हमारा समाज जिस तीव्रता से प्रगति व आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर है, उसका प्रभाव मानव-मस्तिष्क पर भी पड़ा है। आज हर व्यक्ति में 'ईगो' की भावना पनाप रही है। ईगो यानी अहम् व 'स्वाभिमान' का वास्तविक अर्थ अब अहंकार बन चुका है।
अहंकार, कभी धन, कभी शिक्षा, तो कभी सौंदर्य और वैभव आदि के रूप में मानव के हृदय में इस कदर समा चुका है कि व्यक्ति जाने-अनजाने दूसरे का अनादर कर बैठता है।
अहंकारी व्यक्ति को लगता है कि सारी दुनिया उसी के अनुसार चल रही है तथा वह जो चाहे, पल भर में हो सकता है। वह हर समय अपने झूठे गर्व भरे मार्ग पर चलता रहता है भले ही इससे किसी का अहित हो, लेकिन उस पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। उसका एकमात्र उद्देश्य अपनी कल्पनाओं व अहम् की उड़ान भरना होता है।
अहंकार के शिकार लोगों का मानना है कि वही संसार के सर्वेसर्वा हैं। वे हर समय, हर किसी के समक्ष अपने छोटे-छोटे कारनामों को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। ऐसा करने के पीछे उनकी यही मानसिकता होती है कि वे अत्यंत महान और आत्मविश्वासी हैं और सहज ही किसी को अपनी ओर आकर्षित करने की कला में पारंगत हैं जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसे लोग मात्र मुंह के शेर होते हैं। उनके मन में किसी कोने में यह आत्मबोध भी छुपा होता है कि वे डरपोक और कमजोर है और अपनी इसी खामी को छुपाने के लिए वे अपनी झूठी तारीफों के पल बांधते हैं।
यद्यपि अहंकार और अहं भाव में काफी अंतर है तथापि आज अपने बढ़ते महत्व को देखते हुए अहंकार ने अहंभाव को भी अपना दाल बना लिया है। धन, पद, विद्या, रूप, बल व सौंदर्य आदि में पारंगत होना कोई बुरी बात नहीं और इसमें भी कोई बुरी बात नहीं और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इन सभी गुणों से युक्त व्यक्ति का स्वाभिमान और सर्वयुक्त स्वभाव उसे दूसरों से उच्च रखता है लेकिन इस स्वाभिमान व गर्व को अहंकार में बदल देना वाकई निंदनीय है।
सही मायनों में इन सभी गुणों में वास्तविक प्रवीण वह व्यक्ति है जो इनका उपयोग समाज के हित और उन्नति में करते हैं। जिस प्रकार सूर्य व चन्द्रमा अपनी रोशनी व शीतलता प्रकृति को बांटते हैं धरती अपना सारा अन्न जीवों को बांटती है, उसी प्रकार व्यक्ति को अपने गुण समाज को समर्पित कर देने चाहिए।
अहंकार की विस्तृत विवेचना की जाये तो यही सार निकलता है कि अहंकार का अर्थ है भौतिक वस्तुओं एवं शारीरिक क्षमताओं व उपलब्धियों पर इतराना मात्र। अहंकारी व्यक्ति यह भूल जाता है कि अहंकार एक असत्य और झूठ जिसका कोई अस्तित्व नहीं। वह अकेला है, उसके साथ संसार नहीं होता। सभी सत्य के साथ होते हैं। मधुर वाणी सभी को मोहित कर लेती है तथा सहृदयी व्यक्ति अपने गुणों से सभी के हृदय पर राज कर सकता है, तो फिर अहंकार का मूल्य क्या है, केवल शून्य!
बलशाली, धनवान, ज्ञानवान और जनप्रिय व्यक्ति के पास जब इतने अमूल्य गुण हैं तो उसके हृदय में अहंकार का काम क्या? उसे अहंकार से ग्रसित होने से क्या फायदा और यदि वह फिर भी अहं का दास बनता है तो इसका मतलब है कि इन गुणों को उसने पूरी तरह प्राप्त नहीं किया और यदि कर लिया है तो अहंकार उन सभी को शीघ्र नष्ट कर देगा। एक शायर ने इसी संदर्भ में कितना सुंदर व सटीक शेर कहा है-
जो माहिर होते हैं, फन में, उछलकर वो नहीं चलते।
छलक जाता है पानी, कायदा है ओछे बरतन का॥
मनोचिकित्सिकों का मानना है कि अहंकार एक प्रकार से मानसिक रोग है, जो मानव की मानसिक विषमता से पनपता है। इसके पीछे घृणा, वैर और अत्यधिक उपलब्धियों का सहयोग होता है।
एक अन्य अध्ययन के अनुसार यदि अहंकार का की प्रवृत्ति पर ध्यान दिया जाये तो पता चलता है कि अहंकार के प्रमुख कारक शारीरिक बलिष्ठता, धन व सौंदर्य आदि क्षणिक मात्र है अर्थात् शारीरिक बलिष्ठता पर अहंकार करना आपराधिक प्रवृत्ति है।
धन पर अहंकार करना लोभी होने का इशारा करता है और सौंदर्य पर गर्व करने से वासना का उपासक होने का संकेत मिलता है। इन भौतिक संपदाओं पर कैसा अहंकार करना, जब यह इस शरीर के साथ यही समाप्त हो जायेंगी।
अहंकार व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ता नहीं बल्कि रिश्ते बिखेर देता है और यदि कुछ देता है तो सिर्फ आपसी वैमनस्य, घृणा, कुंठा व रंजिशें, अत: अपने गुणों पर गर्व करें लेकिन अहंकार नहीं। उन्हें दूसरों के हित में उपयोग करें न कि अपनी ही तारीफें बटोरने हेतु।
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