Friday, November 5, 2010

तनाव का उपचार-आध्यात्मिक जीवन

तनाव आधुनिक युग का अभिशाप है। यह जीवन पध्दति का एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है। यह दीमक की तरह अंदर से शरीर और मन को खोखला करता रहता है। तनाव के अनेक कारण एवं प्रकार हो सकते हैं किन्तु इसका मुख्य कारण है परमात्मा पर अविश्वास तथा मन:स्थिति और परिस्थिति के बीच सामंजस्य न होना। इसका शरीर और मन पर इतना दबाव पड़ता है कि हार्मोन और जैव रसायनों का संतुलन तार-तार हो जाता है। परिणामस्वरूप शारीरिक स्वास्थ्य एव मानसिक सुख-संतुलन क्रमश: क्षय होने लगते हैं और जीवन तरह-तरह के कायिक एवं मनोरोगों से ग्रसित होकर नारकीय यंत्रणा एवं संताप से भरने लगता है। 'इनसाइक्लोपीडिया आफ अमेरिकाना' के अनुसार सर्वप्रथम हैंस सेली ने तनाव (ीींीशीी) शब्द का प्रयोग किया। द्वितीय विश्व युध्द के दौरान इस शब्द का काफी प्रचलन हुआ। सेली के अनुसार, तनाव मन:स्थिति और परिस्थिति के असंतुलन से उठा एक आवेग है। इसकी दाहक क्षमता अप्रत्यक्ष और अति खतरनाक होती है। द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान विषम परिस्थितियों के रहते इसके भयंकर परिणाम व्यापक स्तर पर देखे गये और यह विषय वैज्ञानिक शोध-अनुसंधान के दायरे में आ गया।
अव्यवस्था और विसंगतियां
दो अमेरिकी मनोचिकित्सक थामस एच.होलेमस और रिचर्ड राडे ने तनाव के विषय पर व्यापक शोध-अनुसंधान किया। इन्होंने पाया कि व्यक्तिगत जीवन की अव्यवस्था तथा विसंगतियों के कारण 53 प्रतिशत गंभीर तनाव उत्पन्न होते हैं। इन्होंने विविध तनावों के मापन की 'स्केल' भी निर्धारित की, जिसके अनुसार तलाक से 63 प्रतिशत, मित्र या संबंधित परिजन की मौत से 36 प्रतिशत, बेरोजगारी से 56 प्रतिशत तनाव होता है। उनके अनुसार तनाव की गंभीरता में व्यक्ति मानसिक संतुलन खो बैठता है और यदि मनोबल दुर्बल है तो आत्महत्या जैसे जघन्य दुष्कृत्य तक कर बैठता है। पश्चिमी देशों में 55 से 80 प्रतिशत लोग तनावजन्य रोगों से पीड़ित हैं और अपनी बढ़ी-चढ़ी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये उन्हें कई प्रकार की प्रतिस्पर्धाओं से गुजरना पड़ता है। उसमें तनिक भी असफलता नकारात्मक सोच एवं तनाव को जन्म देती है। इसी तरह अप्राकृतिक आहार-विहार एवं अति औपचारिक आचार-व्यवहार भी तनाव को जन्म देते हैं। साथ हीर् ईष्या, द्वेष, संदेह, दंभ जैसे मनोविकार तनाव के अन्य महत्वपूर्ण कारण हैं। इस तरह आज तथाकथित विकास की भागती जिंदगी में तनाव जीवन का अनिवार्य घटक बन गया है। यह तनावरूपी अभिशाप किस तरह मन एवं मस्तिष्क की सूक्ष्म संरचना को प्रभावित कर गंभीर एवं असाध्य रोगों का कारण बनता जा रहा है, इसका अपना विज्ञान है, जिस पर शोधकर्ता गंभीर अनुसंधान कर रहे हैं। हैंस सेली के अनुसार, तनाव की प्रक्रिया को तीन अवस्थाओं में समझा जा सकता