Saturday, August 27, 2011

कमिटमेंट में कमी: रिश्तो की हत्या

आज के हमारे युवाओं को न तो भविव्य की तनहाइयों की फिक्र है, न हीं जिंदगी की वीरानियों की परवाह, क्योकि वो आज में जीता है। इसी सोच के चलते वो रिश्तों की अहमियत को इस कदर नजरअंदाज कर रहा है। यही वजह है कि न अब रिश्ते टिकाऊ होते है, न ही होता है उनमें कमिटमेंट। किसी भी रिश्ते की बुनियाद होती है प्यार और विश्वास। यदि ये दोनों ही चीजें रिश्ते में न हो, तो वो रिश्ता महज समझौता बनकर रहा जाता है। आज हम जिस तेजी से रिश्ते बनाते है, उसे तेजी से उन्हे तोड भी देते है, क्योकि रिश्ते बनाते समय हमें खुद ही नहीं पता होता है कि आखिर ये रिश्ता कब तक टिकेगा। पिछले 10 सालों में तलाक के मामले कुछ शहरों में दोगुने हो गए तो कही-कही इनमें तीन गुना बढोत्तरी हुई है। जहां 90 के दशक में तलाक के औसतन 1000 मामलें हर साल सामने आते थे, वहीं अब ये संख्या बढकर 9000 हो गई है। अधिकतर मामलों में सामंजस्य की कमी या पार्टनर की बेवफाई को ही तलाक का आधार बनाया गया। बदलती लाइफस्टाइल, बढती प्रोफेशनल आकांक्षाएं, न्यूक्लियर फैमिली, रिश्तों में बढती अपेक्षाए ही इन बढती तलाक दरों की मुख्य वजहें हंै। आज महिलाएं भी तलाक की पहल करने में पीछे नहीं है। अगर रिश्ते में जरा-सी भी कमी या अनबन नजर आती है, तो बयाय कोई समाधान निकालने के तलाक को ही अपनी आजादी का आसान रास्ता मानकर लोग रिश्ते तोडने में हिचकते नहीं। अपनों का साथ, प्यार का एहसास जिंदगी को खुशनुमा बना देता है, जीवन में थोडी-बहुत तकरार भी जरूरी है, इसी का नाम तो जिंदगी है, वक्त रहते जिंदगी को संभाल लिया जाए तो बेहतर है, वरना ऎसा न हो कि हम जब गिरे, तो कोई थामनेवाला ही न हो, हम जब रोएं तो किसी का कंधा सिर रखने के लिए न हो।
कारण:
1. अपने तरीके से जिंदगी जीना - अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का फॉर्मूला इन दिनों बहुत फैशन में है, ऎसे में कमिटमेंट्स की उम्मीद किए जाने पर यही सुनने को मिलता है कि इट्स माई लाइफ, मुझे अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की आजादी चाहिए।
2. प्राइवेसी- आज के युवा अपनी लाइफ में प्राइवेसी चाहते हैं, अपने लाइफ पार्टनर से भी। रिलेशनशिप में स्पेस जरूरी होता है, लेकिन इस शब्द को मात्र अपने गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के लिए बचाव के तौर पर ही इस्तेमाल किया जाने लगा है। अपने पार्टनर से चंद सवाल करने का मतलब यह लगाया जाता है कि आप उसे स्पेस नहीं दे रहे, उसकी प्राइवेसी से दखलअंदाजी कर रहे है।
3. एक्स्पेक्ट मोर- आजकल पहले ही एक दूसरे को यह साफ तौर पर कह दिया जाता है कि मुझसे ज्यादा उम्मीद मत रखना, मैं तुम्हारे लिए खुद को नहीं बदलूंगा/बदलूंगी।
4. कमिटमेंट फोबिया - कहते है कुछ लोग कमिटमेंट से डरते है, शायद उन्हें अपने प्यार व रिश्ते पर इतना भरोसा ही नहीं होता कि वो टिक पाएंगा या यूं कह ले कि कुछ लोग इतने मनचले होते है कि एक ही रिश्ते पर टिके रहना उनके बस की बात नहीं।
5. एक रिश्ते में न टिक पाना- एक ही रिश्ते पर पूरी उम्र बिता देने का दौर अब बीत चुका। ऎसे लोगों को अब इमोशनल फूल्स कहा जाता है। रिश्तों को बचाने की बात तो दूर, ठीक से बनने से पहले ही ये बात साफ हो जाती है कि अब तब ठीक लगेगा, साथ रहेंगे, वरना अपने अपने रास्ते।
6. प्रैक्टिकल - रिश्तों में प्रैक्टिकल होना आज जरूरी हो गया है। लोग सोचते है कि आगे बढना है तो प्रैक्टिकल होना जरूरी है। भावनाओं में उलझे रहेंगे, तो जिंदगी उलझ जाएगी। बदलते दौर के साथ नहीं बदलेंगे तो पीछे रहे जाएंगे।
उपाय:
1. बातचीत - किसी भी रिश्ते के लिए यह सबसे पहला और जरूरी स्टेप होता है। बिना बातचीत के रिश्तों में खालीपन आ जाता है। अगर कोई नाराजगी है, शिकायत है तो कहिए, चुप मत रहिए।
2. आदर - आपके मन में अपने पार्टनर के प्रति आदरभाव होना चाहिए। भले ही आप कितने भी बेतकल्लुफ हो एक दूसरे से, लेकिन एक दूसरे के प्रति रिस्पेक्ट बनी रहनी चाहिए। जिस व्यक्ति का आप सम्मान नहीं कर सकते, उससे प्यार कब तक कर पाएंगे।
3. एक बार सोचें - अगर आपके रिश्ते में कोई प्रोब्लम चल रही है तो तैश में आकर कोई फैसला न लें। हो सकता है कुछ समय के लिए आपको रिश्ता बंधन लग रहा हो, लेकिन एक बार शांत मन से दोबारा सोचें कि क्या वाकई ऎसा है। क्या वाकई कहीं कोई गुंजाइश नहीं बची है रिश्तें मेंक् हर हाल में रिश्ते को थोडा समय दे।
4. रोमांस - कभी-कभी समय की कमी और कई कारण से रिश्ता बोझिल हो जाता है, ऎसा न होने दे। प्यार है, तो प्यार का इजहार समय-समय पर करते रहे, पैशन को जिंदा रखने के लिए जरूरी उपाय करते रहे। बाहर जाए, मूवी देखे, पार्टी करे या किसी शांत जगह जाकर तनहाई का मजा ले और रोमांस करे।
5. विश्वास - हर रिश्ता विश्वास पर टिका होता है। आपको अपने साथी पर विश्वास करना चाहिए। अगर आपके रिश्ते में विश्वास नहीं होगा तो आप चाहकर भी एक दूसरे के करीब नहीं आ पांएगे। विश्वास के बिना कोई भी रिश्ता नही टिक सकता। किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले एक मौका जरूर दे।
6. दोस्त बनें - अगर आपको लगता है कि आपका पार्टनर आपसे खुलकर बात नहीं कर पा रहा है या फिर वह आपसे बात करने में झिझकता है तो आप उससे दोस्तों की तरह व्यवहार करें।दोस्ती का रिश्ता एक ऎसा रिश्ता होता है, जहां हम खुद को आजाद समझते है। वो हमारे लिए बंधन नहीं होता, तो अपने रिश्ते में भी वहीं दोस्ताना अंदाज लाएं, जहां रिश्ता बंधन लगे ही न और अगर लगे भी तो ऎसा बंधन, जिससे आप ताउम्र बंधे रहना चाहे।
7. पार्टनर को समझें - हर किसी को यही लगता है कि वही सही है सामने वाला गलत है। लेकिन किसी भी बात का फैयला करने से पहले आप ठंडे दिमाग से सोचे। हो सकता है आपका पार्टनर भी अपनी जगह पर सही हो। हर स्थिति को सामने वाले के नजरिए से भी देखें और उसके बाद ही कोई राय बनाएं। यूं भी हर व्यक्ति अलग होता है, उसकी सोच एकदम हमारे जैसी नहीं हो सकती, तो उससे इतना ज्यादा बदलने की उम्मीद करने से बेहतर है उसके अपने अलग व्यक्तित्व को स्वीकारे। दो अलग सोच रखने वाले लोग भी मिलकर एक अच्छी और कामयाब जिंदगी जी सकते है।
8. आरोप-प्रत्यारोप - आरोप लगाने से कभी किसी रिश्ते में मजबूती नहीं आती। वो मात्र आपके ईगो को संतुष्ट कर सकता है। खुद को सही साबित करने के लिए बहस करने की बजाय आगे किस तरह से समझदारी से अपने रिश्ते को मजबूत बनाया जाए। इस पर विचार होना चाहिए। कोई एक झुक जाए, माफी मांग ले, तो इसमें बुरा ही क्या है।
9. अहंकार को दूर करें - स्वाभिमान और अहंकार में बहुत फर्क होता है। इस फर्क को समझकर अपने रिश्ते को बचाने की कम से कम एक कोशिश तो करे। ईगो को स्वाभिमान का नाम देकर अपने अहं की तुष्टि के लिए रिश्ते को खत्म करने की गलती न करे।
10. रिश्तों की अहमियत को समझें - आप कितने ही प्रैक्टिकल हो, लेकिन जीवन में किसी मोड पर एक साथी, एक हमसफर की जरूरत जरूर महसूस होती है। जीवन का ये सूनापन फिलहाल ग्लैमरस लाइफस्टाइल और आर्थिक कामयाबी के बीच नजर न आ रहा हो, लेकिन कहीं ऎसा न हो कि जब ये अकेलापन नजर आने लगे, तब तक देर हो चुकी हो।

सेक्स स्ट्रेस से बिगडते रिश्ते

आज तनाव या स्ट्रेस हर व्यक्ति के जीवन में है और स्ट्रेस लेवल बढ़ने के कारण शरीर के कई ऎसे हार्मोस प्रभावित होते हैं, जिनकी वजह से सेक्स स्ट्रेस बढ जाता है। सेक्स स्ट्रेस का कोई एक कारण नहीं है। मॉडर्न लाइफस्टाइल व अनेक ऎसी परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं।
सेक्स स्ट्रेस के कारण
1. समय का अभाव: सेक्स क्रिया के लिए समय व तनावरहित वातावरण चाहिए। आजकल की भागदौड भरी जिंदगी में लोगों के पास वक्त का अभाव है और यदि वक्त मिल भी जाता है तो मन तरह-तरह की आशंकाओं से घिरा रहता है। बच्चों का तनाव, आफिस की परेशानियां आदि अनेक बातें ऎसी हैं, जो व्यक्ति को तनाव मुक्त नहीं रहने देती। ऑफिस, घर और अन्य कार्यो की थकान के कारण और तालमेल की कमी के कारण सेक्स के प्रति उदासीनता पैदा हो जाती है।
2. वर्क लोड: जिंदगी में आगे बढने की चाह, बॉस की नजरों में योग्य बने रहने की चाह और पैसे कमाने की दौड में व्यक्ति अपनी सारी ऊर्जा खत्म कर देता है। पैसा कमाने और खुद को बेहतरीन साबित करने की दौड में व्यक्ति दिन-रात काम करता है। वर्क लोड ज्यादा होने से ऑफिस का बचा हुआ काम घर पर पूरा करना पडता है। इस तरह के हाई प्रेशर जॉब के साथ व्यक्ति परिवार के साथ संतुलन नहीं बना पाता। व्यक्ति घर और ऑफिस की जिम्मेदारियों के बीच पिसकर रह जाता है। व्यक्ति देर तक काम करने के बाद इतना थक जाता है कि बिस्तर पर लेटते ही नींद आ जाती है और इससे उसकी सेक्स लाइफ प्रभावित होती है।
3. असुरक्षा की भावना: वर्किग पति-पत्नी के रिश्तों में आजीवन साथ रहने की निश्चिंतता नहीं है। पति-पत्नी दोनों में असुरक्षा की भावना बनी रहती है। क्योंकी दोनों के अहं टकराने की आशंका रहती है। दोनों के कामकाजी होने की वजह से दोनों में से कोई भी समझौता करने के लिए तैयार नहीं रहता। इसलिए महिलाएं भी ज्यादा कमाने की होड में लग जाती है। क्योंकी वे सुरक्षित होना चाहती हैं। इस तरह की स्थिति तनाव व टकराहट को जन्म देती है।
4. विलासिता की चाह: आधुनिक सुख-साधन जुटाना, रिसॉर्ट या विदेश में छुटि्टयां बिताना हर दंपत्ति की इच्छा होती है। सुख-सुविधा की चाहत में व्यक्ति चादर से अधिक पैर पसारता है और इस कारण वह लोन और के्रडिट कार्ड का उपयोग करता है। बाद में किश्तें चुकाने का पे्रशर शरीर और मन दोनों को थका डालता है। इस तरह का फाइनेंनशियल स्ट्रेस व्यक्ति की जिंदगी को पूरी तरह प्रभावित करता है और उसे सेक्स लाइफ के प्रति उदासीन बना देता है।
5. अधूरी जानकारी: आधी अधूरी जानकारियां और गलतफहमी भी तनाव को बढ़ाते हैं। मैगजीन में सेक्स कॉलम में सेक्सोलॉजिस्ट द्वारा पाठकों के प्रश्नों के उत्तर दिए जाते हैं। लेकिन संबंधित लेख या कॉलम में दी गई जानकारी एक सामान्य जानकारी होती है जबकि हर व्यक्ति और उसकी परिस्थिति दूसरे से भिन्न होती है। अधूरी जानकारी से सेक्स स्ट्रेस बढ़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि कपल्स एक दूसरे के लिए समय निकालें। साथ ही उपरोक्त विषयों पर दोनों को विचार-विमर्श करना चाहिए। एक दूसरे को समझना चाहिए और सेक्स स्ट्रेस को नहीं पनपने देना चाहिए।

