Wednesday, April 20, 2011

दुख का कारण है अस्वस्थ तनमन

मनुष्य दृश्य जगत का सबसे संवेदनशील प्राणी है जो न केवल भौतिक कारणों से अपितु मानसिक और सामाजिक कारणों से भी दुखी होने के अवसर ढूंढ ही लेता है। प्रकट में सभी मनुष्य सुख की तलाश करते प्रतीत होते हैं किन्तु अन्तत: सभी सुख, दुख का द्वार बन जाते हैं। आईये जानने का प्रयास करें कि दुख क्या और क्यों है?
दुख के कारण : सुख की गलत दिशा में तलाश ही दुख का कारण है। स्वस्थ होना ही सुख है। इसे थोड़ा समझने की आवश्यकता है। दुख के दो स्वरूप प्रकट हैं- एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। यदि हम शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं तो हमें शारीरिक दुख और यदि मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं तो मानसिक दुख प्राप्त होता है। शारीरिक और मानसिक दुख एक दूसरे को प्रभावित करने वाले हैं अर्थात् शारीरिक दुख के कारण मानसिक और मानसिक दुख के कारण शारीरिक दुख हमें प्राप्त होना अवश्यम्भावी है।
चिकित्सा विज्ञान में यह तथ्य प्रमाणित है कि हमारी शारीरिक प्राियाओं में जैविक रसों की आवश्यकता होती है जो कि हमारे ही शरीर में उत्पादित होते हैं। यह रस पाचन, चालन और उत्सर्जन ाियाओं को प्रभावित करते हैं। मन की दशा इन रसों के उत्पादन को प्रभावित करती है, इसलिये मानसिक स्वास्थ्य से हमारे शरीर की भौतिक स्थिति प्रभावित होती है।
इसी प्रकार इन रसों के उत्पादन में हमारे खान-पान, हमारी दिनचर्या और हमारे आसपास के वातावरण में ताप, नमी, आक्सीजन और प्रदूषक तत्वों का प्रभाव भी पड़ता है। इसलिये यदि इन भौतिक कारणों से जीवन-रसों का उत्पादन प्रभावित होता है तो इन रसों के प्रभाव से हमारा मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है।
एक स्वस्थ शरीर में ही एक स्वस्थ मन निवास करता है। यह पारस्परिक निर्भरता का मामला है। मन शरीर पर और शरीर मन पर निर्भर है। क्रोध, चिंता, भय आदि मनोदशाओं में पाचन, चालन और उत्सर्जन में रुकावट इसी कारण आती हैं और हम बीमार हो जाते हैं।
दुख का कारण स्वस्थ (शारीरिक या मानसिक) न रहना है। स्वस्थ रहने का अभिप्राय क्या है? स्वस्थ होने का अर्थ है- स्वयं में स्थित होना। क्या हमने स्वयं को पहचाना है? यदि नहीं तो स्वयं को न जानना ही स्वस्थ न होने का प्रथम कारण है। जो स्वयं को जान जाता है, वह सरलता से स्वस्थ रह सकता है। स्वयं को जानने का दावा करने वाले स्वस्थ होने या स्वस्थ रहने में कठिनाई अनुभव करते हों तो या तो उन्होंने स्वयं को ठीक से जाना नहीं और यदि जाना है तो स्वस्थ रहना उनके स्वभाव में नहीं है।
दुख का निदान स्वस्थ रहना : दुख न हो इसके लिये हमें स्वस्थ रहना होगा। स्वस्थ रहने के लिये स्वयं को जानना होगा। जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि शरीर और मन मिलकर व्यक्ति हैं तो स्वयं को जानने के लिये हमें अपने शरीर और मन दोनों को जानना होगा। शरीर को जानने से तात्पर्य है कि हमें शरीर की आवश्यकताओं और क्षमताओं को जानना चाहिये।
