Friday, July 15, 2016

खुशहाल परिवार और रिश्तों का रहस्य

अपने परिवार के साथ हर पल जश्न मनाएं, केवल त्योहारों का इंतजार न करें


आप केवल वही बाँट सकते है जो आपके पास हैं।

यदि आप अपने परिवार को प्रसन्न और समरस देखना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको अपने भीतर प्रसन्नता और शांति लानी होगीI

आर्ट ऑफ़ लिविंग के कार्यक्रमों में उपलब्ध की जाने वाली विशेष श्वास-प्रणाली की तकनीक और व्यावहारिक ज्ञान के माध्यम से इन खुशियों के स्रोत का रहस्य जानिये।


अपनी भावनात्मक महत्त्वाकांक्षाओं को त्यागिये, प्रेम को नहीं


जब हमें भावनाओं के तूफान का सामना करना पड़ता है, तब हम ऐसे शब्दों का प्रयोग कर देते हैं अथवा ऐसा कार्य कर देते हैं जिन से हमें बाद में खेद होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमें न तो स्कूल में और न ही घर पर क्रोध, दुख या किसी भी नकारात्मक भावना को संभालने की सीख दी जाती है।

आर्ट ऑफ़ लिविंग के “हैप्पीनेस प्रोग्राम” में सिखाई जाने वाली श्वास-प्रणाली का ज्ञान नकारात्मक भावनाओं को संयमित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मन की हर लय के साथ श्वास की एक अनुरूप लय जुड़ी होती है। इसलिए यदि आप अपने मन को सामान्य रूप से स्थिर नहीं कर पाते हैं, तब श्वास में लय उत्पन्न कर मन को स्थिर किया जा सकता है।

जब हम उचित लय से लिए गये श्वासों के महत्त्व को समझ लेते हैं, तब हम अपने विचारों और अपनी भावनाओं को भी वश में कर सकते हैं और अपने क्रोध तथा नकारात्मक विचारों को अपनी इच्छा शक्ति से त्याग सकते हैं।

वास्तव में आर्ट ऑफ़ लिविंग के ‘हैप्पीनेस प्रोग्राम

’ में सिखायी जाने वाली सुदर्शन क्रिया के निरंतर अभ्यास से क्रोध और तनाव की आवृत्ति बहुत कम हो जाती है। इस से आप की परिस्थितियों को स्वीकार करने की क्षमता भी बढ़ जाती है। एवं बिना विचारे प्रतिक्रिया देने की बजाय आप में परिस्थितियों का सामना करने की तथा बुद्धि संगत व्यवहार करने की क्षमता बनती है।

स्वयं में प्रेम भाव को जीवन भर तरोताज़ा रखने के लिए स्वयं को उपरी सतह के आरंभिक आकर्षण से उपर उठने तथा बदलती भावनाओं को स्थिर करने की आवश्यकता है। चाहे भावनाओं में किसी भी तरह का उतार चढ़ाव आये, सुदर्शन क्रिया से आपको अपने प्रियजनों के साथ जीवन को आनंदपूर्वक व्यतीत करने की योग्यता भी प्राप्त होती है।


आपसी व्यवहार में तालमेल बैठाएं


“मेरे कहने का सचमुच यह तात्पर्य नहीं था, आप इस बात को समझते क्यों नहीं?"

तनाव सदा आपके विचारों, शब्दों और कार्यों के बीच एक निश्चित दरार बनाये रखता है।

जब आपका मन तनाव-मुक्त होता है तभी आप की धारणा और शब्दों में स्पष्टता आती है, और आपके व्यवहार में कोमलता आती हैI


अनाभिव्यक्ति को सहज रूप से अभिव्यक्त कीजिये


किसी भी बीज को ज़मीन की सतह पर छितरा कर फैला देने से या बहुत गहराई में दबा देने से वह बीज अंकुरित नहीं होताI उसे मिटटी में थोड़ा सा नीचे बोया जाता है तभी वह अंकुरित होता है और बढ़ कर एक पौधे का रूप लेता है। उसी प्रकार प्रेम की अभिव्यक्ति को भी मर्यादित करने की आवश्यकता हैI ध्यान-समाधि इस अभिव्यक्ति को सहज बनाती है।

द आर्ट ऑफ़ लिविंग के ‘हैप्पीनेस प्रोग्राम’ में सिखाई जाने वाली तकनीक आपको तनावमुक्त व सहज बने रह कर जीवन जीने की कला सिखाती है, जिससे आप अपने परिवार जनों के प्रति अधिक जागरूक एवं संवेदनशील होते हैँ, आसानी से स्वयं को अभिव्यक्त कर सकते हैं तथा दूसरे व्यक्ति भी, जो आप उन्हें कहना चाहते हैं, उस बात को ठीक प्रकार से समझ सकते हैं।

घर में शांति, प्रेम और प्रसन्नता की लहरों के आगमन के लिए अपने कदम उठाएं।

एक प्रसन्न मन आपको शांत रहने, बेहतर निर्णय लेने और जीवन की समग्र गुणवत्ता बनाये रखने में सहायता करता है। खुशी का हर एक पल आपके जीवन में कैसे पुनः सुधार ला सकता है, यह जानने के लिए कृपया नीचे दिए गए फॉर्म को भरें।|

ज्यादा स्वस्थ और खुश पाए गए हैं.

