Wednesday, August 29, 2012

मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं

मृत्यु का नाम सुनते ही साधारण व्यक्ति के होश उड़ जाते हैं और एक क्षण के लिये वह जैसे मर-सा जाता है। मृत्यु से डरने का मानव का स्वभाव-सा बन गया है। साधारण सा रोग, मामूली सी घटना, मृत्यु का विचार आदि शंकाजनक संयोग आते ही कमजोर आदमी कांप उठता है और सोचने लगता है कि कहीं वह बीमारी हमारे प्राण न ले ले। कहीं वह शत्रु हमें मार डालने की नहीं सोच रहा हो। संभव है वहां जाने से हम किसी घातक घटना के शिकार बन जाएं। मृत्यु के भय से मनुष्य खाने-पीने और प्रतिकूलताओं से जमकर मोर्चा लेने से डरता रहता है।


मृत्युभय उपहासास्पद

यही नहीं, किसी की मृत्यु देखकर, किसी दुर्घटना का समाचार सुनकर भी व्यक्ति अपनी मृत्यु की शंका से आक्रांत हो जाता है। यहां तक कभी-कभी स्वयं भी अकेले में संसार अपनी आयु के बीत गये वर्षों पर विचार करने से भी वह मृत्यु भय से उध्दिग्न हो उठता है। अंधेरे अथवा अपरिचित स्थानों में निर्भयतापूर्वक पदार्पण करने से भी उसे मृत्यु की शंका निरुत्साहित कर देती है। नि:संदेह मृत्यु का भय बड़ा ही व्यापक तथा चिरस्थायी होता है।

यदि इस मृत्यु-भय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो यह बड़ा ही क्षुद्र तथा उपहासास्पद ही प्रतीत होगा। पहले तो जो अनिवार्य है, आवश्यंभावी है, उसके विषय में डरना क्या? जब मृत्यु अटल है और एक दिन सभी को मरना ही है, तब उसके विषय में शंका का क्या प्रयोजन हो सकता है? यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने लायक नहीं है। हमारे पूर्वजों की एक लम्बी परंपरा मृत्यु के मुख में चली जा चुकी है और आगे भी आने वाले प्रजा उनका अनुसरण करती ही जाएगी, तब बीच में हमें क्या अधिकार रह जाता है कि उस निश्चित नियति के प्रति भयाकुल अथवा शंकाकुल होते रहें। मृत्यु को यदि जीवन का अंतिम एवं अपरिहार्य अतिथि मानकर उसकी ओर से निश्चित हो जाएं, तो न जाने अन्य कितने भयों से हम अनायास ही मुक्ति पा जायेंगे। मृत्यु का भय ही वस्तुत: सरे भयों की जड़ अथवा बीज है।

मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है, जो इस मानव जीवन का महत्व नहीं समझते और इस लंबी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। कामों को अधूरा छोड़कर ढेर लगा लेने वाले जब देखते हैं कि उनकी जीवन-अवधि की परिसमाप्ति निकट आ गयी है और उनके तमाम काम अधूरे पड़े हैं, तब वे मृत्यु के भय से कांप उठते हैं। सोचते हैं, मेरी जिंदगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरंतर बढ़ा चला आ रहा अभियान रुक जाता, तो मैं अपने काम पूरे कर लेता, किंतु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप चोटी पकड़कर घसीट ले जाती है।

गांधीजी का कथन

यदि मृत्यु से भयभीत होने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं सन्नध्द बना देता है, सुरक्षा के प्रबंधों तथा व्यवस्था के लिये सक्रिय रहता है, उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोड़ने से उतना नहीं डरता, जितना मरने के बाद न जाने क्या गति होगी, इस विचार से भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे भयानक तथा अंधेरे लोकों में भटकना होगा।