है। प्रथम अवस्था में, एड्रीनल कार्टेक्स में तनाव की सूचना का संप्रेषण होता है। दूसरी अवस्था में लिंफेटिक तंत्र की सक्रियता द्वारा शरीर में उत्पन्न इस अप्रिय स्थिति के प्रति संघर्ष छेड़ा जाता है। इसमें प्रतिरक्षा प्रणाली के अंतर्गत आने वाले थाइमस व स्पूलीन प्रमुख कार्य करते हैं। तीसरी अवस्था में तनाव की अधिकता पूरे मनोकायिक तंत्र को अपने नियंत्रण से ले लेती है। इस कारण शरीर व मन में थकान तथा गहन उदासी के लक्षण स्पष्ट परिलक्षित होते हैं।
तनाव की चार अवस्थाएं
कर्टसीन ने सेरिब्रल कार्टेक्स में तीन तरह के मस्तिष्क खंडों का वर्णन किया है, मेंटल ब्रेन, सेमेटिक ब्रेन तथा विसरल ब्रेन। सोमेटिक ब्रेन मांसपेशियों को तथा विसरल ब्रेन 'आटोनॉमिक नर्वस सिस्टम' को नियंत्रित करता है। मेंटल ब्रेन फ्रंटल लोब से परिचालित होकर समस्त विचार व चेतना तंत्र को नियमित व संचालित करता है। सामान्यतया इन तीनों मस्तिष्क खंडों का आपस में अच्छा अंतर्संबंध रहता है। तनाव इनके बीच असंतुलन पैदा कर देता है और यहीं से मनोकायिक रोगों की शुरुआत हो जाती है।
इस संदर्भ में तनाव को चार अवस्थाओं में विश्लेषित किया गया है, साइकिक फेज, साइकोसोमेटिक फेज, सोमेटिक फेज तथा आर्गेनिक फेज। साइकिक फेज में व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान रहता है तथा इस दौरान केंद्रीय तंत्रिका तंत्र अति क्रियाशील हो उठता है। रक्त में एसिटील कोलाइन की मात्रा बढ़ जाती है। इसकी अधिकतम मात्रा मस्तिष्क के काडेट नाभिक में तथा न्यूनतम सेरीविलम में होती है। मस्तिष्कीय क्रियाकलापों के आधार पर इसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है। तनाव सर्वप्रथम मस्तिष्क पर दबाव डालता है और एसिटील कोलाइन का स्राव बढ़ जाता है। इससे उद्विग्नता, अति उत्साह, चिंता व अनिद्रा जैसे विकार पैदा हो जाते हैं। यह अवस्था कुछ दिनों से कुछ महीनों तक चलती है। यदि यह स्थिति और लंबी हुई तो यह साइकोसोमेटिक अवस्था में परिवर्तित हो जाती है। इस अवधि में हाइपरटेंशन, कंपकंपी तथा हृदय की धड़कन बढ़ जाती है।
सोमेटिक फेज में कैटाकोलामाइंस अधिक स्रवित होता है। कैटाकोलामाइंस में तीन हार्मोन आते हैं, एडेनेलीन नार एड्रेनेलीन तथा डोपालीन। तनाव से इन हार्मोन के स्तर में वृध्दि हो जाती है। नशे का प्रयोग भी इनकी मात्रा को बढ़ा देता है। तनाव का प्रभाव मनुष्य ही नहीं पशुओं में भी देखा गया है। तनाव से प्रभावित पशुओं के मूत्र परीक्षण में एड्रेनेलीन की मात्रा 2 से 3 नानोग्राम प्रति मिनट तथा नार एड्रेनेलीन 6 से 10 नानोग्राम प्रति मिनट पाई गयी। सर्दी, गर्मी, दर्द आदि से उत्पन्न तनाव में नार एड्रेनेलीन का स्राव बढ़ जाता है। इससे पेशाब के समय जलन होती है। आर्गेनिक फेज, तनाव की अगली अवस्था है। इसमें तनाव शरीर की प्रतिरोधी क्षमता पर बहुत बुरा असर डालता है। तनाव इस अवस्था में आकर मधुमेह, अस्थमा तथा कोरोनरी रोग का रूप धारण कर लेता है। इस दौरान डोपालीन के बढ़ने से व्यवहार में भी गड़बड़ी पायी गयी है।
