Wednesday, December 19, 2012

बड़ा शक्तिशाली है हमारा मन

मन को एक महाशक्ति माना गया है। जिस तरह हमारे समूचे कायतंत्र-संचालन मन द्वारा होता है, उसी प्रकार सृष्टि का-समूचे विश्व-ब्रह्माण्ड नियमन-संचालन विराट मन से होता है। मानवीय मन चेतन और अचेतन नामक दो प्रमुख भागों में विभक्त होता है। अचेतन मन रक्तभिसरण, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास जैसे अनवरत गति से होते रहने वाले क्रियाकलापों का नियंत्रण करता है। चेतन मन के आदेश से ज्ञानेंद्रियां, कर्मेद्रियां, एवं दूसरे अवयव काम करते हैं। अनियंत्रित मन अस्त-व्यस्त हो जाता है और विभिन्न प्रकार की बेढंगी हरकतें-हलचलें करने लगता है। शरीर को नीरोग एवं परिपुष्ट रखने के लिए मन को संयमी और सदाचारी, निर्मल और पवित्र बनाना पड़ता है।


मन मस्तिष्क की जानकारी

निष्कपट, पवित्र, सुसंस्कारित एवं प्रखर मन जब विराट मन से जुड़ जाता है तो वह सुपरचेतन स्तर को प्राप्त कर लेता है। यही वह क्षेत्र है, जिसे ॠध्दि-सिध्दियों का भांडागार कहा जाता है। आत्मा को परमात्मा से, व्यष्टि से समष्टि को मिलाने में यही मन सेतु का काम करता है। अब तो मनोविज्ञानियों, परामनोवेत्ताओं एवं अनुंसधार्नकत्ता चिकित्साविदों ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि मानसिक क्षेत्र की विकृतियां ही शरीर और मस्तिष्क को रुग्ण एवं विक्षुब्ध बनाती हैं। मानसिक परिशोधन के बिना न तो आरोग्य समस्या का पूर्ण समाधान हो सकता है और न जीवन की अन्यान्य समस्याएं ही सुलझ सकती हैं। मानसिक परिष्कार के बिना अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में तो एक पग भी आगे नहीं, बढ़ा जा सकता। मनःशक्ति जड़ जगत और चेतन जगत के बीच का एक महत्वपूर्ण सेतु है, घटक है। इसलिए लौकिक जीवन में इसका सर्वोपरी महत्त्व है। जेनेटिक साइंस के नवीनतम शोधों ने यह भी रहस्योद्धाटन किया है कि शरीर की समस्त कोशाएं तथा परमाणु पूरी तरह मनःशक्ति के नियंत्रण में हैं। यही क्रम वंश -परंपरा में भी तथा मरणोत्तर जीवन में समानरूप से गतिशील बना रहता है। मनोवेत्ता फ्रायंड के 'सुपरईगो' आदि की परिधि तक सीमित मन को प्रख्यात जर्मन मनोवैज्ञानिक हेंस बेंडर अतींद्रिय क्षमता तक ले जाने में सफल हुए। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। टेलीपैथी पर अत्यधिक खोज-बीन करने वाले मूर्ध्दन्य परामनोवेत्ता रेनेबार्क लियर के अनुसार मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिध्दांतों द्वारा संभव नहीं है। अतः इसके क्रियाकलापों के लिए भी इससे परे सोचने-समझने की बुध्दि विकसित की जानी चाहिए। तभी चेतना से अथवा चेतना से परे जाकर संबंध, संपर्क बना पाना संभव है और यह सब मानसिक परिष्कार के बिना संभव नहीं हैं। यों तो भौतिक विज्ञानी मन-मस्तिष्क को एक मानकर उसी की खोज-बीन में गंभीरतापूर्वक संलग्न हैं। इतने पर भी तन-मस्तिष्क की समूची जानकारी अभी उनके हाथ नहीं लगी, अन्यथा उसमें एक से एक बढ़कर विलक्षणाताएं और संभाावनाएं सन्निहित हैं। मस्तिष्कीय परमाणु में भार, घनत्व, विस्फूटन तथा चुंबकीय क्षेत्र का भौतिक परिचय देने वाले तत्त्वों की खोज करते समय वैज्ञानिक ऐसे अतिसूक्ष्म विद्युतीय कणों के संपर्क में आए हैं, जिनमें भौतिक परमाणु जैसे लक्षण नहीं हैं। ये विद्युतकण आकाश में स्वच्छंद बिचरण करने में सक्षम हैं। इनमें भौतिक परमाणुओं को वेधकर निकल जाने की क्षमता है। इन कणों का नियंत्रण-नियमन भी संभव नहीं है। इन्हें पकड़कर स्थिर भी नहीं किया जा सकता। इन कणों की उपस्थिति का बोध भी परस्पर टकराव कारण हो पाता है। वैज्ञानिक इन कणों को ही अतींद्रिय क्षमताओं के विकास के लिए उत्तरदायी मानते हैं। सुप्रसिध्द, गणितज्ञ एवं विज्ञानवेत्ता एड्रियो हॉब्स ने इन काणों को 'न्यूट्रिनो' नाम दिया है, तो कुछ वैज्ञानिक इन्हें 'माइण्डास', 'साइन्नोंस', आदि नामों से पुकारते हैं। अनुसंधार्नकत्ता वैज्ञानिकों का कथन है कि जब मस्तिष्क के न्यूरोन कण इन माइण्डांस कणों के संपर्क में आते हैं, तब पूर्वाभास जैसी घटनाओं की अनुभूति होती है। इससे सिध्द होता है कि ब्रह्मांडव्यापी घटनाओं का मूल उद्गम एक है तथा मानवीय मनश्चेतन का उससे किसी न किसी रूप में संबंध अवश्य है। साइन्नोन कणों का मस्तिष्कीय चेतन पर किस तरह प्रभाव पड़ता है, इस पर वैज्ञानिक गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं। सुप्रसिध्द विज्ञानी एक्सेल फेरिसिस का इस संबंध में कहना है कि जब साइन्नोन कण न्यूरोन कणों से मिलते हैं, तब माइण्डान या माइन्जेन नामक ऊ र्जा कणों का जन्म होता है। इससे मनुष्य का ब्रह्मांडव्यापी चैतन्य ऊर्जा से स्वतः संबंध स्थापित हो जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणों से समूचा विश्व-ब्रह्मांड भरा पड़ा है और ये प्रकाश की गति से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचते हैं। उनके अनुसार ये कण निर्बाध रूप से अहर्निश हमारी काया के आर-पार आते-जाते रहते हैं। एक गणितीय आकलन के अनुसार एक व्यक्ति के पूरे जीवनकाल में कुल 1024 माइण्डान्स या न्यूट्रिनो कण शरीर से गुजर चुके होते हैं। हमारी मानसिक विचार-तरंगें इन्हीं तरंगों पर, कणों पर सवार होकर सृष्टि के एक कोने से दूसरे कोने तक तथा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचती हैं। इसमे प्रमुख भूमिका इसके वाहक कणों की ही रहती है। हमारे माइण्डान्स जितने परिशोधित, परिष्कृत एवं प्रचंड होंगे, हम दूसरों को प्रभावित करने एवं सहयोगी बनाने में उतने ही अधिक सफल होंगे।