Friday, August 12, 2011

बाहरी दौड़ शान्ति प्रदान नहीं कर सकती

आज देश और दुनिया के जो हालात है वे कोई बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। ऐसा नहीं है कि दुनिया में तरक्की नहीं हुई है। कहां हिंसक जनवरों के बीच रहने वाला गुड़ा-मानव और कहां कंकरीट की गगनचुम्बी अट्टालिकों में रहने वाला आज का शहरी मानव? कहां दिन भर भोजन की खोज में खाईयों-खंदकों को फांदने वाला मानव और कहां आलीशान पांच सितारा होटलों में षड़रसभोजी मानव? कहां पत्रों और छालों के खुरदरे कपड़े पहनने वाला मानव, कहां सिन्थेटिक्स के फूल से हल्के-फुल्के रंगबिरंगे चिकने-चमकीले कपड़े पहनने वाला मानव? कहां एयरबसों और उपग्रहों में ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा करने वाला मानव, कहां प्राकृतिक आपदाओं से घिरा भयभीत मानव? कहां रेडियो, टेलीविजन से रात-दिन मनोरंजन करने वाला मानव, कहां निरक्षर भट्टाचार्य मानव, कहां डिग्रियों का भारी बोझा ढोने वाला मानव? सचमुच आकाश-पाताल का अंतर है। पर प्रश्न उठता है क्या पहले की तुलना में मानव आज ज्यादा शांत, सुखी है।
क्या मनुष्य सुखी बना?
शहरों में जन-संकुलता, कोलाहल, प्रदूषण तथा औद्योगिक हलचल इतनी बढ़ गई है कि मानव उससे तंग आ गया है। भले ही अब भी कुछ लोग पेट की खातिर महानगरों की ओर दौड़ रहे हैं, पर वहां का रहन-सहन इतना अकुलाने वाला हो गया है कि उससे विरक्ति होने लगी है। कृत्रिम स्वाद और स्वार्थी मानसिकता ने भोजन को इतना चटपटा और मिलावटी बना दिया है कि आदमी का स्वास्थ्य ही गड़बड़ाने लगा है। सभ्यता ने उस पर इतने कपड़े लाद दिए हैं कि वह स्वयं चलता-फिरता मॉडल बन गया है। जंगली जानवरों के भय से मुक्त मानव आज आतंकवाद से परेशान हो गया है। बोइंग विमानों एवं राकेटों में घूमने वाला मानव बीमारियों एवं दुर्घटनाओं से दु:खी हो गयी है। उच्च शिक्षा प्राप्त मानव विविध सर्टिफिकेट लिए नौकरी की तलाश में दफ्तरों का चक्कर लगा रहा है।
दु:ख की जड़ कहां है?
तो क्या सचमुच आदमी आज दु:खी है और यदि वह दु:खी है तो कहां है उसके दु:ख की जड़ें? निश्चय ही ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा को समुद्यत मानव फिर से गुफा-मानव नहीं बन सकता। स्वर्ग और नरक को भी वह माने या न माने यह एक अलग सवाल है, पर क्या वह अपने अन्दर निर्मित होने वाले स्वर्ग और नरक से बच सकता है? सचमुच मानव का सुख और दु:ख उसके अपने अन्दर ही निर्मित होता है।
मानसिक दु:ख
असल में मनुष्य का दु:ख आज देह का नहीं अपितु मानव-प्रसूत है। वह बाहर से तो भरा हुआ है, पर अंदर से खाली है। अन्दर का खालीपन ऊपर भी उभरकर आ रहा है। दवाईयां और ट्रेंक्वेलाइजर्स उसे भर नहीं सकते। भले ही आदमी ने नशीली दवाइयों से अपने आपको दु:ख मुक्त करने की कोशिश की हो पर सच तो यह है कि आज वह अपने ही द्वारा निर्मित वैतरणी में फंस गया है। बाहरी समृध्दि आदमी के अंदर के खालीपन को नहीं कर सकती। इसका यह अर्थ नहीं है कि आदमी की जीने के लिए पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। रोटी-पानी के बिना वह जी नहीं सकता। पहनने के लिए कपड़े भी आवश्यक है। रहने के लिए मकान भी आवश्यक है। पर ये सब साध्य नहीं है। ये सब साधन हैं। आज सबसे बड़ी भूल यही हो रही है कि साधनों को ही साध्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
अतिरिक्त अमीरी
जब पदार्थ ही साध्य बन जाता है तो उसे प्राप्त करने की शुध्दता की प्रतिबध्दता नहीं रह जाती। यदि आदमी का साध्य शांति हो तो वह उसी में आनंद का अनुभव कर सकता है जो उसे उपलब्ध है। पदार्थ की आखिर कहीं अंतिम सीमा नहीं हो सकती। बाहरी आकांक्षा हमेशा आगे से आगे बढ़ती जाएगी। यदि मनुष्य की दौड़ बाहर न होकर अन्दर की ओर हो जाए तो उसे जो कुछ प्राप्त है वह उसे भी ठुकरा सकता है। महावीर और बुध्द के पास वैभव की कोई कमी नहीं थी, पर अन्दर की अमीरी जागी तो उन्होंने राजघाट को भी ठुकरा दिया।
साधन ज्यादा, सुख कम
यदि हम आज की तुलना में पुराने जमाने को देखें तो स्पष्ट आभास होगा कि आज जितनी सुख सुविधाएं आम आदमी को प्राप्त है वे पुराने जमाने के शहंशाहों को भी प्राप्त नहीं होगी। मैं जमीन और धन की बात नहीं करता। हो सकता है पुराने शहंशाहों के पास अपार वैभव और जमीन ज्यादा रही होगी, पर साधनों की दृष्टि से देखा जाए तो आज आदमी को जितनी सुख-सुविधाएं प्राप्त है उतनी पुराने अमीरों के पास नहीं थी। फिर भी यदि आज का आदमी सुखी नहीं है तो केवल इसीलिए नहीं है कि वह बाहर की दौड़-दौड़ रहा है। गरीब लोगों की बात छोड़ भी दें, जिनके पास प्रभूत पैसा है वे लोग शायद हैरान है। इसका कारण यही है कि बाहरी दौड़ आदमी को शांति प्रदान नहीं कर सकती। उससे लिए तो मनुष्य को अपने अंदर में ही मील का कोई पत्थर लगाना पड़ेगा।

तनाव हर स्थिति में हानिकारक है

यह तथ्य न केवल सर्वविदित है वरन् प्रत्येक का अनुभव भी है कि आज का जीवन व्यस्त और तनावपूर्ण है। युवा वृध्द, स्त्री, पुरुष, व्यवसायी और नौकरी पेशा, गरीब और अमीर हर वर्ग तथा हर स्तर का व्यक्ति तनावग्रस्त है। यों तनाव का सामान्य अर्थ मानसिक तनाव से लिया जाता है पर वस्तुत: तनाव तीन प्रकार के होते हैं- शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनाव।
लंबे समय तक लगातार एक ही प्रकार का काम करने और अत्यधिक श्रम करने के कारण जो थकान उत्पन्न होती है उसे शारीरिक तनाव कहा जाता है।
मानसिक तनाव बहुत अधिक सोचने-विचारने या चिंता करने से उत्पन्न होता है। एक घंटे बाद परीक्षा फल घोषित होने वाला है तो दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर हैं, रात में किसी की सहसा याद आ गई तो नींद गायब, यही है- भावनात्मक तनाव।
सामान्यत: घरों में तनाव का कारण पति-पत्नी का आपसी तालमेल न बैठ पाना होता है। पत्नियां, पतियों को उकसाती व उत्तेजित करती हैं और पति, पत्नियों को रसोई आदि के लिये तंग करते हैं। परस्पर संतुलन न बैठ पाने से दोनों तनाव से ग्रसित हो जाते हैं इसका दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता के बीच अनबन व कलह देखकर बच्चे भी तनाव से आक्रान्त हो जाते हैं, फलत: पूरा घर ही नरक बन जाता है। इस नरक से त्राण पाने का रास्ता एक ही है कि परस्पर सामंजस्य बैठाया जाय। प्रेम-आत्मीयता, सद्भावना, सहयोग आदि से वही परिवार स्वर्गीय आनंद का उपवन बन सकता है जो जरा से मतभेद एवं नासमझी के कारण नरक बन गया था। वर्तमान समय में 50 प्रतिशत से अधिक रोगी तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप रोगग्रस्त पाये गये हैं। चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार सिरदर्द, चक्कर आना, आंखों में सुर्खी आना, काम में मन न लगना और लकवा आदि जैसे रोगों का आक्रमण हो जाना, ये सभी अत्यधिक तनाव के ही दुष्परिणाम हैं। ऐसे लोग प्राय: रोगों की उत्पत्ति के लिये कभी मौसम को, कभी आहार को, कभी दूसरों को दोष देते हैं। अधिक तनाव शरीर व मन दोनों के लिये हानिकारक हैं। स्नायुविक तनाव-विशेषज्ञ डा. एडमण्ड जैकवसन का कहना है कि हृदय रोग, रक्तचाप की अधिकता अल्सर, कोलाइटिस आदि सामान्यत: दिखाई देने वाले रोग प्रकारान्तर से तनाव के ही कारण उत्पन्न होते हैं। स्ायु दौर्बल्य, अनिद्रा, चिंता, खिन्नता आदि अनेक रोग तनाव के फलस्वरूप होते हैं।
मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि हृदय रोग का कारण अज्ञात भय, चिंता है, जो अन्तर्मन में व्याप्त हो जाती है। नतीजा यह होता है कि मनुष्य की स्वाभाविक खुशी व प्रफुल्लता छिन जाती है।
इससे रक्तवाहिनी नसें थक जाती हैं। कभी फट भी जाती है, फलत: मस्तिष्क में लकवा भी हो जाता है और शक्कर देने वाली क्लोम ग्रंथियां भी खाली हो जाती हैं और क्लोम रस मिलना बंद हो जाता है। यह ग्रंथि प्रसन्नता के अभाव में कार्य करना बंद कर देती है और क्लोम रस देना भी बंद कर देती है। क्लोम रस न मिलने से शर्करा स्वतंत्र हो जाती है और मूत्र के साथ बहने लगती है। इसी को मधुमेह कहते हैं। मधुमेह रोने, पछताने व शोक करने से भी हो जाता है। तनाव से मुक्त रहने के लिये सूक्ष्मदर्शियों ने यही कहा है कि अपनी क्षमता भर अच्छे से अच्छा काम करें। इसमें बाहरी सहायता या मार्गदर्शन कुछ विशेष कारगर सिध्द नहीं होता। अपने द्वारा उत्पन्न किए तनाव को कोई दूसरा दूर कैसे कर सकता है? तनाव को व्यक्ति स्वयं ही नियंत्रित एवं दूर कर सकता है? दूसरों का मार्गदर्शन थोड़ा बहुत उपयोगी हो सकता है।
स्वाध्याय के द्वारा सहज ही पता चल जाता है कि निरर्थक एवं महत्वहीन बातों को अधिक तूल दे दिया गया और अकारण ही तनाव को आमंत्रित कर लिया गया। वस्तुत: यह झाड़ी के भूत की कल्पना मात्र थी। अपने को तनावग्रस्त न होने देने के लिये दृढ़ निश्चय, लगन एवं सतत् निष्ठापूर्वक सद्कार्यों में नियोजित किए रहना ही सर्वोत्तम उपाय है। सदा सहनशीलता से काम लिया जाए, भविषष्य के भय से भयभीत न हुआ जाय, वास्तविकता को दृष्टिगत रखा जाय, काल्पनिक बाधा या आशंका को स्थान न दिया जाय, वर्तमान में सामने आये काम को पूरी तत्परता से सम्पन्न किया जाय, उसी के संबंध में सोचा जाय, आशावान रहा जाय। ऐसा करने से स्वयं ही अपने भीतर इस प्रकार की शक्ति का अनुभव होगा जो समस्याओं को सुलझाने में सहायक होगी।

Thursday, August 11, 2011

मन को शत्रु नहीं, मित्र बनाओ

मन शरीर का एक शक्तिशाली और कमजोर हिस्सा है बस उसका उपयोग हमें वैसा करना पड़ता है जैसे कहा गया है कि मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। अगर हम किसी भी काम में अपने मन से हार जाएंगे तो हमें हार की प्राप्ति होगी अगर मन को सफलता प्राप्ति के उस स्तर तक कर्म करने में लगाएंगे तो जीत अवश्य होगी।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।

मन को शत्रु नहीं, मित्र बनाओ

मन शरीर का एक शक्तिशाली और कमजोर हिस्सा है बस उसका उपयोग हमें वैसा करना पड़ता है जैसे कहा गया है कि मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। अगर हम किसी भी काम में अपने मन से हार जाएंगे तो हमें हार की प्राप्ति होगी अगर मन को सफलता प्राप्ति के उस स्तर तक कर्म करने में लगाएंगे तो जीत अवश्य होगी।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।

मन को शत्रु नहीं, मित्र बनाओ

मन शरीर का एक शक्तिशाली और कमजोर हिस्सा है बस उसका उपयोग हमें वैसा करना पड़ता है जैसे कहा गया है कि मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। अगर हम किसी भी काम में अपने मन से हार जाएंगे तो हमें हार की प्राप्ति होगी अगर मन को सफलता प्राप्ति के उस स्तर तक कर्म करने में लगाएंगे तो जीत अवश्य होगी।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।

जियो जिन्दगी-जी भर के...

