अध्यात्म शास्त्रों में मन को ही बंधन और मोक्ष का कारण बताया गया है। मनोवेत्ता भी इस तथ्य से परिचित हैं कि मन में अभूतपूर्व गति, दिव्यशक्ति, तेजस्विता एवं नियंत्रण शक्ति है। इसकी सहायता से ही सभी कार्य होते हैं। मन के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता।
भूत, भविष्य और वर्तमान सभी मन में ही रहते हैं। ज्ञान, चिंतन, मनन, धैर्य आदि इसके कारण ही बन पड़ते हैं। शुध्द मन जहां अनेक दिव्य क्षमताओं का भांडागार है, वहीं अशुध्द या विकृत मन:स्थिति रोग, शोक एवं आधि व्याधि का कारण बनता है।
महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अनियंत्रित, अस्त-व्यस्त और भ्रांतियों में भटकते वाली मन:स्थिति को मानवी क्षमताओं के अपव्यय एवं भक्षण के लिए उत्तरदायी बताया है और इसे दिशा विशेष में नियोजित रखने का परामर्श भी दिया है। गीतकार ने भी मन को ही मनुष्य का मित्र एवं शत्रु ठहराया है और इसे भटकाव से उबारकर अपना भविष्य बनाने का परामर्श दिया है।
सुप्रसिध्द मनोविज्ञानी हेक ड्यूक ने अपनी पुस्तक-'माइंड एण्ड हेल्थ' में शरीर पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का सुविस्तृत पर्यवेक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि शरीर पर आहार के व्यतिक्रम का प्रभाव तो पड़ता ही है, अभाव व पोषक तत्वों की कमी भी अपनी प्रतिक्रिया छोड़ती है। काया पर सर्वाधिक प्रभाव व्यक्ति की अपनी मन:स्थिति का पड़ता है। यह प्रभाव-प्रतिक्रिया नाडीमंडल पर 36 प्रतिशत, अंत:स्रावी हार्मोन ग्रंथियों पर 56 प्रतिशत एवं मांसपेशियों पर 8 प्रतिशत पाई गई है।
आज की प्रचलित तमाम उपचार-विधियों-पैथियों एवं नवीनतम औषधियों के बावजूद अनेक प्रकार के रोगों की बाढ़-सी आयी हुई है। ऐसी परिस्थितियों में रोग निवारण का सबसे सस्ता एवं हानिरहित सुनिश्चित तरीका निर्धारण करना होगा। इसके लिए रोगोत्पत्ति के मूल कारण मन:स्थिति की गहन जांच-पड़ताल अपनाने पर ही रूग्णता पर विजय पायी जा सकती है।
अब समय आ गया है जब 'होप' अर्थात् आशा, 'फेथ' अर्थात् श्रध्दा, 'कॉन्फीडेंस' अर्थात् आत्मविश्वास, 'विल' अर्थात् इच्छाशक्ति एवं 'सजेशन' अर्थात् स्वसंकेत जैसे प्रयासों को स्वास्थ्य संवर्ध्दन के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। मन की अतल गहराई में प्रवेश करके दूषित तत्वों की खोजबीन करके, उन्हें बाहर करने में यही तत्व समर्थ हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
आज के वैज्ञानिकों ने काया के बाद बुध्दि को अधिक महत्व दिया है। बुध्दि मनुष्य की प्रतिभा-प्रखरता को निखारने, योग्यता बढ़ाने के काम आती है। प्रत्येक क्षेत्र में इसी का बोलबाला या वर्चस्व है। अभी तक मानवी व्यक्तित्व की इन दोनों स्थूल परतों-शरीर और बुध्दि को ही सर्वत्र महत्व मिलता रहा है। इन दोनों की अपेक्षा मन अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्ष रूप से इसकी भूमिका दिखाई नहीं पड़ने से अधिकांश व्यक्ति इसको महत्वहीन समझते हैं जबकि बुध्दि और शरीर दोनों ही मन के इशारे पर ही चलते हैं। इस तथ्य की पुष्टि अब अनुसंधानकर्ता, मनोवेत्ताओं ने भी की है कि बीमारियों की जड़ें शरीर में नहीं, मन में छिपी होती हैं।
पोषण अथवा आहार-विहार के संतुलन के अभाव में काया रूग्ण बन जाती है और अपनी शक्ति-सामर्थ्य गंवा बैठती हैं। इसी तरह वैचारिक खुराक न मिलने से बुध्दि कुंठित होती चली जाती है। अधिक से अधिक वे अपने 'जीवनशकट' को किसी तरह खींचने जितना सहयोग ही दे पाते हैं। उपेक्षा की प्रताड़ना मन को सबसे अधिक मिलती है। फलत: उसकी असीम संभावनाओं से भी मनुष्य जाति को वंचित रहना पड़ता है।
मनोबल, संकल्प बल, इच्छाशक्ति का प्रचण्ड सामर्थ्य आज के समय में बहुत कम लोगों में ही दिखाई देता है। अधिकांश व्यक्तियों से मन की प्रचण्ड क्षमता को न तो उभारते बनता है और न ही वे उसका लाभ ही उठा पाते हैं। मन को सशक्त बनाना, उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं संतुलित रखना भी कठिन हो जाता है। फलत: रूग्णता की स्थिति में वह विकृति आकांक्षाओं-इच्छाओं को ही जन्म देता है।
रूग्णमानस, रूग्ण समाज को ही जन्म देने वाला होता है। अगर मन रोगी हो तो काया भी अपना स्वास्थ्य अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख सकती। अनुसंधानकर्ता मूर्ध्दन्य मनोवैज्ञानियों ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए यह रहस्योद्धाटन किया है कि मन:संस्थान में कितने ही शारीरिक रोगों की जड़ें विद्यमान हैं। अगर मन का उपचार ठीक ढंग से किया जाये तो उन रोगों से भी मुक्ति मिल सकती है जिन्हें असाध्य एवं शारीरिक मूल का कभी ठीक न होने वाला रोग माना जाता रहा है।
रायल मेडिकल सोसायटी के चिकित्साविज्ञानी डा. ग्लॉस्टन का इस संदर्भ में कहना है कि शारीरिक रोगों के उपजने-बढ़ने से लेकर अच्छे होने या कष्टसाध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। मन को सशक्त एवं विधेयात्मक बनाकर कठिन से कठिन रोगों पर विजय पाई जा सकती है और दीर्घकालीन का आनन्द उठाया जा सकता है। विकृति मन:स्थिति मनुष्य को राक्षस या जिंदा लाश बनाकर छोड़ देती है। यह सब हमारी इच्छा-आकांक्षा एवं विचारणा पर निर्भर करता है कि हम स्वास्थ्य-समुन्नत बनें अथवा रूग्ण एवं हेय।रोगोत्पत्ति या रोगों के उतार-चढ़ाव में जितना गहरा संबंध शारीरिक कारणों अथवा परिस्थितियों का माना जाता है उससे कहीं अधिक गहरा प्रभाव मनोदशा का पड़ता है। यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो तो फिर रोगों की संभावना बहुत ही कम रह जाती है। आक्रमण करने पर भी रोग बहुत समय तक ठहर नहीं सकेंगे। मन की प्रगति या अवगति ही रूग्णता या निरोगता का मूल है। इस तथ्य को समझना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
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