Sunday, October 5, 2014

प्रार्थना और रत्नों से भी दूर होती हैं बीमारियां

आधुनिक युवा पीढ़ी भले ही अपनी प्राचीन सभ्यता और रीति-रिवाजों से मुंह फेरती हो परन्तु जब उन्हें पाश्चात्य जगत के लोग भी स्वीकारने लगते हैं तो युवा पीढ़ी भी उनका अनुसरण करने ही लगती है। ऐसे ही जब योगाभ्यास को पाश्चात्य जगत ने योग के नाम से प्रस्तुत किया तो हमारे युवाओं ने भी उसकी पूरी वैज्ञानिकता, आध्यात्मिकता तथा महानता स्वीकारी थी।
अथाह, अनमोल ज्ञान
प्रार्थना के संदर्भ में जो अध्ययन अमेरिका में हुए हैं उनको देख कर यही लगता है कि कुछ समय बाद हमारी युवा पीढ़ी भी प्रार्थना, स्तुति व मंत्रोच्चारण का महत्व समझने लगेगी। इस अध्ययन में यह दावा किया गया है कि प्रार्थना करने मात्र से ही बीमारियों को रोका या कम किया जा सकता है। यही नहीं, बल्कि प्रार्थना करने से उन लोगों को भी स्वास्थ्य लाभ मिलता है, जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि कोई उनके स्वास्थ्य की मंगल कामना के लिये प्रार्थना कर रहा है।
‘कान्सास सिटी’ के एक अस्पताल ‘सेन्ट ल्यूक’ में कारोनरी केयर सेंटर के मरीजों पर विलियन हैरिस ने 12 मास तक प्रार्थना के संदर्भ में अध्ययन किया और पाया कि जिन मरीजों के लिये प्रार्थना नहीं होती था, उनकी सेहत पूर्ववत ही रही या इस तरह का कोई सुधार नहीं हो पाया।
यह अध्ययन चूंकि विदेश में हुआ है इसलिये आधुनिक युवा नि:संदेह इस पर विश्वास कर लेगा और प्रार्थना की शक्ति को पहचानने लगेगा जबकि सच्चाई तो यह है कि हमारे पूर्वजों, योगियों, सन्तों, महात्माओं और ऋषि मुनियों ने प्रार्थना की शक्ति, महत्व और मूल्य को बहुत पहले से ही समझ लिया था। यही कारण है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में पूजा-पाठ, आराधना, मंत्रोच्चारण, देवी-देवताओं की स्तुति आदि की बातें वर्णित हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई उदाहरण भी आते हैं जिनमें केवल प्रार्थना या मंत्र शक्ति मात्र से ही मरणासन्न व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाता है या फिर मर चुका व्यक्ति भी जीवित हो जाता है। सत्ती सावित्री द्वारा की गयी प्रार्थना एक अच्छा उदाहरण है।
इसी प्रकार, हमारी प्राचीन सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान आदि से हमें जो अथाह, अनमोल ज्ञान एवं विद्या रूपी खजाना मिला है, उसी का एक अंश मात्र हैं रत्न संबंधी ज्ञान जिसका प्रचलन आजकल दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है।
जिन रत्नों को आज हम अपनी शानो शौकत, रुतबे, ऐश्वर्य, स्तर, समृध्दि आदि के लिये पहनते हैं या कभी-कभी ज्योतिष शास्त्र के अनुरूप ग्रहण करते हैं, उनके पीछे हमारी प्राचीन परंपरा में ठोस ज्ञानाधार और तार्किकता रही है जिसे आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। इसके साथ ही यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि रत्नों में औषधीय-शक्ति होती है जिससे बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।
हमारे यहां की प्राचीन परंपरा के अनुसार यह माना जाता है कि जिस प्रकार से हमारे जीवन को ग्रहों द्वारा प्रभावित किया जाता है, उसी प्रकार से उन ग्रहों से संबंधित रत्नों द्वारा भी हमारा स्वास्थ्य और भाग्य प्रभावित किया जा सकता है। परंपरागत यह विश्वास किया जाता है कि मनुष्य की देह प्रकाश के सात रंगों से बनी है अर्थात् यह प्रकाश के साथ प्रकार की किरणों से संबंधित होती है। देह में जब कभी किसी किरण की कमी या अधिकता हो जाती है तो बीमारी या रुग्णता होने लगती है, अत: उस किरण से संबंधित रत्न पहन कर इस संतुलन को साम्यावस्था में लाकर पुन: स्वास्थ्य लाभ उठाया जा सकता है।
