया होता वे सारे उपद्रव सपने में करता है।

ध्यान शरीर और मन के साथ आपका संवाद कराता है। यह सौहार्दपूर्ण संवाद आहिस्ता आपको स्वस्थ नींद में ले जाता है जहां न आप जागे होते हैं न सोए होते है। तंद्रा की यह अवस्था सम्मोहन में ट्रान्स कहलाती है। इस स्थिति में मस्तिष्क के भीतर अल्फा तरंगे पैदा होती हैं जो मन को सजग और शिथिल बनाकर देह व मन के बीच समस्वरता कायम करती हैं। इस क्षण में मस्तिष्क की तरंगे उतनी ही होती है। जितनी कि पृथ्वी की एक सेकेंड में लगभग सात साइकल्स मात्र मां की गोद में निश्चित लेटे हुए नवजात शिशु अथवा समग्र प्रेम न्यौछावर करने वाले प्रेमी की बाहों में पड़ी प्रेमिका जैसी अनुभूति मिलती है। या फिर जैसी आप चाहे।

अब दूसरी बात। सुबह जेसे ही जागो, तुरंत आंखें मत खोलो। रात शयन से पूर्व वाले सुझाव को दुहराओ। बस इस भाव में आओ कि मैं प्रसन्न हूं। मुझे प्रसन्न होना है ऐसा नही, बस मैं प्रसन्न हूं, तरोताजा हूं, ऊ र्जा से लबरेज हूं। इस करवट से उस करवट बदलते हुए इस भाव को चारों ओर से आवृत्त कर लेने दो। जागरण का सर्वाधिक मूल्यावान और अदभूत यह क्षण जो अनुभूति देगा वह आपकी चेतना में गहरे बैठ जायेगा।

रात सोने से पहले और सुबह आंख खोलने से पहले के ये दो क्षण 24 घंटे में सबसे महत्वपूर्ण क्षण हैं जब आप अपने अचेतन के सबसे करीब होते हैं। परदा गिरने के इर क्षणों में दिया गयाआपका सुझाव, आंतरिक भाव अचेतन आसानी से सुन लेता है। मनोविज्ञान और अब विज्ञान भी कहता है कि अचेतन जैसे ही कोई सुझाव सुनता है वह कारगर हो जाता है। इस अनुसार चेतना विस्तार होता है और स्वभाव परिवर्तन भी।

मात्र सप्ताह भी उक्त प्रयोग करें। आप पर यह काम करता है तो जारी रखें अन्यथा दूसरे आयामों सोपानों या प्रयोगों की ओररूख करें। जीवन-दर्शन विषयक किसी जिज्ञासा अथवा जिंदादिली से लबरेज जिंदगी के लिए किसी तरह के सहयोग सर्वथा निःशुल्क हेतु मो. 09897513837 पर अपना नाम, उम्र काम, स्टेशन, वैवाहिक स्तर व शिक्षा हडि्डयों का कमजोर हो जाना) से बचने के लिए कैल्शियम की जरूरत होती है।

आवश्यक मात्राः अमेरिका डॉक्टर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 800 मिग्रा एसएमएस करके स्व साक्षात्कार मिशन से संबंध्द हो सकते हैं। फोन से पत्र से अथवा प्रत्यक्ष मार्गदर्शन सहयोग बिना किंचित भी आर्थिक प्रतिदान के प्राप्त कर सकते हैं।

चेतना विकास व स्वास्थ्य के लिए पहले ध्यान का उपरोक्त प्रयोग करें। करके देखने में आपका कोई नुकसान नहीं होगा, आप पर काम कर गया तो आशातीत लाभ होगा। सिर्फ चार-पांच मिनट रात को और एक मिनट सुबह। जल्दी ही आप पायेंगे कि आपका नजरिया, आपका पूरा जीवन धीरे-धीरे बदलने लगा है।

बस रात्रि की यात्रा शुरू करनी है रात्रि के ध्यान से और सुबह की यात्रा शुरू करनी है सुबह के ध्यान से। उज्जवल व आनंदित वर्तमान के लिए हमारी शुभकानाएं। भविष्य के लिए इसलिए नहीं क्योंकि वह वर्तमान के गर्भ में पलता और वर्तमान से ही निकलता है।



Wednesday, August 29, 2012

मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं

मृत्यु का नाम सुनते ही साधारण व्यक्ति के होश उड़ जाते हैं और एक क्षण के लिये वह जैसे मर-सा जाता है। मृत्यु से डरने का मानव का स्वभाव-सा बन गया है। साधारण सा रोग, मामूली सी घटना, मृत्यु का विचार आदि शंकाजनक संयोग आते ही कमजोर आदमी कांप उठता है और सोचने लगता है कि कहीं वह बीमारी हमारे प्राण न ले ले। कहीं वह शत्रु हमें मार डालने की नहीं सोच रहा हो। संभव है वहां जाने से हम किसी घातक घटना के शिकार बन जाएं। मृत्यु के भय से मनुष्य खाने-पीने और प्रतिकूलताओं से जमकर मोर्चा लेने से डरता रहता है।


मृत्युभय उपहासास्पद

यही नहीं, किसी की मृत्यु देखकर, किसी दुर्घटना का समाचार सुनकर भी व्यक्ति अपनी मृत्यु की शंका से आक्रांत हो जाता है। यहां तक कभी-कभी स्वयं भी अकेले में संसार अपनी आयु के बीत गये वर्षों पर विचार करने से भी वह मृत्यु भय से उध्दिग्न हो उठता है। अंधेरे अथवा अपरिचित स्थानों में निर्भयतापूर्वक पदार्पण करने से भी उसे मृत्यु की शंका निरुत्साहित कर देती है। नि:संदेह मृत्यु का भय बड़ा ही व्यापक तथा चिरस्थायी होता है।

यदि इस मृत्यु-भय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो यह बड़ा ही क्षुद्र तथा उपहासास्पद ही प्रतीत होगा। पहले तो जो अनिवार्य है, आवश्यंभावी है, उसके विषय में डरना क्या? जब मृत्यु अटल है और एक दिन सभी को मरना ही है, तब उसके विषय में शंका का क्या प्रयोजन हो सकता है? यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने लायक नहीं है। हमारे पूर्वजों की एक लम्बी परंपरा मृत्यु के मुख में चली जा चुकी है और आगे भी आने वाले प्रजा उनका अनुसरण करती ही जाएगी, तब बीच में हमें क्या अधिकार रह जाता है कि उस निश्चित नियति के प्रति भयाकुल अथवा शंकाकुल होते रहें। मृत्यु को यदि जीवन का अंतिम एवं अपरिहार्य अतिथि मानकर उसकी ओर से निश्चित हो जाएं, तो न जाने अन्य कितने भयों से हम अनायास ही मुक्ति पा जायेंगे। मृत्यु का भय ही वस्तुत: सरे भयों की जड़ अथवा बीज है।

मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है, जो इस मानव जीवन का महत्व नहीं समझते और इस लंबी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। कामों को अधूरा छोड़कर ढेर लगा लेने वाले जब देखते हैं कि उनकी जीवन-अवधि की परिसमाप्ति निकट आ गयी है और उनके तमाम काम अधूरे पड़े हैं, तब वे मृत्यु के भय से कांप उठते हैं। सोचते हैं, मेरी जिंदगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरंतर बढ़ा चला आ रहा अभियान रुक जाता, तो मैं अपने काम पूरे कर लेता, किंतु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप चोटी पकड़कर घसीट ले जाती है।

गांधीजी का कथन

यदि मृत्यु से भयभीत होने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं सन्नध्द बना देता है, सुरक्षा के प्रबंधों तथा व्यवस्था के लिये सक्रिय रहता है, उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोड़ने से उतना नहीं डरता, जितना मरने के बाद न जाने क्या गति होगी, इस विचार से भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे भयानक तथा अंधेरे लोकों में भटकना होगा।

जीवन का चेतन तत्व

इस साधारण पक्ष के साथ-साथ मृत्यु के संबंध में एक अधिक गहरा और सत्य पक्ष भी है। जो इसका दार्शनिक पक्ष कहा जाता है। मनुष्य का जीवन दो तत्वों से मिलकर बना है। शरीर और उसमें निवास करने वाली चेतना। जीवन का चेतन-तत्व ही तो वास्तव में हम हैं। यह मृत्तिका पिंड तो उस चेतन की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। उसका वाहन भर ही है। रथ में बैठकर चलने वाला मनुष्य यदि स्वयं को रथ मान ले, तो उसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य को स्वयं अपने को ही नष्ट मान लेना चाहिये, किंतु ऐसा होता कहां है? रथ अथवा वाहन के नष्ट हो जाने पर भी उसका रथी अथवा सवार यथावत बना ही रहती है। हां, जब उसको अपने वाहन के प्रति अनुचित ममता हो जाती है, उसे ही अपना अस्तित्व एवं सर्वस्व मान बैठता है, तो अवश्य ही उसके नष्ट होने अथवा नष्ट होने की कल्पना से दु:ख होता है, किन्तु यह तो अज्ञान है। इसको किसी भी प्रकार से मान्यता नहीं दी जा सकती।

जीवन की अपेक्षा अधिक सुंडा

अब इतने पर भी यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से भयभीत होता है, तो यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह जो कुछ है वह अपने को न मानकर वह मानता है, जो वास्तव में है नहीं। इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि दिन भर काम करने के बाद शरीर थक जाता है, तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य मीठी नींद सो कर दूसरे दिन के लिये नयी स्फूर्ति तथा शक्ति से भर जाता है। तब जीवन की एक लंबी अवधि तक चलते रहने के लिये मृत्यु रूपी नींद की गोद में चली जाती है, तो इसमें खेद की क्या बात है? मृत्यु एक विश्राम लेकर वह पुन: किसी दूसरे शरीर में जागती है और नवीन स्फूर्ति, नये उत्साह से अपने लक्ष्य, मोक्ष की ओर अग्रसर हो चलती है। एक नहीं हजार तर्क और युक्तियों से यह बात सिध्द होती है कि मृत्यु, यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाय, तो जीवन से कहीं अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका ही पाई जाती है। महत्मा गांधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है। इसको देख समझकर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई कारण हो सकता है। वे लिखते हैं- 'मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुंदर होना चाहिये। जन्म से पूर्व मां के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है, उसे छोड़ देता हूं, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनाएं ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिये एक ही है।

जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिये। सदाचार तथा पुण्य परमार्थ से आलोकित जिंदगी में तो आनंद है ही मृत्यु के पश्चात तो अक्षय आनंद के कोष खुल जाते है। मृत्यु का भय छोड़िये और अपने पुण्य पुरुषार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों पर एक वीर योध्दा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिए।



Friday, August 17, 2012

मानसिक तनाव : आज के युग का सबसे बड़ा अभिशाप

मानसिक तनाव विश्वव्यापी समस्या है। वास्तव में आज की दौड़ती-भागती जिन्दगी में मानसिक तनाव जीवन का एक हिस्सा बन गया है। संत्रास, कुण्ठा, ऊब आदि तनाव के विभिन्न नाम हैं। अधिकांश लोगों को इस प्रकार के तनावों से गुजरना पड़ता है। मानसिक तनाव की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। तनाव आज के युग का सबसे बड़ा अभिशाप है।


