Sunday, October 5, 2014

प्रार्थना और रत्नों से भी दूर होती हैं बीमारियां

आधुनिक युवा पीढ़ी भले ही अपनी प्राचीन सभ्यता और रीति-रिवाजों से मुंह फेरती हो परन्तु जब उन्हें पाश्चात्य जगत के लोग भी स्वीकारने लगते हैं तो युवा पीढ़ी भी उनका अनुसरण करने ही लगती है। ऐसे ही जब योगाभ्यास को पाश्चात्य जगत ने योग के नाम से प्रस्तुत किया तो हमारे युवाओं ने भी उसकी पूरी वैज्ञानिकता, आध्यात्मिकता तथा महानता स्वीकारी थी।
अथाह, अनमोल ज्ञान
प्रार्थना के संदर्भ में जो अध्ययन अमेरिका में हुए हैं उनको देख कर यही लगता है कि कुछ समय बाद हमारी युवा पीढ़ी भी प्रार्थना, स्तुति व मंत्रोच्चारण का महत्व समझने लगेगी। इस अध्ययन में यह दावा किया गया है कि प्रार्थना करने मात्र से ही बीमारियों को रोका या कम किया जा सकता है। यही नहीं, बल्कि प्रार्थना करने से उन लोगों को भी स्वास्थ्य लाभ मिलता है, जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि कोई उनके स्वास्थ्य की मंगल कामना के लिये प्रार्थना कर रहा है।
‘कान्सास सिटी’ के एक अस्पताल ‘सेन्ट ल्यूक’ में कारोनरी केयर सेंटर के मरीजों पर विलियन हैरिस ने 12 मास तक प्रार्थना के संदर्भ में अध्ययन किया और पाया कि जिन मरीजों के लिये प्रार्थना नहीं होती था, उनकी सेहत पूर्ववत ही रही या इस तरह का कोई सुधार नहीं हो पाया।
यह अध्ययन चूंकि विदेश में हुआ है इसलिये आधुनिक युवा नि:संदेह इस पर विश्वास कर लेगा और प्रार्थना की शक्ति को पहचानने लगेगा जबकि सच्चाई तो यह है कि हमारे पूर्वजों, योगियों, सन्तों, महात्माओं और ऋषि मुनियों ने प्रार्थना की शक्ति, महत्व और मूल्य को बहुत पहले से ही समझ लिया था। यही कारण है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में पूजा-पाठ, आराधना, मंत्रोच्चारण, देवी-देवताओं की स्तुति आदि की बातें वर्णित हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई उदाहरण भी आते हैं जिनमें केवल प्रार्थना या मंत्र शक्ति मात्र से ही मरणासन्न व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाता है या फिर मर चुका व्यक्ति भी जीवित हो जाता है। सत्ती सावित्री द्वारा की गयी प्रार्थना एक अच्छा उदाहरण है।
इसी प्रकार, हमारी प्राचीन सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान आदि से हमें जो अथाह, अनमोल ज्ञान एवं विद्या रूपी खजाना मिला है, उसी का एक अंश मात्र हैं रत्न संबंधी ज्ञान जिसका प्रचलन आजकल दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है।
जिन रत्नों को आज हम अपनी शानो शौकत, रुतबे, ऐश्वर्य, स्तर, समृध्दि आदि के लिये पहनते हैं या कभी-कभी ज्योतिष शास्त्र के अनुरूप ग्रहण करते हैं, उनके पीछे हमारी प्राचीन परंपरा में ठोस ज्ञानाधार और तार्किकता रही है जिसे आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। इसके साथ ही यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि रत्नों में औषधीय-शक्ति होती है जिससे बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।
हमारे यहां की प्राचीन परंपरा के अनुसार यह माना जाता है कि जिस प्रकार से हमारे जीवन को ग्रहों द्वारा प्रभावित किया जाता है, उसी प्रकार से उन ग्रहों से संबंधित रत्नों द्वारा भी हमारा स्वास्थ्य और भाग्य प्रभावित किया जा सकता है। परंपरागत यह विश्वास किया जाता है कि मनुष्य की देह प्रकाश के सात रंगों से बनी है अर्थात् यह प्रकाश के साथ प्रकार की किरणों से संबंधित होती है। देह में जब कभी किसी किरण की कमी या अधिकता हो जाती है तो बीमारी या रुग्णता होने लगती है, अत: उस किरण से संबंधित रत्न पहन कर इस संतुलन को साम्यावस्था में लाकर पुन: स्वास्थ्य लाभ उठाया जा सकता है।