रत्नों से जिस प्रकार की किरणें संचरण करती है, उसी प्रकार की ऊर्जा भी प्रवाहित होती रहती है और चूंकि रत्न शरीर को स्पर्श करते हुए पहने जाते हैं। तो ऊर्जा भी शरीर में प्रवाहमान होती रहती है। ज्योतिषियों द्वारा भी रत्नों की उपयोगिता जातक की ग्रह दशा आदि से संबंधित होती है और वे ग्रह, नक्षत्र आदि के आधार पर रत्नों को पहनने की सलाह देते हैं।
रत्नों के औषधीय प्रभाव
रत्नों में एक प्रमुख रत्न पुखराज होता है। पुखराज का संबंध बृहस्पति ग्रह से होता है। माना जाता है कि पुखराज में भाग्य, समृध्दि और ऐश्वर्य को उद्भूत करने की शक्ति तो होती ही है, साथ ही साथ इससे गठिया बाय, जोड़ों का दर्द, नपुंसकता, बांझपन आदि बीमारियों का उपचार भी किया जा सकता है।
लाल रंग के रत्न मूंगे को मंगल ग्रह से संबंधित कहा जाता है। यह रत्न उत्सर्जन ग्रंथियों, स्वेद-ग्रंथि, मूत्र-ग्रंथि गुर्दे से संबंधित बीमारियों में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार यह रत्न एक तरह से शारीरिक शुध्दि करने में सहायक होता है और इसका प्रयोग व्यक्ति के लिये उपयोगी माना जाता है।
मोती को शीतल रत्न समझा जाता है। इसका संबंध चांद से है। मोती से उन बीमारियों को समाप्त किया जा सकता है जो गरम किरणों से उत्पन्न होती हैं जैसे फोड़े-फुंसी, लू लगना, गर्मी लगना, उच्च रक्तचाप, फफोले तथा गर्भाशय से संबंधित बीमारी आदि। चूंकि मोती शीतल रत्न होता है और इसमें से शीतल ऊर्जा प्रवाहित होती है, अत: यह शीतलता प्रदायिनी कार्य बहुत अच्छी तरह से कर सकने में सक्षम माना जाता है।
पन्ने को बुध ग्रह से जोड़ा जाता है जिसका संबंध मस्तिष्क, स्मरण शक्ति, बुध्दि, रचनात्मक कार्यकुशलता, स्ायुतंत्र आदि से होता है। पन्ने का उपयोग कई प्रकार की बीमारियों में किया जाता है जैसे आंखों से संबंधित बीमारियां, याददाश्त से संबंधित बीमारियां, कान के रोग, हकलाहट, मिरगी आदि। कहा जाता है कि पन्ने में इन बीमारियों को कम या समाप्त करने की अद्भुत क्षमता होती है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में जिन रत्नों का उल्लेख मिलता है उनमें एक रत्न का नाम है लाल। इस लाल नामक रत्न को सूर्य देव से संबंधित समझा जाता है। जिस प्रकार मोती शीतल प्रकृति का रत्न होता है, उसी प्रकार लाल गरम प्रकृति का रत्न है। लाल में से गर्म किरणों के ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। अत: यह उन बीमारियों के लिये पहना जाता है, जो शीतलता से या ठंडा से उत्पन्न हुई हों, इसीलिए इसे सर्दियों में ही पहनना उपयुक्त रहता है। लाल से हड्डियों, गठिया, ठंड लगना, रक्त से संबंधित बीमारी, शरीर कमजोर होना आदि व्याधियां दूर होती हैं। इसी प्रकार की गरम प्रकृति वाला रत्न होता है लहसुनिया। इसका ग्रह केतु होता है तथा इसे लकवा, कैंसर, मुंहासे, चर्म रोग आदि बीमारियों के निदान के लिये ग्रहण किया जाता है।
नीलम को शनि ग्रह से संबंधित माना गया है। नीलम भी मोती के सदृश्य शीतल किरणें प्रवाहित करता है। नीलम से अलसर, पेट संबंधी रोग (दस्त, पेचिश आदि) पाचन क्रिया, दिमाग से संबंधित बीमारियां, पागलपन, पार्किन्सन, लकवा, दिल संबंधी रोग आदि के लिये स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
जब रत्नों के औषधीय प्रभावों की बात हो तो हीरे को एक तरफ सरका दिया जाना अनुचित नहीं होगा। माना जाता है कि हीरा न तो बहुत अधिक गरम प्रकृति का होता है और न ही बहुत अधिक शीतल प्रकृति का। यद्यपि इसका संबंध शुक्र ग्रह से होता है परन्तु इसमें ऐसी कोई रोग निदान क्षमता नहीं होती जैसी कि अन्य रत्नों में होती है यानी हीरा इस मामले में अन्य रत्नों के मुकाबले बहुत पीछे रहता है परन्तु इसका लाभ यह जरूर माना जाता है कि हीरे को कोई भी पहन सकता है, परन्तु सिर्फ दिखावे के लिये।

