Sunday, June 26, 2011

सुखी एवं शांत जीवन जीने के सूत्र

दुनिया के लोग हमें वैसे नजर आते हैं, जैसा हमारा अंत:करण होता है। जैसी हमारी सोच होती है, वैसे ही हम बन जाते हैं। जिस व्यक्ति का अंत:करण सत्यनिष्ठ पवित्र एवं दयालु होगा वह धरती पर रहता हुआ भी स्वर्ग का आनन्द ले रहा होगा। इसलिए आप अपने अहम् और मैं को अपने मन-मस्तिष्क में से बाहर निकाल फैंके। हमारे स्वभाव से यदि अभिमान या घमंड निकल जाए तो हमारा शरीर इतना पुलकित हो जाता है जैसे शरीर में चुभा हुआ कांटा बाहर निकल जाता है। जिन लोगों का अंत:करण मलिन एवं अपवित्र होता है। उन लोगों के मन में ईश्वर का प्रवेश नहीं हो सकता। जैसे मैले दर्पण में सूर्य का प्रतिबिम्ब कभी नहीं पड़ सकता है। यदि शीशा साफ हो तभी इसमें प्रतिबिंब दृष्टिगोचर हो सकता है।
मानव हृदय के अन्दर ईश्वर की उपस्थिति को अंत:करण कहते हैं। हमारी सोच ही हमें भयरहित या कायर बनाती है अत: अपने विचारों को बुलंद रखें। अंत:करण की आवाज को ईश्वरीय आवाज माना जाता है। जो बात दिल कहे और मन या अंत:करण करने को मना करे उसे नहीं मानना चाहिए।
जब आप बोलते हैं चलते हैं देखते हैं तो आपके चेहरे की बनावट शरीर के संकेतों या बाडी लैंग्वेज से आपके सारे व्यक्तित्व का आभास हो जाता है। आपका आत्म सम्मान, आपकी महानता का घोतक है। जो अपना सम्मान स्वयं करता है, सभी लोग उसका भी सम्मान करते हैं। जिसने काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार को जीत लिया है, वह बहुत से कष्टों से बच सकता है। काम संतुलित, सीमित यथा समय और मर्यादा में रहना चाहिए। क्रोध तो यमराज है जब क्रोध आता है तो बुध्दिमत्ता बाहर निकल जाती है। इंद्रियों की गुलामी पराधीनता से कहीं ज्यादा दुखदायी होती है। अत: अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करना बुध्दिमानी का काम है। बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो और बुरा मत देखो। जो इन्द्रियों पर वश और विवेक नहीं रखता, वह मूर्ख है।
हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां है। दस कर्म इन्द्रियां हैं। जो लोग इन्द्रियों की संतुष्टि के चक्रव्यूह में फंसते हैं वे मृत्यु की तरफ अग्रसर होते जाते हैं। हिरण मधुर संगीत की तरफ आकर्षित होता है और शिकारग्रस्त होकर जान गंवा देता है। हाथी हथिनों की तरफ आकर्षित होकर कभी-कभी जान गंवा बैठता है। पतंगा अग्नि में भस्म हो जाता है। मछलियां जीभ के स्वाद के लिए लालच में फंसकर कांटे में अटक जाती है। इन सभी की भांति मानव भी इन्द्रियों की लोलुपता के कारण फंसकर रह जाता है। अविवेकी और चंचल प्रवृत्ति की इन्द्रियां बेखबर सारथी के दुष्ट घोड़ों की भांति बेकाबू होकर बिदक जाती है। मानव को चाहिए कि वह कछुए की भांति बन जाए जो अपने सब अंगों को समेट लेता है। जो मानव अपनी इन्द्रियों के वश में भी नहीं रहता वह मानव महामानव बन जाता है। आकाश की तरह मानव की इच्छाएं भी असीम और अनंत होती है। हमारी अपूर्ण और अनुचित इच्छाएं ही हमारे दुख का मुख्य कारण है। कामनाओं के वशीभूत मानव सारा जीवन दुखी रहता है। चाह गई- चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जाको कछु न चाहिए सोई शाहनशाह। मानव की समाप्ति हो जाती है, परन्तु उसकी अभिलाषाओं का अन्त नहीं होता। रात्रि दिन की चाह में समाप्त हो जाती है। दुख में सभी लोग सुख की कामना करना चाहते हैं। यह इच्छाएं मानव की चिर-अतृप्त ही रहती है, जैसी हमारी इच्छाएं होती है वैसे ही हमारे मन के भाव बन जाते हैं। उसी प्रकार की झलक हमारे मुख मंडल पर छा जाती है। संसार में इज्जत के साथ और सुख आनन्द के संग जीने का यही प्रज्ञा सूत्र है कि हम बाहर से जो कुछ दिखना चाहते हैं, वास्तव में वैसा ही होने का प्रयत्न करें।

