Thursday, August 11, 2011

मन को शत्रु नहीं, मित्र बनाओ

मन शरीर का एक शक्तिशाली और कमजोर हिस्सा है बस उसका उपयोग हमें वैसा करना पड़ता है जैसे कहा गया है कि मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। अगर हम किसी भी काम में अपने मन से हार जाएंगे तो हमें हार की प्राप्ति होगी अगर मन को सफलता प्राप्ति के उस स्तर तक कर्म करने में लगाएंगे तो जीत अवश्य होगी।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।

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