बाहरी परिस्थितियों की उपज
इसके अलावा भी अनेक ऐसे हार्मोन हैं, जो तनाव से सीधा संबंध रखते हैं। सिरोटीनिन मस्तिष्क की तीन क्रियाओं को संचालित करता है, निद्रा, अनुभव तथा तापमान। तनाव से इसका स्तर बढ़ जाता है। फलस्वरूप अनिद्रा, भूख काम लगना तथा शरीर के तापमान में वृध्दि हो जाने की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। हिस्टामीन शारीरिक विकास तथा प्रजनन में मुख्य भूमिका निभाता है। तनाव की अधिकता इसमें भी व्यक्तिक्रम डालती है। तनाव मुख्य रूप से श्रवणेद्रियों तथा आंखों के माध्यम से मस्तिष्क के सेरिब्रल कार्टेक्स तक पहुंचता है तथा वहां से समस्त शरीर में प्रसारित होता है। पेप्टिक अल्सर, गठिया, दिल का दौरा, मधुमेह आदि बीमारियां इसी के दुष्परिणाम हैं। द्वितीय विश्वयुध्द में युध्द प्रभावित क्षेत्रों में पेप्टिक अल्सर तथा हाइपरटेंशन की अधिकता पाई गयी थी। यह स्थिति बाढ़, भूकंप तथा अन्य प्राकृतिक प्रकोपों से प्रभावित प्रदेशों में भी देखी गयी है। इसके मूल में तनाव को ही जिम्मेदार माना गया है।
इस तरह की आपात परिस्थितियों में तनाव की अपरिहार्यता अपनी जगह है किन्तु जीवन की सामान्य स्थिति में भी तनाव को पूरी तरह बाहरी परिस्थितियों की उपज मानना, तनाव के उपचार के रहस्य से वंचित रह जाना है, क्योंकि तनाव पारिस्थितियों से अधिक मन:स्थिति पर निर्भर करता है। तनाव को बाहरी परिस्थितियों की उपज मानने के कारण ही हम प्राय: उसके उपचार के लिये दवाइयों पर निर्भर रहने की भूल करते हैं, जबकि कोई भी दवा तनाव से उत्पन्न बीमारी को ठीक करने में सफल नही हो सकती। तनाव से न्यूरान व हार्मोन तंत्र बुरी तरह से प्रभावित होता है। तनाव के उपचार के लिये ली गयी दवा, हार्मोन की अतिरिक्त मात्रा को तो नियंत्रित कर लेती है किन्तु ग्रंथि पूर्ववत् ही बनी रहती है और दवा का असर कम होते ही ग्रांथियां पुन: हार्मोन का अत्यधिक स्राव करने लगती हैं तथा रोगी की स्थिति और भी चिंतानजक हो जाती है। अत: तनाव का उपचार मात्र चिकित्सकीय औषधियों द्वारा संभव नहीं है। इसके लिये रोगी को स्वयं अपना चिकित्सक बनना होगा, तभी इसका प्रभावी उपचार हो सकेगा। और इसके लिये आवश्यक है, प्राकृतिक आहार एवं नियमित दिनचर्या, सदचिंतन एवं उदात्त भावनाएं। इसे अपनाकर व्यक्ति तनावजन्य विषाक्त परिस्थिति को क्रमश: तिरोहित करते हुए सुख-शांति से भरी-पूरी स्वर्णिम, परिस्थितियों का निर्माण कर सकता है।
परिस्थितियों से तालमेल जरूरी