Sunday, June 5, 2011

डिप्रेशन से कैसे उबरें

देखने में आया है कि चिंता में डूबा व्यक्ति इससे उबर नहीं पाता और न जाने क्या-क्या बीमारियां उसे घेर लेती हैं। हर बीमारी का इलाज है लेकिन 'चिंता' इसका कोई इलाज नहीं। जो व्यक्ति इसे पाल लेता है, वह खुद ही इससे उबर सकता है। किसी के समझाने से वह नहीं समझ पाता। हमारे अवचेतन मन में कुछ डर,भय, चिंता जन्म लेती है, जो पनपकर हमारे शरीर की ऊर्जा को नष्ट करती हैं। फिर हमें धीरे-धीरे अंदर से खोखला करती है। फिर एक दिन ऐसा आता है कि बाहरी बीमारी या मुसीबत हमें घेर लेती है। जो कि ठीक होने का नाम नहीं लेती है। इसलिए हमें खुश रहकर चिंता मुक्त रहना चाहिए। चिंता से डिप्रेशन आता है और डिप्रेशन वाले व्यक्ति को निम्न तकलीफों का सामना करना पड़ता है।
* वह अकेलापन महसूस करता है या फिर शुरू में अकेला रहना चाहता है।
* छोटी-छोटी बात पर रोना , झगड़ना या चिंतित हो जाना।
* शरीर दुबला होता जाना।
* खाना कम हो जाना।
* शरीर की पाचन शक्ति कमजोर हो जाना। शरीर कमजोर होना। शरीर में दर्द।
* डॉक्टरों के पास जाना पर उन्हें पता न चलना।
* अपने बारे में खुलकर बात न करना।
* बेवजह किसी बात का भय, घर वाले या सगे-संबंधी भी अच्छे न लगे।
* बेवजह रोना-धोना, चिल्लाना।
* अकेले रहने पर डर या अपने पर से भरोसा खोना।
* अपने काम के बारे में ऐसा लगना मैं नहीं कर सकता। ताकत खत्म होती नजर आना।
* कोई भयंकर बीमारी हो जाने का डर।
* ऐसे व्यक्ति को डिप्रेशन से मुक्त कराना बड़ा मुश्किल कार्य है पर उसके परिवार के सदस्य मिलकर इसे दूर कर सकते हैं।
* मरीज को अकेला नहीं छोड़ें।
* उससे बातचीत करते रहें, उसे सुबह-शाम टहलने ले जायें।
* डॉक्टर से सलाह लेते हुए कुछ न कुछ छुपाये।
* सिर, शरीर की मालिश करें।
* बादाम, रोगन, देशी घी सिर में डालें और मालिश करने के बाद आराम करने को कहें।
* बाहर घूमने ले जायें। मन पसंद संगीत सुनायें।
* जो काम मरीज को अच्छा लगे धीरे-धीरे वहीं करें।
* अगर मरीज का कोई शौक है तो उसे पूरा करने दें। संसार को सुंदर मानकर आनंद लें।
* व्यक्ति को अपना कार्य खुद करने दें। बागवानी करें। कुदरत को देखें।
* उसे संगीत, फिल्मों या सजावट का कुछ भी शौक हो उसे करने दें।
* मरीज कुछ समय निकालकर संगीत सुनें एवं नाच सकते हों तो नाचें, दिल खोलकर बंद कमरे में नृत्य करें।
* अपने को व्यक्ति खुद समझा सकता है। दूसरा व्यक्ति नहीं। व्यक्ति के कमरे में अच्छे पोस्टर, अच्छी बातें लिखकर टांगे।
* भगवान का नाम लें, कीर्तन करें। मंदिर में जाकर बैठें, प्रार्थना करें।
* स्वच्छ एवं पौष्टिक भोजन नियमित करें। रैकी, एरोबिक्स, ध्यान करें। हर क्षण को जियें।