हमारे शरीर की बनावट और आयु के अनुसार हमारी आवश्यकताएं होती हैं। इन आवश्यकताओं को हम भोजन, वायु, जल, ताप, विश्राम, मुद्राओं के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। प्रत्येक शरीर के लिये आवश्यकतायें भिन्न होती हैं। आवश्यकताओं से अधिक ग्रहण करना शरीर के लिये बोझ है, दायित्व है जो शरीर की क्षमताओं को प्रभावित करता है।
दूसरा पहलू है शरीर की क्षमताओं को जानना। हर व्यक्ति की शारीरिक क्षमताएं भी भिन्न होती हैं। इन क्षमताओं को अभ्यास से थोड़ा बढ़ाया भी जा सकता है। अपनी क्षमता को पहचानना और उस क्षमता का पूरा उपयोग करना शरीर को स्वस्थ रखने का अनिवार्य साधन है। यदि हम क्षमता का पूरा उपयोग नहीं करते हैं तो अनाभ्यास के कारण क्षमता का क्षरण होने लगता है और शरीर को आलस्य, प्रमाद जैसे विकार घेरने लगते हैं और हम धीरे-धीरे अस्वस्थ हो जाते हैं।
क्षमता से अधिक शरीर का उपयोग करना भी पड़े तो यह तात्कलिक होना चाहिये न कि निरंतर। तात्कालिक रूप से क्षमता से अधिक शरीर का उपयोग करने के बाद विश्राम उसे पूर्व स्थिति में ले आता है किन्तु निरंतर क्षमता से अधिक श्रम करने से शरीर की कोषिकाएं नष्ट तो हती हैं और उन्हें पुनर्निर्माण का अवसर नहीं मिलता, अत: शरीर अस्वस्थ हो जाता है। इसलिये यहां भी क्षमता का सम्यक उपयोग ही स्वस्थ रहने के लिये अभिप्रेत है, न कम न ज्यादा।
व्यक्ति का दूसरा और वास्तविक स्वरूप है उसका मन। यद्यपि मन शरीर में रहता है और किसी सीमा तक शरीर के स्वास्थ्य पर निर्भर भी है किन्तु उसकी स्वतंत्र सत्ता भी है। एक सबल शरीर के भीतर दुर्बल मन हो सकता है और एक दुर्बल शरीर के भीतर दृढ़ चित्त भी हो सकता है। मन शरीर को भूलकर भी, कोई भी गति कर सकता है। ऐसी दशा में वह शरीर की पीड़ा से मुक्त भी होता है। इसलिये मन के स्वास्थ्य को शरीर के स्वास्थ्य से भिन्न दृष्टि से समझना होगा। मन वास्तव में सूक्ष्म शरीर की तरह है, जो शरीर के जन्म के समय भी वयस्क होता है। यह भी कहा जा सकता है कि मन ही शरीर धारण करता है।
मन का संचित कोष कितना पुराना है और मन कितनी दूरी तक समय और दिशाओं में उड़ान भर सकता है, इसकी अभी तक सही गणना नहीं हो सकी है, इसलिये कह दिया जाता है कि मन अनंत जन्मों की यात्रा करता है और अनंत लोकों की भी।
अपने मन को जानने के लिये हम वर्तमान से आरंभ करना होगा। अभी और यहां- यही है हमारे मन को नापने के पैमाने का शून्य। अभी और यहीं से आरम्भ करें तो हम पायेंगे कि दुख का कोई भी कारण अभी और यहीं उपस्थित नहीं है। हमारे सारे मानसिक दुख भूत और भविष्य में तैरते मिलेंगे। भूत का पश्चाताप और भविष्य की चिंताएं।
घटित घटनाएं उलट नहीं सकतीं अर्थात् Reversible नहीं है। भविष्य का स्वरूप काल्पनिक है और अवश्यम्भावी Certain नहीं है। केवल वर्तमान है जिसका हमें उपयोग करना है और वास्तव में वर्तमान में कोई दुख ठहर नहीं सकता। मन को वर्तमान में स्थिर करना ही मन का स्वस्थ रहना है।

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