जीवन का चेतन तत्व

इस साधारण पक्ष के साथ-साथ मृत्यु के संबंध में एक अधिक गहरा और सत्य पक्ष भी है। जो इसका दार्शनिक पक्ष कहा जाता है। मनुष्य का जीवन दो तत्वों से मिलकर बना है। शरीर और उसमें निवास करने वाली चेतना। जीवन का चेतन-तत्व ही तो वास्तव में हम हैं। यह मृत्तिका पिंड तो उस चेतन की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। उसका वाहन भर ही है। रथ में बैठकर चलने वाला मनुष्य यदि स्वयं को रथ मान ले, तो उसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य को स्वयं अपने को ही नष्ट मान लेना चाहिये, किंतु ऐसा होता कहां है? रथ अथवा वाहन के नष्ट हो जाने पर भी उसका रथी अथवा सवार यथावत बना ही रहती है। हां, जब उसको अपने वाहन के प्रति अनुचित ममता हो जाती है, उसे ही अपना अस्तित्व एवं सर्वस्व मान बैठता है, तो अवश्य ही उसके नष्ट होने अथवा नष्ट होने की कल्पना से दु:ख होता है, किन्तु यह तो अज्ञान है। इसको किसी भी प्रकार से मान्यता नहीं दी जा सकती।

जीवन की अपेक्षा अधिक सुंडा

अब इतने पर भी यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से भयभीत होता है, तो यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह जो कुछ है वह अपने को न मानकर वह मानता है, जो वास्तव में है नहीं। इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि दिन भर काम करने के बाद शरीर थक जाता है, तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य मीठी नींद सो कर दूसरे दिन के लिये नयी स्फूर्ति तथा शक्ति से भर जाता है। तब जीवन की एक लंबी अवधि तक चलते रहने के लिये मृत्यु रूपी नींद की गोद में चली जाती है, तो इसमें खेद की क्या बात है? मृत्यु एक विश्राम लेकर वह पुन: किसी दूसरे शरीर में जागती है और नवीन स्फूर्ति, नये उत्साह से अपने लक्ष्य, मोक्ष की ओर अग्रसर हो चलती है। एक नहीं हजार तर्क और युक्तियों से यह बात सिध्द होती है कि मृत्यु, यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाय, तो जीवन से कहीं अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका ही पाई जाती है। महत्मा गांधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है। इसको देख समझकर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई कारण हो सकता है। वे लिखते हैं- 'मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुंदर होना चाहिये। जन्म से पूर्व मां के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है, उसे छोड़ देता हूं, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनाएं ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिये एक ही है।

जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिये। सदाचार तथा पुण्य परमार्थ से आलोकित जिंदगी में तो आनंद है ही मृत्यु के पश्चात तो अक्षय आनंद के कोष खुल जाते है। मृत्यु का भय छोड़िये और अपने पुण्य पुरुषार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों पर एक वीर योध्दा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिए।



Friday, August 17, 2012

मानसिक तनाव : आज के युग का सबसे बड़ा अभिशाप

मानसिक तनाव विश्वव्यापी समस्या है। वास्तव में आज की दौड़ती-भागती जिन्दगी में मानसिक तनाव जीवन का एक हिस्सा बन गया है। संत्रास, कुण्ठा, ऊब आदि तनाव के विभिन्न नाम हैं। अधिकांश लोगों को इस प्रकार के तनावों से गुजरना पड़ता है। मानसिक तनाव की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। तनाव आज के युग का सबसे बड़ा अभिशाप है।


आशा-निराशा, जय-पराजय, सफलता-असफलता, सुख-दुख, उतार-चढ़ाव, जीवन में धूप-छांव की भांति आते रहते हैं। यदि हम अपने अनुकूल समय में प्रसन्न रहें किन्तु प्रतिकूल समय में दिमाग पर तनाव की पैदा करें तो यह उचित नहीं है। हमें हरहाल में प्रसन्न रहने का प्रयास करना चाहिये।

भांति-भांति के तनाव

तनाव के अनेक कारण है। कहीं शोरगुल वाली काम करने की जगह किसी के लिये तनाव का कारण बनती है तो कभी कुछ लोग किसी ट्रैफिक जाम के कारण फंस जाने से तनवग्रस्त हो जाते हैं। इस प्रकार तनाव पैदा होने के कई कारण गिनाये जा सकते हैं। इनका हमारे स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है।

तनाव कई प्रकार के होते हैं और हर उम्र के अपने-अपने तनाव हैं। बच्चों के तनाव युवकों के तनाव से तथा युवकों के तनाव वृध्दों के तनाव से भिन्न होते हैं। बच्चों के तनाव के कुछ कारण मां-बाप से प्यार न मिलना, बच्चों को अनावश्यक रूप से डांटना, बच्चों को उनकी मन-पसंद वस्तु ने दिलाना, बच्चों के साथ भेदभाव इत्यादि हो सकते हैं।

