Saturday, June 5, 2010

वर्तमान युग में बढ़ता मानसिक तनाव


वर्तमान युग को भौतिकवाद का युग भी कहा जाता है। अतीत से लेकर अब तक मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधाएं पाने के लिए निरंतर प्रयास किए और उपलब्धियां हासिल कीं। एक कहावत है 'मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की'। इसी प्रकार जैसे मनुष्य सुविधाएं पाने के लिए लालायित होता गया और उन्हें पाने के लिए दुःखी होता रहा एवं तनावग्रस्त होता गया।
पिछले लगभग दो दशक से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने आम आदमी के जीवन में दखल देना शुरू किया। केवल टी.वी. के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को नई-नई सुख-सुविधाओं से अवगत कराया गया। यह मानव प्रकृति है कि वह हर संभव व असंभव सुविधाओं को पाने की लालसा करता है और अधिक सुविधा संपन्न होने के लिए स्वप्न देखने लगता है। अब चूंकि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएं अलग-अलग होती है अतः सुख-सुविधाएं वह अपनी क्षमता के अनुसार ही जुटा पाता है और जो सुविधाएं वह प्राप्त नहीं कर पाता उसके लिए मानसिक तनाव पाल लेता है।
केवल टी.वी. के माध्ययम से प्रसारित विज्ञापनों द्वारा जनता को लुभाने का प्रयास किया जाता है, विज्ञापनदाता का उद्देश्य अपने माल की बिक्री अधिक से अधिक बढ़ाना होता है। अतः जितना लुभावना विज्ञापन होगा, दर्शक अधिक से अधिक जेब खाली करने के लिए प्रेरित होगा। परंतु सीमित आय वाला व्यक्ति अपनी आर्थिक क्षमता से अधिक स्वप्न देखने लगता है और फिर अधिक धन कमाने की होड़ में शामिल हो जाता है। वह नैतिक या अनैतिक किसी भी तरह से धन अधिक इकट्ठा करने की योजना बनाता रहता है। अधिक समय देकर, अधिक काम कर अपने स्वप्न पूरा करने में व्यस्त हो जाता है परंतु जिस उद्देश्य को पूरा हो जाने पर संपूर्ण आनंद प्राप्ति की उम्मीद लगाए बैठा था, उस लक्ष्य को प्राप्त कर भी उसे इच्छित संतोष प्राप्त नहीं होता। क्योंकि लक्ष्य तक पहुंचते-पहुंचते उसके लक्ष्य की सीमा भी बढ़ जाती है। पहले लक्ष्य को पाने के उपरांत कोई नई इच्छा जाग्रत हो जाती है। वह चक्रव्यूह उसे जीवन भर बेचैन और तनावग्रस्त रखता है और मानसिक तनाव के कारण अनेक रोगों को आमंत्रित कर लेता है।
अतः इस भौतिकवादी युग में अपने को अनेक बीमारियों एवं परेशानियों से बचाने के लिए अपने भौतिक साधनों द्वारा अर्जित धन से ही स्वयं की संतुष्ट करना होगा तब ही हम सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। यह जान लेना आवश्यक है जैसे समुद्र की गहराई नापना असंभव है इसी प्रकार दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं जुटा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। किसी न किसी स्तर पर आकर तो संतोष करना ही होगा। उदाहरण के तौर पर यदि एक व्यक्ति अपना लक्ष्य दस लाख रुपए पाने का रखता है ओर येन-केन प्रकारेण किसी प्रकार जुटा लेता है तो उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने पर आत्मसंतोष हो जाना चाहिए परंतु होता बिल्कुल उल्टा हैं वह अधिक असंतुष्ट हो जाता है। क्योंकि वह एक करोड़पति के ठाठ देखकर अपने अंदर हीन भावना उत्पन्न कर लेता है और अपने सारे प्रयासों को निरर्थक मानने लगता है। इसी प्रकार करोड़पति, अरबपति की समृध्दि को देखकर अपन सुख-चैन खो देता है। इसी प्रकार जिसे ज्ञान पिपासा होती है वह अधिक से अधिक ज्ञानवान बनना चाहता है। जब वह अथक प्रयासों से कुछ डिग्रियां प्राप्त कर लेता है और अपने से अधिक डिग्रियां धारण किए हुए किसी को देखता है तो वह विचलित एवं तनावग्रस्त हो जाता है। यह स्थिति उसे बेचैन जीवन जीने को मजबूर करती है। क्योंकि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। अतः एक व्यक्ति अवांछित लाभों को पाने के लिए अपने जीवन के अमूल्य समय को कब तक नष्ट करता रहेगा? कहीं न कहीं संतोष करना आवश्यक है। उपरोक्त व्याख्या से यही निष्कर्ष निकलता है कि आवश्यक नित्य प्रयास करते हुए जितना प्राप्त कर सते हो, उसमें ही अपने को संतुष्ट रखने से ही सुख और आनंदित जीवन की प्राप्ति हो सकती है। हमें यह जीवन एक ही बार जीने को प्राप्त होता है। अतः उसे व्यर्थ की दौड़-धूप में शामिल कर बर्बाद नहीं करना चाहिए। कम सुविधाओं के बाद भी जीवन आनंद पूर्वक जिया जा सकता है।

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