रत्नों से जिस प्रकार की किरणें संचरण करती है, उसी प्रकार की ऊर्जा भी प्रवाहित होती रहती है और चूंकि रत्न शरीर को स्पर्श करते हुए पहने जाते हैं। तो ऊर्जा भी शरीर में प्रवाहमान होती रहती है। ज्योतिषियों द्वारा भी रत्नों की उपयोगिता जातक की ग्रह दशा आदि से संबंधित होती है और वे ग्रह, नक्षत्र आदि के आधार पर रत्नों को पहनने की सलाह देते हैं।
रत्नों के औषधीय प्रभाव
रत्नों में एक प्रमुख रत्न पुखराज होता है। पुखराज का संबंध बृहस्पति ग्रह से होता है। माना जाता है कि पुखराज में भाग्य, समृध्दि और ऐश्वर्य को उद्भूत करने की शक्ति तो होती ही है, साथ ही साथ इससे गठिया बाय, जोड़ों का दर्द, नपुंसकता, बांझपन आदि बीमारियों का उपचार भी किया जा सकता है।
लाल रंग के रत्न मूंगे को मंगल ग्रह से संबंधित कहा जाता है। यह रत्न उत्सर्जन ग्रंथियों, स्वेद-ग्रंथि, मूत्र-ग्रंथि गुर्दे से संबंधित बीमारियों में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार यह रत्न एक तरह से शारीरिक शुध्दि करने में सहायक होता है और इसका प्रयोग व्यक्ति के लिये उपयोगी माना जाता है।
मोती को शीतल रत्न समझा जाता है। इसका संबंध चांद से है। मोती से उन बीमारियों को समाप्त किया जा सकता है जो गरम किरणों से उत्पन्न होती हैं जैसे फोड़े-फुंसी, लू लगना, गर्मी लगना, उच्च रक्तचाप, फफोले तथा गर्भाशय से संबंधित बीमारी आदि। चूंकि मोती शीतल रत्न होता है और इसमें से शीतल ऊर्जा प्रवाहित होती है, अत: यह शीतलता प्रदायिनी कार्य बहुत अच्छी तरह से कर सकने में सक्षम माना जाता है।
पन्ने को बुध ग्रह से जोड़ा जाता है जिसका संबंध मस्तिष्क, स्मरण शक्ति, बुध्दि, रचनात्मक कार्यकुशलता, स्ायुतंत्र आदि से होता है। पन्ने का उपयोग कई प्रकार की बीमारियों में किया जाता है जैसे आंखों से संबंधित बीमारियां, याददाश्त से संबंधित बीमारियां, कान के रोग, हकलाहट, मिरगी आदि। कहा जाता है कि पन्ने में इन बीमारियों को कम या समाप्त करने की अद्भुत क्षमता होती है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में जिन रत्नों का उल्लेख मिलता है उनमें एक रत्न का नाम है लाल। इस लाल नामक रत्न को सूर्य देव से संबंधित समझा जाता है। जिस प्रकार मोती शीतल प्रकृति का रत्न होता है, उसी प्रकार लाल गरम प्रकृति का रत्न है। लाल में से गर्म किरणों के ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। अत: यह उन बीमारियों के लिये पहना जाता है, जो शीतलता से या ठंडा से उत्पन्न हुई हों, इसीलिए इसे सर्दियों में ही पहनना उपयुक्त रहता है। लाल से हड्डियों, गठिया, ठंड लगना, रक्त से संबंधित बीमारी, शरीर कमजोर होना आदि व्याधियां दूर होती हैं। इसी प्रकार की गरम प्रकृति वाला रत्न होता है लहसुनिया। इसका ग्रह केतु होता है तथा इसे लकवा, कैंसर, मुंहासे, चर्म रोग आदि बीमारियों के निदान के लिये ग्रहण किया जाता है।
नीलम को शनि ग्रह से संबंधित माना गया है। नीलम भी मोती के सदृश्य शीतल किरणें प्रवाहित करता है। नीलम से अलसर, पेट संबंधी रोग (दस्त, पेचिश आदि) पाचन क्रिया, दिमाग से संबंधित बीमारियां, पागलपन, पार्किन्सन, लकवा, दिल संबंधी रोग आदि के लिये स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
जब रत्नों के औषधीय प्रभावों की बात हो तो हीरे को एक तरफ सरका दिया जाना अनुचित नहीं होगा। माना जाता है कि हीरा न तो बहुत अधिक गरम प्रकृति का होता है और न ही बहुत अधिक शीतल प्रकृति का। यद्यपि इसका संबंध शुक्र ग्रह से होता है परन्तु इसमें ऐसी कोई रोग निदान क्षमता नहीं होती जैसी कि अन्य रत्नों में होती है यानी हीरा इस मामले में अन्य रत्नों के मुकाबले बहुत पीछे रहता है परन्तु इसका लाभ यह जरूर माना जाता है कि हीरे को कोई भी पहन सकता है, परन्तु सिर्फ दिखावे के लिये।

