यह तथ्य न केवल सर्वविदित है वरन् प्रत्येक का अनुभव भी है कि आज का जीवन व्यस्त और तनावपूर्ण है। युवा वृध्द, स्त्री, पुरुष, व्यवसायी और नौकरी पेशा, गरीब और अमीर हर वर्ग तथा हर स्तर का व्यक्ति तनावग्रस्त है। यों तनाव का सामान्य अर्थ मानसिक तनाव से लिया जाता है पर वस्तुत: तनाव तीन प्रकार के होते हैं- शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनाव।
लंबे समय तक लगातार एक ही प्रकार का काम करने और अत्यधिक श्रम करने के कारण जो थकान उत्पन्न होती है उसे शारीरिक तनाव कहा जाता है।
मानसिक तनाव बहुत अधिक सोचने-विचारने या चिंता करने से उत्पन्न होता है। एक घंटे बाद परीक्षा फल घोषित होने वाला है तो दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर हैं, रात में किसी की सहसा याद आ गई तो नींद गायब, यही है- भावनात्मक तनाव।
सामान्यत: घरों में तनाव का कारण पति-पत्नी का आपसी तालमेल न बैठ पाना होता है। पत्नियां, पतियों को उकसाती व उत्तेजित करती हैं और पति, पत्नियों को रसोई आदि के लिये तंग करते हैं। परस्पर संतुलन न बैठ पाने से दोनों तनाव से ग्रसित हो जाते हैं इसका दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता के बीच अनबन व कलह देखकर बच्चे भी तनाव से आक्रान्त हो जाते हैं, फलत: पूरा घर ही नरक बन जाता है। इस नरक से त्राण पाने का रास्ता एक ही है कि परस्पर सामंजस्य बैठाया जाय। प्रेम-आत्मीयता, सद्भावना, सहयोग आदि से वही परिवार स्वर्गीय आनंद का उपवन बन सकता है जो जरा से मतभेद एवं नासमझी के कारण नरक बन गया था। वर्तमान समय में 50 प्रतिशत से अधिक रोगी तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप रोगग्रस्त पाये गये हैं। चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार सिरदर्द, चक्कर आना, आंखों में सुर्खी आना, काम में मन न लगना और लकवा आदि जैसे रोगों का आक्रमण हो जाना, ये सभी अत्यधिक तनाव के ही दुष्परिणाम हैं। ऐसे लोग प्राय: रोगों की उत्पत्ति के लिये कभी मौसम को, कभी आहार को, कभी दूसरों को दोष देते हैं। अधिक तनाव शरीर व मन दोनों के लिये हानिकारक हैं। स्नायुविक तनाव-विशेषज्ञ डा. एडमण्ड जैकवसन का कहना है कि हृदय रोग, रक्तचाप की अधिकता अल्सर, कोलाइटिस आदि सामान्यत: दिखाई देने वाले रोग प्रकारान्तर से तनाव के ही कारण उत्पन्न होते हैं। स्ायु दौर्बल्य, अनिद्रा, चिंता, खिन्नता आदि अनेक रोग तनाव के फलस्वरूप होते हैं।
मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि हृदय रोग का कारण अज्ञात भय, चिंता है, जो अन्तर्मन में व्याप्त हो जाती है। नतीजा यह होता है कि मनुष्य की स्वाभाविक खुशी व प्रफुल्लता छिन जाती है।
इससे रक्तवाहिनी नसें थक जाती हैं। कभी फट भी जाती है, फलत: मस्तिष्क में लकवा भी हो जाता है और शक्कर देने वाली क्लोम ग्रंथियां भी खाली हो जाती हैं और क्लोम रस मिलना बंद हो जाता है। यह ग्रंथि प्रसन्नता के अभाव में कार्य करना बंद कर देती है और क्लोम रस देना भी बंद कर देती है। क्लोम रस न मिलने से शर्करा स्वतंत्र हो जाती है और मूत्र के साथ बहने लगती है। इसी को मधुमेह कहते हैं। मधुमेह रोने, पछताने व शोक करने से भी हो जाता है। तनाव से मुक्त रहने के लिये सूक्ष्मदर्शियों ने यही कहा है कि अपनी क्षमता भर अच्छे से अच्छा काम करें। इसमें बाहरी सहायता या मार्गदर्शन कुछ विशेष कारगर सिध्द नहीं होता। अपने द्वारा उत्पन्न किए तनाव को कोई दूसरा दूर कैसे कर सकता है? तनाव को व्यक्ति स्वयं ही नियंत्रित एवं दूर कर सकता है? दूसरों का मार्गदर्शन थोड़ा बहुत उपयोगी हो सकता है।
स्वाध्याय के द्वारा सहज ही पता चल जाता है कि निरर्थक एवं महत्वहीन बातों को अधिक तूल दे दिया गया और अकारण ही तनाव को आमंत्रित कर लिया गया। वस्तुत: यह झाड़ी के भूत की कल्पना मात्र थी। अपने को तनावग्रस्त न होने देने के लिये दृढ़ निश्चय, लगन एवं सतत् निष्ठापूर्वक सद्कार्यों में नियोजित किए रहना ही सर्वोत्तम उपाय है। सदा सहनशीलता से काम लिया जाए, भविषष्य के भय से भयभीत न हुआ जाय, वास्तविकता को दृष्टिगत रखा जाय, काल्पनिक बाधा या आशंका को स्थान न दिया जाय, वर्तमान में सामने आये काम को पूरी तत्परता से सम्पन्न किया जाय, उसी के संबंध में सोचा जाय, आशावान रहा जाय। ऐसा करने से स्वयं ही अपने भीतर इस प्रकार की शक्ति का अनुभव होगा जो समस्याओं को सुलझाने में सहायक होगी।
No comments:
Post a Comment