Wednesday, March 30, 2011

लाइलाज नहीं है उदासी

आत्मविश्वास में कमी आ जाने से व्यक्ति अपने को नाकारा समझ निराशा के गर्त में डूबता चला जाता है। छोटी-छोटी सी बातें उसे उद्वेलित करने लगती है। वह जीवन से सहज ही हार मान कर कभी आत्महत्या तक करने की सोच बैठता है।
ऐसे में उनका बहक जाना भी मुश्किल नहीं। जरा से फुसलाए जाने पर वह शराब के नशे की लत लगा बैठता है। मेनिक डिप्रेसिव के लक्षण उसमें उभर आते हैं जैसे कभी अत्यधिक प्रसन्न प्रफुल्लित तो कभी बेहद दुखी डिप्रेस्ड।
औरतों में उदासी के लक्षण कई बार उनमें बायलॉजिकल परिवर्तन से संबंधित हो सकते हैं। गर्भधारण, रजोनिवृत्ति, मासिक चक्र से पहले या डिलीवरी के बाद उनमें उदासी के फिट पड़ सकते हैं।
आज की तनावभरी जिन्दगी भी इसकी उत्तरदायी मानी जा सकती है उसके अलावा जेनेटिक कारण तो हैं ही।
अगर माता-पिता इस मानसिक रोग से पीड़ित हैं तो बच्चे में इस रोग की आशंका 40 प्रतिशत होती है, किसी एक के पीड़ित होने पर इसकी आधी। हार्मोन का असंतुलन भी उदासी का कारण हो सकता है।
शहरी तनाव का आलम यह है कि बचपन से ही जहां बच्चा नर्सरी में जाने लायक हुआ, उसका बचपन उससे छिनने लगता है। नॉलेज दिमाग में ठूंस-ठूंस कर भरी जाती है। बच्चे के दिमाग पर बहुत स्ट्रेस डाल उसे 'चाइल्ड प्रोडिजी' बनाने की ललक माता-पिता को बच्चे के प्रति संवेदनशील बना देती है।
इससे तंत्रिका तंत्र में समूची या कुछ कमी से उदासी घिर जाती है।
ऐसा नहीं है कि यह बीमारी लाइलाज हो। अगर उचित विधिवत् सही इलाज मिले तो रोग दूर किया जा सकता है। इलाज के सही तरीके हैं- दवाएं, सलाह, मनोचिकित्सा और इलेक्ट्रिक शॉक।
भूलकर भी ओझाओं या झाड़-फूंक करने वालों के चक्कर में न पड़ें। इससे बीमारी ठीक होने के बजाय और बढ़ेगी। इस तरह के ढोंगी लोग आपकी जेब तो साफ करेंगे ही, कभी कभी मरीज की जान भी चली जाती है।
मन से या किसी से भी पूछकर कोई भी दवा कभी न लें। डिग्री होल्डर अनुभवी डाक्टर की सलाह पर चलें।
डिप्रेशन के मरीजों के लिए मनोचिकित्सा तथा सलाह (काउंसलिंग) उपयोगी है। मनोचिकित्सा में रोगी के अंतर्मन की थाह ली जाती है। कई बार रोगी में बचपन से पलती आ रही कुछ ग्रंथियां चिकत्सक के सामने खुलती है। ऐसा उनकी एक्सपर्ट बातचीत के द्वारा ही संभव हो पाता है। बीमारी की जड़ पकड़ में आने पर आगे का इलाज आसान हो जाता है।
केस गंभीर होने तथा मरीज में आत्महत्या की प्रवृत्ति होने पर इलेक्ट्रिक शॉक देकर मरीज का इलाज किया जाता है।
मानसिक रोगों को लेकर समाज में कई गलतफहमियां हैं। लोग इसे रोग नहीं समझते। परिणामस्वरूप वे रोगी से सहानुभूति न रख उसका मजाक बनाने से नहीं चूकते। इससे स्थिति और बिगड़ती है।
मानसिक रोग किसी के अपने हाथ की बात तो नहीं। अन्य रोगों की तरह यह रोग ही है। इसके उपचार में रोगी के परिवार का सहयोग आवश्यक है। रोगी को चाहिए परिवार का स्नेह, प्यार, अपनापन और विश्वास। उसे दिल खोलकर बात करने के लिए प्रेरित करें।
अगर आपको लगता है कि रोगी आत्महत्या कर सकता है तो आपकी उसके प्रति जिम्मेदारी अत्यधिक बढ़ जाती है अगर वह आपका अपना है तो उसे एकाकी न छोड़ें और नींद की गोलियां, छुरी व चाकू जैसे हथियार उसके पास न रहने दें। अगर भावावेश में वह अपना या परिवार का कोई भारी नुकसान करने की सोचे तो उसे धैर्य से समझाएं बगैर उसे यह महसूस कराए कि वह कम अक्ल या नीम पागल है। रोगी स्नेह प्यार मिलने पर जल्दी ठीक हो सकता है। दवाइयां तो अपना असर करती ही हैं।

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