सदा याद रखें मौत और भगवान को

आजकल ज्यादातर लोग चाहे वे कर्मचारी हों, व्यापारी हो, अधिकारी हों, किसान हों, मजदूर हों या शिक्षण से जुड़े हों, अपने-अपने काम में इस कदर व्यस्त हैं कि उन्हें अच्छे कामों जैसे पूजा पाठ, सत्संग, स्वाध्याय आदि के लिये न तो समय है और न ही रुचि है। ऐसा होते हुए भी मनीषियों के विचारों पर मनन करना आवश्यक व लाभकारी है।
यह संसार नाशवान है। यहां की हर चीज नाशवान है। जो आया है वह जायेगा जो बना है वह टूटेगा। जीवन का दूसरा नाम मौत है। मनुष्य यह जानते हुए भी कि कोई चीज उसके साथ नहीं जायेगी, फिर भी दिन रात धन इकट्ठा करने में लगा रहता है। इसलिए मौत और ईश्वर को हर समय याद रखना चाहिये।
बुरे कामों व बुरी संगत से बचना चाहिये। कर्मों का फल अवश्य मिलता है तथा भोगना पड़ता है चाहे इस जन्म में, चाहे अगले जन्म में। जैसा बोओगे, वैसा काटोगे, जैसी करनी वैसी भरनी, जैसा धागा वैसा कपड़ा। परमात्मा की लाठी बेआवाज है। दुष्कर्मों का दंड भुगतना ही पड़ता है। इसी प्रकार किसी का दिल दुखाना, जल कटी सुनाना, ताने देना भी बुरा है। यह पाप है।
अपने खानपान की शुध्दता तथा पवित्रता पर भी ध्यान देना चाहिये। सब प्रकार के नशों व तम्बाकू आदि से भी दूर रहना चाहिये। जैसा अन्न खाओगे, वैसा मन तथा शरीर बनेगा। खाना जीने तथा प्रभु स्मरण के लिये है न कि जीना खाने के लिये है। किसी संत ने बड़ा सुंदर कहा है- दो बातन को याद रख, जो चाहे कल्याण, नारायण इस मौत को दूजे श्री भगवान। बुरा वक्त, बीमारी, दुर्घटना व मौत कह कर नहीं आते। बहुत कुछ पूर्व जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है।
हम बहुधा देखते हैं कि अच्छे आदमी दुखी रहते हैं और बुरे लोग मौज उठाते हैं। ईश्वर के विधान में अच्छे कर्म बुरे कर्मों से घटाये नहीं जाते। धनवान लोग समझते हैं कि वे धन के बल पर सब कुछ ठीक कर लेंगे परंतु यह उनकी भूल है। यदि पैसा ही सब कुछ होता है तो धनवान लोग सुखी व स्वस्थ होते पर ऐसा नहीं है।
पैसे की भी सीमाएं हैं। पैसे से दवा खरीद सकते हैं, सेहतनहीं। पैसे से किताब खरीद सकते हैं, ज्ञान नहीं। पैसे से बढ़िया और स्वादिष्ट भोजन खरीद सकते हैं, भूख व हाजमा नहीं। पैसे से औरत खरीद सकते हैं, प्यार नहीं। पैसे से बढ़िया आरामदेह बिस्तर खरीद सकते हैं, नींद नहीं। पैसे से कार व कोठी खरीद सकते हैं, शांति व संतोष नहीं।
मौत पर एक उर्दू शायर के विचार भी याद रखने के लायक हैं- आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं। मौत को किसी तरह से न रोका जा सकता है, न टाला जा सकता है और न ही इसका इलाज किया जा सकता है। यह पूर्व निर्धारित रहती है और इसमें तीन ‘स’ होते हैं- समय, स्थान और साधन। आदमी अपने आप अर्थात् मरते समय कौन साथ में होगा। ऐसा भी देखने में आता है कि आदमी के परिवार में सब लोग बेटे बेटियां, बहुएं, नाती पोते सब होते हैं पर मरते समय कोई भी पास में नहीं होता।
अंत में कुछ विचार बुढ़ापे, बीमारी तथा कष्टों पर देने भी जरूरी है। एक फारसी के कवि ने बड़ा सुंदर कहा है- ऐ बूढ़े! तेरे कौए के पंखों जैसे काले बालों पर बरफ की सफेदी पड़ चुकी है। अब तुझ को बुलबुल की तरह बाग में गाना, नाचना अठखेलियां करना शोभा नहीं देता। बूढ़ा आदमी जब देखता है कि कोई भी इसके निकट नहीं आ रहा तो वह लगातार राम, हाय राम पुकारता है चाहे उसने अपनी जवानी के दिनों में कभी भी श्रीराम, श्रीराम न कहा हो। रोग के कारण जब आदमी की शारीरिक क्षमता समाप्त हो जाती है और कोई भी इसका सहाई नहीं होता, तब वह हाय राम, हाय राम उचारता रहता है चाहे उसने अपनी तंदुरुस्ती के दिनों में कभी भी श्रीराम न कहा हो।
इसी प्रकार असफलता का मुंह देखने पर जब आदमी को कोई मुंह नहीं लगाता या रुपये पैसे की कमी के कारण जब किसी तरफ से कुछ भी लाभदायक सहायता नहीं मिलती तो व्यक्ति हाय राम, हाय राम कहता रहता है चाहे उसने संपन्नता और मौज मेले के दिनों में कभी श्रीराम श्रीराम न कहा हो।
यदि आदमी चाहता है कि इसको कभी भी निराशा का मुंह न देखना पड़े या उदास न होना पड़े तथा हाय राम, हाय राम न कहना पड़े तो हर हालत में व हर समय श्रीराम, श्रीराम कहता रहे। श्री राम का नाम ही जीवन का सहारा है। यही जीवन का पथ प्रदर्शक है।