आशा-निराशा, जय-पराजय, सफलता-असफलता, सुख-दुख, उतार-चढ़ाव, जीवन में धूप-छांव की भांति आते रहते हैं। यदि हम अपने अनुकूल समय में प्रसन्न रहें किन्तु प्रतिकूल समय में दिमाग पर तनाव की पैदा करें तो यह उचित नहीं है। हमें हरहाल में प्रसन्न रहने का प्रयास करना चाहिये।

भांति-भांति के तनाव

तनाव के अनेक कारण है। कहीं शोरगुल वाली काम करने की जगह किसी के लिये तनाव का कारण बनती है तो कभी कुछ लोग किसी ट्रैफिक जाम के कारण फंस जाने से तनवग्रस्त हो जाते हैं। इस प्रकार तनाव पैदा होने के कई कारण गिनाये जा सकते हैं। इनका हमारे स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है।

तनाव कई प्रकार के होते हैं और हर उम्र के अपने-अपने तनाव हैं। बच्चों के तनाव युवकों के तनाव से तथा युवकों के तनाव वृध्दों के तनाव से भिन्न होते हैं। बच्चों के तनाव के कुछ कारण मां-बाप से प्यार न मिलना, बच्चों को अनावश्यक रूप से डांटना, बच्चों को उनकी मन-पसंद वस्तु ने दिलाना, बच्चों के साथ भेदभाव इत्यादि हो सकते हैं।

युवा वर्ग के अपने तनाव हैं। अधिकांश युवकों के तनाव के पीछे मुख्य कारण आर्थिक है जो स्वयं के परिवार से प्रारंभ होते हैं। मध्यम एवं निम्न वर्गीय परिवारों में अभाव जनित कलह, असंतोष और अशांति से युवक नहीं बच पाते हैं। इसके अतिरिक्त सम्पन्न व समृध्द परिवारों के युवा वर्ग भी आज तनाव से मुक्त नहीं है क्योंकि युवाओं के आहार में अनियमितताएं, मादक द्रव्यों का सेवन, गलत सोहबत आदि के प्रभाव से निरंतर बढ़ोतरी होती है। इसके अतिरिक्त यौन संबंधी तथा विवाह संबंधी कुठांये भी तनाव को जन्म देती है। साथ ही योग्यतानुसार रोजगार न मिलना भी युवा वर्ग के तनाव का मुख्य कारण है। वृध्दों के तनाव विशेष रूप से संतान द्वारा उनका ठीक प्रकार से पालन न करना, रिटायर्ड होने के पश्चात आर्थिक समस्यायें पैदा होना, शारीरिक अक्षमता, संतान का गलत रास्ते पर भटक जाना आदि इसमें शामिल है। इसके अलावा आज के आधुनिक युग के कदम-कदम पर तनावग्रस्त लोग मिलते हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह सुख, शांति, समृध्दि व सम्पन्नता चाहता है लेकिन आधुनिक युग में ये चीजें ऐसी नहीं है जिन्हें आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

आज का युग प्रतिस्पर्धा व प्रतियोगिता का युग है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं को दूसरे व्यक्तियों से श्रेष्ठ साबित करना चाहता है और इसीलिये इच्छाओं का काई अंत नहीं रह गया है। इन्हीं सभी कारणों से हर वर्ग के लोग श्रमिक, मजदूर, विद्यार्थी, व्यापारी, अधिकारी, प्रबंधक यहां तक कि छोटे बच्चे भी तनाव के शिकार हैं। आज व्यक्ति के सामने कई प्रकार की समस्याएं हैं। व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक इत्यादि।

राजनीतिक उतार-चढ़ाव, बेरोजगारी, पारिवारिक वातावरण का अभाव आदि सब कारण ऐसे होते हैं जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन को लगातार अमानवीय बना रहे हैं। यहां तक कि प्यार और स्ेह जैसी मानवीय भावनाएं दिखावटी बन गयी है। अत्यधिक तनाव की पहचान है चेहरे पर पीलापन झलकना, पसीना आना, दिल की धड़कन तेज होना और थकान इनकी अनदेखी करना खतरनाक और घातक है। इसके नतीजे गंभीर ही नहीं विनाशकारी भी हो सकते हैं। परिणाम शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूपों में सामने आ सकते हैं। चकाचौंध, अत्यधिक कार्य तथा समय का दबाव भी तनाव पैदा करता है। घर में सहयोगी सदस्यों का कार्यालय में कर्मचारियों का तथा समाज में सामाजिक समर्थन न मिलना भी तनाव का कारण बन सकता है। हमारी आवश्यकताओं और क्षमताओं में असन्तुलन भी तनाव के लक्षण पैदा कर सकता है।

तनाव सिध्दांत के जनक महान मनोवैज्ञानिक डेन्स सलाई के अनुसार आज ‘मानसिक तनाव जीवन का हिस्सा बन गया है। आज ऐसे व्यक्ति की कल्पना असम्भव है जो मानसिक तनाव का अनुभव नहीं करता है।’

संसार के प्रसिध्द मनोवैज्ञानिक व कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो.जेम्स सीत्र रोलमने ने एक बार लिखा था- सत्रहवीं शताब्दी को पुनर्जाकरण काल कहा जाता है, अठारहवीं शताब्दी को बौध्दिककाल, उन्नीसवीं शताब्दी को प्रगतिकाल और बींसवीं शताब्दी को चिन्ताओं का काल कहा जाता है।

वाल्टर टेम्पिल ने भी मनुष्य की जिंदगी पर सटीक टिप्पणी करते हुए कहा है ‘मनुष्य रोते हुए पैदा होता है शिकायत करते हुए जीता है और अन्तत: निराश होकर मर जाता है।’

तनाव के कारण हार्ट अटैक, गर्भपात, अनिद्रा, कब्जियत, दर्द, एकाग्रता में कमी, चिड़चिड़ापन तो होता ही है इसके अलावा हृदय रोग, त्वचा के रोग, डायबिटीज, अल्सर है। तनाव व्यक्ति को उत्साहहीन चिंतित और उदासीन बना देता है।

तनाव न केवल लोगों को अस्वस्थ कर रहा है बल्कि बुरी तरह कार्यक्षमता को भी प्रभावित करता है। केवल ब्रिटेन में ही हर वर्ष चार करोड़ घंटों की हानि होती है। यह जानकारी प्रसिध्द मनोविज्ञानी ने दी है। उन्होंने ब्रिटेन में कई महत्वपूर्ण विषयों पर शोध कार्य किया है। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों में तनाव को गंभीर बीमारी के रूप में देखा जा रहा है। उस पर शोध भी हो रहा है और तनाव दूर करने की पहल भी शुरू हुई है।

तनाव से मुक्त रहने के उपाय

तनाव से मुक्ति मिल सकती है जब व्यक्ति स्वयं इससे मुक्त होने का प्रयास करे क्योंकि यह कोई ऐसी बीमारी नहीं है जिसे दवा औषधियों से दूर किया जा सके। फिर भी तनाव दूर करने के कुछ आसान उपाय बताये जा रहे हैं। इन उपायों की सफलता व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि वह इनका कितना पालन करता है।

1. परिवार जीवन की प्रथम पाठशाला है। व्यक्ति का पारिवारिक जीवन बहुत ही शांत होना चाहिये। यदि व्यक्ति का पारिवारिक जीवन अशांत व कलहयुक्त है तो परिवार का मुखिया और अन्य सभी सदस्य तनावग्रस्त रहेंगे। परिवार के हर सदस्य का यह दायित्व है कि वह प्रेम, शांति और सामंजस्य रखे।

2. बच्चों को अनावश्यक रूप से नहीं डांटना चाहिये, उन्हें किसी भी गलती पर मारना, पीटना नहीं चाहिये। उन्हें बहुत ही प्रेमपूर्वक कार्य करने के तौर-तरीके बताने चाहिये। घर में किसी एक सदस्य को अत्यधिक महत्व देना और दूसरे सदस्य की उपेक्षा करना भी अन्य सदस्यों के तनाव का कारण बनता है।

3. यदि समाज तनाव के बारे में कुछ करना चाहता है तो काम को मनुष्य के अनुकूल बनाने के लिये न केवल नये सिरे से प्रयास की जरूरत है बल्कि जीवन दशा सुधारने के भी प्रयास किये जाने चाहिये।

4. परिवार के सदस्यों का यह दायित्व है कि बच्चों में प्रारंभ से ही अच्छे संस्कार विकसित करें ताकि वे गलत संगत में न फंस जायें अन्यथा बच्चों के बिगड़ जाने पर पारिवारिक तनाव उत्पन्न हो जाता है।

5. परिवार के सदस्यों का यह दायित्व है कि वे धूम्रपान, मदिरापान और नशीली दवाओं का सेवन न करें अन्यथा बच्चों में इन आदतों का विकास हो जाता है जो कि पारिवारिक कलह का जन्मदाता और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।

6. जब आप कभी किसी चीज से चिंतित या परेशान हो तो उसे दबाइये मत क्योंकि कहा भी गया है कि चिन्ता चिता के समान है। अपनी चिन्ता व परेशानी उस समझदार एवं अनुभवी व्यक्ति को बताइये जो आपके विश्वास के योग्य हों और आपको सही दिशा तथा सलाह दे सके।

7. जब आपके पास कई कार्य एक साथ आ जाएं जो उन्हें देखकर आप परेशान या चिंतित न हो। ऐसा न समझे कि काम का बोझ है। कार्यों को आवश्यकता व प्राथमिकता के आधार पर करते जाएं और एक कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात् ही दूसरा कार्य हाथ में लेना चाहिये।

8. प्रात: काल जल्दी उठना चाहिये ताकि आपको कहीं भी जाना हो मसलन आपको कार्यालय 8.00 बजे पहुंचना है तो आप दैनिक कार्यों से निवृत होकर निश्चित समय पर वहां पहुंच जायें अन्यथा विलम्ब होने पर व्यर्थ की भाग-दौड़ रहेगी।

9. आप दिनभर कार्यालय में मानसिक श्रम करते हैं तो इससे तनाव उत्पन्न होता है, अत: शाम को घर जाने के पश्चात यदि किचन गार्डन हो तो उसमें कुछ देर कार्य करें या फिर कुछ देर संगीत सुनें अथवा पत्र-पत्रिकाएं पढ़नी चाहिये।

10. कार्य करते समय बीच में थोड़ा समय निकालकर पड़ोसी से गपशप कीजिये और थोड़ा टहलिये भी। इससे काम की अधिकता का तनाव निश्चित रूप से कम होगा।

11. जीवन में अभाव होने से भी मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। अभाव किसी भी वस्तु का हो सकता है। आप उस अभाव को दूर करने का अपने स्तर पर प्रयास करें। जब आप ज्यादा अभावग्रस्त हों तो उस समय उन व्यक्तियों के बारे में सोचना शुरू करें जिनके पास आपसे कम सुविधा व साधन हैं। यह विचार आते ही आप स्वयं को अधिक बेहतर समझेंगे मानसिक राहत महसूस करेंगे।

12. आप जब सफर कर रहे हों तो साथ में पत्र-पत्रिकाएं या पाकेट ट्रांजिस्टर रखें ताकि इंतजार के क्षणों का भरपूर उपयोग हो सके अन्यथा उन क्षणों में आपका दिमाग उस व्यवस्था को दोष देगा जिसके कारण आपको असुविधा हो रही है। अब तो मोबाइल रखें- संगीत का आनन्द लें।

