भारत का विचार दर्शन और जीवन पध्दति संतोष की शिक्षा देती है। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास, कर्म के प्रति आस्था और फल के प्रति विरक्ति का संगीत यहां सुनाई देता है। संतोष का यह भाव जीवन में सादा रहन-सहन और उच्च विचार में दिखाई भी देता है। हम युगों से इस विचार को जी रहे हैं और इसी की शिक्षा जन्म से दी जा रही है फलस्वरूप धन-वैभव, सम्पत्ति के प्रति बहुत ललक सामान्यजन में नहीं पाई जाती। हमारे देश में एक लोकोक्ति प्रचलित है- 'रुखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी, मत ललचाए जी' इसी प्रकार एक अन्य कवि लिखता है- 'गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान'।
ऐसा नहीं है कि भारतीय कहावतें और साहित्य ही यह कहते हैं। हमारे देश के धार्मिक ग्रंथ और शास्त्र भी हमें संतोष ग्रहण करने की शिक्षा देते हैं। श्रीमद् भगवद् में कहा गया है- 'जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड और कांटों से कोई भय नहीं होता, ऐसे ही जिसके मन में संतोष है उसके लिए सर्वदा सब जगह सुख ही सुख है, दु:ख है ही नहीं। (7/15/17) पवित्र ग्रंथ श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय चार और बारह में संतोष धारण करने को कहा गया है। श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है- 'जो स्वत: होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वैत भाव से मुक्त है औरर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता और असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता।' इसी प्रकार बाहरवें अध्याय में कहा गया है- 'जो सुख दु:ख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें, मन तथा बुध्दि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है' इसी प्रकार 19वें श्लोक में कहा गया है- 'किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, वह पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमें सभी दूर सुनाई देता है। इस जयगान में कर्म करने को मना नहीं किया गया है। लोकोक्ति कहती है- 'देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी' अर्थात् लोभ, लालच, प्रलोभन के प्रति हमें सावधान किया गया है क्योंकि यही हमारे लिए तनाव, चिन्ता और दु:ख के कारण हैं। श्रीमद् भगवद गीता भी कहती है- जोर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता' ध्यान दीजिए।र् ईष्या है दु:ख का कारण, इसलिए संतोष ग्रहण करने का निर्देश है। कर्म तो करना ही है। सफलता-असफलता का प्रश्न तो तभी उठेगा जब हम कर्म करेंगे। श्रीमद् भगवद गीता युध्दभूमि में गाया गान है। वह कर्मयोग की शिक्षा देता है, इसलिए सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से युध्द करने की प्रेरणा भगवान देते हैं किन्तु कर्म फल के प्रति आसक्ति के दोष के रूप मेंर् ईष्या-जलन से मुक्ति के लिए संतोष को आवश्यक बताया गया है। यदि हम तनाव मुक्त, चिन्ता मुक्त होना चाहते हैं तो निरंतर कर्मरत रह कर भी अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठकर हमें सोचना ही पड़ेगा।
संतोष का जयगान क्यों