युवा वर्ग के अपने तनाव हैं। अधिकांश युवकों के तनाव के पीछे मुख्य कारण आर्थिक है जो स्वयं के परिवार से प्रारंभ होते हैं। मध्यम एवं निम्न वर्गीय परिवारों में अभाव जनित कलह, असंतोष और अशांति से युवक नहीं बच पाते हैं। इसके अतिरिक्त सम्पन्न व समृध्द परिवारों के युवा वर्ग भी आज तनाव से मुक्त नहीं है क्योंकि युवाओं के आहार में अनियमितताएं, मादक द्रव्यों का सेवन, गलत सोहबत आदि के प्रभाव से निरंतर बढ़ोतरी होती है। इसके अतिरिक्त यौन संबंधी तथा विवाह संबंधी कुठांये भी तनाव को जन्म देती है। साथ ही योग्यतानुसार रोजगार न मिलना भी युवा वर्ग के तनाव का मुख्य कारण है। वृध्दों के तनाव विशेष रूप से संतान द्वारा उनका ठीक प्रकार से पालन न करना, रिटायर्ड होने के पश्चात आर्थिक समस्यायें पैदा होना, शारीरिक अक्षमता, संतान का गलत रास्ते पर भटक जाना आदि इसमें शामिल है। इसके अलावा आज के आधुनिक युग के कदम-कदम पर तनावग्रस्त लोग मिलते हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह सुख, शांति, समृध्दि व सम्पन्नता चाहता है लेकिन आधुनिक युग में ये चीजें ऐसी नहीं है जिन्हें आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

आज का युग प्रतिस्पर्धा व प्रतियोगिता का युग है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं को दूसरे व्यक्तियों से श्रेष्ठ साबित करना चाहता है और इसीलिये इच्छाओं का काई अंत नहीं रह गया है। इन्हीं सभी कारणों से हर वर्ग के लोग श्रमिक, मजदूर, विद्यार्थी, व्यापारी, अधिकारी, प्रबंधक यहां तक कि छोटे बच्चे भी तनाव के शिकार हैं। आज व्यक्ति के सामने कई प्रकार की समस्याएं हैं। व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक इत्यादि।

राजनीतिक उतार-चढ़ाव, बेरोजगारी, पारिवारिक वातावरण का अभाव आदि सब कारण ऐसे होते हैं जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन को लगातार अमानवीय बना रहे हैं। यहां तक कि प्यार और स्ेह जैसी मानवीय भावनाएं दिखावटी बन गयी है। अत्यधिक तनाव की पहचान है चेहरे पर पीलापन झलकना, पसीना आना, दिल की धड़कन तेज होना और थकान इनकी अनदेखी करना खतरनाक और घातक है। इसके नतीजे गंभीर ही नहीं विनाशकारी भी हो सकते हैं। परिणाम शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूपों में सामने आ सकते हैं। चकाचौंध, अत्यधिक कार्य तथा समय का दबाव भी तनाव पैदा करता है। घर में सहयोगी सदस्यों का कार्यालय में कर्मचारियों का तथा समाज में सामाजिक समर्थन न मिलना भी तनाव का कारण बन सकता है। हमारी आवश्यकताओं और क्षमताओं में असन्तुलन भी तनाव के लक्षण पैदा कर सकता है।

तनाव सिध्दांत के जनक महान मनोवैज्ञानिक डेन्स सलाई के अनुसार आज ‘मानसिक तनाव जीवन का हिस्सा बन गया है। आज ऐसे व्यक्ति की कल्पना असम्भव है जो मानसिक तनाव का अनुभव नहीं करता है।’

संसार के प्रसिध्द मनोवैज्ञानिक व कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो.जेम्स सीत्र रोलमने ने एक बार लिखा था- सत्रहवीं शताब्दी को पुनर्जाकरण काल कहा जाता है, अठारहवीं शताब्दी को बौध्दिककाल, उन्नीसवीं शताब्दी को प्रगतिकाल और बींसवीं शताब्दी को चिन्ताओं का काल कहा जाता है।

वाल्टर टेम्पिल ने भी मनुष्य की जिंदगी पर सटीक टिप्पणी करते हुए कहा है ‘मनुष्य रोते हुए पैदा होता है शिकायत करते हुए जीता है और अन्तत: निराश होकर मर जाता है।’

