प्रसिध्द यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस ने एक बार कहा था कि क्रोध मूर्खता से आरंभ होता है और पश्चात्ताप से इसका अंत होता है। सदियों पहले कही गयी यह बात आज भी शत प्रतिशत सच है। क्रोध करना एक महज मानदी वृति है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसे क्रोध न आता हो। सच तो यह है कि अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनी भी अपने क्रोध पर विजय प्राप्त करने में असफल देखे गये हैं। किंतु सिर्फ इसलिए क्रोध पर नियंत्रण पा का कोई प्रयत्न ही नहीं किया जाए, यह बात वस्तुत: स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि सभी जीवों में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो क्रोध की हानियां जानता है और साथ ही उसके दायरे को निश्चित ही कम भी कर सकता है।
अन्य संवेगों की तरह क्रोध भी व्यक्ति की एक विचलित और विक्षुब्ध अवस्था है। यह न केवल भावनात्मक स्तर पर, बल्कि मनुष्य को उसके बौध्दिक और व्यवहारगत स्तर पर भी विचलित करता है। मनुष्य गुस्से की गिरफ्त में अपनी बुध्दि खो बैठता है, उसका स्वाभाविक आचरण असहज हो जाता है और फिर क्रोध कोई सुखद अनुभूति भी नहीं है। इतना ही नहीं, क्रोध में व्यक्ति की शारीरिक स्थिति सामान्य नहीं रह पाती। मांसपेशियां या तो तन जाती हैं, या फिर एकदम शिथिल पड़ जाती हैं। उसकी रासायनिक ग्रंथियां ज्यादा या कम काम करने लगती हैं। होंठ सूख जाते हैं। आंखों में आंसू भर आ सकते हैं। चेहरा लाल पड़ जाता है, शरीर कांपने लगता है।
व्यक्ति पूर्णत: अशांत हो जाता है। ऐसे में आदमी आखिर क्या करे? क्रोध मनुष्य को जितना कुरूप और पाशविक बनाता है, शायद ही कोई अन्य चीज उसे इतना विकृत करती हो। लेकिन क्रोध की अभिव्यक्ति को दबाना तो क्रोध को खुले तौर पर व्यक्त करने से भी अधिक खतरनाक हो सकता है। शायद इसलिए कहा गया है, 'गुस्सा थूक दो भाई। अपनी भड़ास निकाल दो।' एक अच्छे और सटीक शब्द के अभाव में इसे क्रोध का भड़ासवादी सिध्दांत कहा जा सकता है।
बेशक क्रोध का दमन क्रोध को नष्ट नहीं करता। गुस्सा अपनी अभिव्यक्ति के लिए कोई दूसरा और शायद ज्यादा खतरनाक रास्ता ढूंढ लेता है और इस प्रकार लगातार क्रोध का दमन शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्ति को अस्वस्थ कर सकता है। लेकिन भड़ास निकालना भी इसका कोई स्वीकार करने योग्य समाधान नहीं है। निश्चित ही कुछ देर के लिए जब आप आपे से बाहर होकर गाली देते हैं, मारपीट करते हैं, तोड़फोड़ मचाते हैं, तो आपका विक्षोभ थोड़ा कम होता है। लेकिन इससे सामने वाले के मन में, जिस पर आप भड़ास निकाल रहे होते हैं, एक तीव्र प्रतिक्रिया भी होती है, जो पूरी परिस्थिति पर अपना प्रभाव डालती है और उसे दूषित कर सकती है। क्रोध करना दूसरों में उत्तेजना जगाना है। मालाबार में एक कहावत है कि गुस्सा करना बर्र के छत्ते में पत्थर मारना है। ध्यान देने की बात यह है कि क्रोध सदैव परिस्थितिजन्य होता है। अत: क्रोध के साथ हमारा सही बर्ताव क्या हो, यह समझने के लिए जरूरी है कि हम उस परिस्थिति के मूल में जाएं, जो क्रोध उत्पन्न करती है, और उन कारकों को ही दूर करें जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। अत: न तो क्रोध का दमन सही है और न ही भड़ास निकालना। क्रोध के कारकों का विश्लेषण ही उसे शांत कर सकता है।
हमें चाहिए कि हम अपने क्रोध को थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दें। सिनेका ने कहा था कि क्रोध का सर्वोच्च इलाज विलम्ब है। शायद इसलिए क्रोध आने पर इससे पहले कि आप गुस्से में कोई नाजायज हरकत कर बैठें, 10 तक गिनती गिनने के लिए कहा जाता है। अधिक गुस्से में बेशक 100 तक गिनिए। लेकिन क्रोध रहते कोई काम न करें। शांत होने के बाद परिस्थिति का आकलन करें।
कुछ लोग क्रोध के लिए क्रोध करते हैं। वे तामसिक हैं। कुछ अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए क्रोध करते हैं। उनकी वृति राजसिक है। लेकिन एक क्रोध सात्विक क्रोध हो सकता है, जो न्याय प्रियता के आग्रह को उपजता है। यह सही बात पर दृढ़ रहने के लिए हमें बल देता है। सत्य के लिए हमारे उत्साह को बढ़ाता है। अत: गुस्सा आने पर हमेशा चुप रहे, यह जरूरी नहीं है। यदि क्रोध का मुद्दा कोई ऐसा है, जिसका सामाजिक नैतिक आयाम भी है तो बेशक लड़ पड़िए। लेकिन संयम यहां भी अनिवार्य है। बुध्दिमानी इसी में है कि आपका क्रोध सीमित दायरे में रहे। ऐसा क्रोध घृणा में कभी नहीं बदलता। जब मनुष्य सात्विक क्रोध में होता है तो आप पाएंगे, वह आश्चर्यजनक रूप से शांत भी रहता है। उबलिए नहीं। अपने क्रोध को एक सर्जनात्मक दिशा दीजिए और इसका उपयोग समाज को सही मोड़ देने के लिए कीजिए।
Bahut saarthak aalekh ......
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