ईश्वर की रची इस सृष्टि में मानव एक अद्भुत प्राणी है, जो अपने बुध्दि-विवेक के कारण समाज का एक अभिन्न अंग है। सामाजिक परिवेश में मानवीय जीवन चक्र में परिस्थिति एवं वातावरण हर पल बदलता रहता है। यहां तक कि सिध्दांतों के मूल्यांकन व जीवन शैली में भी नित नया परिवर्तन आता रहता है। इसी कारण आजकल मनुष्य तनावग्रस्त रहने लगा है और अनेक मानसिक रोगों का शिकार रहने लगा है, जबकि प्रत्येक अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति में संतुलन बनाये रखना स्वस्थ मानसिकता का द्योतक है।
व्यक्ति कल्पना-लोक में विचरण न करके आत्मविश्वासी हो तथा हर हाल में यथार्थ के धरातल पर सूझ-बूझ से परिपूर्ण होकर रहें, किन्तु इसके विपरीत प्राय: देखने में यह आता है कि मनुष्य अपनी योग्यता, अपने कौशल को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है कि अपनी कमियों को नकार देता है, जिसका परिणाम प्राय: असफलता की ओर जाना और तनावग्रस्त होना है। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किशोर हो या वयस्क, प्रौढ़ हो या वृध्द, जीवन से संघर्षरत हैं। यहां तक कि आजकल शिशुओं का शैशव भी खो गया है। इस संसार में संघर्ष के विभिन्न रूप में जिसे व्यक्ति को जूझना पड़ता है। जिसके पास जितना है उसमें संतोष न कर अधिक और अधिक पाने की लालसा, भौतिक सुखों की अंधी दौड़, रातों रात अमीर बनने के सपने ने मनुष्य को इतना तनावपूर्ण कर दिया है कि उसमेंर् ईष्या, द्वेष, नैराश्य, क्रोध, दुख, चिंता, वैमनस्य, आक्रोश आदि मनोभावों का प्राचुर्य हो गया है जिससे नाना प्रकार के शारीरिक रोग अल्पायु से ही घेरने लगते हैं।
मन और शरीर का अटूट संबंध
मन और शरीर का अटूट संबंध है। मानसिक तनाव से शारीरिक रोग जैसे एसिटिडी, जोड़ों का दर्द रक्तचाप का बढ़ना, मलमूत्र में असंयमिता, भूख प्यास न लगना एवं विक्षप्तता के रोग हो जाते हैं।
मानव मन का अंत:करण से गहरा संबंध है, मन ही इंद्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अंत:करण से बाह्य वातावरण का संपर्क कराता है। अंत:करण के चार उपकरण है- मन, बुध्दि, चित्त एवं अहंकार। मन का काम है, संकल्प विकल्प करना, बुध्दि उन पर निर्णय देती है और चित द्वारा वह निर्णय आत्मा तक पहुंचता है। अहंकार के कारण संवेगों का प्रादुर्भाव होता है। मन की कार्यशाला मस्तिष्क है जो मनुष्य के व्यक्तित्व का तथा विचार तरंगों का प्रतिनिधित्व करता है। मन में जैसी विचारधाराएं उठती हैं शरीर पर उनका वैस ही प्रभाव पड़ता है। मन में विकृति आने पर जीवन लड़खड़ाने लगता है। जैसे क्रिया शक्ति में विकृति का अर्थ है शारीरिक रोग होना, ज्ञान शक्ति में विकृति का अर्थ है मनुष्य का अधर्मी होना तथा इच्छा शक्ति की विकृति का अर्थ है मानसिक रोग होना। वैसे तो तीनों शरीर अर्थात् आत्मा, मन, बुध्दि एक-दूसरे से संबंधित हैं मनुष्य में इच्छा शक्ति की प्रबलता सर्वोपरि तथा अति आवश्यक है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि शरीर और मन का बहुत गहरा संबंध है। यदि मन स्वस्थ है तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा। कहा भी गया है 'मन स्वस्थता की कुंजी है', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' मानव मन जैसा विचार करता है वैसी ही उसकी इच्छा शक्ति बनती जाती है, और वह वैसा ही अपने आपको महसूस करने लगता है। अन्वेषकों ने अनेक प्रयासों द्वारा यह सिध्द कर दिया कि यदि मनुष्य अपने शरीर में किसी रोग की कल्पना करने लगता है तो वास्तव में उस रोग के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। यदि वह दृढ़ इच्छ शक्ति से रोग के निदान के बारे में विचार करता है तो वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है। चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य में चालीस प्रतिशत रोग तो शरीर की व्याधि है, तथा साठ प्रतिशत रोग 'मन' के कारण होते हैं। वेद कहता है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात धर्म व कर्म के लिये शरीर में स्थित मन व मस्तिष्क के दिव्य भंडार को सुरक्षित रखो।