तनाव के कारण हार्ट अटैक, गर्भपात, अनिद्रा, कब्जियत, दर्द, एकाग्रता में कमी, चिड़चिड़ापन तो होता ही है इसके अलावा हृदय रोग, त्वचा के रोग, डायबिटीज, अल्सर है। तनाव व्यक्ति को उत्साहहीन चिंतित और उदासीन बना देता है।

तनाव न केवल लोगों को अस्वस्थ कर रहा है बल्कि बुरी तरह कार्यक्षमता को भी प्रभावित करता है। केवल ब्रिटेन में ही हर वर्ष चार करोड़ घंटों की हानि होती है। यह जानकारी प्रसिध्द मनोविज्ञानी ने दी है। उन्होंने ब्रिटेन में कई महत्वपूर्ण विषयों पर शोध कार्य किया है। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों में तनाव को गंभीर बीमारी के रूप में देखा जा रहा है। उस पर शोध भी हो रहा है और तनाव दूर करने की पहल भी शुरू हुई है।

तनाव से मुक्त रहने के उपाय

तनाव से मुक्ति मिल सकती है जब व्यक्ति स्वयं इससे मुक्त होने का प्रयास करे क्योंकि यह कोई ऐसी बीमारी नहीं है जिसे दवा औषधियों से दूर किया जा सके। फिर भी तनाव दूर करने के कुछ आसान उपाय बताये जा रहे हैं। इन उपायों की सफलता व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि वह इनका कितना पालन करता है।

1. परिवार जीवन की प्रथम पाठशाला है। व्यक्ति का पारिवारिक जीवन बहुत ही शांत होना चाहिये। यदि व्यक्ति का पारिवारिक जीवन अशांत व कलहयुक्त है तो परिवार का मुखिया और अन्य सभी सदस्य तनावग्रस्त रहेंगे। परिवार के हर सदस्य का यह दायित्व है कि वह प्रेम, शांति और सामंजस्य रखे।

2. बच्चों को अनावश्यक रूप से नहीं डांटना चाहिये, उन्हें किसी भी गलती पर मारना, पीटना नहीं चाहिये। उन्हें बहुत ही प्रेमपूर्वक कार्य करने के तौर-तरीके बताने चाहिये। घर में किसी एक सदस्य को अत्यधिक महत्व देना और दूसरे सदस्य की उपेक्षा करना भी अन्य सदस्यों के तनाव का कारण बनता है।

3. यदि समाज तनाव के बारे में कुछ करना चाहता है तो काम को मनुष्य के अनुकूल बनाने के लिये न केवल नये सिरे से प्रयास की जरूरत है बल्कि जीवन दशा सुधारने के भी प्रयास किये जाने चाहिये।

4. परिवार के सदस्यों का यह दायित्व है कि बच्चों में प्रारंभ से ही अच्छे संस्कार विकसित करें ताकि वे गलत संगत में न फंस जायें अन्यथा बच्चों के बिगड़ जाने पर पारिवारिक तनाव उत्पन्न हो जाता है।

5. परिवार के सदस्यों का यह दायित्व है कि वे धूम्रपान, मदिरापान और नशीली दवाओं का सेवन न करें अन्यथा बच्चों में इन आदतों का विकास हो जाता है जो कि पारिवारिक कलह का जन्मदाता और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।

6. जब आप कभी किसी चीज से चिंतित या परेशान हो तो उसे दबाइये मत क्योंकि कहा भी गया है कि चिन्ता चिता के समान है। अपनी चिन्ता व परेशानी उस समझदार एवं अनुभवी व्यक्ति को बताइये जो आपके विश्वास के योग्य हों और आपको सही दिशा तथा सलाह दे सके।

7. जब आपके पास कई कार्य एक साथ आ जाएं जो उन्हें देखकर आप परेशान या चिंतित न हो। ऐसा न समझे कि काम का बोझ है। कार्यों को आवश्यकता व प्राथमिकता के आधार पर करते जाएं और एक कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात् ही दूसरा कार्य हाथ में लेना चाहिये।

8. प्रात: काल जल्दी उठना चाहिये ताकि आपको कहीं भी जाना हो मसलन आपको कार्यालय 8.00 बजे पहुंचना है तो आप दैनिक कार्यों से निवृत होकर निश्चित समय पर वहां पहुंच जायें अन्यथा विलम्ब होने पर व्यर्थ की भाग-दौड़ रहेगी।