13. दूसरों की सहायता करें, चिन्ता केवल अपना ध्यान रखने वाले सवारी करती है। जब आप हर समय दूसरों की भलाई का ध्यान रखेंगे तब आपको चिंता करके अपने कष्टों को बड़ा समझने का समय ही नहीं मिलेगा।

14. जीवन में आशावादी दृष्टिकोण रखें। कठिनाइयों एवं बाधाओं का खिलाड़ी की तरह सामना करें। जीवन को खेल समझें और जीतने की आशा से खेलें।

15. ऐसा होता तो अच्छा होता, यह सोचना छोड़िये। सदैव अच्छे की आशा रखिये। निराशाएं और असफलताएं आपके लिये सीढ़ी बनकर आयी है। इन पर चढ़कर आप सफलता और सुख के प्रांगण में प्रवेश करेंगे।

16. अपना समय अकेले में न बिताइये ताकि मस्तिष्क एक ही ओर केंद्रित न रहे। संगीत आदि के कार्यक्रमों, संग्रहलयों एवं पुस्तकालयों में जायें, मन कभी कुछ न करने को भी कर रहा हो तो टहलें, नदी-तालाब के किनारे जायें एवं प्राकृतिक वातावरण का आनन्द लें।

17. दूसरों के कार्यों में व्यर्थ का हस्तक्षेप न करें, दूसरों को बोलते वक्त बीच में टोकना उचित नहीं है, अधिक बोलने की अपेक्षा अधिक सुनने की आदत डालें, उपयोगी, रूचिकर है इस बात पर ज्यादा ध्यान दें।

18. जब आप निरंतर मानसिक कार्य करते-करते थकान का अनुभव करने लगें तो तत्काल कोई शारीरिक कार्य करना शुरू कर दें। यदि आप नौकरी-पेशा वाले हैं तो सार्वजनिक अवकाश का भरपूर आनन्द लें। अवकाश के क्षणों का भरपूर उपयोग करें। अपने आत्मीय जनों मित्रों व पारिवारिकजनों को पत्र लिखिये।

19. तनाव से छुटकारा पाने का एक सरल उपाय है- व्यक्ति को जिद्दी व दुराग्रही नहीं होना चाहिये।

20. प्रार्थना करें, व्यक्ति को आध्यात्मिक भी होना चाहिये। प्रतिदिन सभी पारिवारिकजन एक साथ बैठकर प्रार्थना करें ईश्वर शक्ति के प्रति आस्था, प्रेम, विश्वास एवं कृतज्ञता का भाव सभी प्रकार के तनावों से मुक्ति दिलाता है। अमेरिका की विख्यात मेडिकल साइन्टिस्ट एवं साइकोलोजिस्ट डाक्टर जोन बारो सेन्को के अनुसार प्रतिदिन नियत समय पर प्रार्थना करने से तनाव पैदा करने वाले हार्मोन एड्रिनिअल के रिसाव में काफी कमी हो जाती है।

21. झपकी लें, तनाव मुक्ति के लिये झपकी लें। फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के साइकोलाजी प्रोफेसर विल्स वेब के अनुसार दिन में कुछ देर झपकी लें तो तनाव, दबाव एवं दुश्चिन्ता से मुक्त होकर तरो-ताजा महसूस करेंगे।

22. तनाव मुक्ति का एक सरल उपाय यह भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपना मित्र बनाये, वाणी में मैत्री तथा दिल में प्रेम एवं दिमाग में शांति प्रदान करता है।

रॉकफेलर के नुस्खे

अमेरिका के उद्योगपति रॉकफेलर महोदय ने अपनी लम्बी आयु और स्वास्थ्य के बारे में ये बातें बताई :-

1. मैं अपनी दिनचर्या में गड़बड़ी नहीं होने देता। प्रतिदिन नियत समय पर भोजन लेता हूं, नियत समय पर सो जाता हूं।

2. मैं जब भी शारीरिक एवं मानसिक कष्ट का अनुभव करता हूं, तत्काल इस कष्ट का कारण मालूम करके कारण को दूर कर देता हूं। ऐसा करने से मेरा कष्ट बढ़ नहीं पाता।

3. मैं न मांस खाता हूं और न शराब का सेवन करता हूं। अन्य नशीले पदार्थों का सेवन भी नहीं करता हूं इनको मैं हानिकारक मानता हूं।

4. भोजन का प्रत्येक ग्रास खूब चबाकर खाता हूं। खाने में कभी जल्दी नहीं करता अर्थात् भोजन बहुत धीरे-धीरे करता हूं।

5. मैं अपने को मानसिक, शारीरिक दृष्टि से थककर चूर नहीं होने देता।

6. अपनी प्रकृति पर मुझे पूरा अधिकार है। क्रोध, शोक, मानसिक अवस्था मुझ पर कभी अधिकार नहीं पा सकती।

7. मैं उन व्यक्तियों में से नहीं हूं जो इस संसार में दुख का सागर समझते हैं। इसके विपनरित संसार में अत्यन्त रूचि लेता हूं। प्रतिदिन मन बहलाव के लिये कुछ समय व्यतीत करता हूं।

इन सब बातों का यदि थोड़ा भी गंभीरता के साथ पालन किया जाये तो अनेक कष्टों एवं परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है। तनाव अपने आप में अनेक बिमारियों और स्वास्थ्य समस्याएं पैदा करता है। हालांकि इससे पूर्ण मुक्त हो पाना शायद संभव न भी हो पाये, फिर भी यदि कुछ भी तनाव में कमी आती है तो इसमें लाभ स्पष्ट दिखायी देगा।



हंसिए-हंसाइए, रोग दूर भगाइए

जीवन सुख-दुख, अनुकूल-प्रतिकूल, अच्छी-बुरी परिस्थितियों का मिला जुला रूप है। यहां सब कुछ इच्छानुसार नहीं होता। प्रतिकूलताएं आती-आती रहती हैं। जब जीवन में कठिनाइयां-असुविधाएं आती हैं तो मानसिक तनाव और शारीरिक थकान का पैदा होना स्वाभाविक है।

ऐसी स्थितियों में आत्मरक्षा का एक ही कारगर उपाय है- हर समय प्रसन्न रहने के लिए हंसने-मुस्काने का सहारा लिया जाए। हंसते-हंसाते रहने से विषम परिस्थितियों में भी जीवन की गाड़ी आसानी से आगे बढ़ जाती है।

निराशा, उदासी, खिन्नता को दूर करने और भारी मन को हल्का करने में हंसने-मुस्कराने से बढ़िया उपाय दूसरा नहीं है। इसके लिये स्वस्थ मनोरंजन, मनोविनोद, हंसी-खुशी के प्रसंगों को अपनी दिनचर्या में अधिक से अधिक स्थान देना आवश्यक है। ईश्वर ने सभी प्राणियों में मनुष्य को हंसने-मुस्कराने की विशेषता प्रदान कर उसे श्रेष्ठ उपहार दिया है।

जीवन शक्ति को बढ़ाने, मन को प्रसन्नचित्त रखने, तनाव से मुक्ति दिलाने में हास्य बहुत सहायक है। प्रसन्नचित्त व्यक्ति जितने उन्नत, सुखी और शांत देखे जाते हैं, उतने उदास, खिन्न, मनहूस नहीं। प्रसन्न व्यक्तियों की बुध्दि अधिक तीव्र और विचार अधिक स्थिर होते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन की कठिनाइयों, परेशानियों को झेलने में अधिक समर्थ होते हैं।

रोगी के लिये भी हंसना व प्रसन्नचित रहना बहुत आवश्कता है। जो प्रसन्नचित्त और मुस्कराते रहते हैं, उन पर दवाइयों का असर भी तेजी से होता है और वे शीघ्र ही स्वस्थ हो जाते हैं। ठहाका लगाकर हंसने वालों का पाचन संस्थान अधिक तेजी से कार्य करता है।र् ईष्या, द्वेष, भय, उत्तेजना, क्रोध और चिंता जैसे मनोविकारों के कारण अथवा शारीरिक रोगों के फलस्वरूप शरीर में जो विष उत्पन्न हो जाते हैं, उनके निष्कासन में हंसना बहुत ही सहायक होता है।

प्रसन्न रहने व मुस्कराते रहने के लिए आवश्यक नहीं कि धन, संपत्ति और बहुमूल्य साधन सुविधाएं ही हों। मात्र विचार करने की शैली में परिवर्तन और दृष्टिकोण का सही रखना अत्यन्त आवश्यक है। हंसने मुस्कराने से मन हल्का होता है, ताजगी और स्फूर्ति बनी रहती है।

जिस प्रकार वृक्ष की जड़ में पानी देने से पत्तियां, फूल, तना और सभी अंग पोषक तत्व प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार हंसने मुस्कराने से शरीर के अंग-अवयवों की सक्रियता और स्फूर्ति भी बढ़ जाती है। यह स्वास्थ्य के लिये महौषधि है।

हंसना, मुस्कराना, प्रसन्न रहना अपने स्वास्थ्य के लिये ही नहीं, घर-परिवार, मित्र, पड़ोसी सभी की प्रसन्नता के लिये बहुत आवश्यक है। इसमें कुछ खर्च नहीं होता, वरन मिलनसारिता और आत्मीयता बढ़ती है तथा स्वस्थ और स्फूर्ति रहा जा सकता है। इसलिए हमें यही प्रयास करते रहना चाहिये कि सदैव हंसते-मुस्कराते बने रहकर प्रसन्न रहा जाय। जो प्रसन्न रहते हैं वास्तव में वे ही सुखी हैं।



Thursday, August 16, 2012

चिंता स्वास्थ्य को खाती है

इस भागमदौड़ भरी जिन्दगी में लगभग हर मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर आते रहते हैं जब चिंताएं उसे घेर लेती हैं। कुछ तो अपनी सूझ बूझ और धैर्य के कारण उनका निवारण कर मुक्ति पा लेते हैं किन्तु कुछ लोग भीरू प्रकृति के होते हैं जो समस्याओं के आ जाने पर उसका हल खोजने के बजाय भीतर ही भीतर चिंता रूपी अग्नि में अपने आपको जलाने लगते हैं।

खैर, इस वास्तविकता को भी नकारा नहीं जा सकता कि चिंताओं से इस भौतिक युग में पीछा छुड़ाना मुश्किल है क्योंकि हमारी इच्छाएं और कार्यक्षेत्र इतना फैल गया है कि चिंताओं से बिल्कुल ही मुक्ति पा जाना तो कठिन है। मनुष्य को चिंताग्रस्त न रहकर उसका उपाय खोजना चाहिये। चिंताओं में घुलते रहने से हमारा स्वास्थ्य और आयु क्षीण होते हैं। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययन के द्वारा यह तथ्य सामने आया है कि पुरुषों की तुलना में महिलायें समस्याओं से तीन गुणा ज्यादा चिंतित होती हैं। वे समाधान की ओर ध्यान नहीं देती, उल्टे समस्याओं की भयावहता के बारे में सोच-सोचकर परेशान रहती हैं। उनकी संघर्ष क्षमता, सहनशीलता और सोच बहुत कमजोर होती है। दूसरी तरफ ऐसे पुरुष जो भावुक, भीरू और कमजोर हृदय वाले होते हैं, वे समस्या के परिणाम के विपरीत विषय में ही सोचते हैं। नकारात्मक विचारों के कारण उनका मन मस्तिष्क और शरीर जर्जर हो जाता है और उनकी निर्णय क्षमता भी नष्ट होने लगती है। अत्यधिक चिंता का मानव शरीर पर बहुत बुरा और गहरा प्रभाव पड़ता है। इससे अनिद्रा, डायरिया, पेट की गड़बड़ी, मांसपेशियों में तनाव, मधुमेह, सिरदर्द तथा मानसिक तनाव जैसे रोग घेर लेते हैं। चिंता मनुष्य के स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व को भी नष्ट भ्रष्ट कर देती है। असमय में ही सिर के बाल सफेद हो जाते हैं, चेहरे पर झुर्रियां, मुंहासे और उदासी छाने लगती है। चेहरे का आकर्षण समाप्त होकर युवा असमय में ही वृध्द जैसा दिखाई देने लगता है।