हमें यह समझ लेना चाहिए कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमारी सुख शान्ति और समृध्दि के लिए ही किया गया है। इस संबंध में महाभारत के आदि पर्व में वेदव्यासजी जो कहते हैं उस पर ध्यान दीजिए- 'रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा स्वर्ण, सारे पशु और स्त्रियां किसी पुरुष को मिल जाए, तो भी वे सबके सब उसके लिए पर्याप्त नहीं होंगे, वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझ कर शान्ति धारण करें, भोगेच्छा को दवा दें' क्या यह सच नहीं है? इस सच से आज तक कोई इंकार नहीं कर सकता। चाणक्य नीति में कहा गया है- धन, जीवन, स्त्री और भोजन के विषय में सब प्राणी अतृप्ता होकर गए हैं, जाते हैं और जाएंगे' कठोपनिषद में कहा गया है- 'मनुष्य की तृप्ति धन से कभी नहीं हो सकती।'
मनोविज्ञान भी मानता है कि मनुष्य की इच्छाएं अनन्त होती हैं। प्रतिदिन उठती है, बदलती है और आदमी को चंचल करती रहती है। पश्चिमी विचारधारा धन और सम्पत्ति के प्रति ही हमारा असंतोष प्रकट करती है। उसका स्पष्ट संदेश है कि सुख और शान्ति, समृध्दि और सुविधाओं के आधार पर प्राप्त होती है और इन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करना चाहिए। वे खुली प्रतियोगिता और मुक्त व्यापार पर हमारा ध्यान दिलाते हैं जिसके कारण सक्षम योग्य व्यक्ति ही अधिकतम धन अर्जन कर सुख शान्ति पाता है। पश्चिमी विचारधारा इसलिए घोषणा करती है कि जीवन में असंतोष आवश्यक है। आज जो भी प्रगति विज्ञान ने की है उसका श्रेय भी इसी असंतोष को दिया जाता है। भारत सदा से संतोष के गीत गाता रहा इसलिए यहां विज्ञान ने कोई प्रगति नहीं की। हम हर क्षेत्र में पिछड़ गए। कुछ विद्वानों का तो यह भी मत है कि हमारी संतोष वृत्ति के कारण ही हम आलस्य, उदासीनता के मकड़जाल में फंसकर गुलाम बन गए। जीवन में असंतोष हमें कार्य करने, आगे बढ़ने और सुख सुविधाएं देने की प्रेरणा देता है।
क्या यह सच है
यह एक ऐसा विचार है जिस पर हमें ध्यान अवश्य देना चाहिए। हमारे देश में एक कहावत है- 'पैसा पैसे को खींचता है' हमारा अनुभव भी यही है। बड़े उद्योगपतियों के हाथ लम्बे होते हैं। वे विशाल उद्योगों के द्वारा अपनी व्यवस्थाएं ऐसी बनाते हैं जो उनके फलने-फूलने के अनुकूल हो। पवित्र ग्रंथ बाईबिल का भी ऐसा ही संदेश है कि जिसके पास है उसे और दिया जाएगा।
ऐसा नहीं है कि भारत में इस संदेश का ज्ञान नहीं था। भारतीय संस्कृत कवि माघ शिशुपाल वध में कहते हैं- 'मैं ऐसा मानता हूं कि जो अपनी थोड़ी सी सम्पत्ति से ही संतुष्ट हो जाता है विधाता भी स्वयं को कृत्य कृत्य मानकर उसकी सम्पत्ति को नहीं बढ़ाता' इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष का फल स्पष्ट रूप से कड़वा दिखाई देता है।
असंतोष के परिणाम
पश्चिम जगत की दृष्टि व्यक्तिवादी है। वह व्यक्ति के उन्नयन को ही देश और समाज की उन्नति मानता है। पश्चिम में इसलिए निस्संदेह भौतिक प्रगति की है, पश्चिम की दृष्टि 'देह दृष्टि' है। शरीर के अतिरिक्त आत्मा या अन्त:करण होता है, इस ओर उसका ध्यान नहीं है। मानव का अधिकतम कल्याण अर्जन में है- ऐसा वे मानते हैं। उनकी दृष्टि को गलत भी नहीं कहा जा सकता।