सदा याद रखें मौत और भगवान को

आजकल ज्यादातर लोग चाहे वे कर्मचारी हों, व्यापारी हो, अधिकारी हों, किसान हों, मजदूर हों या शिक्षण से जुड़े हों, अपने-अपने काम में इस कदर व्यस्त हैं कि उन्हें अच्छे कामों जैसे पूजा पाठ, सत्संग, स्वाध्याय आदि के लिये न तो समय है और न ही रुचि है। ऐसा होते हुए भी मनीषियों के विचारों पर मनन करना आवश्यक व लाभकारी है।
यह संसार नाशवान है। यहां की हर चीज नाशवान है। जो आया है वह जायेगा जो बना है वह टूटेगा। जीवन का दूसरा नाम मौत है। मनुष्य यह जानते हुए भी कि कोई चीज उसके साथ नहीं जायेगी, फिर भी दिन रात धन इकट्ठा करने में लगा रहता है। इसलिए मौत और ईश्वर को हर समय याद रखना चाहिये।
बुरे कामों व बुरी संगत से बचना चाहिये। कर्मों का फल अवश्य मिलता है तथा भोगना पड़ता है चाहे इस जन्म में, चाहे अगले जन्म में। जैसा बोओगे, वैसा काटोगे, जैसी करनी वैसी भरनी, जैसा धागा वैसा कपड़ा। परमात्मा की लाठी बेआवाज है। दुष्कर्मों का दंड भुगतना ही पड़ता है। इसी प्रकार किसी का दिल दुखाना, जल कटी सुनाना, ताने देना भी बुरा है। यह पाप है।
अपने खानपान की शुध्दता तथा पवित्रता पर भी ध्यान देना चाहिये। सब प्रकार के नशों व तम्बाकू आदि से भी दूर रहना चाहिये। जैसा अन्न खाओगे, वैसा मन तथा शरीर बनेगा। खाना जीने तथा प्रभु स्मरण के लिये है न कि जीना खाने के लिये है। किसी संत ने बड़ा सुंदर कहा है- दो बातन को याद रख, जो चाहे कल्याण, नारायण इस मौत को दूजे श्री भगवान। बुरा वक्त, बीमारी, दुर्घटना व मौत कह कर नहीं आते। बहुत कुछ पूर्व जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है।
हम बहुधा देखते हैं कि अच्छे आदमी दुखी रहते हैं और बुरे लोग मौज उठाते हैं। ईश्वर के विधान में अच्छे कर्म बुरे कर्मों से घटाये नहीं जाते। धनवान लोग समझते हैं कि वे धन के बल पर सब कुछ ठीक कर लेंगे परंतु यह उनकी भूल है। यदि पैसा ही सब कुछ होता है तो धनवान लोग सुखी व स्वस्थ होते पर ऐसा नहीं है।
पैसे की भी सीमाएं हैं। पैसे से दवा खरीद सकते हैं, सेहतनहीं। पैसे से किताब खरीद सकते हैं, ज्ञान नहीं। पैसे से बढ़िया और स्वादिष्ट भोजन खरीद सकते हैं, भूख व हाजमा नहीं। पैसे से औरत खरीद सकते हैं, प्यार नहीं। पैसे से बढ़िया आरामदेह बिस्तर खरीद सकते हैं, नींद नहीं। पैसे से कार व कोठी खरीद सकते हैं, शांति व संतोष नहीं।
मौत पर एक उर्दू शायर के विचार भी याद रखने के लायक हैं- आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं। मौत को किसी तरह से न रोका जा सकता है, न टाला जा सकता है और न ही इसका इलाज किया जा सकता है। यह पूर्व निर्धारित रहती है और इसमें तीन ‘स’ होते हैं- समय, स्थान और साधन। आदमी अपने आप अर्थात् मरते समय कौन साथ में होगा। ऐसा भी देखने में आता है कि आदमी के परिवार में सब लोग बेटे बेटियां, बहुएं, नाती पोते सब होते हैं पर मरते समय कोई भी पास में नहीं होता।
अंत में कुछ विचार बुढ़ापे, बीमारी तथा कष्टों पर देने भी जरूरी है। एक फारसी के कवि ने बड़ा सुंदर कहा है- ऐ बूढ़े! तेरे कौए के पंखों जैसे काले बालों पर बरफ की सफेदी पड़ चुकी है। अब तुझ को बुलबुल की तरह बाग में गाना, नाचना अठखेलियां करना शोभा नहीं देता। बूढ़ा आदमी जब देखता है कि कोई भी इसके निकट नहीं आ रहा तो वह लगातार राम, हाय राम पुकारता है चाहे उसने अपनी जवानी के दिनों में कभी भी श्रीराम, श्रीराम न कहा हो। रोग के कारण जब आदमी की शारीरिक क्षमता समाप्त हो जाती है और कोई भी इसका सहाई नहीं होता, तब वह हाय राम, हाय राम उचारता रहता है चाहे उसने अपनी तंदुरुस्ती के दिनों में कभी भी श्रीराम न कहा हो।
इसी प्रकार असफलता का मुंह देखने पर जब आदमी को कोई मुंह नहीं लगाता या रुपये पैसे की कमी के कारण जब किसी तरफ से कुछ भी लाभदायक सहायता नहीं मिलती तो व्यक्ति हाय राम, हाय राम कहता रहता है चाहे उसने संपन्नता और मौज मेले के दिनों में कभी श्रीराम श्रीराम न कहा हो।
यदि आदमी चाहता है कि इसको कभी भी निराशा का मुंह न देखना पड़े या उदास न होना पड़े तथा हाय राम, हाय राम न कहना पड़े तो हर हालत में व हर समय श्रीराम, श्रीराम कहता रहे। श्री राम का नाम ही जीवन का सहारा है। यही जीवन का पथ प्रदर्शक है।

Sunday, April 6, 2014

बेहतर ‘मूड’ से पाइए स्वस्थ तन-मन

वह मानसिक अवस्था, जिसके अच्छे या बुरे होने पर व्यवहार क्रिया और परिणाम में उसके अनुरूप अन्तर दिखाई पड़ने लगें, सामान्य बोलचाल की भाषा में मूड कहलाती है। वैसे तो यह एक अस्थायी मनोदशा है पर जब तक रहती है, आदमी को सक्रिय या निष्क्रिय बनाए रहती है। सक्रियता, प्रफुल्लता, उत्साह, उमंग, स्फूर्ति उस मन:स्थिति या मूड का परिणाम है जिसमें वह सामान्य रूप में अच्छा होता है जबकि बुरी मन:स्थिति में अंतरंग निष्क्रिय, निस्तेज, निराश और निरुत्सास युक्त अवस्था में पड़ा रहता है। इस प्रकार यदि व्यक्ति विनोदपूर्ण स्थिति में दिखाई पड़े, तो यह कहा जा सकता है कि वह अच्छे मूड में है जबकि निराशापूर्ण दशा उसके खराब मूड को दर्शाती है।


मूड संबंधी वास्तविकता समझ लेने के उपरांत हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिये कि वह हमेशा स्वस्थ मनोदशा में रहे। कभी वह गड़बड़ा भी जाए तो उसे तुरंत पूर्व स्थिति में लाने की कोशिश करनी चाहिये। जिसका मानसिक धरातल जितना लचीला होगा, वह उतनी ही जल्दी अपने इस प्रयास में सफल सिध्द होगा। जो जितनी जल्दी सामान्य मानसिक स्थिति में वापस लौट आता है, मनोविज्ञान की दृष्टि से उसे उतना ही स्वस्थ मन वाला व्यक्ति कहा जा सकता है। लगातार खराब मूड में बने रहने से मन उसी का अभ्यस्त हो जाता है और व्यक्ति मानसिक विकारों का पुराना रोगी बन जाता है।

