Saturday, June 12, 2010

मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक


ईश्वर की रची इस सृष्टि में मानव एक अद्भुत प्राणी है, जो अपने बुध्दि-विवेक के कारण समाज का एक अभिन्न अंग है। सामाजिक परिवेश में मानवीय जीवन चक्र में परिस्थिति एवं वातावरण हर पल बदलता रहता है। यहां तक कि सिध्दांतों के मूल्यांकन व जीवन शैली में भी नित नया परिवर्तन आता रहता है। इसी कारण आजकल मनुष्य तनावग्रस्त रहने लगा है और अनेक मानसिक रोगों का शिकार रहने लगा है, जबकि प्रत्येक अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति में संतुलन बनाये रखना स्वस्थ मानसिकता का द्योतक है।
व्यक्ति कल्पना-लोक में विचरण न करके आत्मविश्वासी हो तथा हर हाल में यथार्थ के धरातल पर सूझ-बूझ से परिपूर्ण होकर रहें, किन्तु इसके विपरीत प्राय: देखने में यह आता है कि मनुष्य अपनी योग्यता, अपने कौशल को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है कि अपनी कमियों को नकार देता है, जिसका परिणाम प्राय: असफलता की ओर जाना और तनावग्रस्त होना है। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किशोर हो या वयस्क, प्रौढ़ हो या वृध्द, जीवन से संघर्षरत हैं। यहां तक कि आजकल शिशुओं का शैशव भी खो गया है। इस संसार में संघर्ष के विभिन्न रूप में जिसे व्यक्ति को जूझना पड़ता है। जिसके पास जितना है उसमें संतोष न कर अधिक और अधिक पाने की लालसा, भौतिक सुखों की अंधी दौड़, रातों रात अमीर बनने के सपने ने मनुष्य को इतना तनावपूर्ण कर दिया है कि उसमेंर् ईष्या, द्वेष, नैराश्य, क्रोध, दुख, चिंता, वैमनस्य, आक्रोश आदि मनोभावों का प्राचुर्य हो गया है जिससे नाना प्रकार के शारीरिक रोग अल्पायु से ही घेरने लगते हैं।
मन और शरीर का अटूट संबंध
मन और शरीर का अटूट संबंध है। मानसिक तनाव से शारीरिक रोग जैसे एसिटिडी, जोड़ों का दर्द रक्तचाप का बढ़ना, मलमूत्र में असंयमिता, भूख प्यास न लगना एवं विक्षप्तता के रोग हो जाते हैं।
मानव मन का अंत:करण से गहरा संबंध है, मन ही इंद्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अंत:करण से बाह्य वातावरण का संपर्क कराता है। अंत:करण के चार उपकरण है- मन, बुध्दि, चित्त एवं अहंकार। मन का काम है, संकल्प विकल्प करना, बुध्दि उन पर निर्णय देती है और चित द्वारा वह निर्णय आत्मा तक पहुंचता है। अहंकार के कारण संवेगों का प्रादुर्भाव होता है। मन की कार्यशाला मस्तिष्क है जो मनुष्य के व्यक्तित्व का तथा विचार तरंगों का प्रतिनिधित्व करता है। मन में जैसी विचारधाराएं उठती हैं शरीर पर उनका वैस ही प्रभाव पड़ता है। मन में विकृति आने पर जीवन लड़खड़ाने लगता है। जैसे क्रिया शक्ति में विकृति का अर्थ है शारीरिक रोग होना, ज्ञान शक्ति में विकृति का अर्थ है मनुष्य का अधर्मी होना तथा इच्छा शक्ति की विकृति का अर्थ है मानसिक रोग होना। वैसे तो तीनों शरीर अर्थात् आत्मा, मन, बुध्दि एक-दूसरे से संबंधित हैं मनुष्य में इच्छा शक्ति की प्रबलता सर्वोपरि तथा अति आवश्यक है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि शरीर और मन का बहुत गहरा संबंध है। यदि मन स्वस्थ है तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा। कहा भी गया है 'मन स्वस्थता की कुंजी है', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' मानव मन जैसा विचार करता है वैसी ही उसकी इच्छा शक्ति बनती जाती है, और वह वैसा ही अपने आपको