आजकल ज्यादातर लोग चाहे वे कर्मचारी हों, व्यापारी हो, अधिकारी हों, किसान
हों, मजदूर हों या शिक्षण से जुड़े हों, अपने-अपने काम में इस कदर व्यस्त
हैं कि उन्हें अच्छे कामों जैसे पूजा पाठ, सत्संग, स्वाध्याय आदि के लिये न
तो समय है और न ही रुचि है। ऐसा होते हुए भी मनीषियों के विचारों पर मनन
करना आवश्यक व लाभकारी है।
यह संसार नाशवान है। यहां की हर चीज नाशवान है। जो आया है वह जायेगा जो बना है वह टूटेगा। जीवन का दूसरा नाम मौत है। मनुष्य यह जानते हुए भी कि कोई चीज उसके साथ नहीं जायेगी, फिर भी दिन रात धन इकट्ठा करने में लगा रहता है। इसलिए मौत और ईश्वर को हर समय याद रखना चाहिये।
बुरे कामों व बुरी संगत से बचना चाहिये। कर्मों का फल अवश्य मिलता है तथा भोगना पड़ता है चाहे इस जन्म में, चाहे अगले जन्म में। जैसा बोओगे, वैसा काटोगे, जैसी करनी वैसी भरनी, जैसा धागा वैसा कपड़ा। परमात्मा की लाठी बेआवाज है। दुष्कर्मों का दंड भुगतना ही पड़ता है। इसी प्रकार किसी का दिल दुखाना, जल कटी सुनाना, ताने देना भी बुरा है। यह पाप है।
अपने खानपान की शुध्दता तथा पवित्रता पर भी ध्यान देना चाहिये। सब प्रकार के नशों व तम्बाकू आदि से भी दूर रहना चाहिये। जैसा अन्न खाओगे, वैसा मन तथा शरीर बनेगा। खाना जीने तथा प्रभु स्मरण के लिये है न कि जीना खाने के लिये है। किसी संत ने बड़ा सुंदर कहा है- दो बातन को याद रख, जो चाहे कल्याण, नारायण इस मौत को दूजे श्री भगवान। बुरा वक्त, बीमारी, दुर्घटना व मौत कह कर नहीं आते। बहुत कुछ पूर्व जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है।
हम बहुधा देखते हैं कि अच्छे आदमी दुखी रहते हैं और बुरे लोग मौज उठाते हैं। ईश्वर के विधान में अच्छे कर्म बुरे कर्मों से घटाये नहीं जाते। धनवान लोग समझते हैं कि वे धन के बल पर सब कुछ ठीक कर लेंगे परंतु यह उनकी भूल है। यदि पैसा ही सब कुछ होता है तो धनवान लोग सुखी व स्वस्थ होते पर ऐसा नहीं है।
पैसे की भी सीमाएं हैं। पैसे से दवा खरीद सकते हैं, सेहतनहीं। पैसे से किताब खरीद सकते हैं, ज्ञान नहीं। पैसे से बढ़िया और स्वादिष्ट भोजन खरीद सकते हैं, भूख व हाजमा नहीं। पैसे से औरत खरीद सकते हैं, प्यार नहीं। पैसे से बढ़िया आरामदेह बिस्तर खरीद सकते हैं, नींद नहीं। पैसे से कार व कोठी खरीद सकते हैं, शांति व संतोष नहीं।
मौत पर एक उर्दू शायर के विचार भी याद रखने के लायक हैं- आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं। मौत को किसी तरह से न रोका जा सकता है, न टाला जा सकता है और न ही इसका इलाज किया जा सकता है। यह पूर्व निर्धारित रहती है और इसमें तीन ‘स’ होते हैं- समय, स्थान और साधन। आदमी अपने आप अर्थात् मरते समय कौन साथ में होगा। ऐसा भी देखने में आता है कि आदमी के परिवार में सब लोग बेटे बेटियां, बहुएं, नाती पोते सब होते हैं पर मरते समय कोई भी पास में नहीं होता।
अंत में कुछ विचार बुढ़ापे, बीमारी तथा कष्टों पर देने भी जरूरी है। एक फारसी के कवि ने बड़ा सुंदर कहा है- ऐ बूढ़े! तेरे कौए के पंखों जैसे काले बालों पर बरफ की सफेदी पड़ चुकी है। अब तुझ को बुलबुल की तरह बाग में गाना, नाचना अठखेलियां करना शोभा नहीं देता। बूढ़ा आदमी जब देखता है कि कोई भी इसके निकट नहीं आ रहा तो वह लगातार राम, हाय राम पुकारता है चाहे उसने अपनी जवानी के दिनों में कभी भी श्रीराम, श्रीराम न कहा हो। रोग के कारण जब आदमी की शारीरिक क्षमता समाप्त हो जाती है और कोई भी इसका सहाई नहीं होता, तब वह हाय राम, हाय राम उचारता रहता है चाहे उसने अपनी तंदुरुस्ती के दिनों में कभी भी श्रीराम न कहा हो।
इसी प्रकार असफलता का मुंह देखने पर जब आदमी को कोई मुंह नहीं लगाता या रुपये पैसे की कमी के कारण जब किसी तरफ से कुछ भी लाभदायक सहायता नहीं मिलती तो व्यक्ति हाय राम, हाय राम कहता रहता है चाहे उसने संपन्नता और मौज मेले के दिनों में कभी श्रीराम श्रीराम न कहा हो।