वर्तमान कठिन समय में जीवन की जटिलताएं इतनी बढ़ गयी हैं कि व्यक्ति अधिकांश समय खराब मानसिक अवस्था में बना रहता है। आज से सौ वर्ष पहले मानवी जिंदगी सरल थी, अब वह वैसी नहीं रही। यही कारण है कि तब लोग खेल और मनोरंजन की तरह जितनी सहजता से तनाव रहित उन्मुक्त जीवन गुजार लेते थे, वैसा आज संभव नहीं। जटिल जीवन में समस्याएं बढ़ती हैं और उस बढ़ोत्तरी का असर मन की स्वाभाविकता पर पड़े बिना नहीं रहता।

इन दिनों मनुष्य की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ी-चढ़ी है कि वह अधिकाधिक धन-दौलत जुटा लेने, प्रसिध्दि कमा लेने और वाहवाही लूट लेने की ही उधेड़बुन में हर घड़ी उलझा दिखाई पड़ता है। जीवन इसके अलावा भी कुछ है, उन्हें नहीं मालूम। बस यही अज्ञानता विकृत मनोदशा का कारण बनती है।

यह सच है कि व्यक्ति का रहन-सहन जितना निर्द्वन्द्व व निश्छल होगा, उतनी ही अनुकूल उसकी आंतरिक स्थिति होगी। इसके विपरीत जहां बनावटीपन, दिखावा, झूठी शान, प्रतिस्पर्धा होगी, वहां लोगों की मनोदशा उतनी ही असामान्य होती है। एक सर्वेक्षण से यह बात सामने आयी है कि भोले-भाले ग्रामीणों की तुलना में स्वभाव से अधिक चतुर-चालाक और कृत्रिमता अपनाने वाले शहरी लोगों का ‘मूड’ अपेक्षाकृत ज्यादा बुरी दशा में होता है।

मनोवैज्ञनिकों की सलाह है कि जब कभी मन:स्थिति या मूड खराब हो जाए तो उसे अपने हाल पर अपनी स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया द्वारा ठीक होने के लिये नहीं छोड़ देना चाहिये। इसमें समय ज्यादा लंबा लगता है और शारीरिक-मानसिक क्षति की आशंका बढ़ जाती है। शरीर के विभिन्न तंत्रों पर अनावश्यक दबाव पड़ने से अनेक प्रकार की असमनताएं सामने आने लगती है। इसलिए यथासंभव इससे उबरने का शीघ्र प्रयत्न करना चाहिये। विलंब करना अपने आप को हानि पहुंचाने के समान है।

यदि कभी मूड खराब हो जाए तो अकेले पड़े रहने की अपेक्षा मित्रों के साथ हंसी मजाक में स्वयं को व्यस्त रखें पर हां यह सावधानी रखें कि ‘मूड’ को चर्चा का विषय न बनाएं। एक कारगर तरीका भ्रमण भी है। प्रकृति के संपर्क से मन जितनी तीव्रता से प्रकृतस्थ होता है, उतनी तेजी से अन्य माध्यमों के सहारे नहीं हो सकता। इसलिये ऐसी स्थिति में पार्क उपवन, बाग, उद्यान जैसा आसपास कोई सुलभ स्थल हो तो वहां जाकर मानसिक दशा को सुधारा जा सकता है। नियमित व्यायाम, खेल एवं किसी भी रचनात्मक कार्यों का सहारा लेकर भी मन की बुरी दशा को घटाया-मिटाया जा सकता है।

आवश्यकता से अधिक की आकांक्षा और स्तर से ज्यादा की चाह में प्रवृत न रहें तो मूड को खराब होने से बचाया जा सकता है। आध्यात्मिक जीवन-यापन करते हुए अपने सुनिश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने से भी मन को असीम शांति व संतुष्टि मिलती है। इसलिए बेहतर यही है कि वैसा जीवनक्रम अपनाया जाय, जिसमें अवसाद भरी मन:स्थिति में पड़ने की समस्त संभावनाएं ही निरस्त हो जाएं। जीवन पध्दति वही अच्छी है, जो हमें शांति और संतोष प्रदान करें एवं अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ाती चलें।