महसूस करने लगता है। अन्वेषकों ने अनेक प्रयासों द्वारा यह सिध्द कर दिया कि यदि मनुष्य अपने शरीर में किसी रोग की कल्पना करने लगता है तो वास्तव में उस रोग के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। यदि वह दृढ़ इच्छ शक्ति से रोग के निदान के बारे में विचार करता है तो वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है। चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य में चालीस प्रतिशत रोग तो शरीर की व्याधि है, तथा साठ प्रतिशत रोग 'मन' के कारण होते हैं। वेद कहता है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात धर्म व कर्म के लिये शरीर में स्थित मन व मस्तिष्क के दिव्य भंडार को सुरक्षित रखो।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में चिकित्सकों ने मन की सत्ता को स्वीकार कर लिया है। विज्ञानवेत्ता इस बात पर शोध कर रहे हैं कि यदि मनुष्य के मन की इच्छा शक्ति दृढ़ है तो रोग प्रतिरोधक शक्ति मानव शरीर में किसी अभेद्य दुर्ग की भांति रक्षा करती है। डा.एरिक का मानना है कि यदि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर अधिक विकसित एवं उन्नत होता है तो विषैले जीवाणुओं का शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेदों में इसी सूक्ष्म शरीर के विकास के लिए प्राणायाम एवं योगविद्या को प्रभावी बताया गया है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं कि या सामाजिक बंधनों अथवा मर्यादाओं के कारण कुछ इच्छाएं दब जाती हैं। इनका निवारण चिकित्सा शास्त्र के साथ-साथ योग मनोविज्ञान एवं प्राणायाम के माध्यम से रोगी की मानसिक शक्ति को दृढ़ बना कर किया जाता है।
मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक
हमारा शरीर पंच तत्व अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश व जल से बना है। अग्नि तत्व से स्मरण शक्ति, दूरदर्शिता व तीव्र बुध्दि के प्रधानता रहती है। शरीर की चमक, उत्साह, उमंग, आशा इसी अग्नि तत्व से ही आती है। शरीर की बलिष्ठता, क्रियाशीलता तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति इसी अग्नि तत्व की प्रधानता से आती है, क्योंकि जितना हमारा मानस तत्व, मन का आत्मविश्वास एवं संकल्प दृढ़ होगा उतनी ही तीव्र हमारी इच्छा शक्ति होगी, उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें उतनी ही शीघ्रता से तथा गहराई से शरीर को सुरक्षित व निरोग करने लगती हैं। अपने को स्वस्थ रखने का जितना अधिक विश्वास एवं आस्था होगा उतना शीघ्र रोग दूर हो जायेगा। बड़े से बड़े रोग का कष्ट भी कम ही अनुभव होगा। इसका उत्कृष्ट उदाहरण सुधा चंद्रन है जो टांग कटने के बावजूद भी अपनी इच्छा शक्ति के बल पर उत्कृष्ट नृत्यांगना बन सकी। विश्वप्रसिध्द फुटबाल खिलाड़ी बैले ने, जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य फुटबाल खेलना था पैर में गैंगरीन हो जाने के कारण पैर काटने की सलाह को नहीं माना और इच्छा शक्ति के बल पर रोग ठीक करके विश्व प्रसिध्द खिलाड़ी बन गये।