जीवन लम्बा नहीं, सुन्दर होना चाहिए। हमारे जीवन की डोर हमारे ही हाथों में है। भगवान भी उसी की सहायता करते हैं जो स्वयं की सहायता खुद करते हैं। जिन्दगी, जिन्दादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं? यह जीवन आपका है। इसके निर्माता या विध्वसंक आप स्वयं हैं-
* जीवन एक लंबा नाटक है। इसमें आपका अभिनय कैसा हो, यह आपको सोचना है। सुन्दर मूर्ति की भांति जीवन चारों तरफ से सुन्दर होना चाहिए।
* यदि आप आशावादी विचार धारा रखते हैं तो आपकी जिन्दगी में परेशानियां कम हो सकती है।
* जीवन को समृध्द एवं विविधता पूर्ण आपको स्वयं ही बनाना है। आपका धर्म, आपका सद्व्यवहार एवं सुन्दर दिनचर्या ही है।
* र् ईष्या, उदासी मन में न आने दें। इससे आपकी सुन्दरता कम होती है। चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं।
* आज, अभी इसी वक्त का ही जीवन है। जो बीत गया वह सपना है, भविष्य कल्पना है। सुखी वर्तमान से ही भविष्य स्वर्णिम बनता है।
* यह संसार-सदा से ही है- न हम रहेंगे, न तुम रहोगे-वक्त के साथ दुनिया का कारवां चलता रहेगा। यह मत समझें कि हम न होंगे तो दुनिया रूक जायेगी।
* हम जिन्दगी में दो ही कारणों से असफल होते हैं। एक तो बिना विचारे हम कुछ काम कर जाते हैं और कुछ बेसिर- पैर के काम कर जाते हैं।
* जिन्दगी का फलसफा एक पियानों की भांति माना गया है। सफेद स्वर सुख के द्योतक है और काले स्वर दुख की परिभाषा करते हैं। यदि दोनों स्वर ठीक से बजाए जाएं तो मधुर संगीत निकलता है।
* हवा में उड़ता हुआ कागज अपने भाग्य के कारण उड़ता है परन्तु पक्षी अपनी ऊर्जा एवं परिश्रम के कारण उड़ जाता है। जिन्दगी में परिश्रम से आगे बढ़ा जा सकता है। पक्षी बनें, कागज मत बनें।
* जिन्दगी के रंगमंच पर कभी रिहर्सल नहीं चलती- हर दिन एक नया और बढ़िया शो दें। यहां रिवाइंड नहीं होता अत: अपना बैस्ट शाट देवें और सफल हो जाए।
* किसी से मुस्कान मत मांगें, परन्तु मुस्कान देने की कोशिश करें। प्यार न मांगें, वरन देवें। यह न कहें कि मैं आपके बिना नहीं रह सकता अपितु कहे- कि मैं आप ही के लिए जीवित हूं- यही आनन्द और उत्सव का रहस्य है।
यदि जिन्दगी में कोई रूकावट आपके नीचे हैं तो उसके ऊपर से निकल जाएं- यदि आपके ऊपर रूकावट है तो उसके नीचे से सरक जाएं।

जियो जिन्दगी-जी भर के...

जीवन लम्बा नहीं, सुन्दर होना चाहिए। हमारे जीवन की डोर हमारे ही हाथों में है। भगवान भी उसी की सहायता करते हैं जो स्वयं की सहायता खुद करते हैं। जिन्दगी, जिन्दादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं? यह जीवन आपका है। इसके निर्माता या विध्वसंक आप स्वयं हैं-
* जीवन एक लंबा नाटक है। इसमें आपका अभिनय कैसा हो, यह आपको सोचना है। सुन्दर मूर्ति की भांति जीवन चारों तरफ से सुन्दर होना चाहिए।
* यदि आप आशावादी विचार धारा रखते हैं तो आपकी जिन्दगी में परेशानियां कम हो सकती है।
* जीवन को समृध्द एवं विविधता पूर्ण आपको स्वयं ही बनाना है। आपका धर्म, आपका सद्व्यवहार एवं सुन्दर दिनचर्या ही है।
* र् ईष्या, उदासी मन में न आने दें। इससे आपकी सुन्दरता कम होती है। चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं।
* आज, अभी इसी वक्त का ही जीवन है। जो बीत गया वह सपना है, भविष्य कल्पना है। सुखी वर्तमान से ही भविष्य स्वर्णिम बनता है।
* यह संसार-सदा से ही है- न हम रहेंगे, न तुम रहोगे-वक्त के साथ दुनिया का कारवां चलता रहेगा। यह मत समझें कि हम न होंगे तो दुनिया रूक जायेगी।
* हम जिन्दगी में दो ही कारणों से असफल होते हैं। एक तो बिना विचारे हम कुछ काम कर जाते हैं और कुछ बेसिर- पैर के काम कर जाते हैं।
* जिन्दगी का फलसफा एक पियानों की भांति माना गया है। सफेद स्वर सुख के द्योतक है और काले स्वर दुख की परिभाषा करते हैं। यदि दोनों स्वर ठीक से बजाए जाएं तो मधुर संगीत निकलता है।
* हवा में उड़ता हुआ कागज अपने भाग्य के कारण उड़ता है परन्तु पक्षी अपनी ऊर्जा एवं परिश्रम के कारण उड़ जाता है। जिन्दगी में परिश्रम से आगे बढ़ा जा सकता है। पक्षी बनें, कागज मत बनें।
* जिन्दगी के रंगमंच पर कभी रिहर्सल नहीं चलती- हर दिन एक नया और बढ़िया शो दें। यहां रिवाइंड नहीं होता अत: अपना बैस्ट शाट देवें और सफल हो जाए।
* किसी से मुस्कान मत मांगें, परन्तु मुस्कान देने की कोशिश करें। प्यार न मांगें, वरन देवें। यह न कहें कि मैं आपके बिना नहीं रह सकता अपितु कहे- कि मैं आप ही के लिए जीवित हूं- यही आनन्द और उत्सव का रहस्य है।
यदि जिन्दगी में कोई रूकावट आपके नीचे हैं तो उसके ऊपर से निकल जाएं- यदि आपके ऊपर रूकावट है तो उसके नीचे से सरक जाएं।

Wednesday, August 10, 2011

हंसकर देखिये, जिंदगी खिल उठेगी

अंग्रेजी में एक कहावत है 'लाफ एंड द वर्ल्ड लाफ विद यू, वीप एंड यू वीप अलोन'। जी हां, रोने वाले का जीवन में कोई साथ नहीं और हंसने वाले को देखकर अनजान लोग भी बरबस ही उसकी ओर आकर्षित हो उठते हैं। हंसते-मुस्कुराते चेहरों को सब देखना पसंद करते हैं लेकिन मुंह लटकाये उदास झल्लाया हुआ चेहरा किस को अपनी ओर आकर्षित नहीं करता। फोटो खींचने के पहले आपसे 'चीज' इसीलिए बुलवाया जाता कि आपकी दंतपंक्ति झलकने लगे और मुस्कान से आपका चेहरा खिल उठे तथा आपको फोटो एक खुशनुमा यादगार बन जाए।
ईश्वर का वरदान
प्रसन्नता हमें ईश्वर से वरदान के रूप में मिली है, इसकी महत्ता हमें समझानी चाहिए। कहते हैं 'एक तंदरूस्ती हजार नियामत' तंदुरूस्ती का राज प्रसन्न रहना भी है। अधिकतर बीमारियां मन की उपज या शरीर और मन की मिली-जुली 'साइकोसमेटिक' देना होती है जिसे प्रसन्न रहकर आसानी से दूर किया जा सकता है।
यह सच है कि हमारे सुख और दुख बाहरी कम, भीतरी ज्यादा होते हैं यानी हमारा मन ही हमार सुख-दुख का आधार होता है। चित्त प्रसन्न रखने से दुख स्वत: ही दूर हो जाते हैं। प्रसन्नचित इंसान की बुध्दि भी अपनी पूरी क्षमता से कार्य करती है। दुखी मन होने पर सोचने समझने की बुध्दि भी क्षीण हो जाती है। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कुछ इसी तरह की बात कही है। खुलकर ठहाका लगाने से दुख के घने बादल भी छंट जाते हैं, तनाव दूर हो जाता है। जिंदगी उसे प्यार लगने लगी है। निराश जीवन में आशा का संचार होने लगता है।
जीवन में हर इंसान को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। खासकर आज की भागदौड़, आपाधापी वाली जिंदगी में छोटे-बड़े से लेकर हर कोई तनावों से घिरा है। न केवल आज की समस्या बल्कि आने वाले कल की समस्या और असुरक्षा भी इंसान का चैन हर लेती है संभावित असंभावित सब तरह की समस्याएं मिलकर इंसान का जीना दूभर कर देती है। नतीजा होता है चेहरे पर पड़ती चिंता की रेखाएं और असमय पड़ती झुर्रियां।
कहा भी गया है 'चिंता चिता समान' इस अग्नि में इंसान धीमे-धीमे सुलगता रहता है। नतीजतन उसे कई तरह के रोग लग जाते हैं। उच्च रक्त चाप दिल की बीमारी, मस्तिष्क के विकार इत्यादि। यही नहीं, चमड़ी के रोग तथा स्त्रियों में कुछ स्त्री रोग का कारण भी चिंता ही है। यह चिन्ता आधुनिक जमाने, आज के रहन सहन और सभ्यता की देन है। आज के भौतिक युग में पैसा ही हमारा भगवान बन गया है किस तरह ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए, इसी निन्यानवे के फेर में हम जीवन की अमूल्य निधि 'हंसी' से हाथ धो बैठे हैं। आज सुख, संतोष, आनन्द इत्यादि जैसे ख्वाब की बातें बनकर रह गई हैं। अगर हम खुलकर हंस नहीं सकते, हमारी हंसी गायव हो गई है तो उस पैसे के ढेर का क्या लाभ, जिसकी हमें इतनी कीमत चुकानी पड़ी है।
मिसेज राव जब शादी होकर नई-नई हमारी कालोनी में आई थी तो अपने हंसमुख और मिलनसार स्वभाव के कारण बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गई। हर कोई उनसे दोस्ती करने को लालायित रहता है हर वक्त उनके घर मिलन जूलने वालों का तांता लगा रहता। धीरे-धीरे जब उनकी गृहस्थी ं बच्चे आए, कार्यभार तथा जिम्मेदारियां बड़ी तो वह गमगीन और चिड़चिड़ी सी रहने लगी। फिर एक साल उनके पति का प्रमोशन भी रूक गया। उन्होंने भी प्रमोशन न होने की बात को इतना महत्व दिया कि हर समय सोच में डूब रहने लगे। परिणामस्वरूप उन्हें उच्च रक्त चाप और हल्का सा दिल का दौरा भी पड़ गया। मिसेज राव अब पूरी तरह बदल चुकी थी। घिसे-पिटे रिकार्ड की तरह अपने घर के दुखड़े हर समय रोते रहने की उनकी आदत बन चुकी थी। आखिर कोई कहां तक उनके दुखड़े सुनता, सब लोग उनसे कन्नी काटने लगे। अब कोई उनके पास पांच मिनट भी नहीं बैठना चाहता था। पीठ पीछे सब कहते 'अरे! उसके पास बैठकर कौन अपना भेजा खराब करें।' यहा तक कि उनकी मेहरी भी जल्दी-जल्दी काम निपटाकर भागना चाहती क्योंकि जब और कोई नहीं सुनता तो वे उसे ही बिठाये रखती और अपने दिल की भड़ास निकालना चाहती।
स्वास्थ्य के लिए हितकर
दर असल यह एक दत की बात है, जैसी भी इंसान डाल ले। कई लोगों को हमेशा रोने के लिए एक कंधा चाहिए, वे यह भी नहीं देखते कि जिसके सामने हम आपना रोना रो रहे हैं, वो कितना हमारा अपना है। हमारा भला चाहने वाला है या सिर्फ हमारे पीछे हमारी हंसी ही उड़ाना जानता है। यदि आप उपरोक्त श्रेणी के लोगों मे नहीं आना चाहते, ऐसा नहीं बनना चाहते कि जिसे देखते ही उबने के डर से लोग किनारा करना चाहें तो जरूरी है कि आप शुरू से ही अपना स्वभाव हास्य-विनोदपूर्ण एवं आशावादी बनाएं। ऐसे इंसान के पास लोग गुड़ पर मक्खी की तरह मंडराएंगे। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रसन्नता निहायत जरूरी है। एक प्रसन्नचित व्यक्ति हर बात में उजला पत्र ही देखेगा तथा उसका व्यवहार सकारात्मक ही होगा। ऐसा व्यक्ति उत्साह से भरपुर जीवन में पराजय की कल्पना तक नहीं करता।
उसका उत्साह उमंग एक जरबरदस्त भीतरी ताकत बन जाता है, जो उसे हर कार्य में सफल होने के लिए 'मोटीवेट' करता है। कहते हैं प्रसन्न रहने में ही चिंराय होने का राज छुपा है। हंसी इंसान के लिए सबसे अच्छी दवा है। अंग्रेजी मे कहावत है 'लाफ्टर इज द बेस्ट मेडिसन' यह दवा मुफ्त मिलती है हर समय हर जगह उपलब्ध है। मोटे लोग अक्सर खुशमिजाज और पतले-दुबले चिड़चिड़े व तुनकमिजाज पाए जाते हैं।
शायद मोटे लोगों की सेहत का राज उनका खुशमिजाज रहना, हंसना और हंसाना ही है। खुलकर हंसने से हमारे फेफड़े ही नहीं बल्कि शरीर की छोटी से छोटी धमनी और रक्तवाहिनी भी प्रभावित होती है। उनमें लहर उठती है, खून का संचार बढ़ता है। इस तरह हम देखते हैं कि हंसी एक अच्छा व्यायाम भी हैं।
डा. बैजामिन लिखते है, 'स्वास्थ्य की दृष्टि से हंसने की आदत डालना बड़ा महत्वपूर्ण है।'
कुछ विद्वान डाक्टरों का कथन है कि हंसी की क्रिया के पश्चात शरीर को वैसी ही ताजगी और स्फूर्ति प्राप्त होती है, जैसी गहरी नींद सोन से।