9. आप दिनभर कार्यालय में मानसिक श्रम करते हैं तो इससे तनाव उत्पन्न होता है, अत: शाम को घर जाने के पश्चात यदि किचन गार्डन हो तो उसमें कुछ देर कार्य करें या फिर कुछ देर संगीत सुनें अथवा पत्र-पत्रिकाएं पढ़नी चाहिये।

10. कार्य करते समय बीच में थोड़ा समय निकालकर पड़ोसी से गपशप कीजिये और थोड़ा टहलिये भी। इससे काम की अधिकता का तनाव निश्चित रूप से कम होगा।

11. जीवन में अभाव होने से भी मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। अभाव किसी भी वस्तु का हो सकता है। आप उस अभाव को दूर करने का अपने स्तर पर प्रयास करें। जब आप ज्यादा अभावग्रस्त हों तो उस समय उन व्यक्तियों के बारे में सोचना शुरू करें जिनके पास आपसे कम सुविधा व साधन हैं। यह विचार आते ही आप स्वयं को अधिक बेहतर समझेंगे मानसिक राहत महसूस करेंगे।

12. आप जब सफर कर रहे हों तो साथ में पत्र-पत्रिकाएं या पाकेट ट्रांजिस्टर रखें ताकि इंतजार के क्षणों का भरपूर उपयोग हो सके अन्यथा उन क्षणों में आपका दिमाग उस व्यवस्था को दोष देगा जिसके कारण आपको असुविधा हो रही है। अब तो मोबाइल रखें- संगीत का आनन्द लें।

13. दूसरों की सहायता करें, चिन्ता केवल अपना ध्यान रखने वाले सवारी करती है। जब आप हर समय दूसरों की भलाई का ध्यान रखेंगे तब आपको चिंता करके अपने कष्टों को बड़ा समझने का समय ही नहीं मिलेगा।

14. जीवन में आशावादी दृष्टिकोण रखें। कठिनाइयों एवं बाधाओं का खिलाड़ी की तरह सामना करें। जीवन को खेल समझें और जीतने की आशा से खेलें।

15. ऐसा होता तो अच्छा होता, यह सोचना छोड़िये। सदैव अच्छे की आशा रखिये। निराशाएं और असफलताएं आपके लिये सीढ़ी बनकर आयी है। इन पर चढ़कर आप सफलता और सुख के प्रांगण में प्रवेश करेंगे।

16. अपना समय अकेले में न बिताइये ताकि मस्तिष्क एक ही ओर केंद्रित न रहे। संगीत आदि के कार्यक्रमों, संग्रहलयों एवं पुस्तकालयों में जायें, मन कभी कुछ न करने को भी कर रहा हो तो टहलें, नदी-तालाब के किनारे जायें एवं प्राकृतिक वातावरण का आनन्द लें।

17. दूसरों के कार्यों में व्यर्थ का हस्तक्षेप न करें, दूसरों को बोलते वक्त बीच में टोकना उचित नहीं है, अधिक बोलने की अपेक्षा अधिक सुनने की आदत डालें, उपयोगी, रूचिकर है इस बात पर ज्यादा ध्यान दें।

18. जब आप निरंतर मानसिक कार्य करते-करते थकान का अनुभव करने लगें तो तत्काल कोई शारीरिक कार्य करना शुरू कर दें। यदि आप नौकरी-पेशा वाले हैं तो सार्वजनिक अवकाश का भरपूर आनन्द लें। अवकाश के क्षणों का भरपूर उपयोग करें। अपने आत्मीय जनों मित्रों व पारिवारिकजनों को पत्र लिखिये।

19. तनाव से छुटकारा पाने का एक सरल उपाय है- व्यक्ति को जिद्दी व दुराग्रही नहीं होना चाहिये।

20. प्रार्थना करें, व्यक्ति को आध्यात्मिक भी होना चाहिये। प्रतिदिन सभी पारिवारिकजन एक साथ बैठकर प्रार्थना करें ईश्वर शक्ति के प्रति आस्था, प्रेम, विश्वास एवं कृतज्ञता का भाव सभी प्रकार के तनावों से मुक्ति दिलाता है। अमेरिका की विख्यात मेडिकल साइन्टिस्ट एवं साइकोलोजिस्ट डाक्टर जोन बारो सेन्को के अनुसार प्रतिदिन नियत समय पर प्रार्थना करने से तनाव पैदा करने वाले हार्मोन एड्रिनिअल के रिसाव में काफी कमी हो जाती है।