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में चिकित्सकों ने मन की सत्ता को स्वीकार कर लिया है। विज्ञानवेत्ता इस बात पर शोध कर रहे हैं कि यदि मनुष्य के मन की इच्छा शक्ति दृढ़ है तो रोग प्रतिरोधक शक्ति मानव शरीर में किसी अभेद्य दुर्ग की भांति रक्षा करती है। डा.एरिक का मानना है कि यदि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर अधिक विकसित एवं उन्नत होता है तो विषैले जीवाणुओं का शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेदों में इसी सूक्ष्म शरीर के विकास के लिए प्राणायाम एवं योगविद्या को प्रभावी बताया गया है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं कि या सामाजिक बंधनों अथवा मर्यादाओं के कारण कुछ इच्छाएं दब जाती हैं। इनका निवारण चिकित्सा शास्त्र के साथ-साथ योग मनोविज्ञान एवं प्राणायाम के माध्यम से रोगी की मानसिक शक्ति को दृढ़ बना कर किया जाता है।
मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक
हमारा शरीर पंच तत्व अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश व जल से बना है। अग्नि तत्व से स्मरण शक्ति, दूरदर्शिता व तीव्र बुध्दि के प्रधानता रहती है। शरीर की चमक, उत्साह, उमंग, आशा इसी अग्नि तत्व से ही आती है। शरीर की बलिष्ठता, क्रियाशीलता तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति इसी अग्नि तत्व की प्रधानता से आती है, क्योंकि जितना हमारा मानस तत्व, मन का आत्मविश्वास एवं संकल्प दृढ़ होगा उतनी ही तीव्र हमारी इच्छा शक्ति होगी, उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें उतनी ही शीघ्रता से तथा गहराई से शरीर को सुरक्षित व निरोग करने लगती हैं। अपने को स्वस्थ रखने का जितना अधिक विश्वास एवं आस्था होगा उतना शीघ्र रोग दूर हो जायेगा। बड़े से बड़े रोग का कष्ट भी कम ही अनुभव होगा। इसका उत्कृष्ट उदाहरण सुधा चंद्रन है जो टांग कटने के बावजूद भी अपनी इच्छा शक्ति के बल पर उत्कृष्ट नृत्यांगना बन सकी। विश्वप्रसिध्द फुटबाल खिलाड़ी बैले ने, जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य फुटबाल खेलना था पैर में गैंगरीन हो जाने के कारण पैर काटने की सलाह को नहीं माना और इच्छा शक्ति के बल पर रोग ठीक करके विश्व प्रसिध्द खिलाड़ी बन गये।
इसी प्रकार अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगता है कि जब मन की शक्ति के आगे रोग गौण हो जाता है क्योंकि मन की तीव्रता का परिणाम यह होता है कि उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें रक्त शोधन कर शारीरिक शक्ति देती है। शरीर ईश्वरीय देन है, इसमें अस्थि मज्जा, रक्त, नाड़ियां, अंग-प्रत्यंग ईश्वर के अनुपम खजाने हैं जिनका संचालन अंत:करण के भाव संवेग से तथा मन की शक्ति से होता है। यह एक कटु सत्य है कि मनुष्य ने अपनी बुध्दि के बल पर संसार में एक से एक अजूबे तैयार कर लिये हैं, किन्तु जीवित मनुष्य बनाना उसके लिये संभव नहीं हो सका। इसलिए ईश्वर ने जहां शरीर दिया है वहीं उसके रोगों को नष्ट करने की शक्ति भी साथ-साथ दी है। प्रकृति ने हर जहरीली घास के पास ही उसकी प्रतिरोधी घास भी उत्पन्न की है, केवल आवश्यकता है उसे खोजने की।हमारा मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक है। आवश्यकता है अपने मन के साथ शरीर का सामंजस्य रखने की। इस मन को वश में रखने, आत्मविश्वास जागृत करने तथा इच्छाशक्ति को सबल बनाने के लिये वेदों में प्राणायाम, योग, ध्यान, जप, साधना, सात्विक आहार-विहार का ज्ञान दिया है। ईश्वर में विश्वास इस सबकी बड़ी शक्ति है। नियमित साधना भी मन की शक्ति को दृढ़ करती है। इसके लिये प्रतिदिन आंखे बंद करें मैं स्वस्थ हूं, 'मैं प्रसन्न हूं,''मैं प्रभु पर निश्चिंत हूं।' इसका पालन करें। मानव शरीर की यह विशेषता है कि वह जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है।