इसी प्रकार अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगता है कि जब मन की शक्ति के आगे रोग गौण हो जाता है क्योंकि मन की तीव्रता का परिणाम यह होता है कि उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें रक्त शोधन कर शारीरिक शक्ति देती है। शरीर ईश्वरीय देन है, इसमें अस्थि मज्जा, रक्त, नाड़ियां, अंग-प्रत्यंग ईश्वर के अनुपम खजाने हैं जिनका संचालन अंत:करण के भाव संवेग से तथा मन की शक्ति से होता है। यह एक कटु सत्य है कि मनुष्य ने अपनी बुध्दि के बल पर संसार में एक से एक अजूबे तैयार कर लिये हैं, किन्तु जीवित मनुष्य बनाना उसके लिये संभव नहीं हो सका। इसलिए ईश्वर ने जहां शरीर दिया है वहीं उसके रोगों को नष्ट करने की शक्ति भी साथ-साथ दी है। प्रकृति ने हर जहरीली घास के पास ही उसकी प्रतिरोधी घास भी उत्पन्न की है, केवल आवश्यकता है उसे खोजने की।हमारा मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक है। आवश्यकता है अपने मन के साथ शरीर का सामंजस्य रखने की। इस मन को वश में रखने, आत्मविश्वास जागृत करने तथा इच्छाशक्ति को सबल बनाने के लिये वेदों में प्राणायाम, योग, ध्यान, जप, साधना, सात्विक आहार-विहार का ज्ञान दिया है। ईश्वर में विश्वास इस सबकी बड़ी शक्ति है। नियमित साधना भी मन की शक्ति को दृढ़ करती है। इसके लिये प्रतिदिन आंखे बंद करें मैं स्वस्थ हूं, 'मैं प्रसन्न हूं,''मैं प्रभु पर निश्चिंत हूं।' इसका पालन करें। मानव शरीर की यह विशेषता है कि वह जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है।

Tuesday, June 8, 2010

तनाव से कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है



कोलेस्ट्रॉल एक ऐसा रासायनिक यौगिक है जो धमनियों को अवरुध्द करने का कारण बनता है। यह शरीर के लिए अत्यंत आवश्यक भी है। मस्तिष्क के अंदर जो ठोस पदार्थ विद्यमान है, उसका 5 प्रतिशत अंश कोलेस्ट्रॉल है। यही पदार्थ स्त्री पुरुष हार्मोनों का जनक है। कोलेस्ट्रॉल शरीर में स्वत: निर्मित होता है तथा इसे आहार के माध्यम से भी सीधे ग्रहण किया जाता है। शरीर में कोलेस्ट्रॉल का अनुपात बढ़ जाने पर रक्त में भी इसका अनुपात बढ़ जाता है। बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल रक्त -नलिकाओं की दीवारों पर जमने लगता है। ऐसा होने पर रक्त प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। फलत: रक्त प्रवाह की गति मंद हो जाती है और फिर रक्त की मंद गति के कारण अधिक कोलेस्ट्रॉल दीवारों पर जमने लगता है।
भावनात्मक तनाव उत्पन्न होने पर रक्त में चर्बीयुक्त नलिकाओं की बीमारियों में उपरोक्त पदार्थ ही बीमारी का कारण बनते हैं। मन के तनावों से सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है और यह कुछ पदार्थों (कोटेकोलेमाइन) के स्राव को बढ़ाता देता है। सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम के उत्तेजित हो जाने के कारण चर्बी शरीर के टिशुओं से विलग होकर पूरे शरीर में भ्रमण करते हुए रक्त-प्रवाह में मिल जाती है। चर्बी शरीर का ईंधन है जो सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम के उद्वेग, उड़ान और उड़ान की प्रतिक्रिया (फ्लाइट, फाइट और रिएक्शन आफ फ्लाइट) की स्थिति में काम आती है। इस प्रकार चर्बी वास्तव में शरीर के लिए उपयोगी है। प्रतिदिन जब हमें तनाव सहने पड़ते हैं, उस समय इस चर्बी की खपत होती है। प्रतिदिन के कार्यों में इसका व्यय होता है, जिसके फलस्वरूप विषाक्त पदार्थ और इसका एकत्रीकरण नहीं हो पाता।
यदि हमारे तनाव जीर्ण हों अथवा काल्पनिक ही हों (वास्तव में अधिकांशत: तनाव अवास्तविक ही हुआ करते हैं) तब सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम वातावरण से अनुपयुक्त व न्यूरोटिक प्रकार के संवेदन ग्रहण करने लगता है। फलस्वरूप उच्च-रक्तचाप, अत्यधिक कोलेस्ट्रॉल मिश्रित रक्त, रक्त में उपस्थित पदार्थों में बढ़ी हुई चिपचिपाहट और एक बार थक्के बन जाने के बाद पुन: थक्के घुल न पाने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस प्रकार रक्त-नलिकाओं की व्याधियों को बढ़ावा मिलता है।
