एक पुरानी एवं प्रसिध्द कहावत है 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' इस कहावत के निहितार्थ बहुत गहरे हैं। सहज ही समझ में आ जाता है कि यह उक्ति जीवन के गहरे अनुभवों से उपजी होगी। रोजमर्रा के जीवन में भी कभी-कभी यह देखने को मिल जाता है कि यदि मन किसी कारणवश प्रसन्न है तो उस दिन की परेशानियां अन्य दिनों की तरह बोझिल नहीं लगती। अन्यथा इसके ठीक विपरीत स्थिति में जब मन पर किसी चिन्ता-फिक्र का बोझ होता है, तब व्यक्ति को हर कदम पर, हर बात में तनाव की अनुभूति होती है।
यह चिन्ता-फिक्र स्वयं में कई आयाम समाये होती है। यह एक ऐसी जटिल संरचना की तरह है जो किसी भी छोर से शुरू होकर किसी भी अनचाहे मुकाम या तमाम मुकामों तक पहुंच सकती है। व्यक्ति बस एक बार चिन्ता-फिक्र की डोर से जुड़-भर जाये, फिर आगे की गति उसके नियंत्रण से बाहर होती है। मन किसी बिन्दु से शुरू करता है और उसका अन्त वहां होता है, जिसकी उसने कभी कामना भी नहीं की होती है। मानसिक तनाव व्यक्ति को इस प्रकार नियंत्रित कर लेते हैं कि उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक दिवास्वप्न बनकर रह जाती है।
तनाव एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता दो विरोधाभासी बातें हैं। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि मन पर तनाव का बोझ ढोता हुआ व्यक्ति उस बोझ के दबाव से सर्वथा अनभिज्ञ होकर जिये जा रहा है। उसे एहसास ही नहीं हो पाता है कि वह किसी किस्म का तनावपूर्ण जीवन जी रहा है। अगर आप इस किस्म के किसी व्यक्ति, जो कि आपको प्रत्यक्षत: तनावमय जीवन जीता हुआ दिखाई दे रहा है, कहें कि आप इतना तनाव न लिया करें तो उसे विस्मय होता है। वास्तव में वह झूठ नहीं बोल रहा होता है, जब वह आपको चौंका देने वाला उत्तर देता है कि- 'मैं तो मजे में हूं। मैं तो कभी टेंशन लेता ही नहीं हूं।' ऐसा इसलिए होता है कि व्यक्ति धीरे-धीरे तनाव के साथ ही जीने का इस कदर आदी हो चुका होता है कि वह भूल ही जाता है कि तनावरहित मन:स्थिति कैसी होती है।
आपने अक्सर पाया होगा कि घर में या आफिस में किसी से हॉट-टॉक हो जाने पर, एक बार मन का संतुलन, उसकी लय खो जाने के बाद आप न जाने कितने लोगों से व्यवहार करने में बिना चाहे ही क्रोध से या भय युक्त आचरण करने लगते हैं। कभी बच्चों पर चिल्लाते हैं तो कभी पत्नी पर, कभी सहकर्मियों से दुखड़ा रोते हैं तो कभी अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं।
यह सारी स्थितियां स्वस्थ वातावरण को बिगाड़ देती हैं। अत: यह जरूरी हो जाता है कि मन को यथासंभव प्रसन्नता से युक्त रखा जाए। यह बात कहने-सुनने में जितनी आसान है, अभ्यास करने में उतनी ही कठिन है। यदि मन की प्रसन्नता पाना इतना ही आसान होता तो हर व्यक्ति सुखी होता और संसार स्वर्ग से सुहावना स्थल होता। फिर कोई भी ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' नहीं कहता।
दरअसल, मन को प्रसन्नता से युक्त रखने के लिए लगातार प्रयास करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए कोई जादुई पध्दति नहीं है। यह सतत् प्रयास पूर्वक स्वयं के व्यक्तित्व में झांककर, उसका विश्लेषण करके उसके कमजोर घटकों को रूपान्तरित करके ही पायी जा सकती है। सुखी जीवन के लिए प्रसन्नता से बड़ी संजीवनी शक्ति कोई नहीं है। अत: इसके लिये आवश्यक प्रयास फिर वे चाहे कितने ही श्रमसाध्य क्यों न हों, अवश्य किये जाना चाहिए।तनावरहित मन शरीर को भी स्वस्थ रखता है। चित्त की प्रसन्नता से आस-पास का वातावरण भी महकने लगता है। जिस प्रकार तनाव एक संक्रामक बीमारी है जो अपने चारों तरफ तनाव के स्पन्दन फैला देती है, उसी प्रकार प्रसन्नता भी संक्रामक होती है जो अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को उत्साह, उमंग एवं सकारात्मक से भर देती है। अत: यह कतई समझदारी नहीं कही जा सकती कि आप अपने ऊपर तनाव का बोझ लादे फिरते रहें, जबकि प्रयास करके आप उस बोझ को न सिर्फ उतार फेंक सकते हैं, बल्कि उसके स्थान पर प्रसन्नता की संजीवनी शक्ति धारण कर सकते हैं। समझ गये न! देर किस बात की। शीघ्रस्य शुभम्।