इस संदर्भ में कुछ आधारभूत बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। हर व्यक्ति अपने विचारों व भावनाओं में जीता है। उसकी अपनी अच्छाइयां व बुराइयां होती हैं। इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिये कि कहीं हमारी बातों एवं व्यवहार से उसकी भावनाएं तो आहत नहीं हो रही हैं, विचारों को तो चोट नहीं पहुंच रही है। अगर ऐसा हुआ तो वातावरण तनाव के कसैलेपन से भर उठेगा और व्यक्ति तनवग्रस्त हो जायेगा। अत: हमारा व्यवहार ऐसा हो जो किसी के मर्म बिंदु को न छुए। बुराई को सार्वजनिक करने का तात्पर्य है- कीचड़ उछालना। बुराई को रोकने के लिये व्यक्ति को अकेले में प्रेमपूर्वक समझना चाहिये। इसी में इसका समाधान है। कहीं भी व्यक्तिगत तौर पर प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उलझना बुध्दिमानी नहीं है। परिस्थितियां अपनी जगह हैं और व्यक्ति अपनी जगह। परिस्थितियों से तालमेल एवं सामंजस्य बैठाकर आगे बढ़ने में ही समझदारी है। परिस्थिति से तालमेल न बैठा पाना ही तनाव को जन्म देता है। अत: इनसे पलायन नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण समझौता ही एकमात्र निदान है।
इस संदर्भ में व्यक्ति का दृढ़ मनोबल एवं सकारात्मक मनोभूमि अपनी निर्णायक भूमिका निभाती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दृढ़ मनोबल वाले व्यक्ति पर तनाव का प्रभाव अधिक नहीं होता है। 'स्ट्रेस एंड इट्स मैनेजमेंट बाई योगा' नामक सुविख्यात ग्रंथ में के.एन. उडुप्पा, तनावमुक्ति के लिए विधेयात्मक विचारों को अपनाने पर बल देते हैं। वे इसके लिये अनेक प्रकार की यौगिक क्रियाओं का भी सुझाव देते हैं। उडुप्पा ईश्वर पर आस्था को तनावमुक्ति का सर्वश्रेष्ठ व असरदार उपचार मानते हैं। इनका कहना है कि ईश्वर विश्वासी को तनाव स्पर्श नहीं करता है। यह सत्य है कि ईश्वर पर आस्था और विश्वास का मार्ग तनाव के तपते मरुस्थल से दूर शांति के प्रशांत समुद्र की ओर ले चलता है। ईश्वरनिष्ठ व्यक्ति विषम से विषम परिस्थिति में भी तनावरूपी व्याधि को पास फटकने नहीं देता। कबीरदास विपन्न आर्थिक स्थिति में भी अपनी फकीरी शान में मगन रहते थे। मीराबाई अनेक लांछनों एवं अत्याचारों के बावजूद अपने कृष्ण में लीन रहती थी। घोर पारिवारिक कलह के बीच भी तुकाराम की मस्ती में कोई कमी नहीं आती थी। क्रूस पर चढ़ने वाले ईसा, जहर का प्याला पीने वाले सुकरात को परमात्मा पर अगाध और प्रगाढ़ विश्वास था। उनको तनाव स्पर्श तक नहीं कर पाया था। वस्तुत: दाहक व दग्ध तनाव ईश्वर को प्रेमरूपी शीतल जल का स्पर्श पाते ही वाष्प बनकर उड़ जाता है। अत: व्यक्ति को नित्य आत्मबोध एवं तत्वबोध का चिंतन तथा भगवद् भजन करना चाहिये। शिथिलीकरण एवं प्राणायाम जैसी सरल यौगिक क्रियाओं का भी अनुसरण किया जाता है। इन्हीं उपायों से मन को शांत कर तनाव से मुक्त हो पाना संभव है। अत: ईश्वर के प्रति समर्पित भाव से जिया गया आस्था एवं श्रध्दापूर्ण जीवन और सामंजस्यपूर्ण व्यवहार ही तनावरूपी महाव्याधि के उपचार का एकमात्र प्रभावी उपाय है।