Thursday, March 14, 2013

जवान और सदाबहार रहने के स्वर्णिम टिप्स



भगवान जिसे अच्छी खुराक खाने की और उसे डाइजेस्ट करने की शक्ति देता है वह व्यक्ति भाग्यशाली है। संसार की 60 प्रतिशत जनता अलग-अलग बीमारियों के कारण अच्छी तरह जीवन के उपभोगों का आनंद नहीं ले पाती। स्वस्थ, सदाबहार एव चिरयौवन की शक्ति दिमाग में है, संकल्प में है, संतुष्टि संयमित जीवन में है। उम्र का प्रभाव हर व्यक्ति पर होता है, उसे प्रभावहीन बनाना एक कला है।
* हमें सदा ध्यान में रखना चहिये कि हम मुंह में क्या डालते हैं और क्या निकालते हैं। जीने की उमंग, जिंदगी में साहस और शक्ति होना आवश्यक है। 80 प्रतिशत बीमारियां मात्र सोचने से ही होती हैं। प्रसन्न रहने की कोशिश यथासंभव करनी चाहिये। दूध और फल जीवनरक्षक हैं। इन्हें खाएं और कायाकल्प करें।
* प्रतिदिन पांच से आठ गिलास पानी पिएं। कम खाओ, गम खाओ, संतुलित खाओ, चिंतामुक्त जीवन जियो। अंकुरित अनाज जीवनरक्षक हैं। दही लस्सी अंतड़ियों का विष निकाल देते हैं। ठंडे प्रदेशों के लोगों का जीवनकाल लम्बा होता है। शुध्द वायु और साफ जल का सेवन करें। ईश्वर स्तुति से मन शांत रखें। ध्यान, रेकी, प्राणायाम, एरोबिक्स करें।
*हर दिन नया दिन मानकर खुश रहें। पुरानी बातें भूल जाएं। सभी विरोधियों को क्षमा करके तटस्थ हो जाएं। मन को उत्साहपूर्वक रखें। जीवन शैली चुस्त-फुर्तीली रखें। जीवेम शरद: शतम का निश्चय रखें।
* सदाबहार रहने का अर्थ है हमेशा जवान रहना और जवान रहने का अभिप्राय: है कि मन की अनुभूति में सदा स्फूर्तिवान रहना। यदि आप पचास वर्ष की उम्र में अपने आपको तीस वर्ष के महसूस करते हैं तो आप में उत्साह उमंग स्वत: पैदा हो जाएंगे- आपके चेहरे पर तीस वर्ष के भाव पैदा स्वत: हो जाएंगे।
* संकल्प से ही काया कल्प हो जाता है-जीवन के अन्त में हमें उतना फल ही प्राप्त होता है जितना हम जीवन को देते हैं- जिंदगी चलती ही रहती है। जिंदगी का दूसरा नाम खोज है। जब तक खोज चलती रहती है, जीवन चलता है, जब खोज बंद हो जाती है, जीवन समाप्त हो जाता है।
) जिंदगी के खेल को साधारण ढंग से लें तो आपको इस खेल में आनंद आएगा। जिसे जीने का आनन्द नहीं आता, समझें उसे जीने की कला नहीं आती।
* जियो और जीने दो। एक अनुकरणीय एवं मार्गदर्शक जीवन जियो। लोग कहें कि क्या जीने का अंदाज है। विश्व में अपने पदचिह्न छोड़ जाओ जिन्हें देखकर आने वाली पीढ़ियां अपना रास्ता ढूंढ सकें।
* अक्सर देखने में आता है कि पल की खबर नहीं, सामान सौ बरस का। जीवन की क्षण भंगुरता को देखकर भी मानव नहीं समझता। वह व्यर्थ में महत्व की आकांक्षा में जीता रहता है। प्रयत्न और कोशिश जीवन का स्वभाव है। इन्हें सहजता से लेना आप पर निर्भर करता है।
* यह जीवन एक विचित्र सपना है जो आसानी से टूट जाता है। जीवन भर हम चुन-चुन कर खुशियों की माला बनाते हैं- जब पहनने का वक्त आता है तो अचानक टूटकर माला दाने-दाने बिखर जाती है।
* जीवन भूल भुलैया का नाम है। जिसका रास्ता हमें मालूम नहीं होता- चलते-चलते जिस मोड़ पर जिंदगी मुड़ जाए हम उसी तरफ मुड़ पड़ते हैं। जलते दीपक से ही बुझे हुए दीपक, जलाए जा सकते हैं। मन रूपी दिये का तेल कभी समाप्त नहीं होने देना चाहिये।
* जिस मनुष्य के पास मनोबल नहीं होता- उसके पास कुछ भी नहीं होता- मानव सामान्यत: एक बहुत ही क्षुद्र जीव है। मनुष्यता एवं आत्मविश्वास ही उसे महान बनाते हैं। जिंदगी सुखपूर्वक जीने का मूलमंत्र यही है कि आप इसे जैसा चाहें बना सकते हैं। उत्कृष्ट मानसिक भावों से हृदय को पवित्र बनाएं।
* अपनी वाकपटुता की क्षमता के कारण मानव पशु से भिन्न है। वह अपनी मूर्खताएं, कमियां छिपा जाता है। जो व्यक्ति कठोर समय में भी दुखी नहीं होता। समभाव रहता है। वह महामानव होता है। जीवन के हवनकुंड में सूर्य से ज्यादा तपिश होती है। निराशा के गीत गाने वाले कभी जीवन का आनंद उठा नहीं सकते।
* सोए हुए मानव को तो उठाया जा सकता है परन्तु जागे हुए व्यक्ति को जगाना बहुत मुश्किल होता है। मानव अपने दु:खों के प्रति सजग न रहकर दूसरों के सुखो से दुखी होता रहता है।
अत: आप अपना जीवन अपने ढंग नियमों से और गति से जिएं। हर एक व्यक्ति के जीने का अंदाज अलग होता है। किसी की नकल न करें।