व्यक्ति कल्पना-लोक में विचरण न करके आत्मविश्वासी हो तथा हर हाल में यथार्थ के धरातल पर सूझ-बूझ से परिपूर्ण होकर रहें, किन्तु इसके विपरीत प्राय: देखने में यह आता है कि मनुष्य अपनी योग्यता, अपने कौशल को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है कि अपनी कमियों को नकार देता है, जिसका परिणाम प्राय: असफलता की ओर जाना और तनावग्रस्त होना है। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किशोर हो या वयस्क, प्रौढ़ हो या वृध्द, जीवन से संघर्षरत हैं। यहां तक कि आजकल शिशुओं का शैशव भी खो गया है। इस संसार में संघर्ष के विभिन्न रूप में जिसे व्यक्ति को जूझना पड़ता है। जिसके पास जितना है उसमें संतोष न कर अधिक और अधिक पाने की लालसा, भौतिक सुखों की अंधी दौड़, रातों रात अमीर बनने के सपने ने मनुष्य को इतना तनावपूर्ण कर दिया है कि उसमेंर् ईष्या, द्वेष, नैराश्य, क्रोध, दुख, चिंता, वैमनस्य, आक्रोश आदि मनोभावों का प्राचुर्य हो गया है जिससे नाना प्रकार के शारीरिक रोग अल्पायु से ही घेरने लगते हैं।
मन और शरीर का अटूट संबंध
मन और शरीर का अटूट संबंध है। मानसिक तनाव से शारीरिक रोग जैसे एसिटिडी, जोड़ों का दर्द रक्तचाप का बढ़ना, मलमूत्र में असंयमिता, भूख प्यास न लगना एवं विक्षप्तता के रोग हो जाते हैं।
मानव मन का अंत:करण से गहरा संबंध है, मन ही इंद्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अंत:करण से बाह्य वातावरण का संपर्क कराता है। अंत:करण के चार उपकरण है- मन, बुध्दि, चित्त एवं अहंकार। मन का काम है, संकल्प विकल्प करना, बुध्दि उन पर निर्णय देती है और चित द्वारा वह निर्णय आत्मा तक पहुंचता है। अहंकार के कारण संवेगों का प्रादुर्भाव होता है। मन की कार्यशाला मस्तिष्क है जो मनुष्य के व्यक्तित्व का तथा विचार तरंगों का प्रतिनिधित्व करता है। मन में जैसी विचारधाराएं उठती हैं शरीर पर उनका वैस ही प्रभाव पड़ता है। मन में विकृति आने पर जीवन लड़खड़ाने लगता है। जैसे क्रिया शक्ति में विकृति का अर्थ है शारीरिक रोग होना, ज्ञान शक्ति में विकृति का अर्थ है मनुष्य का अधर्मी होना तथा इच्छा शक्ति की विकृति का अर्थ है मानसिक रोग होना। वैसे तो तीनों शरीर अर्थात् आत्मा, मन, बुध्दि एक-दूसरे से संबंधित हैं मनुष्य में इच्छा शक्ति की प्रबलता सर्वोपरि तथा अति आवश्यक है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि शरीर और मन का बहुत गहरा संबंध है। यदि मन स्वस्थ है तो शरीर भी स्वस्थ रहेगा। कहा भी गया है 'मन स्वस्थता की कुंजी है', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' मानव मन जैसा विचार करता है वैसी ही उसकी इच्छा शक्ति बनती जाती है, और वह वैसा ही अपने आपको महसूस करने लगता है। अन्वेषकों ने अनेक प्रयासों द्वारा यह सिध्द कर दिया कि यदि मनुष्य अपने शरीर में किसी रोग की कल्पना करने लगता है तो वास्तव में उस रोग के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। यदि वह दृढ़ इच्छ शक्ति से रोग के निदान के बारे में विचार करता है तो वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है। चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य में चालीस प्रतिशत रोग तो शरीर की व्याधि है, तथा साठ प्रतिशत रोग 'मन' के कारण होते हैं। वेद कहता है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात धर्म व कर्म के लिये शरीर में स्थित मन व मस्तिष्क के दिव्य भंडार को सुरक्षित रखो।