Thursday, July 28, 2011

जीने का आनन्द है संतोष

एक भारतीय संन्यासी विदेश-यात्रा पर गया। वहां के एक प्रमुख राजनेता ने संन्यासी से पूछा- मैंने सुना है, आप स्वयं को सम्राट कहते हैं? किन्तु जिसके पास एक पैसा भी नहीं हो, वह सम्राट कैसे बन सकता है? संन्यासी ने कहा- जिसके जीवन में संतोष और आनन्द का सागर लहराता है, जो किसी के आगे हाथ नहीं पसारता तथा जो स्वयं पर अनुशासन रखता है, वह सच्चा सम्राट होता है।
संन्यासी ही नहीं, एक गृहस्थ भी सच्चा सम्राट बन सकता है, बशर्ते उसके जीवन में संयम हो, वह मात्र लेना ही नहीं, देना भी जानता हो, आत्मनुशासी हो और संतुलित अर्थनीति का विज्ञाता हो। सामान्यतया अर्थ के बिना जीवन-यात्रा सम्यक् सम्पन्न नहीं हो सकती। जीवन-यापन के लिये अर्थ की आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी है। अर्थ के अर्जनकाल में ईमानदारी और उपभोगकाल में सदुपयोग जैसे सिध्दांत आचरण में आ जायें तो संतुलित अर्थनीति बन सकती है।
अर्थ अपने आप में एक सम्पत्ति है और ईमानदारी उससे भी सम्पति है। अर्थ ऐसी सम्पति है जो कभी भी धोखा दे सकती है और अधिक से अधिक वर्तमान जीवन तक व्यक्ति के पास रह सकती है। विश्व विजेता सिकंदर जब अंतिम सांसें गिन रहा था, उसे बहुत दु:ख और आश्चर्य हुआ कि ये धन के भंडार मुझे मौत से नहीं बचा सकते। उसने प्रधान सेनापति को यह आदेश दिया कि शवयात्रा के दौरान मेरे दोनों हाथ कफन से बाहर रखे जायें ताकि जनता इस सच्चाई को समझ सके कि- मैं एक तार भी साथ नहीं ले जा रहा हूं। मैं खाली हाथ ही आया था और खाली हाथ ही जा रहा हूं।' जबकि ईमानदारी एक ऐसी सम्पति है जो व्यक्ति को कभी धोखा नहीं दे सकती और वर्तमान जीवन तक नहीं, आगे भी व्यक्ति का साथ निभा सकती है। यदि अर्थ के अर्जन में ईमानदारी नहीं रहती, अहिंसा नहीं रहती, अनुकम्पा का भाव नहीं रहता, तो अर्थनीति का ही एक आयाम है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके जीवन में ईमानदारी बोलती है।
सुजानगढ़ निवासी रूपचंद सेठिया का जीवन आदर्श जीवन था। वे कपड़े का व्यापार करते थे। एक दिन दुकान पर कोई ग्राहक आया। मुनीमजी ने कपड़े का निर्धारित मूल्य उसे बता दिया ग्राहक ने आग्रह किया कि कपड़े का मूल्य कुछ कम किया जाये। मुनीमजी ने कपड़े का मूल्य कम कर दिया और साथ में उसे कुछ कपड़ा भी कम दे दिया। जब रूपचंदजी दुकान में आये तो मुनीमजी ने सारी बात बता दी। सेठजी ने उपालम्भ देते हुए कहा- आपने बेईमानी क्यों की? उसे कपड़ा कम क्यों दिया? सेठजी ने उस ग्राहक को वापस बुलाया और उसका हिसाब किया और साथ में मुनीमजी का हमेशा के लिये हिसाब कर दिया और कहा- मुझे ऐसा मुनीम नहीं चाहिये जो किचिंत् भी अप्रामाणिकता का कार्य करे।
ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं जो इतनी उच्चस्तरीय प्रामाणिक का पालन करते हैं। जिनके पास अर्थ है उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है और जिनके पास अर्थ के प्रति अनाशक्ति और ईमानदारी के प्रति आसक्ति है, उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है। आदमी ऐसा कोई कार्य न करे जिससे किसी को कष्ट हो अथवा नैतिकता खत्म हो। ऐसे व्यक्ति समाज और देश के गौरव हैं जो ईमानदारी पर आंच नहीं आने देते। जो अपनी इज्जत के खातिर लाखों रुपयों का नुकसान स्वीकार कर लेता है। उसके सामने एक ही आदर्श वाक्य रहता है- 'जाए लाख, रहे साख।'
कई व्यक्ति परिश्रम से अर्थार्जन करते हैं और उसका कुछ अंश व्यसन में खर्च कर देते हैं, शराब आदि पी लेते हैं अथवा अन्य कोई नशा कर लेते हैं, जिससे अर्थ की हानि होती है। और स्वास्थ्य भी खराब होता है। जहां, अर्थ का दुरुपयोग होता है, वहां अहिंसक/संतुलित अर्थनीति के विरुध्द बात हो जाती है। अर्थवान व्यक्ति के लिये यह विचारणीय बात होती है कि वह अर्थ का उपयोग किस रूप में करता है। विवेक-सम्पन्न व्यक्ति अर्थ का अपव्यय नहीं करता। बिना प्रयोजन वह एक पाई भी नहीं खोता और विशेष हित का प्रसंग उपस्थित होने पर वह जैन श्रावक भामाशाह बन जाता है। भामाशाह ने मेवाड़ की सुरक्षा के लिये अपना खजाना महाराणा प्रताप को समर्पित कर दिया था।
आदमी अर्जन के साथ विसर्जन की मनोवृति का विकास करे। अपनी इच्छाओं को सीमित करे और व्यक्तिगत भोग और संग्रह की भी सीम करे। व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है, किन्तु आकांक्षाओं की पूर्ति कर पाना मुश्किल होता है। आर्थिक विकास के लिये शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और भावनात्मक संतुलन गौण हो जाए, वह अर्थनीति संतुलित नहीं हो सकती। गरीबी मिटाने के लिये आर्थिक विकास आवश्यक माना गया है, किन्तु उसका उपयोग कुछेक व्यक्तियों तक ही सीमित न रहे। आदमी अपने जीवन में संतोष, आवश्यकता और अर्थ के सदुपयोग को महत्व दे।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद सादगीप्रिय और मतिव्ययी व्यक्ति थे। राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपये मासिक निर्धारित होते हुए भी उन्होंने कभी पूरा वेतन नहीं लिया। एक बार उनके मित्र ने पूछा- बाबूजी! आप पूरा वेतन क्यों नहीं लेते हैं? डा.राजेंद्र प्रसाद बोले- सभी की मूलभूत आवश्यकताएं बराबर हैं। मेरे लिये उतना ही काफी है जितने से मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। आवशय्कता से अधिक संग्रह करना मैं उचित नहीं मानता।
देश का हर व्यक्ति सादगी और संयम का जीवन जीने लगे प्राणीमात्र के प्रति अनुकम्पा का भाव जाग जाए, ईमानदारी नैतिकता और सदाचार जीवन में आ जाए तो हर एक व्यक्ति सच्चा सम्राट बन सकता है और जीने का आनन्द प्राप्त कर सकता है।