विचारणीय प्रश्न यह है कि इस विचार का अंतिम परिणाम क्या होता है। अंतिम परिणाम ही महत्वपूर्ण होता है। इस संबंध में अंग्रेज पादरी टामसफुलर जो कहते हैं उस पर विचार कीजिए। वे कहते हैं- 'यदि तुम्हारी इच्छाएं अनन्त होगी तो तुम्हारी चिन्ताएं व भय भी अनन्त ही होगी।' ऐसा ही संकेत कवि गेटे देते हैं, वे कहते हैं- 'जो स्रोत स्वत: तेरे हृदय से फूट कर नहीं निकलता है, उससे तुझे सच्ची तृप्ति कदापि नहीं मिल सकती।'
उपरोक्त दोनों मत को जान लेने के बाद अब यह विचार करना आवश्यक हो गया है कि असंतोष के मार्ग पर चल कर हमारे भय, तनाव, चिन्ता, अवसाद बढ़ तो नहीं गए हैं? क्या इस मार्ग पर चल कर हम अधिक सुख शान्ति का भोग कर रहे हैं? समृध्दि ने हमारे लिए नई नई सुविधाएं प्रदान की हैं। उससे हमें विश्राम का अधिक समय मिल रहा है? हम कला, संगीत, साहित्य को समृध्द कर रहे हैं। हमारे परिवार अधिक प्रेम, अपनत्व, त्याग और सेवा के गुणों को अपना रहे हैं? समाज और देश में भाईचारा बढ़ा है? सहयोग बढ़ा है, धन सम्पत्ति के अर्जन से वृध्द अपना बुढ़ापा सुखपूर्वक काट रहे हैं। बच्चों में बचपन अधिक आनन्ददायक हो गया है, क्या है इसके परिणाम?
हम सब जानते हैं इन प्रश्नों के उत्तर। असंतोष की आग में सभी जल रहे हैं।र् ईष्या, द्वेष की ज्वाला हमें जला रही है। भाईचारा समाप्त हो गया है। किसी के पास जहर खाने के लिए समय नहीं है। सभी अत्यधिक व्यस्त है, पढ़ना लिखना हम भूल रहे हैं, साहित्य, कला, संगीत, संस्कृति के लिए समय कहां? तनाव, अवसाद बढ़ गए हैं। हृदयरोग, रक्तचाप, डाइबिटीज जैसी बीमारियां अपना साम्राज्य जमा बैठी है। क्या युवा, क्या बालक निराशा के गर्त में न्यायालय पहुंच रहे हैं। परिवारों के झगड़े पुलिस स्टेशन और न्यायालय पहुंच रहे हैं, तलाक बढ़ गए हैं। बचपना संकटग्रस्त है। इन स्थितियों के लिए पश्चिमी हवा का असंतोष ही तो कारण है।
इतना ही नहीं आज, अभी इसी समय करोड़पति बनने की होड़ में राजतंत्र पर घोटाले, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद और खाद्य पदार्थों में मिलावट, नकली दवाइयां के उद्योगों से बाजार भर गया है। कोई किसी पर विश्वास नहीं कर रहा। नारी देह का व्यापार हो या बलात्कार आम बात जैसी लगती है। धन चाहिए- चाहे जैसे मिले, तब सुख शांति, समृध्दि के स्वप्न कहां देख सकते हैं।
हमारे देश की गुलामी का कारण संतोष धारण करना नहीं, वरन् वह लोभ और लालच रहा जिसने जयचन्द और मीर जाफर पैदा किए। आज भी धन के मायाजाल में बड़े-बड़े राजनेता, अधिकारी, पूंजीपति, पत्रकार उलझते दिखते हैं। तब याद आता है कि यह असंतोष की अवधारणा ही है जो देश को देश नहीं समझती। हमारी गुलामी का कारण लोभ, प्रलोभन था जो असंतोष की उपज है। हमारे तनाव, अशान्ति, दु:ख, चिन्ता का कारण हमारे अन्दर ही है। उसका इलाज हमें अपने आप ही करना होगा। हमारेर् ईष्या, द्वेष, लालच, लोभ का इलाज दुनिया में कहीं नहीं है। हमने ही अपने अंदर आग लगाई है, हम ही इसे संतोष के जल से बुझा सकते हैं। भारतीय दर्शन में इसीलिए संतोष का जयगान किया गया है। असंतोष की आग कभी खत्म नहीं हो सकती। सादा जीवन उच्च विचार ही इसकी एकमात्र दवा है।
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