यह चिन्ता-फिक्र स्वयं में कई आयाम समाये होती है। यह एक ऐसी जटिल संरचना की तरह है जो किसी भी छोर से शुरू होकर किसी भी अनचाहे मुकाम या तमाम मुकामों तक पहुंच सकती है। व्यक्ति बस एक बार चिन्ता-फिक्र की डोर से जुड़-भर जाये, फिर आगे की गति उसके नियंत्रण से बाहर होती है। मन किसी बिन्दु से शुरू करता है और उसका अन्त वहां होता है, जिसकी उसने कभी कामना भी नहीं की होती है। मानसिक तनाव व्यक्ति को इस प्रकार नियंत्रित कर लेते हैं कि उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक दिवास्वप्न बनकर रह जाती है।
तनाव एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता दो विरोधाभासी बातें हैं। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि मन पर तनाव का बोझ ढोता हुआ व्यक्ति उस बोझ के दबाव से सर्वथा अनभिज्ञ होकर जिये जा रहा है। उसे एहसास ही नहीं हो पाता है कि वह किसी किस्म का तनावपूर्ण जीवन जी रहा है। अगर आप इस किस्म के किसी व्यक्ति, जो कि आपको प्रत्यक्षत: तनावमय जीवन जीता हुआ दिखाई दे रहा है, कहें कि आप इतना तनाव न लिया करें तो उसे विस्मय होता है। वास्तव में वह झूठ नहीं बोल रहा होता है, जब वह आपको चौंका देने वाला उत्तर देता है कि- 'मैं तो मजे में हूं। मैं तो कभी टेंशन लेता ही नहीं हूं।' ऐसा इसलिए होता है कि व्यक्ति धीरे-धीरे तनाव के साथ ही जीने का इस कदर आदी हो चुका होता है कि वह भूल ही जाता है कि तनावरहित मन:स्थिति कैसी होती है।
आपने अक्सर पाया होगा कि घर में या आफिस में किसी से हॉट-टॉक हो जाने पर, एक बार मन का संतुलन, उसकी लय खो जाने के बाद आप न जाने कितने लोगों से व्यवहार करने में बिना चाहे ही क्रोध से या भय युक्त आचरण करने लगते हैं। कभी बच्चों पर चिल्लाते हैं तो कभी पत्नी पर, कभी सहकर्मियों से दुखड़ा रोते हैं तो कभी अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं।
यह सारी स्थितियां स्वस्थ वातावरण को बिगाड़ देती हैं। अत: यह जरूरी हो जाता है कि मन को यथासंभव प्रसन्नता से युक्त रखा जाए। यह बात कहने-सुनने में जितनी आसान है, अभ्यास करने में उतनी ही कठिन है। यदि मन की प्रसन्नता पाना इतना ही आसान होता तो हर व्यक्ति सुखी होता और संसार स्वर्ग से सुहावना स्थल होता। फिर कोई भी ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' नहीं कहता।
दरअसल, मन को प्रसन्नता से युक्त रखने के लिए लगातार प्रयास करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए कोई जादुई पध्दति नहीं है। यह सतत् प्रयास पूर्वक स्वयं के व्यक्तित्व में झांककर, उसका विश्लेषण करके उसके कमजोर घटकों को रूपान्तरित करके ही पायी जा सकती है। सुखी जीवन के लिए प्रसन्नता से बड़ी संजीवनी शक्ति कोई नहीं है। अत: इसके लिये आवश्यक प्रयास फिर वे चाहे कितने ही श्रमसाध्य क्यों न हों, अवश्य किये जाना चाहिए।तनावरहित मन शरीर को भी स्वस्थ रखता है। चित्त की प्रसन्नता से आस-पास का वातावरण भी महकने लगता है। जिस प्रकार तनाव एक संक्रामक बीमारी है जो अपने चारों तरफ तनाव के स्पन्दन फैला देती है, उसी प्रकार प्रसन्नता भी संक्रामक होती है जो अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को उत्साह, उमंग एवं सकारात्मक से भर देती है। अत: यह कतई समझदारी नहीं कही जा सकती कि आप अपने ऊपर तनाव का बोझ लादे फिरते रहें, जबकि प्रयास करके आप उस बोझ को न सिर्फ उतार फेंक सकते हैं, बल्कि उसके स्थान पर प्रसन्नता की संजीवनी शक्ति धारण कर सकते हैं। समझ गये न! देर किस बात की। शीघ्रस्य शुभम्।
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