यदि आदमी चाहता है कि इसको कभी भी निराशा का मुंह न देखना पड़े या उदास न होना पड़े तथा हाय राम, हाय राम न कहना पड़े तो हर हालत में व हर समय श्रीराम, श्रीराम कहता रहे। श्री राम का नाम ही जीवन का सहारा है। यही जीवन का पथ प्रदर्शक है।
यह संसार नाशवान है। यहां की हर चीज नाशवान है। जो आया है वह जायेगा जो बना है वह टूटेगा। जीवन का दूसरा नाम मौत है। मनुष्य यह जानते हुए भी कि कोई चीज उसके साथ नहीं जायेगी, फिर भी दिन रात धन इकट्ठा करने में लगा रहता है। इसलिए मौत और ईश्वर को हर समय याद रखना चाहिये।
बुरे कामों व बुरी संगत से बचना चाहिये। कर्मों का फल अवश्य मिलता है तथा भोगना पड़ता है चाहे इस जन्म में, चाहे अगले जन्म में। जैसा बोओगे, वैसा काटोगे, जैसी करनी वैसी भरनी, जैसा धागा वैसा कपड़ा। परमात्मा की लाठी बेआवाज है। दुष्कर्मों का दंड भुगतना ही पड़ता है। इसी प्रकार किसी का दिल दुखाना, जल कटी सुनाना, ताने देना भी बुरा है। यह पाप है।
अपने खानपान की शुध्दता तथा पवित्रता पर भी ध्यान देना चाहिये। सब प्रकार के नशों व तम्बाकू आदि से भी दूर रहना चाहिये। जैसा अन्न खाओगे, वैसा मन तथा शरीर बनेगा। खाना जीने तथा प्रभु स्मरण के लिये है न कि जीना खाने के लिये है। किसी संत ने बड़ा सुंदर कहा है- दो बातन को याद रख, जो चाहे कल्याण, नारायण इस मौत को दूजे श्री भगवान। बुरा वक्त, बीमारी, दुर्घटना व मौत कह कर नहीं आते। बहुत कुछ पूर्व जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है।
हम बहुधा देखते हैं कि अच्छे आदमी दुखी रहते हैं और बुरे लोग मौज उठाते हैं। ईश्वर के विधान में अच्छे कर्म बुरे कर्मों से घटाये नहीं जाते। धनवान लोग समझते हैं कि वे धन के बल पर सब कुछ ठीक कर लेंगे परंतु यह उनकी भूल है। यदि पैसा ही सब कुछ होता है तो धनवान लोग सुखी व स्वस्थ होते पर ऐसा नहीं है।
पैसे की भी सीमाएं हैं। पैसे से दवा खरीद सकते हैं, सेहतनहीं। पैसे से किताब खरीद सकते हैं, ज्ञान नहीं। पैसे से बढ़िया और स्वादिष्ट भोजन खरीद सकते हैं, भूख व हाजमा नहीं। पैसे से औरत खरीद सकते हैं, प्यार नहीं। पैसे से बढ़िया आरामदेह बिस्तर खरीद सकते हैं, नींद नहीं। पैसे से कार व कोठी खरीद सकते हैं, शांति व संतोष नहीं।
मौत पर एक उर्दू शायर के विचार भी याद रखने के लायक हैं- आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं। मौत को किसी तरह से न रोका जा सकता है, न टाला जा सकता है और न ही इसका इलाज किया जा सकता है। यह पूर्व निर्धारित रहती है और इसमें तीन ‘स’ होते हैं- समय, स्थान और साधन। आदमी अपने आप अर्थात् मरते समय कौन साथ में होगा। ऐसा भी देखने में आता है कि आदमी के परिवार में सब लोग बेटे बेटियां, बहुएं, नाती पोते सब होते हैं पर मरते समय कोई भी पास में नहीं होता।
अंत में कुछ विचार बुढ़ापे, बीमारी तथा कष्टों पर देने भी जरूरी है। एक फारसी के कवि ने बड़ा सुंदर कहा है- ऐ बूढ़े! तेरे कौए के पंखों जैसे काले बालों पर बरफ की सफेदी पड़ चुकी है। अब तुझ को बुलबुल की तरह बाग में गाना, नाचना अठखेलियां करना शोभा नहीं देता। बूढ़ा आदमी जब देखता है कि कोई भी इसके निकट नहीं आ रहा तो वह लगातार राम, हाय राम पुकारता है चाहे उसने अपनी जवानी के दिनों में कभी भी श्रीराम, श्रीराम न कहा हो। रोग के कारण जब आदमी की शारीरिक क्षमता समाप्त हो जाती है और कोई भी इसका सहाई नहीं होता, तब वह हाय राम, हाय राम उचारता रहता है चाहे उसने अपनी तंदुरुस्ती के दिनों में कभी भी श्रीराम न कहा हो।
इसी प्रकार असफलता का मुंह देखने पर जब आदमी को कोई मुंह नहीं लगाता या रुपये पैसे की कमी के कारण जब किसी तरफ से कुछ भी लाभदायक सहायता नहीं मिलती तो व्यक्ति हाय राम, हाय राम कहता रहता है चाहे उसने संपन्नता और मौज मेले के दिनों में कभी श्रीराम श्रीराम न कहा हो।
यदि आदमी चाहता है कि इसको कभी भी निराशा का मुंह न देखना पड़े या उदास न होना पड़े तथा हाय राम, हाय राम न कहना पड़े तो हर हालत में व हर समय श्रीराम, श्रीराम कहता रहे। श्री राम का नाम ही जीवन का सहारा है। यही जीवन का पथ प्रदर्शक है।
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