एक बार मशहूर कामेडियन जार्ज बर्न्स से किसी ने पूछा कि चिंता पर विजय पाने का क्या तरीका है, तो उन्होंने उत्तर दिया, अगर कोई काम आपकी पहुंच से परे है तो उसके बारे में बेकार की चिंता करने का कोई औचित्य नहीं है। अगर आप किसी काम को ठीक से निभाने में सक्षम नहीं हैं तो उसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। मनुष्य एक चिंतनशील प्राणी है। उसमें अच्छा-बुरा समझने की शक्ति है। वह अपनी समस्याओं से अपने विवेक और सूझबूझ के द्वारा छुटकारा पाने की सामर्थ्य रखता है लेकिन जानवरों में इस तरह की क्षमता का अभाव होता है।

जब आप समस्याओं से घिर जायें तो अपने ऊपर नकारात्मक भावनाओं को हावी न होन दें। ऐसा करने से मनुष्य अपने होशो-हवास खो बैठता है। मान लीजिए कि आप किसी ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं जो आपको परेशान कर रही है और आप उसका तुरंत कोई उपाय नहीं खोज पा रहे हैं तो ऐसे समय में आपको चाहिए कि चिंताओं को भूलकर अपने मन को किसी दूसरी ओर लगा लेना चाहिए क्योंकि दूसरे कामों में मन लगाने से मूड में सुधार हो जाता है। ऐसे में मित्रों से गपशप लगायें या खेलें। अपनी समस्या के समाधान के लिये मित्रों से भी परामर्श ले सकते हैं। जब आपका उत्तेजित मस्तिष्क शांत हो जाये तो आप अपनी समस्या पर सोचें। चिंताएं अक्सर मिथ्या विश्वास के कारण भी पैदा होती है। ज्यादातर लोगों को, विशेषकर स्त्रियों को यह चिंता होती है कि सब लोग क्या कहेंगे? जग हंसाई होगी आदि। कोई भी व्यक्ति दोष रहित नहीं होता। दृढ़ता और समझदारी से चिंताओं पर विजय पाई जा सकती है। कुछ लोग अपनी चिंताओं से बेहद परेशान हो जाते हैं क्योंकि उसके परिणाम और खतरों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर सोचते हैं। हमें अपनी समस्याओं से साहसिक और रचनात्मक ढंग से निपटना चाहिये।

आजकल चिंता और तनाव से मुक्ति की दवाएं भी उपलब्ध हैं। शुरू-शुरू में तो इनसे राहत मिल सकती है परन्तु स्थायी तौर पर मुक्ति नहीं मिलती। इसलिये कोशिश होनी चाहिये कि हम अपने दिल दिमाग को मजबूत बनायें जिससे चिंताओं पर काबू पा सकने में समर्थ हो सकें।

चिंता के मूल को समाप्त करना चाहिये। व्यायाम और दूसरी शारीरिक गतिविधियां, हल्का संगीत तथा ध्यान आदि से ही चिंता से तत्कालीन मुक्ति पाई जा सकती है। समस्याओं से जूझिये, घबराइये नहीं, सब ठीक हो जायेगा।

Tuesday, July 10, 2012

तनाव से मुक्ति कैसे मिले

ज्यों-ज्यों सभ्यता के विकास के साथ जीवन की व्यस्तता बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों तनाव उत्पन्न करने वाले कारक भी बढ़ते जा रहे हैं। तनाव कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों का कारण माना जाता है। अतः तनाव से मुक्ति पाने के कुछ उपायों पर चर्चा करना निश्चित रूप से लाभदायक होगा।
तिरुवनन्तपुरम में श्री शेषन नामक विद्वान ने अपने एक भाषण में बताया कि जब किसी के प्रति हमारे मन में क्रोध उत्पन्न होता है तो उसे प्रकट करने में हम प्रायः असमर्थ रह जाते हैं। क्रोध प्रकट करते हैं कटु वचन कहकर, गाली देकर या मारपीट करके। इन सबके परिणाम हमारे लिए अधिक दुःख उत्पन्न करने वाले हो सकते हैं, इसलिए हम बहुधा ऐसे आचरणों से बचना चाहते हैं।
यद्यपि क्रोध को बाहरी आचरण द्वारा प्रकट नहीं करते तो भी क्रोध मन में बना रहता है और समय के बीतते-बीतते यह बैर का रूप धारण कर लेता है। यह ज्यादा गहरा हो जाता है और इसे उखाड़ फेंकना अधिक कठिन हो जाता है।
वैर का लक्षण क्या है? कैसे हम समझ पायेंगे कि हमारे मन में किसी के प्रति वैर छिपा हुआ है? इस संबंध में महात्मा गौतम बुध्द की यह उक्ति बहुत प्रासंगिक लगती है।
अककोछिमं, अवधिमं, अजिनिमं, अहासिमं, येतन्ने पन्हचन्ति
वैरं तेसु न सम्मति- (धम्मपद)
यदि किसी व्यक्ति के संबंध में सोचते ही हमारे मन में यह विचार आये कि उसने मुझे मारा, सताया, मेरा उपहास किया तो निश्चित मानिए कि हमारे मन में उसके प्रति वैर बना हुआ है। जब तक मन की यह प्रवृत्ति बनी रहेगी, तब तक उस व्यक्ति के प्रति हमारा वैर नहीं मिट सकता।
संभव है कि उस व्यक्ति ने कभी हमारा उपकार भी किया होगा और हमारे मन में रूढ़ मूल वैर उसकी याद को ही भुला देता है। यदि उसके किए उपकार का याद आए तो वैर अपने आप क्षीण हो जायेगा?
मेरे एक मित्र हैं डा. मुरलीधरन तंपी जो केरल कृषि विश्वविद्यालय में विज्ञान के प्रोफेसर और निदेशक रहे। वे सेवानिवृत्ति के बाद मनोविज्ञान संबंधी अध्ययन व लेखन में लगे हुए हैं। सन्मनस नामक अपनी मलयालम पुस्तक की एक प्रति मुझे भेंट करते हुए उन्होंन कहा, तनाव का मुख्य कारण हमारे मन के नकारात्मक सोच है। यानी क्रोध, विद्वेष, वैर,र् ईष्या, शोक, मोह, मद, मत्सर इत्यादि इनका प्रतिस्थापन यदि सकारात्मक सोच से कर सकेंगे तो तनाव से मुक्ति अवश्य मिलेगी।
कैसे पता चलेगा कि हमारे मन में निगेटिव थाट्स ज्यादा हैं या पॉजिटिव थाट्स ज्यादा हैं? पुट्टपर्ती में जो भगवान सत्यसाई बाबा थे, उनके आश्रम में, उनके जीवनकाल में दो-तीन बार जाने का सुअवशर मुझे मिला है।
आश्रम में एक दीवार पर एक घड़ी के चित्र के समीप लिखा था-वाच युअर थाट्स, वाच युवर वड्र्स, वाच युवट एक्शन। यानी अपने-अपने चिन्तन पर, अपनी वाणी पर और अपने कर्मों पर निगरानी रखो। बहुधा हम दूसरों के चिन्तन की, दूसरों का वाणी की, दूसरों के कर्मों की आलोचना किया करते हैं। अपने चिन्तन, वाणी और कर्म का न हम निरीक्षण करते हैं न उनकी आलोचना करते हैं। यदि थोड़ा समय हम अपने अन्दर मुड़कर भी देखें तो अपने मन में पनप रहे निगेटिव थाट्स का पता लगा पायेगा। महात्मा कबीर का कथन भी यहां स्मरणीय है-
बालन कहा बिगरिया, जो मूंडो बार बार?
मन को क्यों नहीं मूंडिए, जा में विषय विकार?
उस्तरे या ब्लेड से सिर का और मुख का मुंडन करना तो आसान है। मन का मुंडन कैसे करें? यही योग-ध्यान हमारी सहायता कर सकता है। प्रतिदिन किसी निश्चित स्थान पर, निश्चित समय पर किसी सुविधापूर्ण आसन पर बैठकर करीब बीस मिनट तक ध्यान का अभ्यास करें तो हमें अपने मन के अन्दर के विकारों के स्पष्ट दर्शन मिल सकते हैं। मन में स्ेह, दया, करुणा, क्षमा, मुदिता जैसे पॉजिटिव थाट्स लाएं तो उसी के साथ निगेटिव थाट्स मिटते जायेंगे? प्रकाश के फैलने पर अंधकार दूर हो ही जाती है।

Sunday, June 17, 2012

काले हैं तो क्या हुआ…

कुछ पुरुष अथवा महिलाएं अपने काले या सांवले रंग के कारण दुःखी बने रहते हैं। वे शीशे के सामने जाने से घबराते हैं। उन्हें अपने रंग की चिंता किये बिना, अपने शरीर को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। रंग गोरा होने पर यदि कोई रोगी रहता है तो उस गोरी त्वचा का क्या लाभ? हमें रोग मुक्त रहकर शरीर को स्वस्थ रखना चाहिए, यह हमारा धर्म है।


त्वचा के सांवलेपन को हटाने के लिए बाजारू प्रसाधनों पर पैसा बर्बाद मत करें। ऐसा खाएं कि आपकी सांवली त्वचा पर भी निखार आने लगे।

स्वस्थ रहने के लिए पूरे शरीर को नियमित साफ रखें। इससे त्वचा में भी सुधार आता जायेगा।

शरीर पर नियमित मालिश करने के पश्चात् नहाने की आदत बना लें। इससे त्वचा पर खुरदरा या रूखापन भी नहीं आयेगा। शरीर में रक्त संचार ठीक होगा। रोग दूर भागेंगे।

जैतून का तेल खुरदरी या रूखी त्वचा को ठीक कर देता है। इसको लगाना अच्छा रहता है।

कच्चा दूध थोड़ा-सा कटोरी में लें। हल्की चुटकी नमक डालें। रूई के साथ चेहरे तथा हाथों पर मलें। रंग रूप दोनों निखरेंगे। स्वास्थ्य में भी वृध्दि आने लगेगी, क्योंकि रक्त संचार बढ़ जायेगा।

कच्ची सब्जियां, कच्चे फल, हरी सब्जियां तथा मौसमी फल अधिक मात्रा में लें। तले पदार्थों तथा जंक फूड से बचें। स्वस्थ होते जायेंगे।

शरीर को दिन भर 8 से 10 गिलास पानी मिलना ही चाहिए। इससे शरीर तो स्वस्थ होगा ही, आपकी सांवली त्वचा में भी चमक आती जायेगी।