Sunday, June 26, 2011

सुखी एवं शांत जीवन जीने के सूत्र

दुनिया के लोग हमें वैसे नजर आते हैं, जैसा हमारा अंत:करण होता है। जैसी हमारी सोच होती है, वैसे ही हम बन जाते हैं। जिस व्यक्ति का अंत:करण सत्यनिष्ठ पवित्र एवं दयालु होगा वह धरती पर रहता हुआ भी स्वर्ग का आनन्द ले रहा होगा। इसलिए आप अपने अहम् और मैं को अपने मन-मस्तिष्क में से बाहर निकाल फैंके। हमारे स्वभाव से यदि अभिमान या घमंड निकल जाए तो हमारा शरीर इतना पुलकित हो जाता है जैसे शरीर में चुभा हुआ कांटा बाहर निकल जाता है। जिन लोगों का अंत:करण मलिन एवं अपवित्र होता है। उन लोगों के मन में ईश्वर का प्रवेश नहीं हो सकता। जैसे मैले दर्पण में सूर्य का प्रतिबिम्ब कभी नहीं पड़ सकता है। यदि शीशा साफ हो तभी इसमें प्रतिबिंब दृष्टिगोचर हो सकता है।
मानव हृदय के अन्दर ईश्वर की उपस्थिति को अंत:करण कहते हैं। हमारी सोच ही हमें भयरहित या कायर बनाती है अत: अपने विचारों को बुलंद रखें। अंत:करण की आवाज को ईश्वरीय आवाज माना जाता है। जो बात दिल कहे और मन या अंत:करण करने को मना करे उसे नहीं मानना चाहिए।
जब आप बोलते हैं चलते हैं देखते हैं तो आपके चेहरे की बनावट शरीर के संकेतों या बाडी लैंग्वेज से आपके सारे व्यक्तित्व का आभास हो जाता है। आपका आत्म सम्मान, आपकी महानता का घोतक है। जो अपना सम्मान स्वयं करता है, सभी लोग उसका भी सम्मान करते हैं। जिसने काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार को जीत लिया है, वह बहुत से कष्टों से बच सकता है। काम संतुलित, सीमित यथा समय और मर्यादा में रहना चाहिए। क्रोध तो यमराज है जब क्रोध आता है तो बुध्दिमत्ता बाहर निकल जाती है। इंद्रियों की गुलामी पराधीनता से कहीं ज्यादा दुखदायी होती है। अत: अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करना बुध्दिमानी का काम है। बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो और बुरा मत देखो। जो इन्द्रियों पर वश और विवेक नहीं रखता, वह मूर्ख है।
हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां है। दस कर्म इन्द्रियां हैं। जो लोग इन्द्रियों की संतुष्टि के चक्रव्यूह में फंसते हैं वे मृत्यु की तरफ अग्रसर होते जाते हैं। हिरण मधुर संगीत की तरफ आकर्षित होता है और शिकारग्रस्त होकर जान गंवा देता है। हाथी हथिनों की तरफ आकर्षित होकर कभी-कभी जान गंवा बैठता है। पतंगा अग्नि में भस्म हो जाता है। मछलियां जीभ के स्वाद के लिए लालच में फंसकर कांटे में अटक जाती है। इन सभी की भांति मानव भी इन्द्रियों की लोलुपता के कारण फंसकर रह जाता है। अविवेकी और चंचल प्रवृत्ति की इन्द्रियां बेखबर सारथी के दुष्ट घोड़ों की भांति बेकाबू होकर बिदक जाती है। मानव को चाहिए कि वह कछुए की भांति बन जाए जो अपने सब अंगों को समेट लेता है। जो मानव अपनी इन्द्रियों के वश में भी नहीं रहता वह मानव महामानव बन जाता है। आकाश की तरह मानव की इच्छाएं भी असीम और अनंत होती है। हमारी अपूर्ण और अनुचित इच्छाएं ही हमारे दुख का मुख्य कारण है। कामनाओं के वशीभूत मानव सारा जीवन दुखी रहता है। चाह गई- चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जाको कछु न चाहिए सोई शाहनशाह। मानव की समाप्ति हो जाती है, परन्तु उसकी अभिलाषाओं का अन्त नहीं होता। रात्रि दिन की चाह में समाप्त हो जाती है। दुख में सभी लोग सुख की कामना करना चाहते हैं। यह इच्छाएं मानव की चिर-अतृप्त ही रहती है, जैसी हमारी इच्छाएं होती है वैसे ही हमारे मन के भाव बन जाते हैं। उसी प्रकार की झलक हमारे मुख मंडल पर छा जाती है। संसार में इज्जत के साथ और सुख आनन्द के संग जीने का यही प्रज्ञा सूत्र है कि हम बाहर से जो कुछ दिखना चाहते हैं, वास्तव में वैसा ही होने का प्रयत्न करें।

Sunday, June 5, 2011

डिप्रेशन से कैसे उबरें

देखने में आया है कि चिंता में डूबा व्यक्ति इससे उबर नहीं पाता और न जाने क्या-क्या बीमारियां उसे घेर लेती हैं। हर बीमारी का इलाज है लेकिन 'चिंता' इसका कोई इलाज नहीं। जो व्यक्ति इसे पाल लेता है, वह खुद ही इससे उबर सकता है। किसी के समझाने से वह नहीं समझ पाता। हमारे अवचेतन मन में कुछ डर,भय, चिंता जन्म लेती है, जो पनपकर हमारे शरीर की ऊर्जा को नष्ट करती हैं। फिर हमें धीरे-धीरे अंदर से खोखला करती है। फिर एक दिन ऐसा आता है कि बाहरी बीमारी या मुसीबत हमें घेर लेती है। जो कि ठीक होने का नाम नहीं लेती है। इसलिए हमें खुश रहकर चिंता मुक्त रहना चाहिए। चिंता से डिप्रेशन आता है और डिप्रेशन वाले व्यक्ति को निम्न तकलीफों का सामना करना पड़ता है।
* वह अकेलापन महसूस करता है या फिर शुरू में अकेला रहना चाहता है।
* छोटी-छोटी बात पर रोना , झगड़ना या चिंतित हो जाना।
* शरीर दुबला होता जाना।
* खाना कम हो जाना।
* शरीर की पाचन शक्ति कमजोर हो जाना। शरीर कमजोर होना। शरीर में दर्द।
* डॉक्टरों के पास जाना पर उन्हें पता न चलना।
* अपने बारे में खुलकर बात न करना।
* बेवजह किसी बात का भय, घर वाले या सगे-संबंधी भी अच्छे न लगे।
* बेवजह रोना-धोना, चिल्लाना।
* अकेले रहने पर डर या अपने पर से भरोसा खोना।
* अपने काम के बारे में ऐसा लगना मैं नहीं कर सकता। ताकत खत्म होती नजर आना।
* कोई भयंकर बीमारी हो जाने का डर।
* ऐसे व्यक्ति को डिप्रेशन से मुक्त कराना बड़ा मुश्किल कार्य है पर उसके परिवार के सदस्य मिलकर इसे दूर कर सकते हैं।
* मरीज को अकेला नहीं छोड़ें।
* उससे बातचीत करते रहें, उसे सुबह-शाम टहलने ले जायें।
* डॉक्टर से सलाह लेते हुए कुछ न कुछ छुपाये।
* सिर, शरीर की मालिश करें।
* बादाम, रोगन, देशी घी सिर में डालें और मालिश करने के बाद आराम करने को कहें।
* बाहर घूमने ले जायें। मन पसंद संगीत सुनायें।
* जो काम मरीज को अच्छा लगे धीरे-धीरे वहीं करें।
* अगर मरीज का कोई शौक है तो उसे पूरा करने दें। संसार को सुंदर मानकर आनंद लें।
* व्यक्ति को अपना कार्य खुद करने दें। बागवानी करें। कुदरत को देखें।
* उसे संगीत, फिल्मों या सजावट का कुछ भी शौक हो उसे करने दें।
* मरीज कुछ समय निकालकर संगीत सुनें एवं नाच सकते हों तो नाचें, दिल खोलकर बंद कमरे में नृत्य करें।
* अपने को व्यक्ति खुद समझा सकता है। दूसरा व्यक्ति नहीं। व्यक्ति के कमरे में अच्छे पोस्टर, अच्छी बातें लिखकर टांगे।
* भगवान का नाम लें, कीर्तन करें। मंदिर में जाकर बैठें, प्रार्थना करें।
* स्वच्छ एवं पौष्टिक भोजन नियमित करें। रैकी, एरोबिक्स, ध्यान करें। हर क्षण को जियें।

Sunday, May 22, 2011

हंसना हंसाना ही जिन्दगी है

आज की जिन्दगी में सिवाय भाग दौड़ के हैं ही क्या? जिन्दगी की इस भागदौड़ में इंसान के लिए सुख यौवन और स्वास्थ्य कल्पना ही बन कर रह जाती है। इस बेढंगी जिन्दगी की जिंदादिल जिंदगी बनाने के एक ही सहज उपाय है, हंसना-हंसाना, मौज मनाना। अगर चेहरे पर हंसी, दिल में खुशी, हो तो स्वास्थ्य पर भागदौड़ का ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। हंसने-हंसाने का यह मतलब नहीं कि दिन रात इंसान हंसता और हंसाता ही रहे। इंसान अगर दिन में तीन चार बार खुश होकर जोर से खिलखिला कर हंस ले तो उसके सारे कष्ट, परेशानियां व रोग दूर हो जाते हैं। खिलखिला कर हंसने फेफड़ों पर एक के बाद एक तीन चार झटके लगते हैं। प्रत्येक झटके के साथ रक्त वाहिनी नलिकाओं का रक्त हृदय तक पहुंचता है तथा रक्त का संचार बढ़ता ही जाता है जिससे फेफड़ों में स्वच्छ वायु पहुंचती है और दूषित वायु दूर होती है। साथ ही साथ भोजन पचता भी है, जिससे लोगों को पेट संबंधी कोई रोग नहीं हो पाता। एक निराश व्यक्ति जो कभी हंसता ही नहीं है, अगर उसे देखा जाये तो पता चलता है कि उसे किसी भयंकर रोग ने घेर लिया है या उसकी आयु सीमित है जिस तरह जिंदगी जीने के लिए अच्छी वायु और अच्छा वातावरण का होना जरूरी है ठीक उसी तरह जिंदगी के सच्चे मजे के लिए हंसना जरूरी है। आजकल तो डाक्टर रोगी को हंसा-हंसा कर ठीक कर देते हैं। निराश व्यक्ति हंसता नहीं है जिससे उसके अन्दर का विकार दूर हो नहीं रहता, मन प्रसन्न होता और हृदय का रक्तचाप बढ़ जाता है। इसकी तुलना में हंसने वाला व्यक्ति स्वस्थ और रोगहीन रहता है। डाक्टरों का कहना है कि हंसना एक उत्तम व्यायाम है जिससे मस्तिष्क में प्रचुर मात्रा से रक्त संचार होता है, स्मरण शक्ति बढ़ती है और छोटे बड़े रोग छू मंतर हो जाते हैं। इसलिए यौवन को तरोताजा बनाये रखने के लिए जिन्दगी का सच्चा लेने के लिए स्वास्थ्य उत्तम रखने के लिए और पतझड़ सी जिन्दगी में हरियाली लाने के लिए हंसना बहुत जरूरी है। तो आइये हम आज से ही भागदौड़ की जिन्दगी की रफ्तार बढ़ायें क्योंकि अर्थयुग में इसका काफी महत्व है पर एक मंत्र याद कर लें कर कि हंसना हंसाना ही जिन्दगी है। इसे जानने से नहीं, अपनाने से होगा। अत: खूब हंसिए और जिन्दगी को जिंदा दिल बनाये रखिए।

Saturday, May 7, 2011

भावनाएं भी डालती हैं स्वास्थ्य पर प्रभाव

आशावादी इंसान दु:ख-सुख, खुशी-गम के दायरों में रहते हुए अपने आपको स्वस्थ रखते हैं। उनके विचार में भगवान ने जीवन जीने के लिए दिया है। उस जीवन का भरपूर आनन्द उठाने के लिए कुछ समस्याओं का सामना तो करना ही पड़ता है। निराशावादी इसे अलग तरीके से सोचते हैं। थोड़े से दु:ख आने पर वे महसूस करते हैं कि सारे दु:ख और गम मेरे लिए ही हैं। इस प्रकार के व्यक्ति अप्रसन्न और खिन्न रहने पर अक्सर बीमार पड़ जाते हैं। भावनाएं स्वास्थ्य पर प्रतिकूल और अनुकूल प्रभाव डालती है। अच्छी भावनाओं के होते मन प्रफुल्लित रहता है, बुरी भावनाओं के होते हुए मन उदास रहता है। अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए भावनाओं पर नियंत्रण रखें। दूसरों से नाराज होना, उन पर गुस्सा करना,र् ईष्या करना, दूसरों की गलतियां चुनते रहना, मन की बात मन में रखकर कुढ़ते रहना, दूसरों की निन्दा करना, बुराई करना और अपनी आलोचना सुनकर तिलमिलाना, ये सब बातें हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है। शुरू-शुरू में अपने अंदर ऐसे भाव पैदा करने मुश्किल हैं परन्तु धीरे-धीरे भावनाओं पर काबू पाया जा सकता है। कभी-कभी किसी बात पर क्रोध आए तो घर से बाहर टहलने चले जाना चाहिए या फिर अपने को किसी काम में व्यस्त कर लें। थोड़े समय बाद क्रोध दूर हो जायेगा। कोई आपकी गलती निकालता है या निंदा करता है तो उस बात को गंभीरता से न लेते हुए अनदेखा कर दें। कभी परिवार में या मित्रों से किसी बात पर मन-मुटाव या गलतफहमी हो जाये तो खुलकर बात करने से मन हल्का हो जाता है।

Wednesday, April 27, 2011

जीवन में मुस्कुराना सीखिए

आज के संघर्षमय वातावरण में हमें तनावयुक्त चेहरे तो बहुत नजर आते हैं परन्तु मुस्कुराते हुए चेहरे तो कहीं विलुप्त हो गए हैं, इसलिए कभी कोई मुस्कुराता चेहरा दिख जाता है तो अनायास ही सबको आकर्षित कर लेता है। आज अधिकतर लोग अपनी परिस्थितियों और माहौल के कारण क्षुब्ध हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति मुस्कुराना ही भूल जाए। मुस्कुराते हुए न केवल आपका व्यक्तित्व प्रभावशाली लगता है बल्कि आपकी मुस्कुराहट कई अन्य लोगों को मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। कठिन परिस्थितियों में मुस्कुराना आसान तो नहीं होता परन्तु चिंता या तनावयुक्त चेहरे से आपको दुख के सिवाय क्या मिल सकता है। मुस्कुरा कर हम अपने दिल से कुछ देर के लिए ही सही, तनावों को दूर कर देते हैं।
मुस्कुराहटें आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली तो बनाती ही है, साथ ही आपका सकारात्मक दृष्टिकोण भी झलकाती हैं। आपकी मुस्कुराहट आशा की वह किरण है, जो हर परिस्थिति में अपना प्रकाश बिखेरती रहती है और उम्मीद को बांधे रखती है। व्यक्ति अगर आशावादी होता है तो कठिन क्षण कब बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। अगर व्यक्ति अपने दुख के कारण मुस्कुराना भूल जाए तो वह खुद तो प्रभावित होता ही है उसके चेहरे को देखकर उसके परिवारजन व हितैषी भी उदास हो जाते हैं इसलिए उनके सुख के लिए ही सही, उनको खुश रखने की खातिर आपकी हल्की मुस्कान ही बहुत है।