Wednesday, March 13, 2013

जीवन जीने की कला-स्वस्थ रहें, खुश रहें



स्वस्थ रहो, खुश रहो, यह सदा ही अच्छे स्वास्थ्य का मूलमंत्र रहा है। इस बार इसी मंत्र को विस्तारपूर्वक समझाने का प्रयास कर रहा हूं। आप यदि चाहते हैं चुस्त और आकर्षक दिखना तो मात्र इसे पढ़ने से काम नहीं चलेगा। आपको कदम बढ़ाकर साथ चलना होगा। सदियों से चले आ रहे वाक्य को ईमानदारी से जीवन में आजमाना होगा।
याद रहे कि हमने ही शतरंज के घोड़े की तरह ढाई घर की चाल चलकर अपने स्वास्थ्य और सुख-चैन को मिट्टी में मिला दिया है। अब जाकर चेत रहे हैं हम! आज हर उम्र के लोग फिटनेस मेनिया से त्रस्त हैं। दूसरों की देखादेखी आप और हम भी कभी सुबह की सैर को निकल पड़ते हैं तो कभी हफ्ता-दस दिन डायटिंग कर लेते हैं। फिर वही दौड़-धूप। वही फास्ट फूड। वही असंतुलित भोजन और अंतत: तनावग्रस्तता।
सभी योग को जरूरी मानने लगे हैं किन्तु तैयार अभी भी नहीं है योगासन और प्राणायाम करने के लिये। फिटनेस, कसरत, पौष्टिक आहार किसी खास वर्ग की बपौती नहीं है। पहले जमाने में जिंदगी इतनी आसान नहीं थी। शारीरिक श्रम बहुत जरूरी था। घर के कामों में ही अच्छी-खासी कसरत हो जाया करती थी। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करता गया, भौतिक सुविधाएं बढ़ने लगी। जिंदगी आसान बनने लगी। श्रम घट गया लेकिन दौड़-धूप बढ़ गयी। खान-पान बदल गया। प्रकृति से दूर होने लगे हमे।
फिटनेस का अर्थ सुडौल शरीर है न कि मांसल सौंदर्य से। शारीरिक फिटनेस कोई एक दिन में नहीं पायी जा सकती। यह तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। हमारे भावनात्मक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिये नियमित व्यायाम, संतुलित आहार, तनाव मुक्ति, पूरी नींद और आराम के साथ व्यसनों से मुक्त जीवन शैली भी जरूरी है।
स्वास्थ्य और फिटनेस के नियमों के विषय में जानकारी होना भर ही नहीं, अपने जीवन में उनका पालन करना भी नितांत जरूरी है।
सही फिटनेस के लिये सही पोस्चर
हमारी फिटनेस ठीक तभी रहेगी जब हम सही ढंग से चलेंगे-फिरेंगे, उठेंगे-बैठेंगे। पोस्चर सही न होने पर कई प्रकार के शारीरिक कष्ट हो सकते हैं जैसे सिर टेढ़ा होने से मुंह टेढ़ा लगेगा, गर्दन टेढ़ी हो जायेगी और उसमें दर्द होगा। आंखों पर भी असर पड़ेगा, वे कमजोर हो जाएंगी। पेट बड़ा हुआ नहीं कि कमर, घुटनों और टांगों में दर्द शुरू हो जायेगी।
पैरों की पोजीशन ठीक नहीं होने से पिंडलियों व एड़ी में दर्द रहने लगता है। हमेशा सीधे चलें। बायां पैर आगे ले जाते समय दायां हाथ और दाएं पैर के साथ बायां हाथ आगे आना चाहिये हाथ-पैर दोनों साथ-साथ चलने चाहिये।
बदलें अपनी बुरी आदतें
सुबह की सैर और शाम को कुछ देर बैडमिंटन या टेनिस खेलना स्वास्थ्य के लिये बहुत फायदेमंद है। स्वस्थ रहने के लिये बहुत जरूरी है हृदय और श्वासन तंत्र सुचारु रूप से काम करें। ब्लडप्रेशर नियंत्रित रखें। कोलेस्ट्राल नियंत्रित रहे। धूम्रपान, मदिरापान से बचें। हर दर्द के लिये पेनकिलर न खाएं। शरीर में अतिरिक्त चर्बी न जमने दें।
मौसमी फलों का सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से फायदेमंद है। बैमौसमी सब्जियों का सेवन न करें। जूस घर पर ही पियें। नमक को नमक समझ कर ही खाएं। विटामिन और खनिज लवण का हमारे स्वास्थ्य से गहरा रिश्ता है। वसा का प्रयोग कम ही करें। कार्बोहाइड्रेट और वसा शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं। कैल्शियम और आयरनयुक्त आहार को प्राथमिकता दें। नशे से बचें।
व्यायाम भी नियमानुसार करें
अक्सर लोग अपनी सुविधा और मर्जी से व्यायाम करते हैं और फिर छोड़ भी देते हैं। सही मार्गदर्शन में व्यायाम करें। उम्र और शारीरिक स्थिति के अनुसार व्यायाम करना चाहिये। व्यायाम नियमानुसार करे। सांस लेने और छोड़ने में तनिक भी लापरवाही घातक सिध्द हो सकती है। गलत पोस्चर में व्यायाम करने से अच्छा है व्यायाम न करें। फिजिकल ट्रेनर से मार्गदर्शन प्राप्त कर व्यायाम करें। योग और एरोबिक्स फिटनेस बनाए रखने के लिये लाभकारी हैं।