गाजर खाएं। इसका रस चेहरे पर मलें। पानी में नींबू डालकर पीएं। छिलके को चेहरे पर मलें। एक-दो सप्ताह में चमत्कारी परिवर्तन देखेंगे।

अधिकारिक ताजा हवा, शुध्द हवा में जाएं। स्वास्थ्य तथा रंग, दोनों उत्तम होंगे।

Thursday, June 14, 2012

तनाव से छुटकारा दिलाएगी दोस्ती

अक्सर यह देखने को मिलता है कि जिन लोगों के अधिक दोस्त होते हैं वे कम तनावग्रस्त होते हैं बजाय उनके जो प्राय: गुमसुम से रहते हैं। दूसरों के साथ बातें करने से दिल का बोझ हल्का होने की कहावत बहुत पुरानी है। अब तो साइंस भी यह मान चुकी है कि तनाव से दूर रहने के लिए खुद को व्यस्त रखना जरूरी है। दिल और दिमाग की सोच के आपस में टकराने से तनाव पैदा होता है, इसलिए दिल की बीमारी का इससे गहरा रिश्ता है क्योंकि तनाव का भयंकर रूप ही हृदय रोग में बदलता है। बात बात पर निराश होना मन में जलन की भावना का अधिक होना या फिर उम्मीदों का बिखर जाना जैसी अनेक परेशानियां तनाव बढ़ाने में अहम भूमिका निभाती हैं।


पहले यह आम धारणा थी कि महिलाएं ज्यादा तनावग्रस्त होती हैं और पुरुष कम लेकिन अब तो मर्दों में भी यह बीमारी बढ़ती ही जा रही है। इसका एक कारण बढ़ती जनसंख्या के साथ बढ़ता कंपीटीशन भी है।

शिकागो में हुए एक सर्वेक्षण के हवाले से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जो लोग लम्बे समय तक टेलीफोन पर बातें करते हैं या बच्चों के साथ अधिक वक्त बिताते हैं, वे हमेशा प्रसन्नचित नजर आते हैं। रेडियो पर संगीत सुनना और टीवी पर मनपसंद प्रोग्राम देखना भी तनाव भगाने के लिए उपयोगी बताया गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि ज्यादा से ज्यादा दोस्त बनाएं और तनाव से छुटकारा पायें।

Wednesday, May 23, 2012

लगाएं मन पर लगाम

मन की दो सर्वज्ञात विशेषताएं हैं- चंचलता एवं सुख लिप्सा। बंदर जैसी उछल-कूद, आवारा छोकरों जैसी मटरगश्ती, चिड़ियों की तरह यहां-वहां फुदकते फिरना, उसकी चपलवृत्ति को संतुष्टि पहुंचाते हैं। कल्पना के महलों की सृष्टि, कल्पना लोकों का तीव्र भ्रमण-विचरण, उसकी शक्ति का बड़ा अंश तो इन्हीं भटकनों, जंगलों में नष्ट हो जाता है। शक्ति का यह व्यर्थ छीजन रोककर उसे सुनिश्चित एवं सार्थक प्रयोजन में केंद्रित करना ही योगाभ्यास है। शक्तियों का यह सही उपयोग जीवन में स्पष्ट और आश्चर्यजनक परिणाम सामने लाता है। पिछड़ेपन के स्थान पर प्रगतिशीलता आ जाती है। दरिद्रता समृध्दि में परिणित हो जाती है। भटकाव की जगह प्रचंड पुरुषार्थ प्रवृत्ति पनपने पर परिस्थतियां अनुकूल बनने लगती हैं और साधन सिचिंत होने लगते हैं। लौकिक सफलताएं भी लक्ष्य केंद्रित पुरुषार्थ का ही परिणाम होती हैं। मन की भटकन रोककर ही उसे लक्ष्योन्मुख बनाया जा सकता है।


सुषुप्त शक्ति केंद्र

यही सधा हुआ मन आत्मिक क्षेत्र में लगाए जाने पर सुषुप्त शक्ति केंद्रों को जाग्रत व क्रियाशील बनाता है और दिव्य क्षमताएं प्रकाश में आती हैं। अंतश्चेतना का परिष्कार सामान्य व्यक्ति को महामानव स्तर पर ले जाकर ही रहता है। प्रगति का संपूर्ण इतिहास मन:शक्ति के पूंजीभूत लक्ष्य केंद्रित पुरुषार्थ की ही यश गाथा है। चंचलता की प्रवृति को पुरुषार्थ की प्रवृत्ति में परिवर्तित करने का पराक्रम ही प्रगति का सार्वभौम आधार रहा है।

मन की दूसरी प्रवृत्ति है- सुख लिप्सा। शारीरिक सुखों के भोग का माध्यम है- इंद्रियां। उनके द्वारा विभिन्न वासनाओं को स्वाद मिलता है। पेट और प्रजनन से संबंधित सुखों के लिये तरह-तरह की चेष्टाओं में मन उलझा रहता है और इन सुखों की प्राप्ति के लिये प्रेरणा ही नहीं देता, बल्कि इनकी मात्रा कल्पनाएं करने में भी बहुत अधिक समय नष्ट करता है। फिर इन भौतिक सुखों के लिये साधन जुटाने में भी मन को जाने कितने ताने-बाने बुनने पड़ते हैं। इंद्रियों की प्रिय वस्तु या व्यक्ति को देखने, सुनने, छूने, सूंघने अथवा स्वाद लेने की लिप्साएं मन को ललक से भर देती हैं और वह उसी दिशा में लगा रहता है। अहंकार की पूर्ति के लिये मन औरों पर प्रभाव डालने हेतु तरह-तरह की चेष्टाएं करता है और व्यक्ति भांति-भांति के ठाट-बाट बनाता है। संचय और स्वामित्य की इच्छाएं भी अनेक विधि प्रयत्नों का कारण बनती हैं। इन सभी इच्छाओं, आकांक्षाओं की प्यास को व्यक्त करने के लिये ही तृष्णा शब्द का प्रयोग होता है। अहं-भावना पर आघात पहुंचते ही प्रतिशोध की उत्तेजना प्रबल हो उठती है। इच्छित विषय पर अपना हक मान लेना और फिर उनके प्राप्त न होने पर या प्राप्ति में बाधा पड़ने पर भड़क उठना भी अहंता पर आघात के ही कारण होता है, यह उत्तेजना ही क्रोध है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि संपूर्ण विकार समूह वस्तुत: मन में उठने वाली प्रतिक्रियाएं मात्र हैं, जो भौतिक सुख की लिप्साओं के कारण उठते रहते हैं। लिप्सा की इस ललक की दिशा को उलट देना ही 'तप' है।

सुख मन का विषय है, जबकि आनंद और आत्मसंतोष आत्मा का। सुख लिप्सा का अभ्यस्त मन आनंद के स्वाद को नहीं जान पाता और जिसे जाना ही नहीं, उसके प्रति गहरी स्थायी प्रीति, सच्चा आकर्षण संभव नहीं। आनंद की आकांक्षा विषय लोलुप मन में प्रगाढ़ नहीं होती। उसके लिये तो मन का प्रशिक्षण आवश्यक है। यह प्रशिक्षण प्रक्रिया ही तप है। तपस्वी को कष्ट इसी अर्थ में सहना पड़ता है कि अभ्यस्त सुख का अवसर जाता रहता है। शारीरिक सुख-सुविधाएं सिमटती हैं, मानसिक आमोद-प्रमोद का भी अवकाश नहीं रहता है और आदर्शनिष्ठ आचरण आर्थिक समृध्दि के भी आड़े ही आता है। प्रत्यक्ष तौर पर तो, ऐसे परिणामों के लिये किया जाने वाला प्रयास मूर्खता ही प्रतीत होगा, लेकिन श्रेष्ठ उपलब्धियों का राजमार्ग यही है।

किसान, विद्यार्थी, पहलवान, श्रमिक, व्यवसायी, कलाकार आदि को भी अपनी प्रगति व उपलब्धियों की प्राप्ति के लिये बाल-चंचलता से मन को विरत ही करना पड़ता है। और अपने नीरस प्रयोजनों में ही मन:शक्ति नियोजित करनी पड़ती है। शौक मौज के अभ्यस्त उनके संगी उन लोगों की ऐसी लक्ष्योन्मुख प्रवृत्तियों का मजाक भी उड़ाते हैं, लेकिन सभी जानते हैं कि अंतत: बुध्दिमान और प्रगतिशील ऐसे ही लोगों को माना जाता है, जो चित्त की चपलता को नियंत्रित कर उसे अपने लक्ष्य की ओर ही लगाए रहते हैं। वह कृषि का क्षेत्र हो या शिक्षा का, शरीर सौष्ठव का हो या आर्थिक समृध्दि का, कला-कौशल का हो या वैज्ञानिक आविष्कार का अथवा दार्शनिक चिंतन-मनन का।

दलदल में कंठ तक फंसता हुआ मनुष्य प्रगति पर अग्रसर कैसे हो? पहला प्रयास डूबने की स्थिति से उबरने का होना चाहिये। मन को तृष्णाओं से और शरीर को वासनाओं के गर्त में गिरने से बचाया जाना चाहिये।

सादा जीवन, उच्च विचार

पतन में गिरने से बचाना और ऊंचा उठाने का सुयोग बनना तभी संभव है, जब सांसारिक इच्छाओं की ओर सरपट दौड़ने की आदत बदली जाए और उलटकर उन महत्वाकांक्षाओं के मार्ग पर चला जाए तो महानता के लक्ष्य तक पहुंचाता है।

परिवर्तन की यह संधि वेला आई या नहीं, इसकी एक ही कसौटी है कि औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकार हुआ या नहीं। सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श की महत्ता मानी गयी या नहीं। अमीरी का बड़प्पन निरर्थक मानकर महानता का गौरव गले उतरा या नहीं। यदि इतना बन पड़े तो जीवन वस्तुत: नितांत हल्का-फुल्का हो जाएगा। उसकी राई रत्ती जितनी आवश्यक है, तनिक सी सूझ-बूझ और मेहनत के सहारे पूरी होती चलेंगी।

सांसारिक समस्याएं और कठिनाइयां सरलतापूर्वक हल होती चलेंगी। अनसुलझी कोई गुत्थी रहेगी नहीं। जहां संतोष और सादगी का रसास्वादन हुआ नहीं कि वह परिस्थितियां देखते-देखते बदल जाएंगी जो व्यस्त रखती थी और त्रस्त करती थीं। महत्वाकांक्षाएं वही श्रेयस्कर हैं, जो बड़ा नहीं महान बनाएं। महान बनने का एक ही उपाय है कि दृष्टिकोण और कार्यक्रम महान बनाया जाए, उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र और शालीन व्यवहार, यह तीनों का एक त्रिभुज हैं जो मिलकर महानता की समग्र आकृति बनाते हैं। इन्हीं का समन्वय त्रिवेणी संगम बनाता है।

Sunday, May 20, 2012

महिलाएं और मानसिक तनाव

मानव की भागती-दौड़ती जिन्दगी का एक प्रमुख हिस्सा बन गया है तनाव। यों तो मानसिक तनाव के अनेक कारण है परन्तु आंकड़ों से विदित होता है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं तनाव से अधिक ग्रसित होती हैं।

