विश्व की विभिन्न वस्तुओं का मोह आत्मा को कैद कर लेता है। मनुष्य की छोटी-छोटी वस्तुओं में मनोवृत्ति संलग्न बनी रहती है। जितना अधिक मोह, उतना ही अधिक बंधन, उतनी ही अधिक मानसिक अशांति। विश्व की चमक-दमक में जितना विलीन होंगे, उतना ही आत्मबल गुप्त होता जाएगा।
एक सन्त विश्व से वैराग्य लेकर, संसार की सम्पूर्ण माया-ममता का बंधन तोड़कर, संन्यास लेकर वन में तप हेतु चले गए। विश्व का परित्याग कर निरन्तर साधना में लीन हो गए। साधना करते-करते अनेकानेक वर्ष बीत गए। मन पर संयम तथा उन्नत वृत्तियों पर शासन करने लगे। एक दिन क्या देखते हैं कि उनके आश्रम में दो सौ फुट की दूरी पर जानवरों का झुण्ड हरी घास चरने आ रहा है। इतने में एक भेड़िया आक्रमण करके झुण्ड से एक बकरी ले भागा। उस बकरी का बच्चा छूट गया। सन्त महोदय को दया आ गई, वे उस बकरी के बच्चे को उठा लाए। पालने लगे, उस बच्चे हेतु जल और हरी घास की व्यवस्था करने लगे। दो महीने में ही मेमने का स्वास्थ्य बनने लगा। मोह-ममता गहरी होने लगी। उस बकरी के बच्चे की छाया हेतु एक झोपड़ी का सन्त ने निर्माण किया। घास आदि की व्यवस्था की। तात्पर्य यह कि जिस विश्व को छोड़कर सन्तजी घर से चले गए थे मोहवश फिर उसी भवसागर में फंस गए। उनकी आत्मा बकरी के बच्चे में तल्लीन हो गई।
व्यक्ति का मोह घर, वैभव-विलास, पुत्र-पुत्री तथा छोटी-छोटी अनेक वस्तुओं के प्रति होता है। यही मोहवश है। जब उनकी किसी चीज को किसी तरह की हानि मिलती है या किसी स्वार्थ पर चोट आती है, तब आत्मा को कष्ट मिलता है। मन की शान्ति भंग हो जाती है। व्यक्ति भीतर ही भीतर कष्ट का अनुभव करने लगता है। पुत्र का मोह व्यक्ति की आत्मा का सबसे बड़ा बंधन है। परिवार में किसी को कुछ हो जाये तो आपका मन दु:ख से भर जाता है। पुत्र से आप कुछ आशा करते हैं, पूरी न होने पर आपको पीड़ा होती है।
आपके पास एक घर है परन्तु आप एक फ्लैट और खरीदना चाहते हैं। यही नया बंधन है। आवश्यकता से अधिक कुछ भी रखना, विभिन्न प्रकार के शौक, धन की तृष्णा, फैशनपरस्ती, भोग-विलास की अतृप्त कामना ही आत्मा के बंधन हैं। इनमें से प्रत्येक वस्तु में बंधकर मनुष्य फड़फड़ाया करता है। आपको बांधे हुए हैं। जब कभी आपका मन शान्ति का लाभ उठाना चाहते हैं, तब इनमें से कोई भोग-पदार्थ आपको खींचकर पुन: पहले वाली स्थिति में ला पटकता है।
उदाहरण के लिए, आप घर पर एक कुत्ता पाल लेते हैं। एक प्राणी का परिवार में आगमन आत्मा पर एक नवीन बंधन होगा। उसके स्वास्थ्य, भोजन, आवास, हर्ष-विषाद की अनेक चिन्ताएं आपको जकड़ लेंगी। परिवार में पला हुआ प्रत्येक जीव आपकी आत्मा को जकड़ कर रखता है। आपके परिवार का प्रत्येक सदस्य आपसे एक प्राकर से बंधा है। यही ऋण-बंधन है। विलास की वस्तुएं, जिनके एक दिन न होने से आप दु:ख का अनुभव करते हैं, आपका बंधन है। मादक द्रव्य जैसे शराब सुरा, तम्बाकू, सिगरेट, पान-मसाला, काफी-चाय आदि वस्तुएं, जिनसे आप बंधे हैं, आपको आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने नहीं देते। आपका प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक उत्तरदायित्व आप पर बंधन स्वरूप होकर आता है। यदि आपको बढ़िया परिधान व कीमती कपड़े पहनने का व्यसन है तो इनकी अनुपलब्धता में आप अपने मन की शान्ति भंग कर लेंगे। यदि किसी दिन सामान्य भोजन प्राप्त हुआ और आप नाक-भौं सिकोड़ने लगे तो यह भी मन की शान्ति को भंग करने वाला है। दो-चार दिन के लिए भी आपको साधारण घर, कुटी या धर्मशाला में रहना पड़े तो आप बिगड़ ही उठते हैं।
यह सब इसलिए है कि आपने विविध रूपों से अपने आपको कृत्रिमताओं से बांध लिया है। आत्मतत्व को खो दिया है। आप आवश्यकता से ज्यादा सांसारिक वस्तुओं में लिप्त हैं। अपनी आत्मा के प्रति ईमानदारी से व्यवहार नहीं करते हैं। आपका सम्बन्ध विश्व की इन अस्थिर एवं क्षणिक सुख देने वाली वस्तुओं से नहीं हो सकता। आप उत्तम वस्त्रों में अपने जीवन के निरपेक्ष सत्य को नहीं भूल सकते। आप स्वतंत्र, संसार के क्षुद्र बंधनों से उन्मुक्त आत्मा हैं। आप वस्त्र नहीं, आभूषण नहीं, संसार के भोग-विलास नहीं, प्रत्युत सत्-चित्-आनन्द स्वरूप आत्मा हैं। आपका निकट संबंध आदि स्रोत परम-परमात्मा से है। उसी सत्ता में विलीन होने से आत्मसंतोष प्राप्त होता है। आपके जो संबंध अपने संसार में बंधे हुए हैं, वे दु:ख स्वरूप हैं। मृत्यु से जो आपको भय प्रतीत होता है, उसका कारण यही सांसारिक मोह है। माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि कोई भी संबंधी आपके साथ हमेशा नहीं रह सकता। यह बाहरी बंधन है। सबसे उत्तम मार्ग तो यह है कि इनमें रहते हुए भी सदा अपने आपको अलग समझा जाए। जैसे कमल जल में रहते हुए भी सदा जल से पृथक रहता है, उसी प्रकार सांसारिक बंधनों में रहते हुए, गृहस्थ केर् कत्तव्यों का पालन करते हुए भी सदैव अपने आपको विश्व से पृथक देखिए।
आत्मबोध हो जाने के बाद ही मोह के बन्धनो से बच सकता है इंसान्।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (13/9/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
nice post !
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