ध्यान धारण के प्रयोग

हमारी मनश्चेतना विराट मन से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। भूल व अज्ञानतावश हम इस तथ्य से अनभिज्ञ बने रहते हैं और विराट चेतना के दिव्य अनुदानों से वंचित रहते हुए, दी-हीन जीवन व्यतीत करते हुए अंततः इस संसार से खाली हाथ विदा हो जाते हैं। मन पर चढ़े हुए कषाय-कल्मषों की परतों को यदि उतार फेंका जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि हम उसी विराट चेतना के अंश हैं और घनिष्टता से उससे जुड़े भी हुए हैं। परमाणु सत्ताकी सूक्ष्मप्रवृत्ति का विश्लेषण करते हएु भौतिक विज्ञानी भी अब इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि एक ही अणु के दो सक्रिय इलेक्ट्रॉन यदि पृथक दिशा में कर दिए जाएं, तब भी वे अपना संबंध एवं संपर्क-सूत्र बनाए रखते हैं। वे कितनी ही दर क्यों न रहें, दर्पण के प्रतिबिंब की तरह अपनी स्थिति का परिचय एक दूसरे को देते रहते हैं। किसी प्रकार यदि एक इलेक्ट्रॉन को प्रभावित किया जाए, तो दूर रहते हुए दूसरा स्वतः प्रभावित होता है। चेतना के क्षेत्र में तो यह बात और भी घनिष्ठता से लागू होती है। वेद-उपनिषद्, दर्शन सहित समूचा आर्य वाड्मय इस सत्य को प्रमाणित करता है। आइस्टीन, रोजेन, पॉटोलस्की जैसे विश्वविद्यालय व महान वैज्ञानिकों ने भी इसी सत्य का प्रतिपादन करते हुए यह माना है कि इस छोटे से घटक की तरह ही समूचा विश्व-ब्रह्मांड एक सूत्र-संबंध में पिरोया हुआ है।



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