महिलाएं स्वभाव से ही संवेदनशील होती हैं अत: छोटी-छोटी बातों से भी वे प्रभावित हो जाती हैं। घरेलू महिलाओं की तुलना में नौकरीपेशा महिलाओं में तनाव की तीव्रता अधिक रहती है। इसका कारण यह है कि उन पर घर-बाहर दोनों का उत्तरदायित्व रहता है।

वे अपने मन पर हमेशा एक न एक बोझ लिए रहती हैं। नौकरी पर जाने से पहले घर पर पति व बच्चों तथा घर की सारी जिम्मेदारी पूरी करनी होती है, परिवार के सब सदस्यों का पूरा ख्याल रखना पड़ता है।

ऑफिस में समय पर पहुंचने की जल्दी, अपने कार्य को पुरुषों के समान ही कुशलता से कर पाने की चुनौती, वक्त पर घर आना, घर-गृहस्थी में कहीं दरार न आने देना, कुशल गृहिणी कार् कत्तव्य पालन करते हुए अतिरिक्त आय घर में लाना, रिश्तेदारों मेहमानों की जिम्मेदारी निभाना आदि सभी दायित्वों को निभाना पड़ता है, हालांकि उन्हें भी कामकाज का तनाव, बच्चों के होमवर्क का तनाव, मेहमानों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों का तनाव भी कम नहीं रहता।

दूसरों की सुख समृध्दि को देखकर कुढ़ना, दूसरों के दोषों को देखना,र् ईष्या आदि भी मानसिक तनाव में रहने वाली महिलाएं अनिद्रा, सिरदर्द, दिल की धड़कन, मधुमेह जैसे रोगों में फंसकर अपने स्वास्थ्य को बर्बाद करती है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि आठ घंटे शारीरिक श्रम से उतनी शक्ति नष्ट नहीं होती जितनी आधा घंटा तनाव या उद्वेग से होती है अत: स्वस्थ और निरोग रहने के लिए मन को तनावमुक्त रख हंसने-हंसाने की आदत डालनी चाहिए। चित्त को संतुष्ट व प्रसन्न रखें। रोजमर्रा के जीवन में परेशानियां हर किसी को आती हैं, लेकिन उनसे विचलित नहीं होना चाहिए।

Thursday, April 12, 2012

बच्चों के तनाव को पहचानें

तनाव एक ऐसा धुन है जो बच्चों को भी नहीं छोड़ता। वे भी उसकी चपेट में अनजाने में आ जाते हैं। पहले तो 10 साल तक के बच्चे मस्त खेलते कूदते रहते थे, अपने बचपन का पूरा आनन्द उठाते थे पर आज के युग में बच्चा दो वर्ष का होता है तो माता-पिता उन्हें हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में रोजमर्रा में प्रयोग होने वाले शब्दों का उच्चारण सिखाना शुरू कर देते हैं। बच्चा उसी उम्र से ही तनाव में आना शुरू हो जाता है।
उसके बाद स्कूल जाना, वहां अनुशासन में रहना, कई मित्रों के साथ उठना बैठना व रंगों की पहचान सीखना शुरू कर देता है। न आने पर उसे यह भय सताता है कि मुझे मार या डांट न पड़ जाये। उस तनाव से बहुत बार बच्चा कनफ्यूज हो जाता है और भूल जाता है।
माता-पिता को चाहिये कि बच्चा यदि थका थका सहमा रहे या बार-बार सिरदर्द, पेटदर्द की शिकायत करे तो उसे आवश्यकता है प्यार की और उसके साथ अच्छा समय बिताने की। बच्चे में कुछ ऐसे लक्षण दिखाई दें तो माता-पिता को उनकी तह तक जाना चाहिये और वातावरण को बोझिल न बना कर हल्का और खुशनुमा बनाने का प्रयास करना चाहिये। ध्यान रखें कि जब कभी निम्नलिखित लक्षणों में से कुछ लक्षण छोटे बच्चों में दिखाई दें तो हो सकता है कि बच्चा कुछ कारणों से तनावग्रस्त हो।
. थका थका रहना।
. जल्दी जल्दी बीमार पड़ना।
. चिड़चिड़ा बन छोटी-छोटी बात पर रोते रहना।
. अक्सर सिरदर्द और पेटदर्द की शिकायत करना।
. कम नींद लेना।
. भूख अधिक या कम लगना।
. बेचैन रहना, ध्यान का न लगना।
. स्कूल जाने में आनाकानी करना।
. खाने में नखरे करना और खाने के बाद उल्टी कर देना।
. नाखून चबाना, बात बात पर झल्लाना।
. दूसरे बच्चों और परिवार के लोगों के साथ मिक्स अप न होना।
. अपने खिलौनों को दूसरे के साथ मिलकर न खेलना या स्वयं भी उनसे न खेलना।
. दूसरों के सामने अधिक तंग करना या दूसरों से बात न करने देना।
. बहुत छोटा बच्चा बनकर व्यवहार करना।
ऐसा महसूस होने पर बच्चे पर विशेष ध्यान देना चाहिये और बाल रोग विशेषज्ञ से मिलकर परामर्श लें। माता-पिता को ऐसे में घर के वातावरण को खुशनुमा बनाना चाहिये और बच्चे से बैठकर खेल-खेल में उसके तनाव के बारे में जानकारी लेनी चाहिये। यदि किसी प्रकार का डर बच्चे में हो तो उसे दूर करने का पूरा प्रयास करना चाहिये। माता-पिता को अपना तनाव बच्चों के सामने प्रदर्शित नहीं करना चाहिये। बच्चे को उचित आहार दें और उचित आराम का ध्यान रखें। कुछ समय बच्चों के साथ बच्चे बनकर खेलें। अन्य बच्चों को बुलाकर उनकी दोस्ती करवाएं और खाने तथा खेलने की चीजों को मिल बांट कर खाना व खेलना सिखाएं।
बच्चों की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करें। उन्हें एकदम टोक कर चुप न करवायें। बच्चों को खाली समय में अपनी इच्छा से खेलने दें या एकआध टी.वी. सीरियल देखने दें पर ध्यान रखते रहें कि खाली समय में बच्चा कुछ गलत आदत तो नहीं सीख रहा। मात्र नजर रखें, बच्चों पर हावी न हों।
असफलता का भय बच्चों के मन में न उपजने दें। बच्चों को सकारात्मक सोच दें ताकि बच्चे के मानसिक विकास पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े।
छोटे बहन-भाइयों के प्रति उनमें प्यार उत्पन्न करवाएं और जिम्मेदारी की भावना जागृत करें। बड़े भाइयों के प्रति सम्मान करना सिखाएं। बच्चों पर अधिक दबाव न डालें, न ही समयबध्द कार्यक्रम में उन्हें बांधें। खाली समय में आउटडोर गेम्स के प्रति बच्चों को उत्साहित करें। टी.वी. कम्प्यूटर पर कंट्रोल रखें नहीं तो बच्चे घरघुस्सु बन कर रह जाते हैं। दूसरों के बीच तालमेल बनाना सिखाएं। इस प्रकार माता-पिता बच्चों के तनाव को दूर करने में सहायता कर सकते हैं।

Thursday, March 29, 2012

चिंता छोड़ें - आनन्द से जिएं!

वैज्ञानिक बताते हैं कि यदि प्रसन्न, चिंता मुक्त और प्रफुल्ल रहना चाहते हैं तो भूलना सीखें। व्यर्थ की बातें दिमाग से बाहर फैंक दें अच्छी लाभदायक बातें दिमाग में रखें तो कुछ हद तक चिंता, टैंशन से निजात पायी जा सकती है। कुछ सूत्र याद रखें-
- चिंता एक प्रकार की कायरता है- जो किसी भी परिस्थिति की सम्भावना के काल्पनिक डर के कारण अकारण ही पैदा हो जाती है और हमें विचलित कर देती है। चिंताग्रस्त मानसिक अवस्था लेकर सोने से चैन की नींद कोसों दूर भाग जाती है।
- हम प्रकृति के विरुध्द नहीं जा सकते-जो होता है उसे होने दें- उसके सहभागी बनें और समभाव रहें! हम चिंता करके किसी भी परिस्थिति को रोक या बदल नहीं सकते। आज की आज और कल की कल देखेंगे, की आदत बनाएं।
- अक्सर हम कल्पनाओं के कारण चिंतित हो जाते हैं। बच्चा बाहर से घर आने में लेट हो जाए तो हम वो अनजानी अनहोनी कल्पनाएं करने लगते हैं जो कभी सम्भव नहीं हो सकती। लड़की कालेज से घर में आने में देरी कर दें तो मन में उल्टी सीधी भावनाएं जागृत होने लगती हैं जिससे मानसिक कुण्ठा, ग्लानि चिंता-डिप्रेशन होने लगता है। इससे बचना चाहिए। बच्चों को कहा जाए कि यदि कहीं कारणवश देर हो जाए तो फोन या मोबाइल पर घर में इन्फार्म कर दें।
- अक्सर जिस काम की फिक्र होती है बार-बार उसी बात का जिक्र किया जाता है। चिंता ऐसी भट्ठी है जो जीवित को जलाती है जबकि चिंता मृत्यु उपरान्त जलाती है। चिंता दहति निर्जीव को चिंता जीव समेत। अक्सर चिंता फिक्र में अवसाद (डिप्रेशन) हो जाता है। व्यक्ति सूख कर कांटा हो जाता है। हमें यह जान लेना चाहिए कि यदि चिंता का इलाज है तो चिंता क्यों करें। यदि ला-इलाज है तो चिंता क्यों करें। जिसका कोई इलाज ही नहीं- उसे सहन और वहन करना पड़ता है- मुश्किल बात यह है कि हमारी सबसे बड़ी मुसीबतें वे हैं जो हम पर कभी आती ही नहीं। यह बात जान लेनी चाहिए कि जब तक पुल रास्ते में न आए तब तक उसे पार करने की चिंता नहीं करनी चाहिए- जब तक हमें कष्ट नहीं आता तब तक कष्ट को भी नष्ट नहीं देना चाहिए।
- कई लोग बहुत छोटी-छोटी बातों को लेकर चिंतित हो उठते हैं। राई का पहाड़ तो सब बना लेते हैं मजा तो तब है जब आप पहाड़ की राई बना डालें। सदा आशावादी बनना चाहिए- निराशावादी विचार हमें चिंताग्रस्त कर देते हैं। जैसे को तैसा करके परेशानियों में वृध्दि न करें। उसे क्षमा करके अपने आप को भी चिंता मुक्त करने की क्षमता बनाएं।
- बीती ताहि बिसारिये, आगे की सुध ले। आज की परिधि में रहें- कल की बात पुरानी, छोड़ों कल का बातें, यही जीवन का नियम है।
- हर रोज एक नयी जिन्दगी की शुरुआत करनी चाहिए- प्रतिदिन ऐसे जिएं की आज ही जीना है। पूरे दिन का सुन्दर और अच्छा कार्यक्रम बनाये। किसी सम्भावित परिस्थिति के लिए अपने आपको पूर्णतः तैयार रखें। दो-तीन दिन में जो होना होता है, हो ही जाता है। उसके बाद जीवन यथावत चलने लगता है। अपनी पूरी श्रध्दा से अच्छे से अच्छा कार्य करें। यह कभी हो नहीं सकता कि सद्कर्म का फल कड़वा हो, मीठा होगा।
- चिन्ता मुक्त जीना सचमुच एक कला है। जीने का आकांक्षा एवं उत्कण्ठा है, जो चिन्ताओं को अपने मस्तिष्क से दूर रखता है वह अवश्य ही दीर्घजीवी होता है। वह अपने शरीर का स्वतः काया कल्प कर लेता है। ईश्वर ने हमें चिंता मुक्त जीवन जीने के लिए भेजा है। वैसे ही जिएं।