Wednesday, April 20, 2011

दुख का कारण है अस्वस्थ तनमन

मनुष्य दृश्य जगत का सबसे संवेदनशील प्राणी है जो न केवल भौतिक कारणों से अपितु मानसिक और सामाजिक कारणों से भी दुखी होने के अवसर ढूंढ ही लेता है। प्रकट में सभी मनुष्य सुख की तलाश करते प्रतीत होते हैं किन्तु अन्तत: सभी सुख, दुख का द्वार बन जाते हैं। आईये जानने का प्रयास करें कि दुख क्या और क्यों है?
दुख के कारण : सुख की गलत दिशा में तलाश ही दुख का कारण है। स्वस्थ होना ही सुख है। इसे थोड़ा समझने की आवश्यकता है। दुख के दो स्वरूप प्रकट हैं- एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। यदि हम शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं तो हमें शारीरिक दुख और यदि मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं तो मानसिक दुख प्राप्त होता है। शारीरिक और मानसिक दुख एक दूसरे को प्रभावित करने वाले हैं अर्थात् शारीरिक दुख के कारण मानसिक और मानसिक दुख के कारण शारीरिक दुख हमें प्राप्त होना अवश्यम्भावी है।
चिकित्सा विज्ञान में यह तथ्य प्रमाणित है कि हमारी शारीरिक प्राियाओं में जैविक रसों की आवश्यकता होती है जो कि हमारे ही शरीर में उत्पादित होते हैं। यह रस पाचन, चालन और उत्सर्जन ाियाओं को प्रभावित करते हैं। मन की दशा इन रसों के उत्पादन को प्रभावित करती है, इसलिये मानसिक स्वास्थ्य से हमारे शरीर की भौतिक स्थिति प्रभावित होती है।
इसी प्रकार इन रसों के उत्पादन में हमारे खान-पान, हमारी दिनचर्या और हमारे आसपास के वातावरण में ताप, नमी, आक्सीजन और प्रदूषक तत्वों का प्रभाव भी पड़ता है। इसलिये यदि इन भौतिक कारणों से जीवन-रसों का उत्पादन प्रभावित होता है तो इन रसों के प्रभाव से हमारा मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है।
एक स्वस्थ शरीर में ही एक स्वस्थ मन निवास करता है। यह पारस्परिक निर्भरता का मामला है। मन शरीर पर और शरीर मन पर निर्भर है। क्रोध, चिंता, भय आदि मनोदशाओं में पाचन, चालन और उत्सर्जन में रुकावट इसी कारण आती हैं और हम बीमार हो जाते हैं।
दुख का कारण स्वस्थ (शारीरिक या मानसिक) न रहना है। स्वस्थ रहने का अभिप्राय क्या है? स्वस्थ होने का अर्थ है- स्वयं में स्थित होना। क्या हमने स्वयं को पहचाना है? यदि नहीं तो स्वयं को न जानना ही स्वस्थ न होने का प्रथम कारण है। जो स्वयं को जान जाता है, वह सरलता से स्वस्थ रह सकता है। स्वयं को जानने का दावा करने वाले स्वस्थ होने या स्वस्थ रहने में कठिनाई अनुभव करते हों तो या तो उन्होंने स्वयं को ठीक से जाना नहीं और यदि जाना है तो स्वस्थ रहना उनके स्वभाव में नहीं है।
दुख का निदान स्वस्थ रहना : दुख न हो इसके लिये हमें स्वस्थ रहना होगा। स्वस्थ रहने के लिये स्वयं को जानना होगा। जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि शरीर और मन मिलकर व्यक्ति हैं तो स्वयं को जानने के लिये हमें अपने शरीर और मन दोनों को जानना होगा। शरीर को जानने से तात्पर्य है कि हमें शरीर की आवश्यकताओं और क्षमताओं को जानना चाहिये।
हमारे शरीर की बनावट और आयु के अनुसार हमारी आवश्यकताएं होती हैं। इन आवश्यकताओं को हम भोजन, वायु, जल, ताप, विश्राम, मुद्राओं के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। प्रत्येक शरीर के लिये आवश्यकतायें भिन्न होती हैं। आवश्यकताओं से अधिक ग्रहण करना शरीर के लिये बोझ है, दायित्व है जो शरीर की क्षमताओं को प्रभावित करता है।
दूसरा पहलू है शरीर की क्षमताओं को जानना। हर व्यक्ति की शारीरिक क्षमताएं भी भिन्न होती हैं। इन क्षमताओं को अभ्यास से थोड़ा बढ़ाया भी जा सकता है। अपनी क्षमता को पहचानना और उस क्षमता का पूरा उपयोग करना शरीर को स्वस्थ रखने का अनिवार्य साधन है। यदि हम क्षमता का पूरा उपयोग नहीं करते हैं तो अनाभ्यास के कारण क्षमता का क्षरण होने लगता है और शरीर को आलस्य, प्रमाद जैसे विकार घेरने लगते हैं और हम धीरे-धीरे अस्वस्थ हो जाते हैं।
क्षमता से अधिक शरीर का उपयोग करना भी पड़े तो यह तात्कलिक होना चाहिये न कि निरंतर। तात्कालिक रूप से क्षमता से अधिक शरीर का उपयोग करने के बाद विश्राम उसे पूर्व स्थिति में ले आता है किन्तु निरंतर क्षमता से अधिक श्रम करने से शरीर की कोषिकाएं नष्ट तो हती हैं और उन्हें पुनर्निर्माण का अवसर नहीं मिलता, अत: शरीर अस्वस्थ हो जाता है। इसलिये यहां भी क्षमता का सम्यक उपयोग ही स्वस्थ रहने के लिये अभिप्रेत है, न कम न ज्यादा।
व्यक्ति का दूसरा और वास्तविक स्वरूप है उसका मन। यद्यपि मन शरीर में रहता है और किसी सीमा तक शरीर के स्वास्थ्य पर निर्भर भी है किन्तु उसकी स्वतंत्र सत्ता भी है। एक सबल शरीर के भीतर दुर्बल मन हो सकता है और एक दुर्बल शरीर के भीतर दृढ़ चित्त भी हो सकता है। मन शरीर को भूलकर भी, कोई भी गति कर सकता है। ऐसी दशा में वह शरीर की पीड़ा से मुक्त भी होता है। इसलिये मन के स्वास्थ्य को शरीर के स्वास्थ्य से भिन्न दृष्टि से समझना होगा। मन वास्तव में सूक्ष्म शरीर की तरह है, जो शरीर के जन्म के समय भी वयस्क होता है। यह भी कहा जा सकता है कि मन ही शरीर धारण करता है।
मन का संचित कोष कितना पुराना है और मन कितनी दूरी तक समय और दिशाओं में उड़ान भर सकता है, इसकी अभी तक सही गणना नहीं हो सकी है, इसलिये कह दिया जाता है कि मन अनंत जन्मों की यात्रा करता है और अनंत लोकों की भी।
अपने मन को जानने के लिये हम वर्तमान से आरंभ करना होगा। अभी और यहां- यही है हमारे मन को नापने के पैमाने का शून्य। अभी और यहीं से आरम्भ करें तो हम पायेंगे कि दुख का कोई भी कारण अभी और यहीं उपस्थित नहीं है। हमारे सारे मानसिक दुख भूत और भविष्य में तैरते मिलेंगे। भूत का पश्चाताप और भविष्य की चिंताएं।
घटित घटनाएं उलट नहीं सकतीं अर्थात् Reversible नहीं है। भविष्य का स्वरूप काल्पनिक है और अवश्यम्भावी Certain नहीं है। केवल वर्तमान है जिसका हमें उपयोग करना है और वास्तव में वर्तमान में कोई दुख ठहर नहीं सकता। मन को वर्तमान में स्थिर करना ही मन का स्वस्थ रहना है।

Wednesday, March 30, 2011

लाइलाज नहीं है उदासी

आत्मविश्वास में कमी आ जाने से व्यक्ति अपने को नाकारा समझ निराशा के गर्त में डूबता चला जाता है। छोटी-छोटी सी बातें उसे उद्वेलित करने लगती है। वह जीवन से सहज ही हार मान कर कभी आत्महत्या तक करने की सोच बैठता है।
ऐसे में उनका बहक जाना भी मुश्किल नहीं। जरा से फुसलाए जाने पर वह शराब के नशे की लत लगा बैठता है। मेनिक डिप्रेसिव के लक्षण उसमें उभर आते हैं जैसे कभी अत्यधिक प्रसन्न प्रफुल्लित तो कभी बेहद दुखी डिप्रेस्ड।
औरतों में उदासी के लक्षण कई बार उनमें बायलॉजिकल परिवर्तन से संबंधित हो सकते हैं। गर्भधारण, रजोनिवृत्ति, मासिक चक्र से पहले या डिलीवरी के बाद उनमें उदासी के फिट पड़ सकते हैं।
आज की तनावभरी जिन्दगी भी इसकी उत्तरदायी मानी जा सकती है उसके अलावा जेनेटिक कारण तो हैं ही।
अगर माता-पिता इस मानसिक रोग से पीड़ित हैं तो बच्चे में इस रोग की आशंका 40 प्रतिशत होती है, किसी एक के पीड़ित होने पर इसकी आधी। हार्मोन का असंतुलन भी उदासी का कारण हो सकता है।
शहरी तनाव का आलम यह है कि बचपन से ही जहां बच्चा नर्सरी में जाने लायक हुआ, उसका बचपन उससे छिनने लगता है। नॉलेज दिमाग में ठूंस-ठूंस कर भरी जाती है। बच्चे के दिमाग पर बहुत स्ट्रेस डाल उसे 'चाइल्ड प्रोडिजी' बनाने की ललक माता-पिता को बच्चे के प्रति संवेदनशील बना देती है।
इससे तंत्रिका तंत्र में समूची या कुछ कमी से उदासी घिर जाती है।
ऐसा नहीं है कि यह बीमारी लाइलाज हो। अगर उचित विधिवत् सही इलाज मिले तो रोग दूर किया जा सकता है। इलाज के सही तरीके हैं- दवाएं, सलाह, मनोचिकित्सा और इलेक्ट्रिक शॉक।
भूलकर भी ओझाओं या झाड़-फूंक करने वालों के चक्कर में न पड़ें। इससे बीमारी ठीक होने के बजाय और बढ़ेगी। इस तरह के ढोंगी लोग आपकी जेब तो साफ करेंगे ही, कभी कभी मरीज की जान भी चली जाती है।
मन से या किसी से भी पूछकर कोई भी दवा कभी न लें। डिग्री होल्डर अनुभवी डाक्टर की सलाह पर चलें।
डिप्रेशन के मरीजों के लिए मनोचिकित्सा तथा सलाह (काउंसलिंग) उपयोगी है। मनोचिकित्सा में रोगी के अंतर्मन की थाह ली जाती है। कई बार रोगी में बचपन से पलती आ रही कुछ ग्रंथियां चिकत्सक के सामने खुलती है। ऐसा उनकी एक्सपर्ट बातचीत के द्वारा ही संभव हो पाता है। बीमारी की जड़ पकड़ में आने पर आगे का इलाज आसान हो जाता है।
केस गंभीर होने तथा मरीज में आत्महत्या की प्रवृत्ति होने पर इलेक्ट्रिक शॉक देकर मरीज का इलाज किया जाता है।
मानसिक रोगों को लेकर समाज में कई गलतफहमियां हैं। लोग इसे रोग नहीं समझते। परिणामस्वरूप वे रोगी से सहानुभूति न रख उसका मजाक बनाने से नहीं चूकते। इससे स्थिति और बिगड़ती है।
मानसिक रोग किसी के अपने हाथ की बात तो नहीं। अन्य रोगों की तरह यह रोग ही है। इसके उपचार में रोगी के परिवार का सहयोग आवश्यक है। रोगी को चाहिए परिवार का स्नेह, प्यार, अपनापन और विश्वास। उसे दिल खोलकर बात करने के लिए प्रेरित करें।
अगर आपको लगता है कि रोगी आत्महत्या कर सकता है तो आपकी उसके प्रति जिम्मेदारी अत्यधिक बढ़ जाती है अगर वह आपका अपना है तो उसे एकाकी न छोड़ें और नींद की गोलियां, छुरी व चाकू जैसे हथियार उसके पास न रहने दें। अगर भावावेश में वह अपना या परिवार का कोई भारी नुकसान करने की सोचे तो उसे धैर्य से समझाएं बगैर उसे यह महसूस कराए कि वह कम अक्ल या नीम पागल है। रोगी स्नेह प्यार मिलने पर जल्दी ठीक हो सकता है। दवाइयां तो अपना असर करती ही हैं।