Sunday, April 6, 2014

बेहतर ‘मूड’ से पाइए स्वस्थ तन-मन

वह मानसिक अवस्था, जिसके अच्छे या बुरे होने पर व्यवहार क्रिया और परिणाम में उसके अनुरूप अन्तर दिखाई पड़ने लगें, सामान्य बोलचाल की भाषा में मूड कहलाती है। वैसे तो यह एक अस्थायी मनोदशा है पर जब तक रहती है, आदमी को सक्रिय या निष्क्रिय बनाए रहती है। सक्रियता, प्रफुल्लता, उत्साह, उमंग, स्फूर्ति उस मन:स्थिति या मूड का परिणाम है जिसमें वह सामान्य रूप में अच्छा होता है जबकि बुरी मन:स्थिति में अंतरंग निष्क्रिय, निस्तेज, निराश और निरुत्सास युक्त अवस्था में पड़ा रहता है। इस प्रकार यदि व्यक्ति विनोदपूर्ण स्थिति में दिखाई पड़े, तो यह कहा जा सकता है कि वह अच्छे मूड में है जबकि निराशापूर्ण दशा उसके खराब मूड को दर्शाती है।


मूड संबंधी वास्तविकता समझ लेने के उपरांत हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिये कि वह हमेशा स्वस्थ मनोदशा में रहे। कभी वह गड़बड़ा भी जाए तो उसे तुरंत पूर्व स्थिति में लाने की कोशिश करनी चाहिये। जिसका मानसिक धरातल जितना लचीला होगा, वह उतनी ही जल्दी अपने इस प्रयास में सफल सिध्द होगा। जो जितनी जल्दी सामान्य मानसिक स्थिति में वापस लौट आता है, मनोविज्ञान की दृष्टि से उसे उतना ही स्वस्थ मन वाला व्यक्ति कहा जा सकता है। लगातार खराब मूड में बने रहने से मन उसी का अभ्यस्त हो जाता है और व्यक्ति मानसिक विकारों का पुराना रोगी बन जाता है।