Sunday, March 11, 2012

तनाव! रोग नहीं मनोरोग भी है

सुबह जल्दी उठना और रात देर से सोना। काम के चलते घंटों घंटों परेशान रहना। कई रात बिना सोए गुजार देना। दिन भर कंप्यूटर के सामने बैठे-बैठे नये-नये आइडियाज सोचना। खाते वक्त तमाम सवालों के हल खोजना। अपने प्रतिस्पर्धा को मात देने के उपाय सोचना। कहने का मतलब यह है कि 7 दिन 24 घंटे तनाव हमें घेरे रहता है। इस तरह देखा जाए तो तनाव से निजात पाने का हमारे पास कोई सटीक उपाय नहीं है। क्योंकि ऐसा नहीं है कि हम महज अपने काम के चलते परेशान रहते हैं। कभी काम के चलते परेशान रहना तो कभी पारिवारिक और भावनात्मक तनाव भी हमें घेर लेता है जिसका सीध-सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है।
लेकिन कुछ लोग बेवजह भी तनावग्रस्त रहते हैं। असल में उनके पास तनाव की कोई ठोस वजह नहीं होती। विशेषज्ञों की मानें तो ऐसे लोग दूसरों को भी परेशान करते हैं और खुद भी हमेशा परेशान रहते हैं। दरअसल ऐसे लोगों के लिये तनाव रोग से ज्यादा मनोरोग होता है। उन्हें दूसरों के काम में खराबी नजर आती है, दूसरों का बातचीत का तौर तरीका पसंद नहीं आता, दूसरों की अच्छी चीजों में भी नुक्स निकालना ये बखूबी जानते हैं। वास्तव में ऐसे लोगर् ईष्यालू होते हैं। दूसरों से बेवजह जलन, दूसरों की सफलता से नाखुश होना, इनकी आदत का अभिन्न हिस्सा है। यही वजह है कि ये लोग चौबीसों घंटे तनाव में रहते हैं और इसका सीधा-सीधा प्रभाव उनकी सेहत पर दिखायी देता है।
अब 24 वर्षीय वीना को ही लें। कुछ ही दिनों में उसकी शादी गौतम से होने वाली है। गौतम एक मेहनत पंसद युवक है। दिल खोलकर अजनबियों से बात करना, नये-नये प्रयोग करना, उपन्यास पढ़ना उसके शौक हैं। वीना को उसकी इनमें से एक भी चीज पसंद नहीं है। गौतम का किताबें पढ़ना उसे रास नहीं आता, जबनबियों से क्यों बात करता है, इस पर भी उसे शिकायत है। यहां तक कि दफ्तर में अपने सहकर्मियों से हंस बोलकर क्यों बात करता है, अपने से निचले दर्जे के सहकर्मियों के साथ खाना क्यों खाता है? ये सारी बातें भी वीना के लिये तनाव का कारण है।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे लोगों को तनाव में रहना अच्छा लगता है इसलिये हर छोटी सी छोटी चीज में तनाव ढूंढ़ लेते हैं। जबकि खुश होने के लिये इन्हें बड़ी-बड़ी खुशी भी छोटी लगती है। वास्तव में कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों में आत्मविश्वास की बहुत कमी होती है जिस कारण वे दूसरों को भी डराने से बाज नहीं आते। उन्हें लगता है कि वे जो भी करेंगे, उसमें सफतला हासिल नहीं कर पायेंगे। इसलिये अगर कोई इनसे कोई सलाह मश्विरा करे तो उसमें 60 फीसदी से ज्यादा नकारात्मक बातें ही नजर आती हैं।
विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो जो लोग नकारात्मक सोच से घिरे रहते हैं, हर चीज में तनावग्रस्त हो जाते हैं, आत्मविश्वास खो बैठते हैं। ऐसे लोगों को स्वास्थ्य कभी भी बेहतर नहीं होता। इसके उलट तनाव से होने वाले तमाम रोग इनमें नजर आते हैं। ऐसे लोग या तो बहुत ज्यादा मोटे होते हैं या फिर बहुत ज्यादा पतले और कमजोर होते हैं। इन दिनों तनाव भारत ही नहीं पूरी दुनिया में तेजी से घर कर रही बड़ी स्वास्थ्य समस्या है। एक स्वास्थ्य रिपोर्ट के मुताबिक अब पूरी दुनिया में लगभग 60 करोड़ से ज्यादा लोग मानसिक रोगों के शिकार हैं। तनाव उनमें से प्रमुख समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कुछ वर्षों पहले अपनी एक वार्षिक रिपोर्ट में मानसिक तनाव व इससे जुड़ी परेशानियों पर केन्द्रित करते हुए चेतावनी दी थी कि यदि मानसिक तनाव व अन्य मानसिक पेरशानियों पर काबू नहीं पाया गया तो शारीरिक बीमारियों की स्थिति बेकाबू हो जाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी माना कि तनाव की वजह से लोगों में शराब और सिगरेट की लत भी बढ़ रही है जिससे अलग प्रकार की स्वास्थ्य समस्या खड़ी हो रही है।
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि तनाव की कई वजहे हैं। खासतौर पर विकासशील देशों में तनाव ने लोगों को अपने चंगुल में जकड़ रखा है जहां से निकल पाना संभव नहीं है। खासतौर पर भारत की बात करें तो यहां के आंकड़े साल दर साल चौंकाने की हद तक बढ़ते जा रहे हैं। माना जा रहा है कि हमारे यहां हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में तनावग्रस्त है। मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार शारीरिक इलाज के लिए आने वाले रोगियों में 60 से 65 प्रतिशत मानसिक तनाव के कारण शारीरिक रोग का शिकार होते हैं।
तनाव के कई कारण हैं। असफलता, नुकसान, आर्थिक या सामाजिक असफलता, काम का अत्याधिक दबाव, डर, असंयमित जीवनशैलीक्षमता व योग्यता से ज्यादा चाह लेकिन तनाव स्वयं ही कई गंभीर बीमारियों का कारण है। दमा, पेप्टिक अल्सर, आंतों में जख्म, खूनी मरोड़, दाद एक्जिमा ब्लड प्रेशर, घबराहट, दिल की बीमारी, किडनी के रोग, ब्रेन ट्यूमर, हकलाहट, नपुंसकता, नींद न आना आदि रोग तनाव की वजह से भी होते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो लोग बिना वजह तनावग्रस्त होते हैं, वे किस हद तक बीमारियों का घर बने हुए होते हैं। भयावह स्थिति यह है कि ऐसे लोग अपने साथ-साथ दूसरों को भी तनावग्रस्त कर देते हैं।
सवाल है ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? सबसे पहली बात तो यह ध्यान रखें कि नेगेटिव एनर्जी वालों से खासी दूरी बना लें। क्योंकि बेवजह तनावग्रस्त रहने वाले लोग हमेशा खुद को सही और दूसरों को गलत मानते हैं। जबकि खुद किसी नई चीज की पहल करने में अक्षम होते हैं। अतः ऐसे लोगों से दूर रहे हैं। बहरहाल अगर आप भी तनावग्रस्त हैं तो यह जानने की कोशिश करें कि तनाव क्यों है? यदि काम से सम्बंधित तनाव है तो जल्द से जल्द उसका हल तलाशें। यदि संभव न हो रहा है बाहर घूमना फिरना, दोस्तों के साथ हैंगआउट करना, फिल्म देखना, गाने सुनना, अपने शौक पूरे करना आदि तनाव से राहत दिला सकने में मददगार साबित होते हैं। यही नहीं इनसे हमें खुशी भी मिलती है जो कि परेशानियों का बेजोड़ इलाज होता है।

Saturday, February 11, 2012

आत्म विकास और नैतिकता

आदर्श आचरण की अवधारणा ही नैतिकता है। शब्दकोष में नैतिकता का अर्थ है सदाचार एवं आदर्श जीवन पध्दति। नैतिकतापूर्ण जीवन का संकल्प लेने वाला स्वत: जीवन में सहज, सुख शांति के मार्ग पर अग्रसर होता है। इसी प्रकार अनैतिक आचरण जीवन के उच्चतम आदर्शों से पतन का कारण बनता है। सत्य प्रेम, न्याय तथा शांति को ध्येय मानकर चलने वाले व्यक्ति की नैतिकता ही आदर्श नैतिकता कही जा सकती है। श्रेष्ठ का स्वीकार और अधम के त्याग की भावना ही हमें लक्ष्य तक पहुंचा सकती है।
नैतिकता के अनेक आयाम हो सकत हैं- व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक। नैतिकता का रूप बदल सकता है। अनुपयोगी, जर्जर मूल्यों, मानदंडों के स्थान पर नवीन उपयोगी मूल्य स्थापित होते रहते हैं।
भारतीय परिवेश में नैतिकता धर्म से जुड़ी हुई है किन्तु आधुनिक जीवन में समाज के लिये कैसी नैतिकता चाहिये? इस पर लोगों के अलग-अलग विचार होंगे, पर जीवन में परस्पर प्रेम, सौहार्द्र, समन्वय तथा सामंजस्य की स्वीकृति प्रमुख रूप से सदा ही होती रही है।
नैतिकता की राह हमें निश्चय ही आत्मविकास, आत्मशोधन की मंजिल की ओर ले जाती है। जीवन के चरमलक्ष्य को पाने के लिये अन्य कोई मार्ग नहीं है। इसी से हर युग में ऋषियों ने नीति एवं नैतिकता को अनेक रूपों में परिभाषित कर समझाया है, ताकि सहज ही जीवन के इन उच्चतम मूल्यों को समाज में उचित स्थान मिलता रहे और जीवन पतन से बचता रहे।
भारतीय साहित्य नैतिकता के आख्यानों का भंडार है साथ ही समस्त संसार में मानव समाज ने जीवन के आदर्श मूल्यों को स्वीकृति दी है।
आत्म ज्ञान तथा आत्म विकास के लिये संकल्प लेने वाला कभी अपने आदर्श की अवहेलना नहीं करता, प्रत्युत जीवन के पल-पल का उपयोग कर वह उससे सुअवसर का लाभ उठाता रहता है, क्योंकि बिना नैतिक आचरण के आत्मविकास संभव ही नहीं है तो बिना आत्म ज्ञान, अभ्युदय के सुख तथा शांति की कल्पना भी व्यर्थ है। अस्तु मानव जीवन के अनमोल संयोग सुअवसर के सावधानी से लक्ष्य पर केंद्रित करके ही आत्मोन्नति के शिखर चढ़े जा सकते हैं। जीवन का यह परम सदुपयोग होगा। नैतिकता अवधारणा को उच्च आचरण-व्यवहार में लाकर ही उसकी उपलब्धि की अनुभूति संभव है। आचार संबंधी बातें, व्याख्यानों में तो होती ही रहती हैं।
अच्छे पथ पर अनुसरण तथा गलत रास्ते का त्याग जीवन की प्रथम शिक्षा का मूलमंत्र रहा है। माता-पिता एवं गुरु को देवता समान आदन देने की शिक्षा, नैतिकता की प्रारंभिक सीख है। बचपन के मन में डाले गये संस्कार के बीज फूलन-फलने पर मीठे फल ही देते हैं।
आधुनिक समय की भाग दौड़ और व्यस्तता में नैतिक मूल्यों की बातें सुनने का अवकाश कहां? किन्तु हमारे जीवन में जो इन मूल्यों की धरोहर है उसे नष्ट होने देना ठीक नहीं है, इसीलिए सावधानी से उच्च विचारों, आदर्शों को आचरित करते रहने से ही वे जीवित रह सकते हैं। इससे हम निरंतर अंधकार से आलोक की ओर बढ़ने का मार्ग पायेंगे।
जो जीवन में उत्तम लक्ष्य चुनता है, गलत आदतों के प्रति उदासीन रहता है, सत्य-प्रेम के मार्ग को नहीं छोड़ता उसे कोई भय नहीं रहता और वह अपने लक्ष्य से कभी भटकता नहीं।
नैतिकता का दर्शन आत्म ज्ञान का दर्शन है। इसकी अवधारणायें अनेक हैं किन्तु असल बात है नैतिकतापूर्ण मूल्यों को जीवन में उतारना। मनुष्य को अपने विवेक के अनुसार उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति का अवसर गंवाना नहीं चाहिये। सद्गति के लिये तो यही पथ है।