फ्राइडमैन और रोजमैन (टाइप ए बिहेवियर एंड युअर हार्ट, नोफ, एन.बाय. 1974) के अनुसार अधिकांश लोग जो अपने हृदय को लेकर कार्डियोलाजिस्टों के पास जाने वाले होते हैं, वे समाज में उच्च-पद या इसी तरह का कोई उतावलापन पाले रहते हैं। ऐसे लोगों के रक्त-प्रवाह में चर्बी का उच्च स्तर रहता है तथा एड्रैनेलिन जैसे तनाव-हार्मोन अधिक मात्रा में उपस्थित रहते हैं।
जब रक्त में चर्बी का स्तर 250 मिग्रा. कोलेस्ट्रॉल और 160 मिग्रा. ट्राइग्लिसेराइड के लिए खतरनाक स्थिति तक बढ़ जाता है तब दवायें देकर इस स्तर को कम करने का प्रयास किया जाता है। तथापि देखा गया है कि ये दवायें एक बार हृदय-दौरा शुरू होने के बाद कारगर नहीं होती हैं।
दवायें उन लोगों की मदद कर सकती हैं जिनका रोग अभी गहरी अवस्था में नहीं है। वस्तुत: हमें किसी ऐसे तरीके की आवश्यकता है जिससे किसी भी स्तर पर हृदय रोग को पूरी तरह ठीक किया जा सके।
देखा गया है कि शाकाहार रक्त की चर्बी को घटाने हेतु उत्तम है। मांसाहार रक्त चर्बी को बढ़ाता है। आहार नियंत्रण, दवायें, आसन, प्राणायाम और ध्यान इन सबके मिले-जुले उपचार से स्वास्थ्य-लाभ की संभावना बढ़ सकती है।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डा. उडुप्पा ने दर्शाया है कि श्वासन आसन- प्राणायाम से सामान्य व्यक्तियों में रक्त-कोलेस्ट्रॉल की मात्रा घटायी जा सकती है। के.एस. गोपाल ने देखा कि छह महीने तक नियमित रूप से यौगिक प्रशिक्षण देने के बाद उनके 55 प्रतिशत प्रशिक्षणार्थियों का रक्त-कोलेस्ट्रॉल कम हो गया था।
ध्यान और योग के शिथिलीकरण के अभ्यासों से तनाव, उच्च-रक्तचाप और दूसरे रोगों की उपस्थिति का उन्मूलन होता है। इन प्रभावों का कारण सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम की बढ़ी हुई क्रियाशीलता है और पैरासिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम की न्यून हुई क्रियाशीलता होती है। अभ्यासी को आक्सीजन की कम खपत, श्वास-प्रश्वास की घटी हुई गति, कार्डियक उत्पादन में कमी, हृदय गति में कमी, आर्टरियों के रक्त सेक्टेट की कमी का स्वत: अनुभव होने लगता है। साथ ही शांति और अच्छेपन का अनुभव भी होता है। यह अवस्था स्वस्थ हृदय की परिचायक है। इस समय व्याधि-ग्रस्त टिशु स्वास्थ्य-लाभ करने लगते हैं। इस प्रकार की विश्रांत अवस्था हृदय की आक्सीजन आवश्यकता को कम कर देती हैं। शरीर की फाइब्रीओलाइटिक-क्रियाशीलता अर्थात् रक्त के थक्कों के पुन: विलयन की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है। वास्तव में मन व शरीर को उस अवस्था तक चिंता व तनाव से मुक्त करना होता है कि रक्त के थक्के बने ही नहीं। ध्यान के अभ्यास से यह अवस्था प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि देखा गया है कि इससे सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम की क्रियाशीलता कम हो जाती है जो ऐसी परिस्थितियों के उत्पादक होते हैं।
शोधकर्ताओं ने अब अच्छी तरह पता लगा लिया है कि ध्यान से सीधे रक्त-चर्बी स्तर पर प्रभाव पड़ता है। ध्यान से सिरम कोलेस्ट्रॉल के स्तर को न्यून करने में मदद मिलती है तथा शिथिलीकरण अभ्यासों से उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर को कम किया जा सकता है।