Thursday, March 17, 2011

हमारे तनाव, दु:ख, चिन्ता का कारण हम ही हैं

भारत का विचार दर्शन और जीवन पध्दति संतोष की शिक्षा देती है। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास, कर्म के प्रति आस्था और फल के प्रति विरक्ति का संगीत यहां सुनाई देता है। संतोष का यह भाव जीवन में सादा रहन-सहन और उच्च विचार में दिखाई भी देता है। हम युगों से इस विचार को जी रहे हैं और इसी की शिक्षा जन्म से दी जा रही है फलस्वरूप धन-वैभव, सम्पत्ति के प्रति बहुत ललक सामान्यजन में नहीं पाई जाती। हमारे देश में एक लोकोक्ति प्रचलित है- 'रुखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी, मत ललचाए जी' इसी प्रकार एक अन्य कवि लिखता है- 'गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान'।
ऐसा नहीं है कि भारतीय कहावतें और साहित्य ही यह कहते हैं। हमारे देश के धार्मिक ग्रंथ और शास्त्र भी हमें संतोष ग्रहण करने की शिक्षा देते हैं। श्रीमद् भगवद् में कहा गया है- 'जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड और कांटों से कोई भय नहीं होता, ऐसे ही जिसके मन में संतोष है उसके लिए सर्वदा सब जगह सुख ही सुख है, दु:ख है ही नहीं। (7/15/17) पवित्र ग्रंथ श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय चार और बारह में संतोष धारण करने को कहा गया है। श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है- 'जो स्वत: होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वैत भाव से मुक्त है औरर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता और असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता।' इसी प्रकार बाहरवें अध्याय में कहा गया है- 'जो सुख दु:ख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें, मन तथा बुध्दि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है' इसी प्रकार 19वें श्लोक में कहा गया है- 'किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, वह पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमें सभी दूर सुनाई देता है। इस जयगान में कर्म करने को मना नहीं किया गया है। लोकोक्ति कहती है- 'देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी' अर्थात् लोभ, लालच, प्रलोभन के प्रति हमें सावधान किया गया है क्योंकि यही हमारे लिए तनाव, चिन्ता और दु:ख के कारण हैं। श्रीमद् भगवद गीता भी कहती है- जोर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता' ध्यान दीजिए।र् ईष्या है दु:ख का कारण, इसलिए संतोष ग्रहण करने का निर्देश है। कर्म तो करना ही है। सफलता-असफलता का प्रश्न तो तभी उठेगा जब हम कर्म करेंगे। श्रीमद् भगवद गीता युध्दभूमि में गाया गान है। वह कर्मयोग की शिक्षा देता है, इसलिए सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से युध्द करने की प्रेरणा भगवान देते हैं किन्तु कर्म फल के प्रति आसक्ति के दोष के रूप मेंर् ईष्या-जलन से मुक्ति के लिए संतोष को आवश्यक बताया गया है। यदि हम तनाव मुक्त, चिन्ता मुक्त होना चाहते हैं तो निरंतर कर्मरत रह कर भी अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठकर हमें सोचना ही पड़ेगा।
संतोष का जयगान क्यों
हमें यह समझ लेना चाहिए कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमारी सुख शान्ति और समृध्दि के लिए ही किया गया है। इस संबंध में महाभारत के आदि पर्व में वेदव्यासजी जो कहते हैं उस पर ध्यान दीजिए- 'रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा स्वर्ण, सारे पशु और स्त्रियां किसी पुरुष को मिल जाए, तो भी वे सबके सब उसके लिए पर्याप्त नहीं होंगे, वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझ कर शान्ति धारण करें, भोगेच्छा को दवा दें' क्या यह सच नहीं है? इस सच से आज तक कोई इंकार नहीं कर सकता। चाणक्य नीति में कहा गया है- धन, जीवन, स्त्री और भोजन के विषय में सब प्राणी अतृप्ता होकर गए हैं, जाते हैं और जाएंगे' कठोपनिषद में कहा गया है- 'मनुष्य की तृप्ति धन से कभी नहीं हो सकती।'
मनोविज्ञान भी मानता है कि मनुष्य की इच्छाएं अनन्त होती हैं। प्रतिदिन उठती है, बदलती है और आदमी को चंचल करती रहती है। पश्चिमी विचारधारा धन और सम्पत्ति के प्रति ही हमारा असंतोष प्रकट करती है। उसका स्पष्ट संदेश है कि सुख और शान्ति, समृध्दि और सुविधाओं के आधार पर प्राप्त होती है और इन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करना चाहिए। वे खुली प्रतियोगिता और मुक्त व्यापार पर हमारा ध्यान दिलाते हैं जिसके कारण सक्षम योग्य व्यक्ति ही अधिकतम धन अर्जन कर सुख शान्ति पाता है। पश्चिमी विचारधारा इसलिए घोषणा करती है कि जीवन में असंतोष आवश्यक है। आज जो भी प्रगति विज्ञान ने की है उसका श्रेय भी इसी असंतोष को दिया जाता है। भारत सदा से संतोष के गीत गाता रहा इसलिए यहां विज्ञान ने कोई प्रगति नहीं की। हम हर क्षेत्र में पिछड़ गए। कुछ विद्वानों का तो यह भी मत है कि हमारी संतोष वृत्ति के कारण ही हम आलस्य, उदासीनता के मकड़जाल में फंसकर गुलाम बन गए। जीवन में असंतोष हमें कार्य करने, आगे बढ़ने और सुख सुविधाएं देने की प्रेरणा देता है।
क्या यह सच है
यह एक ऐसा विचार है जिस पर हमें ध्यान अवश्य देना चाहिए। हमारे देश में एक कहावत है- 'पैसा पैसे को खींचता है' हमारा अनुभव भी यही है। बड़े उद्योगपतियों के हाथ लम्बे होते हैं। वे विशाल उद्योगों के द्वारा अपनी व्यवस्थाएं ऐसी बनाते हैं जो उनके फलने-फूलने के अनुकूल हो। पवित्र ग्रंथ बाईबिल का भी ऐसा ही संदेश है कि जिसके पास है उसे और दिया जाएगा।
ऐसा नहीं है कि भारत में इस संदेश का ज्ञान नहीं था। भारतीय संस्कृत कवि माघ शिशुपाल वध में कहते हैं- 'मैं ऐसा मानता हूं कि जो अपनी थोड़ी सी सम्पत्ति से ही संतुष्ट हो जाता है विधाता भी स्वयं को कृत्य कृत्य मानकर उसकी सम्पत्ति को नहीं बढ़ाता' इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष का फल स्पष्ट रूप से कड़वा दिखाई देता है।
असंतोष के परिणाम
पश्चिम जगत की दृष्टि व्यक्तिवादी है। वह व्यक्ति के उन्नयन को ही देश और समाज की उन्नति मानता है। पश्चिम में इसलिए निस्संदेह भौतिक प्रगति की है, पश्चिम की दृष्टि 'देह दृष्टि' है। शरीर के अतिरिक्त आत्मा या अन्त:करण होता है, इस ओर उसका ध्यान नहीं है। मानव का अधिकतम कल्याण अर्जन में है- ऐसा वे मानते हैं। उनकी दृष्टि को गलत भी नहीं कहा जा सकता।
विचारणीय प्रश्न यह है कि इस विचार का अंतिम परिणाम क्या होता है। अंतिम परिणाम ही महत्वपूर्ण होता है। इस संबंध में अंग्रेज पादरी टामसफुलर जो कहते हैं उस पर विचार कीजिए। वे कहते हैं- 'यदि तुम्हारी इच्छाएं अनन्त होगी तो तुम्हारी चिन्ताएं व भय भी अनन्त ही होगी।' ऐसा ही संकेत कवि गेटे देते हैं, वे कहते हैं- 'जो स्रोत स्वत: तेरे हृदय से फूट कर नहीं निकलता है, उससे तुझे सच्ची तृप्ति कदापि नहीं मिल सकती।'
उपरोक्त दोनों मत को जान लेने के बाद अब यह विचार करना आवश्यक हो गया है कि असंतोष के मार्ग पर चल कर हमारे भय, तनाव, चिन्ता, अवसाद बढ़ तो नहीं गए हैं? क्या इस मार्ग पर चल कर हम अधिक सुख शान्ति का भोग कर रहे हैं? समृध्दि ने हमारे लिए नई नई सुविधाएं प्रदान की हैं। उससे हमें विश्राम का अधिक समय मिल रहा है? हम कला, संगीत, साहित्य को समृध्द कर रहे हैं। हमारे परिवार अधिक प्रेम, अपनत्व, त्याग और सेवा के गुणों को अपना रहे हैं? समाज और देश में भाईचारा बढ़ा है? सहयोग बढ़ा है, धन सम्पत्ति के अर्जन से वृध्द अपना बुढ़ापा सुखपूर्वक काट रहे हैं। बच्चों में बचपन अधिक आनन्ददायक हो गया है, क्या है इसके परिणाम?
हम सब जानते हैं इन प्रश्नों के उत्तर। असंतोष की आग में सभी जल रहे हैं।र् ईष्या, द्वेष की ज्वाला हमें जला रही है। भाईचारा समाप्त हो गया है। किसी के पास जहर खाने के लिए समय नहीं है। सभी अत्यधिक व्यस्त है, पढ़ना लिखना हम भूल रहे हैं, साहित्य, कला, संगीत, संस्कृति के लिए समय कहां? तनाव, अवसाद बढ़ गए हैं। हृदयरोग, रक्तचाप, डाइबिटीज जैसी बीमारियां अपना साम्राज्य जमा बैठी है। क्या युवा, क्या बालक निराशा के गर्त में न्यायालय पहुंच रहे हैं। परिवारों के झगड़े पुलिस स्टेशन और न्यायालय पहुंच रहे हैं, तलाक बढ़ गए हैं। बचपना संकटग्रस्त है। इन स्थितियों के लिए पश्चिमी हवा का असंतोष ही तो कारण है।
इतना ही नहीं आज, अभी इसी समय करोड़पति बनने की होड़ में राजतंत्र पर घोटाले, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद और खाद्य पदार्थों में मिलावट, नकली दवाइयां के उद्योगों से बाजार भर गया है। कोई किसी पर विश्वास नहीं कर रहा। नारी देह का व्यापार हो या बलात्कार आम बात जैसी लगती है। धन चाहिए- चाहे जैसे मिले, तब सुख शांति, समृध्दि के स्वप्न कहां देख सकते हैं।
हमारे देश की गुलामी का कारण संतोष धारण करना नहीं, वरन् वह लोभ और लालच रहा जिसने जयचन्द और मीर जाफर पैदा किए। आज भी धन के मायाजाल में बड़े-बड़े राजनेता, अधिकारी, पूंजीपति, पत्रकार उलझते दिखते हैं। तब याद आता है कि यह असंतोष की अवधारणा ही है जो देश को देश नहीं समझती। हमारी गुलामी का कारण लोभ, प्रलोभन था जो असंतोष की उपज है। हमारे तनाव, अशान्ति, दु:ख, चिन्ता का कारण हमारे अन्दर ही है। उसका इलाज हमें अपने आप ही करना होगा। हमारेर् ईष्या, द्वेष, लालच, लोभ का इलाज दुनिया में कहीं नहीं है। हमने ही अपने अंदर आग लगाई है, हम ही इसे संतोष के जल से बुझा सकते हैं। भारतीय दर्शन में इसीलिए संतोष का जयगान किया गया है। असंतोष की आग कभी खत्म नहीं हो सकती। सादा जीवन उच्च विचार ही इसकी एकमात्र दवा है।