21. झपकी लें, तनाव मुक्ति के लिये झपकी लें। फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के साइकोलाजी प्रोफेसर विल्स वेब के अनुसार दिन में कुछ देर झपकी लें तो तनाव, दबाव एवं दुश्चिन्ता से मुक्त होकर तरो-ताजा महसूस करेंगे।

22. तनाव मुक्ति का एक सरल उपाय यह भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपना मित्र बनाये, वाणी में मैत्री तथा दिल में प्रेम एवं दिमाग में शांति प्रदान करता है।

रॉकफेलर के नुस्खे

अमेरिका के उद्योगपति रॉकफेलर महोदय ने अपनी लम्बी आयु और स्वास्थ्य के बारे में ये बातें बताई :-

1. मैं अपनी दिनचर्या में गड़बड़ी नहीं होने देता। प्रतिदिन नियत समय पर भोजन लेता हूं, नियत समय पर सो जाता हूं।

2. मैं जब भी शारीरिक एवं मानसिक कष्ट का अनुभव करता हूं, तत्काल इस कष्ट का कारण मालूम करके कारण को दूर कर देता हूं। ऐसा करने से मेरा कष्ट बढ़ नहीं पाता।

3. मैं न मांस खाता हूं और न शराब का सेवन करता हूं। अन्य नशीले पदार्थों का सेवन भी नहीं करता हूं इनको मैं हानिकारक मानता हूं।

4. भोजन का प्रत्येक ग्रास खूब चबाकर खाता हूं। खाने में कभी जल्दी नहीं करता अर्थात् भोजन बहुत धीरे-धीरे करता हूं।

5. मैं अपने को मानसिक, शारीरिक दृष्टि से थककर चूर नहीं होने देता।

6. अपनी प्रकृति पर मुझे पूरा अधिकार है। क्रोध, शोक, मानसिक अवस्था मुझ पर कभी अधिकार नहीं पा सकती।

7. मैं उन व्यक्तियों में से नहीं हूं जो इस संसार में दुख का सागर समझते हैं। इसके विपनरित संसार में अत्यन्त रूचि लेता हूं। प्रतिदिन मन बहलाव के लिये कुछ समय व्यतीत करता हूं।

इन सब बातों का यदि थोड़ा भी गंभीरता के साथ पालन किया जाये तो अनेक कष्टों एवं परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है। तनाव अपने आप में अनेक बिमारियों और स्वास्थ्य समस्याएं पैदा करता है। हालांकि इससे पूर्ण मुक्त हो पाना शायद संभव न भी हो पाये, फिर भी यदि कुछ भी तनाव में कमी आती है तो इसमें लाभ स्पष्ट दिखायी देगा।



हंसिए-हंसाइए, रोग दूर भगाइए

जीवन सुख-दुख, अनुकूल-प्रतिकूल, अच्छी-बुरी परिस्थितियों का मिला जुला रूप है। यहां सब कुछ इच्छानुसार नहीं होता। प्रतिकूलताएं आती-आती रहती हैं। जब जीवन में कठिनाइयां-असुविधाएं आती हैं तो मानसिक तनाव और शारीरिक थकान का पैदा होना स्वाभाविक है।

ऐसी स्थितियों में आत्मरक्षा का एक ही कारगर उपाय है- हर समय प्रसन्न रहने के लिए हंसने-मुस्काने का सहारा लिया जाए। हंसते-हंसाते रहने से विषम परिस्थितियों में भी जीवन की गाड़ी आसानी से आगे बढ़ जाती है।

निराशा, उदासी, खिन्नता को दूर करने और भारी मन को हल्का करने में हंसने-मुस्कराने से बढ़िया उपाय दूसरा नहीं है। इसके लिये स्वस्थ मनोरंजन, मनोविनोद, हंसी-खुशी के प्रसंगों को अपनी दिनचर्या में अधिक से अधिक स्थान देना आवश्यक है। ईश्वर ने सभी प्राणियों में मनुष्य को हंसने-मुस्कराने की विशेषता प्रदान कर उसे श्रेष्ठ उपहार दिया है।