Sunday, June 6, 2010

उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है मन पर अंकुश

अध्यात्म शास्त्रों में मन को ही बंधन और मोक्ष का कारण बताया गया है। मनोवेत्ता भी इस तथ्य से परिचित हैं कि मन में अभूतपूर्व गति, दिव्यशक्ति, तेजस्विता एवं नियंत्रण शक्ति है। इसकी सहायता से ही सभी कार्य होते हैं। मन के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता।
भूत, भविष्य और वर्तमान सभी मन में ही रहते हैं। ज्ञान, चिंतन, मनन, धैर्य आदि इसके कारण ही बन पड़ते हैं। शुध्द मन जहां अनेक दिव्य क्षमताओं का भांडागार है, वहीं अशुध्द या विकृत मन:स्थिति रोग, शोक एवं आधि व्याधि का कारण बनता है।
महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अनियंत्रित, अस्त-व्यस्त और भ्रांतियों में भटकते वाली मन:स्थिति को मानवी क्षमताओं के अपव्यय एवं भक्षण के लिए उत्तरदायी बताया है और इसे दिशा विशेष में नियोजित रखने का परामर्श भी दिया है। गीतकार ने भी मन को ही मनुष्य का मित्र एवं शत्रु ठहराया है और इसे भटकाव से उबारकर अपना भविष्य बनाने का परामर्श दिया है।
सुप्रसिध्द मनोविज्ञानी हेक ड्यूक ने अपनी पुस्तक-'माइंड एण्ड हेल्थ' में शरीर पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का सुविस्तृत पर्यवेक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि शरीर पर आहार के व्यतिक्रम का प्रभाव तो पड़ता ही है, अभाव व पोषक तत्वों की कमी भी अपनी प्रतिक्रिया छोड़ती है। काया पर सर्वाधिक प्रभाव व्यक्ति की अपनी मन:स्थिति का पड़ता है। यह प्रभाव-प्रतिक्रिया नाडीमंडल पर 36 प्रतिशत, अंत:स्रावी हार्मोन ग्रंथियों पर 56 प्रतिशत एवं मांसपेशियों पर 8 प्रतिशत पाई गई है।
आज की प्रचलित तमाम उपचार-विधियों-पैथियों एवं नवीनतम औषधियों के बावजूद अनेक प्रकार के रोगों की बाढ़-सी आयी हुई है। ऐसी परिस्थितियों में रोग निवारण का सबसे सस्ता एवं हानिरहित सुनिश्चित तरीका निर्धारण करना होगा। इसके लिए रोगोत्पत्ति के मूल कारण मन:स्थिति की गहन जांच-पड़ताल अपनाने पर ही रूग्णता पर विजय पायी जा सकती है।
अब समय आ गया है जब 'होप' अर्थात् आशा, 'फेथ' अर्थात् श्रध्दा, 'कॉन्फीडेंस' अर्थात् आत्मविश्वास, 'विल' अर्थात् इच्छाशक्ति एवं 'सजेशन' अर्थात् स्वसंकेत जैसे प्रयासों को स्वास्थ्य संवर्ध्दन के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। मन की अतल गहराई में प्रवेश करके दूषित तत्वों की खोजबीन करके, उन्हें बाहर करने में यही तत्व समर्थ हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
आज के वैज्ञानिकों ने काया के बाद बुध्दि को अधिक महत्व दिया है। बुध्दि मनुष्य की प्रतिभा-प्रखरता को निखारने, योग्यता बढ़ाने के काम आती है। प्रत्येक क्षेत्र में इसी का बोलबाला या वर्चस्व है। अभी तक मानवी व्यक्तित्व की इन दोनों स्थूल परतों-शरीर और बुध्दि को ही सर्वत्र महत्व मिलता रहा है। इन दोनों की अपेक्षा मन अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्ष रूप से इसकी भूमिका दिखाई नहीं पड़ने से अधिकांश व्यक्ति इसको महत्वहीन समझते हैं जबकि बुध्दि और शरीर दोनों ही मन के इशारे पर ही चलते हैं। इस तथ्य की पुष्टि अब अनुसंधानकर्ता, मनोवेत्ताओं ने भी की है कि बीमारियों की जड़ें शरीर में नहीं, मन में छिपी होती हैं।