नर्सरी शिशुओं में तनाव बढ़ाता

कामकाजी महिला एवं व्यस्त गृहिणी शिशु को 2 वर्ष का होने के बाद नर्सरी में भेजकर उसके आगामी भविष्य के लिए निश्चित हो जाता है। यह एक आम धारणा है कि शिशु को जल्द ही नर्सरी भेज देने से वह आगामी दिनों की चुनौतियों एवं प्रतिस्पध्र्दा के लिए जल्द ही सीखकर तैयार हो जाता है किन्तु शिशु को जल्द ही नर्सरी भेजना उसके स्वास्थ्य के जोखिम को बढ़ा सकता है। नर्सरी में उपस्थित सभी बच्चों का शरीर, ताकत एवं बौध्दिक स्तर एक जैसा नहीं होता। यही निबल बच्चों का तनाव बढ़ाता है। वे मां की छाया के अभाव में दुःखी एवं उदास रहने लगते हैं। उन्हें संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है। यह सब उसके दिल के खतरों को बढ़ाता है। अतएव यदि संभव हो तो शिशु को अत्यन्त कम उम्र में नर्सरी न भेजें। नर्सरी की सुविधा साफ-सफाई एवं वहां के बच्चों को इत्मीनान से देखकर ही शिशु को नर्सरी भेजिए। घर वापसी में उसके चेहरे एवं भाव को परखिए। यह रायल सोसाइटी के अध्ययन का निष्कर्ष है।

Saturday, February 4, 2012

हंसी से बढ़ाएं दर्द सहने की क्षमता

पैदल चलने एवं सुबह की हवा की भांति हंसने को सौ रोगों की एक दवा कहा गया है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने अपने एक शोध में पाया है कि जो ठहाकेदार हंसी हंसता है उसे दर्द की अनुभूति कम होती है। उसमें दर्द सहने की क्षमता बढ़ती है। तनाव एवं अवाद उसके पास नहीं फटकता है।

Wednesday, January 11, 2012

उम्र घाटाती उदासी

बढ़ती महंगाई, बेकारी एवं बेरोजगारी ने आज के वातावरण को उदास बना दिया है। आज देश के लगभग 70 प्रतिशत व्यक्ति उदासी की व्याधि से ग्रसित है। गुमसुम बैठे रहने से व्यक्ति की मनोदशा शनैः शनैः विकृत रूप धारण करती जाती है और वह अपराधी की ओर प्रवृत्त होता जाता है। वैज्ञानिक सर्वेक्षण से भी यह साबित हो चुका है कि उदास रहने से उम्र घटती है। आज के कलुषित वातावरण से उन्मुक्त हंसी गुम होती जा रही है।
ऐसे बहुत मिलेंगे जो उदासी को ओढ़े होंगे। अनेक लोग इस बात को समझ नहीं पाते कि उन्हें अंदर से क्या हो रहा है? बस वे अपने आप को गुमसुम व अकेला महसूस करते हैं। मानव आज बेहद व्यस्त है और ऐसे में वह अपने सामाजिक दायित्वों को निर्वाह कर पाने में भी अक्षम साबित हो रहा है। अपने विचारों के अदान-प्रदान की स्थिति को सदैव अनुकूल बनाये रखने से आप अपनी उदासी को हमेशा के लिए भगा सकते हैं।
निराश एवं उदासी व्यक्ति में मानसिक अशक्तता उत्पन्न कर देती है। युवाओं एवं बुजुर्गों में उदासी अधिक मात्रा में पाई जाती है। युवाओं को रोजगार की चिन्ता, परीक्षा में असफलता एवं प्रेम में असफलता बुरी तरह निराशा कर देते हैं जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य गिरता जाता है तथा वे बुरे कामों एवं व्यसनों में लग जाते हैं।
इसी प्रकार वृध्दों में भी उदासी की भावना अधिक होती है। अधिकांश बुजुर्ग व्यक्ति एकाकी जीवन व्यतीत करते हैं। अकेले रहने से व्यक्ति स्वस्थ चिंतन नहीं कर पाता था तथा उसे मानसिक अवसाद आ घेरते हैं। हाल ही में किए गए वैज्ञानिक सर्वेक्षणों से यह पता चला है कि उदासी, निराशा, एवं हताशा से व्यक्ति की उम्र घटती हैं।
उदास रहने से व्यक्ति का किसी भी कार्य करने में मन नहीं लगता। वह स्वयं को एकाकी महसूस करता है। हर क्षेत्र में उसे नीरसता प्रतीत होती हैं। उसका संबंध खुशी एवं प्रसन्नता से बिल्कुल टूट जाता है। जीना तक बेमानी लगता है। ऐसे में वह क्षणिक उत्तेजना अथवा आवेग के वशीभूत हो या तो अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता हैं। अथवा स्वस्थ चिंतन के अभाव में वह दर्ुव्यसनों को अपनाकर बुरे कर्मों में लग जाता है।
यदि आपका दिल किसी भी काम में नहीं लगता, यदि आपके कुछ भी अच्छा नहीं लगता, यदि आपको भविष्य की आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती है तो निश्चित ही आपको उदासी ने घेर रखा है। यदि आपकी हंसी गुम हो चुकी है, हंसते, खेलते चेहरे भी अच्छे न लगें, प्यारे व प्रिय व्यक्ति से भी मिलने की इच्छा न हो तो आपको बेहद खतरनाक निराशा, हताशा एवं उदासीनता रूपी मानसिक व्याधियों ने घेर लिया है। यदि आप स्वयं में ये लक्षण पाते हैं तो सावधान हो जायें। आप निम्नलिखित उपायों को अपना कर अपने जीवन को पुनः सरल एवं खुशहाल बना सकते हैं।
नियमित व्यायाम करने से व्यक्ति अपने आपको तरोताजा एवं स्वस्थ महसूस करता है। नियमित व्यायाम तमाम व्याधियों का सरलतम उपचार हैं। डा. राबर्ट एस. ब्राउन के अनुसार ‘व्यायाम से आदमी ऐसे रसायनिक एवं मानसिक परिवर्तन महसूस करता है जिससे वह उत्तरोत्तर मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त करता हैं व्यायाम से रक्त में हार्मोन्स का स्तर बदल जाता है। मनोदशा को प्रभावित करने वाले मस्तिष्क के रसायनिक पदार्थ बीटा एंडर्फिन की मात्रा भी व्यायाम से बढ़ती है।
उदासीनता की मनोदशा में व्यक्ति स्वयं को असहाय, निर्बल एवं हीन भावना से ग्रस्त पाता है लेकिन व्यायाम व्यक्ति में एक विश्वास जगाता है कि वह असहाय नहीं है। व्यक्ति स्वयं को प्रत्येक कार्य के लिए सक्षम एवं चुस्त महसूस करता है। साधारण व्यायाम जैसे दौड़ना, रस्सी कूदना अथवा योगासन करने से आपके शरीर को अधिक से अधिक मात्रा में आक्सीजन मिलती है जो मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। नियमित व्यायाम करने से थोड़े दिन बाद ही आप स्वयं को मानसिक रूप में स्वस्थ महसूस करेंगे।
समस्याओं को सुलझाएंः- कुछ लोग उदासी को दूर करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक दवाओं का प्रयोग करते हैं लेकिन इससे उदासी हमेशा के लिए दूर नहीं चली जाती। उदासी को दूर करने के लिए आपको सतर्कता, समस्या का समाधान एवं सचेष्ट रहने की आवश्यकता होती है। स्वयं को सकारात्मक विचारों से ओत-प्रोत करें। जैसे कि यदि आपके किसी मित्र ने आपको यह कह दिया कि आप फलां कार्य नहीं कर सकते तो स्वयं की मनोदशा को उस कार्य को करने के अनुकूल बनाएं। फिर आप देखेंगे कि दुनिया की कोई ताकत आत्मविश्वास से परिपूर्ण होने पर आपको उदास नहीं बना सकती।
पौष्टिक भोजन कीजिएः- कहा जाता रहा है कि ‘जैसा खाएं अन्न, वैसा रहे मन।’ चिकित्सकों की आम राय है कि हम जैसा भोजन करते हैं, तदनुरूप ही उसका असर हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। विटामिन ‘बी’ एवं अमीनों अम्ल का मानसिक स्वास्थ्य पर विशिष्ट प्रभाव होता है। आमतौर पर देखा जाता है कि संवेदनशील लोगों के भोजन में किसी एक पोषक तत्व की कमी भी दुशिंचताओं से घेर लेती है। वस्तुतः पौष्टिक आहार हमारी मनः स्थिति को उदासी से मुक्त रखता है।
दवाओं का सेवन सावधानी से कीजिए ः- कभी-कभी कुछ दवाइयों के नियमित सेवन के पश्चात उनकी प्रतिक्रिया भी उदासी को जन्म देती है। गर्भ निरोध के लिए खाई जाने वाली दवाएं, दर्दनाशक दवाएं, एंटीबायोटिक दवाएं हाईब्लडप्रेशर को नियंत्रित करने वाली दवाओं आदि के प्रतिक्रिया स्वरूप भी उदासी का प्रभाव बढ़ सकता है।
मानसिक अवसाद बढ़ने से आप में उदासी की भावना घर कर सकती है। इस कारण आपको निराशा, हताशा चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, किसी काम में दिल न लगना, एकाग्रता का भंग हो जाता है, आत्महत्या जैसे हीन विचारों का अनुभव हो सकता है।
यदि ये लक्षण आपको स्वयं में नजर आएं तो आप उपर्युक्त बातों पर विशेष ध्यान दें तथा शीघ्र ही अपने चिकित्सक से परामर्श लें। यकीनन इससे आपकी उदासी दूर हो जाएगी और आप स्वयं को स्वस्थ महसूस करेंगे। फिर आपको सब कुछ सामान्य एवं अच्छा लगने लगेगा।