Friday, February 1, 2013

सुख और दुख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है



हमारे शरीर और बुध्दि से परे भी एक ऐसी प्यास और एक अभीप्सा विद्यमान है, जिसे बाहर से सब कुछ पाकर भी शान्त नहीं किया जा सकता। वस्तुतः हम अपने आप में इतने परिपूर्ण और समर्थ हैं कि बाहर से कुछ पाने की अपेक्षा ही नहीं रहती। लेकिन कृत्रिम अपेक्षाओं के जाल में हम इस कदर फंसे रहते हैं कि भीतर झांकने का अवकाश भी नहीं मिलता।
व्यक्ति की हर कामना पूरी हो जाए, यह नितांत असंभव है। ऐसी स्थिति में उसके मानस में निरन्तर एक चुभन-सी बनी रहती है जो उसे कभी भी शान्ति से नहीं सोने देती।
अपेक्षाओं को जगत् से मुड़कर ही व्यक्ति उस रसातीत रस का अनुभव कर सकता है जिसके सामने स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पकवान भी नीरस और फीके प्रतीत होने लगते हैं। उसे बाह्य निरपेक्ष सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए भगवान महावीर ने चार उपाय सुझाए हैं, जो सुख शय्या के नाम से पुकारे जाते हैं।
सत्यनिष्ठ के लिए स्वयं में विश्वास होना अत्यन्त अपेक्षित है। स्वयं अपेक्षित है। स्वयं के प्रति विश्वस्त व्यक्ति ही दूसरों के प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रहने वाला सत्य के प्रति अविश्वस्त हो ही नहीं सकता।
अपने लक्ष्य, प्रवृत्ति और प्रगति के प्रति भी विश्वास होना जरूरी है। संदेहशील व्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकता। वह नीरस और कटा हुआ जीवन जीता है। उसे न अपने अस्तित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व पर भरोसा होता है और न दूसरों पर। संदेह मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। उससे पारस्परिक स्ेह और सौहार्द के स्रोत सूख जाता है। मन सदा भय और आशंका से भरा रहता है। दबा हुआ भय और आशंका कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अनेक समस्याओं में यह संदेहवृत्ति ही कार्य करती है। जीवन के लिए जितना श्वास का महत्व है उतना ही महत्व समाज में विश्वास का है।
व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृध्दि अधिक दिखती है और अपनी कम। अपनी उपलब्धि में असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति पराई उपलब्धि से जलता रहता है या उस पर हस्तक्षेप करता रहता है। इससे अनेक उलझनें सामने आती हैं। दूसरे की प्रगति के प्रति असहिष्णुता मानवीय दुर्बलता है। पारिवारिक, जातीय, सामाजिक, धार्मिक और भाषायी विवादों की जड़ यह असहिष्णु वृत्ति ही है। इसी वृत्ति ने न जाने कितनी बार मानव जाति के युध्दों की लपेटों में झोंका है। वस्तुतः सुख-शांति और आनन्द को पाने के लिए कहीं जाने की अपेक्षा नहीं है। वह स्वयं के भीतर हैं।
व्यक्ति का चैतन्य जागरण जितना स्वल्प होता है, मन और इन्द्रियां उतने ही बाहर दौड़ते हैं। ऊर्जा और चेतना का बहाव भीतर न होकर बाहर की ओर होने लगता है। बहिर्मुख व्यक्ति बाह्य के प्रति आसक्त रहता है। लेकिन उसे भी कभी संतोष नहीं मिलता। असंतुष्ट मानस की बगिया में आनन्द के फूल खिल नहीं सकते। इसलिए महावीर ने सुझाया 'दृष्ट पदार्थों से उदासीन रहो।' यह विरक्ति ही अंतर्दर्शन का मूल और आनन्द का स्रोत है।
वेदना दो प्रकार की होती है, शारीरिक और मानसिक। शारीरिक वेदना प्रगति में बाधक बन सकती है पर घातक नहीं। घातक बनती है मानसिक वेदना। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां, उतार-चढ़ाव और घुमाव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पथ में आते हैं। दुर्बल मानस उनसे बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता है। वह जरा सी अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न हो जाता है। दोनों परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाये रखना अत्यंत अपेक्षित है। परिस्थिति विजय का सुन्दर उपक्रम है- उनसे ऊपर उठ जाना। यदि हम ऊपर उठ जायेंगे तो परिस्थितियों का प्रवाह नीचे से बह जायेगा। यदि हम उस प्रवाह में बैठ जायेंगे तो वह बहा ले जायेगा।
जो तटस्थ होकर प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों को सहना जानता है, वह सचमुच जीना जानता है और कुछ कर गुजरना भी जानता है।
शान्ति किसी बाहरी साम्राज्य को जीतने से नहीं, आत्म साम्राज्य को पाने से उपलब्ध होती है।
सुख और दुःख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है। उसकी नियंत्रित वृत्तियां जहां उसकी राहों में फूल बिछाती हैं, वहां अनियंत्रित वृत्तियां शूल बन कर उसके प्राणों में प्रतिक्षण चुभन पैदा करती रहती हैं।
भगवान महावीर ने एक आध्यात्मिक औषधि अवश्य बताई है जिसके सेवन से व्यक्ति क्षण भर में अनगिनत मनोव्याधियों से छुटकारा पा सकता है। उस दिव्य औषधि का नाम है 'समता'
विषम मन के धरातल पर ही दुःख का अंकुरण होता है। उन अंकुरों से विक्षोभ, व्याकुलता, दुराग्रह, प्रतिशोध आदि के फूल खिलते हैं और पुनः फलते हैं अनेक प्रकार की समस्याओं के विषैले फल। समता एक ऐसा रसायन है, जिसके छिड़काव में उन विषैले पौधों का समूल उन्मूलन हो सकता है। मेधावी व्यक्ति उस रसायन से मानसिक विक्षोभ या लक्ष्य के प्रति होने वाले अनास्थाभाव के अंकुरों को पनपने से पहले ही समाप्त कर देता है।
कोई भी व्यक्ति यदि अशान्त होता है तो वह अपने ही चिंतन और गलत कार्यों से होता है। इसके विपरीत जिसके मन में समत्व प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके पांव कभी गलत दिशा में नहीं उठते। उसके हाथ कभी गलत कार्यों में संलिप्ति नहीं होते।
विषमताओं के तूफान से जब जब जीवन नौका विपदाओं के अन्तहीन सागर में डूबने लगे तब तब यदि हम उस नौका के मस्तूल पर प्रसन्नता की पताकाएं फहरा दें और समता का लंगर डाल दें तो निश्चय ही हमारा जहाज सुरक्षित रह जायेगा और हमारा जीवन समाप्त होने से उबर जायेगा।
सचमुच समता एक ऐसा लंगर है जो हर परिस्थिति में हमारे जीवन जहाज को संतुलित और नियंत्रित रख सकता है। उसका प्रयोग हम चाहें कितनी बार करें, वह समाप्त नहीं होगा।
इन सुख शय्याओं में सोने वाले व्यक्ति काल्पनिक या अतृप्त वासनाओं के कारण उभरने वाले सपनों में नहीं खोते, अपितु दिव्य लोक में विहार करते हैं, जहां सर्वत्र आनन्द बिखरा पड़ा है।