पोषण अथवा आहार-विहार के संतुलन के अभाव में काया रूग्ण बन जाती है और अपनी शक्ति-सामर्थ्य गंवा बैठती हैं। इसी तरह वैचारिक खुराक न मिलने से बुध्दि कुंठित होती चली जाती है। अधिक से अधिक वे अपने 'जीवनशकट' को किसी तरह खींचने जितना सहयोग ही दे पाते हैं। उपेक्षा की प्रताड़ना मन को सबसे अधिक मिलती है। फलत: उसकी असीम संभावनाओं से भी मनुष्य जाति को वंचित रहना पड़ता है।
मनोबल, संकल्प बल, इच्छाशक्ति का प्रचण्ड सामर्थ्य आज के समय में बहुत कम लोगों में ही दिखाई देता है। अधिकांश व्यक्तियों से मन की प्रचण्ड क्षमता को न तो उभारते बनता है और न ही वे उसका लाभ ही उठा पाते हैं। मन को सशक्त बनाना, उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं संतुलित रखना भी कठिन हो जाता है। फलत: रूग्णता की स्थिति में वह विकृति आकांक्षाओं-इच्छाओं को ही जन्म देता है।
रूग्णमानस, रूग्ण समाज को ही जन्म देने वाला होता है। अगर मन रोगी हो तो काया भी अपना स्वास्थ्य अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख सकती। अनुसंधानकर्ता मूर्ध्दन्य मनोवैज्ञानियों ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए यह रहस्योद्धाटन किया है कि मन:संस्थान में कितने ही शारीरिक रोगों की जड़ें विद्यमान हैं। अगर मन का उपचार ठीक ढंग से किया जाये तो उन रोगों से भी मुक्ति मिल सकती है जिन्हें असाध्य एवं शारीरिक मूल का कभी ठीक न होने वाला रोग माना जाता रहा है।
रायल मेडिकल सोसायटी के चिकित्साविज्ञानी डा. ग्लॉस्टन का इस संदर्भ में कहना है कि शारीरिक रोगों के उपजने-बढ़ने से लेकर अच्छे होने या कष्टसाध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। मन को सशक्त एवं विधेयात्मक बनाकर कठिन से कठिन रोगों पर विजय पाई जा सकती है और दीर्घकालीन का आनन्द उठाया जा सकता है। विकृति मन:स्थिति मनुष्य को राक्षस या जिंदा लाश बनाकर छोड़ देती है। यह सब हमारी इच्छा-आकांक्षा एवं विचारणा पर निर्भर करता है कि हम स्वास्थ्य-समुन्नत बनें अथवा रूग्ण एवं हेय।रोगोत्पत्ति या रोगों के उतार-चढ़ाव में जितना गहरा संबंध शारीरिक कारणों अथवा परिस्थितियों का माना जाता है उससे कहीं अधिक गहरा प्रभाव मनोदशा का पड़ता है। यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो तो फिर रोगों की संभावना बहुत ही कम रह जाती है। आक्रमण करने पर भी रोग बहुत समय तक ठहर नहीं सकेंगे। मन की प्रगति या अवगति ही रूग्णता या निरोगता का मूल है। इस तथ्य को समझना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

Saturday, June 5, 2010

वर्तमान युग में बढ़ता मानसिक तनाव


वर्तमान युग को भौतिकवाद का युग भी कहा जाता है। अतीत से लेकर अब तक मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधाएं पाने के लिए निरंतर प्रयास किए और उपलब्धियां हासिल कीं। एक कहावत है 'मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की'। इसी प्रकार जैसे मनुष्य सुविधाएं पाने के लिए लालायित होता गया और उन्हें पाने के लिए दुःखी होता रहा एवं तनावग्रस्त होता गया।
पिछले लगभग दो दशक से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने आम आदमी के जीवन में दखल देना शुरू किया। केवल टी.वी. के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को नई-नई सुख-सुविधाओं से अवगत कराया गया। यह मानव प्रकृति है कि वह हर संभव व असंभव सुविधाओं को पाने की लालसा करता है और अधिक सुविधा संपन्न होने के लिए स्वप्न देखने लगता है। अब चूंकि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएं अलग-अलग होती है अतः सुख-सुविधाएं वह अपनी क्षमता के अनुसार ही जुटा पाता है और जो सुविधाएं वह प्राप्त नहीं कर पाता उसके लिए मानसिक तनाव पाल लेता है।