जीवन शक्ति को बढ़ाने, मन को प्रसन्नचित्त रखने, तनाव से मुक्ति दिलाने में हास्य बहुत सहायक है। प्रसन्नचित्त व्यक्ति जितने उन्नत, सुखी और शांत देखे जाते हैं, उतने उदास, खिन्न, मनहूस नहीं। प्रसन्न व्यक्तियों की बुध्दि अधिक तीव्र और विचार अधिक स्थिर होते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन की कठिनाइयों, परेशानियों को झेलने में अधिक समर्थ होते हैं।

रोगी के लिये भी हंसना व प्रसन्नचित रहना बहुत आवश्कता है। जो प्रसन्नचित्त और मुस्कराते रहते हैं, उन पर दवाइयों का असर भी तेजी से होता है और वे शीघ्र ही स्वस्थ हो जाते हैं। ठहाका लगाकर हंसने वालों का पाचन संस्थान अधिक तेजी से कार्य करता है।र् ईष्या, द्वेष, भय, उत्तेजना, क्रोध और चिंता जैसे मनोविकारों के कारण अथवा शारीरिक रोगों के फलस्वरूप शरीर में जो विष उत्पन्न हो जाते हैं, उनके निष्कासन में हंसना बहुत ही सहायक होता है।

प्रसन्न रहने व मुस्कराते रहने के लिए आवश्यक नहीं कि धन, संपत्ति और बहुमूल्य साधन सुविधाएं ही हों। मात्र विचार करने की शैली में परिवर्तन और दृष्टिकोण का सही रखना अत्यन्त आवश्यक है। हंसने मुस्कराने से मन हल्का होता है, ताजगी और स्फूर्ति बनी रहती है।

जिस प्रकार वृक्ष की जड़ में पानी देने से पत्तियां, फूल, तना और सभी अंग पोषक तत्व प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार हंसने मुस्कराने से शरीर के अंग-अवयवों की सक्रियता और स्फूर्ति भी बढ़ जाती है। यह स्वास्थ्य के लिये महौषधि है।

हंसना, मुस्कराना, प्रसन्न रहना अपने स्वास्थ्य के लिये ही नहीं, घर-परिवार, मित्र, पड़ोसी सभी की प्रसन्नता के लिये बहुत आवश्यक है। इसमें कुछ खर्च नहीं होता, वरन मिलनसारिता और आत्मीयता बढ़ती है तथा स्वस्थ और स्फूर्ति रहा जा सकता है। इसलिए हमें यही प्रयास करते रहना चाहिये कि सदैव हंसते-मुस्कराते बने रहकर प्रसन्न रहा जाय। जो प्रसन्न रहते हैं वास्तव में वे ही सुखी हैं।



Thursday, August 16, 2012

चिंता स्वास्थ्य को खाती है

इस भागमदौड़ भरी जिन्दगी में लगभग हर मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर आते रहते हैं जब चिंताएं उसे घेर लेती हैं। कुछ तो अपनी सूझ बूझ और धैर्य के कारण उनका निवारण कर मुक्ति पा लेते हैं किन्तु कुछ लोग भीरू प्रकृति के होते हैं जो समस्याओं के आ जाने पर उसका हल खोजने के बजाय भीतर ही भीतर चिंता रूपी अग्नि में अपने आपको जलाने लगते हैं।