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में चिकित्सकों ने मन की सत्ता को स्वीकार कर लिया है। विज्ञानवेत्ता इस बात पर शोध कर रहे हैं कि यदि मनुष्य के मन की इच्छा शक्ति दृढ़ है तो रोग प्रतिरोधक शक्ति मानव शरीर में किसी अभेद्य दुर्ग की भांति रक्षा करती है। डा.एरिक का मानना है कि यदि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर अधिक विकसित एवं उन्नत होता है तो विषैले जीवाणुओं का शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेदों में इसी सूक्ष्म शरीर के विकास के लिए प्राणायाम एवं योगविद्या को प्रभावी बताया गया है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं कि या सामाजिक बंधनों अथवा मर्यादाओं के कारण कुछ इच्छाएं दब जाती हैं। इनका निवारण चिकित्सा शास्त्र के साथ-साथ योग मनोविज्ञान एवं प्राणायाम के माध्यम से रोगी की मानसिक शक्ति को दृढ़ बना कर किया जाता है।
मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक
हमारा शरीर पंच तत्व अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश व जल से बना है। अग्नि तत्व से स्मरण शक्ति, दूरदर्शिता व तीव्र बुध्दि के प्रधानता रहती है। शरीर की चमक, उत्साह, उमंग, आशा इसी अग्नि तत्व से ही आती है। शरीर की बलिष्ठता, क्रियाशीलता तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति इसी अग्नि तत्व की प्रधानता से आती है, क्योंकि जितना हमारा मानस तत्व, मन का आत्मविश्वास एवं संकल्प दृढ़ होगा उतनी ही तीव्र हमारी इच्छा शक्ति होगी, उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें उतनी ही शीघ्रता से तथा गहराई से शरीर को सुरक्षित व निरोग करने लगती हैं। अपने को स्वस्थ रखने का जितना अधिक विश्वास एवं आस्था होगा उतना शीघ्र रोग दूर हो जायेगा। बड़े से बड़े रोग का कष्ट भी कम ही अनुभव होगा। इसका उत्कृष्ट उदाहरण सुधा चंद्रन है जो टांग कटने के बावजूद भी अपनी इच्छा शक्ति के बल पर उत्कृष्ट नृत्यांगना बन सकी। विश्वप्रसिध्द फुटबाल खिलाड़ी बैले ने, जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य फुटबाल खेलना था पैर में गैंगरीन हो जाने के कारण पैर काटने की सलाह को नहीं माना और इच्छा शक्ति के बल पर रोग ठीक करके विश्व प्रसिध्द खिलाड़ी बन गये।
इसी प्रकार अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगता है कि जब मन की शक्ति के आगे रोग गौण हो जाता है क्योंकि मन की तीव्रता का परिणाम यह होता है कि उससे निकलने वाली विद्युत तरंगें रक्त शोधन कर शारीरिक शक्ति देती है। शरीर ईश्वरीय देन है, इसमें अस्थि मज्जा, रक्त, नाड़ियां, अंग-प्रत्यंग ईश्वर के अनुपम खजाने हैं जिनका संचालन अंत:करण के भाव संवेग से तथा मन की शक्ति से होता है। यह एक कटु सत्य है कि मनुष्य ने अपनी बुध्दि के बल पर संसार में एक से एक अजूबे तैयार कर लिये हैं, किन्तु जीवित मनुष्य बनाना उसके लिये संभव नहीं हो सका। इसलिए ईश्वर ने जहां शरीर दिया है वहीं उसके रोगों को नष्ट करने की शक्ति भी साथ-साथ दी है। प्रकृति ने हर जहरीली घास के पास ही उसकी प्रतिरोधी घास भी उत्पन्न की है, केवल आवश्यकता है उसे खोजने की।हमारा मन एक श्रेष्ठ चिकित्सक है। आवश्यकता है अपने मन के साथ शरीर का सामंजस्य रखने की। इस मन को वश में रखने, आत्मविश्वास जागृत करने तथा इच्छाशक्ति को सबल बनाने के लिये वेदों में प्राणायाम, योग, ध्यान, जप, साधना, सात्विक आहार-विहार का ज्ञान दिया है। ईश्वर में विश्वास इस सबकी बड़ी शक्ति है। नियमित साधना भी मन की शक्ति को दृढ़ करती है। इसके लिये प्रतिदिन आंखे बंद करें मैं स्वस्थ हूं, 'मैं प्रसन्न हूं,''मैं प्रभु पर निश्चिंत हूं।' इसका पालन करें। मानव शरीर की यह विशेषता है कि वह जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है।
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