Monday, August 30, 2010

बढ़ती मानसिक बीमारियां, घटती खुशियां

खुशियां हाथ फैलाए आज भी हमारे ईर्द-गिर्द हैं, बस हमें ही उनसे हाथ मिलाना नहीं आता। ये खुशियां ही हैं जो जीवन खुशगवार बनाती हैं। यह जानते हुए भी अनजान बने हम फिजूल के काल्पनिक डर, गलतफहमियों, असंभव बातों, शेखचिल्ली जैसे ऊंचे ख्वाबों को लेकर कई तरह की मानसिक बीमारियां पाल लेते हैं।
समाज में ऐसे कई स्त्री-पुरुष, बच्चे मिल जाएंगे जो बाहरी रूप से नार्मल दिखते हैं, पढ़ाई में सुपर इंटेलिजेंट और कैरियर में तरक्की करने के बावजूद कई तरह के मानसिक रोग, कुंठाओं, एवनॉमेलिटीज से घिरे होते हैं।
ऐसी प्रॉब्लम से घिरे लोगों को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं। कई कहानियां लिखी गई हैं। पत्र-पत्रिकाओं के 'समस्या और सुझाव' कालमों में इनकी भरमार दर्शाती है कि कितने लोग मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। ट्रेजेडी तो यह है कि प्रॉपर काउंसिंलिंग या चिकित्सा के अभाव में गहरा डिप्रेशन होने या क्षणिक उन्माद में ऐस लोग आत्महत्या का प्रयत्न करते हैं और कभी बचा लिए जाते हैं मगर कभी नहीं भी। यह मानवीय जीवन की बर्बादी की इंतिहा होती है।
भारत में ही फिलहाल पन्द्रह करोड़ ऐसे लोग हैं, जिनको मनोचिकित्सा, काउंसिलिंग आदि की जरूरत है। इनमें दो करोड़ से ज्यादा ऐसे हैं, जिनको नशे की लत है। एक करोड़ से ज्यादा बच्चे मानसिक रूप से असंतुलित हैं। 30-40 आयु वर्ग में जो ऐसे लोग हैं, उनमें से 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों में आत्मघाती प्रवृत्ति है।
अनुमान यह है कि 2025 तक मानसिक रूप से असंतुलित सीनियर सिटीजंस की संख्या नौ करोड़ तक पहुंच जाएगी, क्योंकि जिस रफ्तार से उनमें अकेलापन, असुरक्षा, उनके उपेक्षा बढ़ी है, बुजुर्गों को इतना संत्रास देती है कि वह दिमागी संतुलन खो सकते हैं। उनका मनोबल तोड़ने, उन्हें हाशिये पर फेंकने में पूरा समाज जुट जाता है। आज का यही चलन देखने में आता है। उनकी खुशहाली सिर्फ विशफुल थिंकिंग बनकर रह जाती है।
उस पर दुखद पहलू यह है कि इलाज के लिए मनोचिकित्सकों की संख्या बहुत कम है। आज से एक दशक पूर्व प्रशिक्षित किए गए मनोचिकित्सकों की संख्या बहुत ही कम थी। आज भी क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की संख्या मात्र चार हजार है, जो कि रोगियों को देखते हुए बहुत कम है। शहरों में यह आलम है तो कस्बों, गांवों में हालत तो और भी चिंताजनक है।
मेंटल हॉस्पिटल में एक रोगी को रखन का खर्च प्रतिदिन 500 रुपए आता है, लेकिन इस संदर्भ में राष्ट्र प्रति व्यक्ति इसका आधा भी खर्च नहीं उठाता।
मेंटल हॉस्पिटलों में कुछ समय पूर्व तक 22000 बैंड थे, जबकि जापान जिसकी जनसंख्या हमसे छह गुना कम है, में दो लाख से ज्यादा बैड थे। सरकार को इस विषय में अतिरिक्त ध्यान देने की आवश्यकता है। यह रोग छूत की बीमारी की तरह फैलने लगा है। डिप्रेशन, तनाव, ड्रगएडिक्शन, आत्महत्या समाज का एक कड़वा सच बन गया है, जिसके लिए जागरूकता लानी होगी। दीर्घजीवन में बढ़ोत्तरी जरूर हुई है, लेकिन हम लाइफ में सिर्फ ईयर्स जोड़ रहे हैं, ईयर्स में लाइफ नहीं।मानसिक बीमारियों का निदान झाड़-फूंक, टोने-टोटके नहीं। न ये ऊपर की हवा या बुरी आत्माओं का प्रवेश जैसी अनर्गल बातें हैं, जिन्हें ओझा, तांत्रिक, बाबा, सूफी आदि ठीक करन का दावा करते हैं। आज जागरूकता बढ़ी है तो इस दिशा में भी लोगों में अवेयरनेस बढ़ी जरूर है। सरकार भी करोड़ों रुपए मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है, लेकिन अभी काफी कुछ अपेक्षित है। जीवन की शाम कैसे सुखद बीते? इसके लिए जहां व्यक्ति को खुद यह कला सीखनी होगी। समाज को भी साथ देना होगा। जनसाधारण की पहुंच आशावादी, प्रेरक, मनोरंजक, साहित्यिक सीरियल्स, मूवीज तक हो, ऐसी कोशिश होनी चाहिए।