खैर, इस वास्तविकता को भी नकारा नहीं जा सकता कि चिंताओं से इस भौतिक युग में पीछा छुड़ाना मुश्किल है क्योंकि हमारी इच्छाएं और कार्यक्षेत्र इतना फैल गया है कि चिंताओं से बिल्कुल ही मुक्ति पा जाना तो कठिन है। मनुष्य को चिंताग्रस्त न रहकर उसका उपाय खोजना चाहिये। चिंताओं में घुलते रहने से हमारा स्वास्थ्य और आयु क्षीण होते हैं। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययन के द्वारा यह तथ्य सामने आया है कि पुरुषों की तुलना में महिलायें समस्याओं से तीन गुणा ज्यादा चिंतित होती हैं। वे समाधान की ओर ध्यान नहीं देती, उल्टे समस्याओं की भयावहता के बारे में सोच-सोचकर परेशान रहती हैं। उनकी संघर्ष क्षमता, सहनशीलता और सोच बहुत कमजोर होती है। दूसरी तरफ ऐसे पुरुष जो भावुक, भीरू और कमजोर हृदय वाले होते हैं, वे समस्या के परिणाम के विपरीत विषय में ही सोचते हैं। नकारात्मक विचारों के कारण उनका मन मस्तिष्क और शरीर जर्जर हो जाता है और उनकी निर्णय क्षमता भी नष्ट होने लगती है। अत्यधिक चिंता का मानव शरीर पर बहुत बुरा और गहरा प्रभाव पड़ता है। इससे अनिद्रा, डायरिया, पेट की गड़बड़ी, मांसपेशियों में तनाव, मधुमेह, सिरदर्द तथा मानसिक तनाव जैसे रोग घेर लेते हैं। चिंता मनुष्य के स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व को भी नष्ट भ्रष्ट कर देती है। असमय में ही सिर के बाल सफेद हो जाते हैं, चेहरे पर झुर्रियां, मुंहासे और उदासी छाने लगती है। चेहरे का आकर्षण समाप्त होकर युवा असमय में ही वृध्द जैसा दिखाई देने लगता है।

एक बार मशहूर कामेडियन जार्ज बर्न्स से किसी ने पूछा कि चिंता पर विजय पाने का क्या तरीका है, तो उन्होंने उत्तर दिया, अगर कोई काम आपकी पहुंच से परे है तो उसके बारे में बेकार की चिंता करने का कोई औचित्य नहीं है। अगर आप किसी काम को ठीक से निभाने में सक्षम नहीं हैं तो उसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। मनुष्य एक चिंतनशील प्राणी है। उसमें अच्छा-बुरा समझने की शक्ति है। वह अपनी समस्याओं से अपने विवेक और सूझबूझ के द्वारा छुटकारा पाने की सामर्थ्य रखता है लेकिन जानवरों में इस तरह की क्षमता का अभाव होता है।

जब आप समस्याओं से घिर जायें तो अपने ऊपर नकारात्मक भावनाओं को हावी न होन दें। ऐसा करने से मनुष्य अपने होशो-हवास खो बैठता है। मान लीजिए कि आप किसी ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं जो आपको परेशान कर रही है और आप उसका तुरंत कोई उपाय नहीं खोज पा रहे हैं तो ऐसे समय में आपको चाहिए कि चिंताओं को भूलकर अपने मन को किसी दूसरी ओर लगा लेना चाहिए क्योंकि दूसरे कामों में मन लगाने से मूड में सुधार हो जाता है। ऐसे में मित्रों से गपशप लगायें या खेलें। अपनी समस्या के समाधान के लिये मित्रों से भी परामर्श ले सकते हैं। जब आपका उत्तेजित मस्तिष्क शांत हो जाये तो आप अपनी समस्या पर सोचें। चिंताएं अक्सर मिथ्या विश्वास के कारण भी पैदा होती है। ज्यादातर लोगों को, विशेषकर स्त्रियों को यह चिंता होती है कि सब लोग क्या कहेंगे? जग हंसाई होगी आदि। कोई भी व्यक्ति दोष रहित नहीं होता। दृढ़ता और समझदारी से चिंताओं पर विजय पाई जा सकती है। कुछ लोग अपनी चिंताओं से बेहद परेशान हो जाते हैं क्योंकि उसके परिणाम और खतरों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर सोचते हैं। हमें अपनी समस्याओं से साहसिक और रचनात्मक ढंग से निपटना चाहिये।

आजकल चिंता और तनाव से मुक्ति की दवाएं भी उपलब्ध हैं। शुरू-शुरू में तो इनसे राहत मिल सकती है परन्तु स्थायी तौर पर मुक्ति नहीं मिलती। इसलिये कोशिश होनी चाहिये कि हम अपने दिल दिमाग को मजबूत बनायें जिससे चिंताओं पर काबू पा सकने में समर्थ हो सकें।

चिंता के मूल को समाप्त करना चाहिये। व्यायाम और दूसरी शारीरिक गतिविधियां, हल्का संगीत तथा ध्यान आदि से ही चिंता से तत्कालीन मुक्ति पाई जा सकती है। समस्याओं से जूझिये, घबराइये नहीं, सब ठीक हो जायेगा।