वर्तमान कठिन समय में जीवन की जटिलताएं इतनी बढ़ गयी हैं कि व्यक्ति अधिकांश समय खराब मानसिक अवस्था में बना रहता है। आज से सौ वर्ष पहले मानवी जिंदगी सरल थी, अब वह वैसी नहीं रही। यही कारण है कि तब लोग खेल और मनोरंजन की तरह जितनी सहजता से तनाव रहित उन्मुक्त जीवन गुजार लेते थे, वैसा आज संभव नहीं। जटिल जीवन में समस्याएं बढ़ती हैं और उस बढ़ोत्तरी का असर मन की स्वाभाविकता पर पड़े बिना नहीं रहता।

इन दिनों मनुष्य की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ी-चढ़ी है कि वह अधिकाधिक धन-दौलत जुटा लेने, प्रसिध्दि कमा लेने और वाहवाही लूट लेने की ही उधेड़बुन में हर घड़ी उलझा दिखाई पड़ता है। जीवन इसके अलावा भी कुछ है, उन्हें नहीं मालूम। बस यही अज्ञानता विकृत मनोदशा का कारण बनती है।

यह सच है कि व्यक्ति का रहन-सहन जितना निर्द्वन्द्व व निश्छल होगा, उतनी ही अनुकूल उसकी आंतरिक स्थिति होगी। इसके विपरीत जहां बनावटीपन, दिखावा, झूठी शान, प्रतिस्पर्धा होगी, वहां लोगों की मनोदशा उतनी ही असामान्य होती है। एक सर्वेक्षण से यह बात सामने आयी है कि भोले-भाले ग्रामीणों की तुलना में स्वभाव से अधिक चतुर-चालाक और कृत्रिमता अपनाने वाले शहरी लोगों का ‘मूड’ अपेक्षाकृत ज्यादा बुरी दशा में होता है।

मनोवैज्ञनिकों की सलाह है कि जब कभी मन:स्थिति या मूड खराब हो जाए तो उसे अपने हाल पर अपनी स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया द्वारा ठीक होने के लिये नहीं छोड़ देना चाहिये। इसमें समय ज्यादा लंबा लगता है और शारीरिक-मानसिक क्षति की आशंका बढ़ जाती है। शरीर के विभिन्न तंत्रों पर अनावश्यक दबाव पड़ने से अनेक प्रकार की असमनताएं सामने आने लगती है। इसलिए यथासंभव इससे उबरने का शीघ्र प्रयत्न करना चाहिये। विलंब करना अपने आप को हानि पहुंचाने के समान है।

यदि कभी मूड खराब हो जाए तो अकेले पड़े रहने की अपेक्षा मित्रों के साथ हंसी मजाक में स्वयं को व्यस्त रखें पर हां यह सावधानी रखें कि ‘मूड’ को चर्चा का विषय न बनाएं। एक कारगर तरीका भ्रमण भी है। प्रकृति के संपर्क से मन जितनी तीव्रता से प्रकृतस्थ होता है, उतनी तेजी से अन्य माध्यमों के सहारे नहीं हो सकता। इसलिये ऐसी स्थिति में पार्क उपवन, बाग, उद्यान जैसा आसपास कोई सुलभ स्थल हो तो वहां जाकर मानसिक दशा को सुधारा जा सकता है। नियमित व्यायाम, खेल एवं किसी भी रचनात्मक कार्यों का सहारा लेकर भी मन की बुरी दशा को घटाया-मिटाया जा सकता है।

आवश्यकता से अधिक की आकांक्षा और स्तर से ज्यादा की चाह में प्रवृत न रहें तो मूड को खराब होने से बचाया जा सकता है। आध्यात्मिक जीवन-यापन करते हुए अपने सुनिश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने से भी मन को असीम शांति व संतुष्टि मिलती है। इसलिए बेहतर यही है कि वैसा जीवनक्रम अपनाया जाय, जिसमें अवसाद भरी मन:स्थिति में पड़ने की समस्त संभावनाएं ही निरस्त हो जाएं। जीवन पध्दति वही अच्छी है, जो हमें शांति और संतोष प्रदान करें एवं अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ाती चलें।