आज देश और दुनिया के जो हालात है वे कोई बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। ऐसा नहीं है कि दुनिया में तरक्की नहीं हुई है। कहां हिंसक जनवरों के बीच रहने वाला गुड़ा-मानव और कहां कंकरीट की गगनचुम्बी अट्टालिकों में रहने वाला आज का शहरी मानव? कहां दिन भर भोजन की खोज में खाईयों-खंदकों को फांदने वाला मानव और कहां आलीशान पांच सितारा होटलों में षड़रसभोजी मानव? कहां पत्रों और छालों के खुरदरे कपड़े पहनने वाला मानव, कहां सिन्थेटिक्स के फूल से हल्के-फुल्के रंगबिरंगे चिकने-चमकीले कपड़े पहनने वाला मानव? कहां एयरबसों और उपग्रहों में ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा करने वाला मानव, कहां प्राकृतिक आपदाओं से घिरा भयभीत मानव? कहां रेडियो, टेलीविजन से रात-दिन मनोरंजन करने वाला मानव, कहां निरक्षर भट्टाचार्य मानव, कहां डिग्रियों का भारी बोझा ढोने वाला मानव? सचमुच आकाश-पाताल का अंतर है। पर प्रश्न उठता है क्या पहले की तुलना में मानव आज ज्यादा शांत, सुखी है।
क्या मनुष्य सुखी बना?
शहरों में जन-संकुलता, कोलाहल, प्रदूषण तथा औद्योगिक हलचल इतनी बढ़ गई है कि मानव उससे तंग आ गया है। भले ही अब भी कुछ लोग पेट की खातिर महानगरों की ओर दौड़ रहे हैं, पर वहां का रहन-सहन इतना अकुलाने वाला हो गया है कि उससे विरक्ति होने लगी है। कृत्रिम स्वाद और स्वार्थी मानसिकता ने भोजन को इतना चटपटा और मिलावटी बना दिया है कि आदमी का स्वास्थ्य ही गड़बड़ाने लगा है। सभ्यता ने उस पर इतने कपड़े लाद दिए हैं कि वह स्वयं चलता-फिरता मॉडल बन गया है। जंगली जानवरों के भय से मुक्त मानव आज आतंकवाद से परेशान हो गया है। बोइंग विमानों एवं राकेटों में घूमने वाला मानव बीमारियों एवं दुर्घटनाओं से दु:खी हो गयी है। उच्च शिक्षा प्राप्त मानव विविध सर्टिफिकेट लिए नौकरी की तलाश में दफ्तरों का चक्कर लगा रहा है।
दु:ख की जड़ कहां है?
तो क्या सचमुच आदमी आज दु:खी है और यदि वह दु:खी है तो कहां है उसके दु:ख की जड़ें? निश्चय ही ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा को समुद्यत मानव फिर से गुफा-मानव नहीं बन सकता। स्वर्ग और नरक को भी वह माने या न माने यह एक अलग सवाल है, पर क्या वह अपने अन्दर निर्मित होने वाले स्वर्ग और नरक से बच सकता है? सचमुच मानव का सुख और दु:ख उसके अपने अन्दर ही निर्मित होता है।
मानसिक दु:ख
असल में मनुष्य का दु:ख आज देह का नहीं अपितु मानव-प्रसूत है। वह बाहर से तो भरा हुआ है, पर अंदर से खाली है। अन्दर का खालीपन ऊपर भी उभरकर आ रहा है। दवाईयां और ट्रेंक्वेलाइजर्स उसे भर नहीं सकते। भले ही आदमी ने नशीली दवाइयों से अपने आपको दु:ख मुक्त करने की कोशिश की हो पर सच तो यह है कि आज वह अपने ही द्वारा निर्मित वैतरणी में फंस गया है। बाहरी समृध्दि आदमी के अंदर के खालीपन को नहीं कर सकती। इसका यह अर्थ नहीं है कि आदमी की जीने के लिए पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। रोटी-पानी के बिना वह जी नहीं सकता। पहनने के लिए कपड़े भी आवश्यक है। रहने के लिए मकान भी आवश्यक है। पर ये सब साध्य नहीं है। ये सब साधन हैं। आज सबसे बड़ी भूल यही हो रही है कि साधनों को ही साध्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
अतिरिक्त अमीरी
जब पदार्थ ही साध्य बन जाता है तो उसे प्राप्त करने की शुध्दता की प्रतिबध्दता नहीं रह जाती। यदि आदमी का साध्य शांति हो तो वह उसी में आनंद का अनुभव कर सकता है जो उसे उपलब्ध है। पदार्थ की आखिर कहीं अंतिम सीमा नहीं हो सकती। बाहरी आकांक्षा हमेशा आगे से आगे बढ़ती जाएगी। यदि मनुष्य की दौड़ बाहर न होकर अन्दर की ओर हो जाए तो उसे जो कुछ प्राप्त है वह उसे भी ठुकरा सकता है। महावीर और बुध्द के पास वैभव की कोई कमी नहीं थी, पर अन्दर की अमीरी जागी तो उन्होंने राजघाट को भी ठुकरा दिया।
साधन ज्यादा, सुख कम
यदि हम आज की तुलना में पुराने जमाने को देखें तो स्पष्ट आभास होगा कि आज जितनी सुख सुविधाएं आम आदमी को प्राप्त है वे पुराने जमाने के शहंशाहों को भी प्राप्त नहीं होगी। मैं जमीन और धन की बात नहीं करता। हो सकता है पुराने शहंशाहों के पास अपार वैभव और जमीन ज्यादा रही होगी, पर साधनों की दृष्टि से देखा जाए तो आज आदमी को जितनी सुख-सुविधाएं प्राप्त है उतनी पुराने अमीरों के पास नहीं थी। फिर भी यदि आज का आदमी सुखी नहीं है तो केवल इसीलिए नहीं है कि वह बाहर की दौड़-दौड़ रहा है। गरीब लोगों की बात छोड़ भी दें, जिनके पास प्रभूत पैसा है वे लोग शायद हैरान है। इसका कारण यही है कि बाहरी दौड़ आदमी को शांति प्रदान नहीं कर सकती। उससे लिए तो मनुष्य को अपने अंदर में ही मील का कोई पत्थर लगाना पड़ेगा।
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