Wednesday, March 16, 2011

आत्मबोध से ही आध्यात्मिक ज्ञान संभव है

हमारा जीवन आध्यात्मिक कैसे हो? हम अध्यात्म की ओर अग्रसर कैसे हों? ऐसे प्रश्न अक्सर किये जाते हैं। इनका उत्तर जानने से पूर्व हमें अध्यात्म क्या है, इसे जानना होगा। अध्यात्म यानी आत्मा का ज्ञान, अपने निज स्वरूप का ज्ञान, जिसे आत्मबोध भी कहते हैं। आत्मज्ञान होते ही हमें अमृतत्व की प्राप्ति हो सकती है।
प्राचीन ऋषियों ने इसको जाना था। उन्होंने आत्मबोध के साथ-साथ साधना एवं तपस्या द्वारा अपने जीवन में परमात्मा से साक्षात्कार भी किया था। हमारा मन बड़ा चंचल है। इसमें विचारों का प्रवाह होता रहता है।
इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी उत्पन्न हो जाती है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। कहते हैं मन तो मन ही है। यह किसी के वश में नहीं रहता। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।
मन का दूसरा नाम विचार है। विचारों का प्रवाह है मन जैसे जल का प्रचंड प्रवाह बहता है तो वह इधर उधर बहकर बिना किसी उपयोग के व्यर्थ चला जाता है वैसे ही मस्तिष्क में आ रहे विचारों का प्रवाह भी व्यर्थ ही चला जाता है।
मन की गति को कोई नहीं जान सकता। एक क्षण में कभी मन हजारों मील दूर के स्थान पर पहुंच जाता है तो कभी हजारों वर्षों पूर्व के इतिहास में। मन की शक्ति असीमित है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि अगर हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर सकें तो सारे विश्व को जीत सकते हैं।
आत्मज्ञान तथा आत्मबोध से ही मन को नियमित किया जा सकता है। हमारे मन में शुभ विचार आवें, इसके लिये हमें सद्पुरुषों के साथ सत्संग, सद्ग्रंथों का अध्ययन, मनन, चिंतन करना चाहिये।
मन शुध्द दूध की तरह है। बाल्यावस्था में हमारा मन इसी तरह शुध्द व पवित्र होता है किन्तु दूध में पानी मिलाया जावे तो दूध पतला हो जायेगा, दूध में गंदा पानी मिलाया जायेगा तो दूध गंदा हो जायेगा किन्तु इस दूध को गरम करके दही बनाकर मथा जावे तो इससे प्राप्त नवनीत या मक्खन पानी से प्रभावित नहीं होगा। नवनीत को पानी में डाल दिया जाये तो पानी पर तैरात रहेगा।
इसी तरह दैवी विचार या सद्विचारों को अपनाने से अर्थात् उनका श्रवण, मनन, चिंतन व अंगीकार करने से हमारा मन निर्मल, स्वच्छ व शांत हो जायेगा। ये सद्विचार हमारे जीवन को ऊंचाई पर ले जायेंगे।
यदि आप भी आध्यात्मिक ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहते हैं तो अपने मन को सद्कार्यों की ओर लगावें। प्रतिदिन सद्साहित्य का स्वाध्याय करें। मन से अहं वर् ईष्या को दूर कर सबके प्रति स्ेह व प्रेम की भावना रखें।
छोटी-छोटी बांतों पर क्रोध प्रकट करने से मन में अशांति उत्पन्न होती है जिस व्यक्ति में अशांति, अहं तथा असंतोष है उसे परमानंद नहीं प्राप्त हो सकता है। हर स्थिति में मन निर्मल एवं प्रसन्न रहे, यही आध्यात्मिक ज्ञान है। इसके लिये आत्म सुधार, आत्म निर्माण तथा आत्मविकास की यात्रा जारी रखिये।

Tuesday, March 8, 2011

रोना भी सेहत के लिए जरूरी है

यह तो सभी लोग जानते हैं कि हंसना सेहत के लिए लाभदायक होता है लेकिन बहुत ही कम लोगों को मालूम है कि सेहत के लिए रोना भी आवश्यक होता है। गम या मातम के क्षणों में न रोया जाए तो छाती और कलेजा फटने लगता है। ऐसे क्षणों में रोने से दिल हल्का हो जाता है। यदि बच्चा जन्म लेते ही न रोए तो चिंता का विषय बन जाता है। न रोने से उसकी जान जा सकती है, इसलिए उसे रुलाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाता है। किसी की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी या पुत्र वगैरह रोएं नहीं और गुमसुम होकर बैठ जाएं तो सबको चिंता होने लगती है कि कहीं ये पागल न हो जाए। शोकग्रस्त व्यक्ति के नहीं रोने से उसके दिमाग पर इतना दबाव पड़ता है कि वह पागल भी हो सकता है। शायद इसीलिए किसी की मृत्यु होने पर या मातम के क्षणों में परिवार की महिलाएं जार-बेजार रोती हैं ताकि दिल पर पड़े गम का भार हल्का हो जाए और वे अपने को हल्का महसूस करें।
गम या मातम के क्षणों में आंसू को नहीं रोकना चाहिए क्योंकि ऐसे क्षणों में आंसू का बहना सेहत के लिए बहुत आवश्यक होता है। आंसुओं के बहने से हृदय की पीड़ा और गदन की अकड़न दूर होती है। रोने से आंसू के साथ शरीर से अनेकों विजातीय पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। आंखों में घुसे धूलकण निकल आते हैं जिससे आंखें रोगग्रस्त नहीं होती।
बच्चे के रोने से उसे प्राणवायु मिलती है। आंसू के बहने से व्यक्ति आसानी से तनावमुक्त हो जाता है। आंसुओं को रोकने से दिल और दिमाग पर बोझ पड़ता है जिसके दबाव से दिल और दिमाग फटने लगते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम तनावग्रस्त होती हैं तथा कभी तनावग्रस्त होते ही उनके आंसू निकल आते हैं। इसलिए महिलाएं हृदय रोगों का शिकार कम होती हैं और उनकी औसत आयु भी पुरुषों की तुलना में अधिक होती है।
रूलाई का सारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। रोने से दिल का दबाव दूर होकर दिल हल्का हो जाता है। कभी-कभी खुशी के क्षणों में भी आंसू निकल आते हैं जिन्हें खुशी के आंसू कहा जाता है। जब दुल्हन की विदाई होती है और वह मां-बाप, भाई व अन्य लोगों से गले मिलती है तो सबके आंसू निकल आते हैं जो खुशी के आंसू होते हैं। विदाई के गीत भी बड़े मार्मिक होते हैं जिन्हें सुनकर बरबस आंसू निकल आते हैं। प्राचीन काल में रूदाली (गम या मातम के क्षणों में पैसे लेकर रोने वाली महिलाएं) होती थीं जिन्हें ऐसे क्षणों पर बड़े लोग रोने के लिए बुलाते थे। आज भी कई धनाढ्य परिवारों में गम के क्षणों में रोने के लिए उन्हें बुलाया जाता है ताकि उनकी रूलाई सुनकर अन्य संबंधी भी रोएं। बुजुर्गों का कहना है कि हंसोगे तो जग हंसेगा लेकिन रोने वाले के साथ कोई नहीं रोएगा। रोने में कोई साथ दे या न दे लेकिन जिसे गम या चोट लगेगी वह तो रोएगा ही। किसी के साथ देने का इंतजार वह थोड़े ही करेगा?

Monday, March 7, 2011

क्रोध को सर्जनात्मक दिशा दीजिये

प्रसिध्द यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस ने एक बार कहा था कि क्रोध मूर्खता से आरंभ होता है और पश्चात्ताप से इसका अंत होता है। सदियों पहले कही गयी यह बात आज भी शत प्रतिशत सच है। क्रोध करना एक महज मानदी वृति है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसे क्रोध न आता हो। सच तो यह है कि अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनी भी अपने क्रोध पर विजय प्राप्त करने में असफल देखे गये हैं। किंतु सिर्फ इसलिए क्रोध पर नियंत्रण पा का कोई प्रयत्न ही नहीं किया जाए, यह बात वस्तुत: स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि सभी जीवों में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो क्रोध की हानियां जानता है और साथ ही उसके दायरे को निश्चित ही कम भी कर सकता है।
अन्य संवेगों की तरह क्रोध भी व्यक्ति की एक विचलित और विक्षुब्ध अवस्था है। यह न केवल भावनात्मक स्तर पर, बल्कि मनुष्य को उसके बौध्दिक और व्यवहारगत स्तर पर भी विचलित करता है। मनुष्य गुस्से की गिरफ्त में अपनी बुध्दि खो बैठता है, उसका स्वाभाविक आचरण असहज हो जाता है और फिर क्रोध कोई सुखद अनुभूति भी नहीं है। इतना ही नहीं, क्रोध में व्यक्ति की शारीरिक स्थिति सामान्य नहीं रह पाती। मांसपेशियां या तो तन जाती हैं, या फिर एकदम शिथिल पड़ जाती हैं। उसकी रासायनिक ग्रंथियां ज्यादा या कम काम करने लगती हैं। होंठ सूख जाते हैं। आंखों में आंसू भर आ सकते हैं। चेहरा लाल पड़ जाता है, शरीर कांपने लगता है।
व्यक्ति पूर्णत: अशांत हो जाता है। ऐसे में आदमी आखिर क्या करे? क्रोध मनुष्य को जितना कुरूप और पाशविक बनाता है, शायद ही कोई अन्य चीज उसे इतना विकृत करती हो। लेकिन क्रोध की अभिव्यक्ति को दबाना तो क्रोध को खुले तौर पर व्यक्त करने से भी अधिक खतरनाक हो सकता है। शायद इसलिए कहा गया है, 'गुस्सा थूक दो भाई। अपनी भड़ास निकाल दो।' एक अच्छे और सटीक शब्द के अभाव में इसे क्रोध का भड़ासवादी सिध्दांत कहा जा सकता है।
बेशक क्रोध का दमन क्रोध को नष्ट नहीं करता। गुस्सा अपनी अभिव्यक्ति के लिए कोई दूसरा और शायद ज्यादा खतरनाक रास्ता ढूंढ लेता है और इस प्रकार लगातार क्रोध का दमन शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्ति को अस्वस्थ कर सकता है। लेकिन भड़ास निकालना भी इसका कोई स्वीकार करने योग्य समाधान नहीं है। निश्चित ही कुछ देर के लिए जब आप आपे से बाहर होकर गाली देते हैं, मारपीट करते हैं, तोड़फोड़ मचाते हैं, तो आपका विक्षोभ थोड़ा कम होता है। लेकिन इससे सामने वाले के मन में, जिस पर आप भड़ास निकाल रहे होते हैं, एक तीव्र प्रतिक्रिया भी होती है, जो पूरी परिस्थिति पर अपना प्रभाव डालती है और उसे दूषित कर सकती है। क्रोध करना दूसरों में उत्तेजना जगाना है। मालाबार में एक कहावत है कि गुस्सा करना बर्र के छत्ते में पत्थर मारना है। ध्यान देने की बात यह है कि क्रोध सदैव परिस्थितिजन्य होता है। अत: क्रोध के साथ हमारा सही बर्ताव क्या हो, यह समझने के लिए जरूरी है कि हम उस परिस्थिति के मूल में जाएं, जो क्रोध उत्पन्न करती है, और उन कारकों को ही दूर करें जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। अत: न तो क्रोध का दमन सही है और न ही भड़ास निकालना। क्रोध के कारकों का विश्लेषण ही उसे शांत कर सकता है।
हमें चाहिए कि हम अपने क्रोध को थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दें। सिनेका ने कहा था कि क्रोध का सर्वोच्च इलाज विलम्ब है। शायद इसलिए क्रोध आने पर इससे पहले कि आप गुस्से में कोई नाजायज हरकत कर बैठें, 10 तक गिनती गिनने के लिए कहा जाता है। अधिक गुस्से में बेशक 100 तक गिनिए। लेकिन क्रोध रहते कोई काम न करें। शांत होने के बाद परिस्थिति का आकलन करें।
कुछ लोग क्रोध के लिए क्रोध करते हैं। वे तामसिक हैं। कुछ अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए क्रोध करते हैं। उनकी वृति राजसिक है। लेकिन एक क्रोध सात्विक क्रोध हो सकता है, जो न्याय प्रियता के आग्रह को उपजता है। यह सही बात पर दृढ़ रहने के लिए हमें बल देता है। सत्य के लिए हमारे उत्साह को बढ़ाता है। अत: गुस्सा आने पर हमेशा चुप रहे, यह जरूरी नहीं है। यदि क्रोध का मुद्दा कोई ऐसा है, जिसका सामाजिक नैतिक आयाम भी है तो बेशक लड़ पड़िए। लेकिन संयम यहां भी अनिवार्य है। बुध्दिमानी इसी में है कि आपका क्रोध सीमित दायरे में रहे। ऐसा क्रोध घृणा में कभी नहीं बदलता। जब मनुष्य सात्विक क्रोध में होता है तो आप पाएंगे, वह आश्चर्यजनक रूप से शांत भी रहता है। उबलिए नहीं। अपने क्रोध को एक सर्जनात्मक दिशा दीजिए और इसका उपयोग समाज को सही मोड़ देने के लिए कीजिए।