केवल टी.वी. के माध्ययम से प्रसारित विज्ञापनों द्वारा जनता को लुभाने का प्रयास किया जाता है, विज्ञापनदाता का उद्देश्य अपने माल की बिक्री अधिक से अधिक बढ़ाना होता है। अतः जितना लुभावना विज्ञापन होगा, दर्शक अधिक से अधिक जेब खाली करने के लिए प्रेरित होगा। परंतु सीमित आय वाला व्यक्ति अपनी आर्थिक क्षमता से अधिक स्वप्न देखने लगता है और फिर अधिक धन कमाने की होड़ में शामिल हो जाता है। वह नैतिक या अनैतिक किसी भी तरह से धन अधिक इकट्ठा करने की योजना बनाता रहता है। अधिक समय देकर, अधिक काम कर अपने स्वप्न पूरा करने में व्यस्त हो जाता है परंतु जिस उद्देश्य को पूरा हो जाने पर संपूर्ण आनंद प्राप्ति की उम्मीद लगाए बैठा था, उस लक्ष्य को प्राप्त कर भी उसे इच्छित संतोष प्राप्त नहीं होता। क्योंकि लक्ष्य तक पहुंचते-पहुंचते उसके लक्ष्य की सीमा भी बढ़ जाती है। पहले लक्ष्य को पाने के उपरांत कोई नई इच्छा जाग्रत हो जाती है। वह चक्रव्यूह उसे जीवन भर बेचैन और तनावग्रस्त रखता है और मानसिक तनाव के कारण अनेक रोगों को आमंत्रित कर लेता है।
अतः इस भौतिकवादी युग में अपने को अनेक बीमारियों एवं परेशानियों से बचाने के लिए अपने भौतिक साधनों द्वारा अर्जित धन से ही स्वयं की संतुष्ट करना होगा तब ही हम सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। यह जान लेना आवश्यक है जैसे समुद्र की गहराई नापना असंभव है इसी प्रकार दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं जुटा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। किसी न किसी स्तर पर आकर तो संतोष करना ही होगा। उदाहरण के तौर पर यदि एक व्यक्ति अपना लक्ष्य दस लाख रुपए पाने का रखता है ओर येन-केन प्रकारेण किसी प्रकार जुटा लेता है तो उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने पर आत्मसंतोष हो जाना चाहिए परंतु होता बिल्कुल उल्टा हैं वह अधिक असंतुष्ट हो जाता है। क्योंकि वह एक करोड़पति के ठाठ देखकर अपने अंदर हीन भावना उत्पन्न कर लेता है और अपने सारे प्रयासों को निरर्थक मानने लगता है। इसी प्रकार करोड़पति, अरबपति की समृध्दि को देखकर अपन सुख-चैन खो देता है। इसी प्रकार जिसे ज्ञान पिपासा होती है वह अधिक से अधिक ज्ञानवान बनना चाहता है। जब वह अथक प्रयासों से कुछ डिग्रियां प्राप्त कर लेता है और अपने से अधिक डिग्रियां धारण किए हुए किसी को देखता है तो वह विचलित एवं तनावग्रस्त हो जाता है। यह स्थिति उसे बेचैन जीवन जीने को मजबूर करती है। क्योंकि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। अतः एक व्यक्ति अवांछित लाभों को पाने के लिए अपने जीवन के अमूल्य समय को कब तक नष्ट करता रहेगा? कहीं न कहीं संतोष करना आवश्यक है। उपरोक्त व्याख्या से यही निष्कर्ष निकलता है कि आवश्यक नित्य प्रयास करते हुए जितना प्राप्त कर सते हो, उसमें ही अपने को संतुष्ट रखने से ही सुख और आनंदित जीवन की प्राप्ति हो सकती है। हमें यह जीवन एक ही बार जीने को प्राप्त होता है। अतः उसे व्यर्थ की दौड़-धूप में शामिल कर बर्बाद नहीं करना चाहिए। कम सुविधाओं के बाद भी जीवन आनंद पूर्वक जिया जा सकता है।