अंग्रेजी में एक कहावत है 'लाफ एंड द वर्ल्ड लाफ विद यू, वीप एंड यू वीप अलोन'। जी हां, रोने वाले का जीवन में कोई साथ नहीं और हंसने वाले को देखकर अनजान लोग भी बरबस ही उसकी ओर आकर्षित हो उठते हैं। हंसते-मुस्कुराते चेहरों को सब देखना पसंद करते हैं लेकिन मुंह लटकाये उदास झल्लाया हुआ चेहरा किस को अपनी ओर आकर्षित नहीं करता। फोटो खींचने के पहले आपसे 'चीज' इसीलिए बुलवाया जाता कि आपकी दंतपंक्ति झलकने लगे और मुस्कान से आपका चेहरा खिल उठे तथा आपको फोटो एक खुशनुमा यादगार बन जाए।
ईश्वर का वरदान
प्रसन्नता हमें ईश्वर से वरदान के रूप में मिली है, इसकी महत्ता हमें समझानी चाहिए। कहते हैं 'एक तंदरूस्ती हजार नियामत' तंदुरूस्ती का राज प्रसन्न रहना भी है। अधिकतर बीमारियां मन की उपज या शरीर और मन की मिली-जुली 'साइकोसमेटिक' देना होती है जिसे प्रसन्न रहकर आसानी से दूर किया जा सकता है।
यह सच है कि हमारे सुख और दुख बाहरी कम, भीतरी ज्यादा होते हैं यानी हमारा मन ही हमार सुख-दुख का आधार होता है। चित्त प्रसन्न रखने से दुख स्वत: ही दूर हो जाते हैं। प्रसन्नचित इंसान की बुध्दि भी अपनी पूरी क्षमता से कार्य करती है। दुखी मन होने पर सोचने समझने की बुध्दि भी क्षीण हो जाती है। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कुछ इसी तरह की बात कही है। खुलकर ठहाका लगाने से दुख के घने बादल भी छंट जाते हैं, तनाव दूर हो जाता है। जिंदगी उसे प्यार लगने लगी है। निराश जीवन में आशा का संचार होने लगता है।
जीवन में हर इंसान को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। खासकर आज की भागदौड़, आपाधापी वाली जिंदगी में छोटे-बड़े से लेकर हर कोई तनावों से घिरा है। न केवल आज की समस्या बल्कि आने वाले कल की समस्या और असुरक्षा भी इंसान का चैन हर लेती है संभावित असंभावित सब तरह की समस्याएं मिलकर इंसान का जीना दूभर कर देती है। नतीजा होता है चेहरे पर पड़ती चिंता की रेखाएं और असमय पड़ती झुर्रियां।
कहा भी गया है 'चिंता चिता समान' इस अग्नि में इंसान धीमे-धीमे सुलगता रहता है। नतीजतन उसे कई तरह के रोग लग जाते हैं। उच्च रक्त चाप दिल की बीमारी, मस्तिष्क के विकार इत्यादि। यही नहीं, चमड़ी के रोग तथा स्त्रियों में कुछ स्त्री रोग का कारण भी चिंता ही है। यह चिन्ता आधुनिक जमाने, आज के रहन सहन और सभ्यता की देन है। आज के भौतिक युग में पैसा ही हमारा भगवान बन गया है किस तरह ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए, इसी निन्यानवे के फेर में हम जीवन की अमूल्य निधि 'हंसी' से हाथ धो बैठे हैं। आज सुख, संतोष, आनन्द इत्यादि जैसे ख्वाब की बातें बनकर रह गई हैं। अगर हम खुलकर हंस नहीं सकते, हमारी हंसी गायव हो गई है तो उस पैसे के ढेर का क्या लाभ, जिसकी हमें इतनी कीमत चुकानी पड़ी है।
मिसेज राव जब शादी होकर नई-नई हमारी कालोनी में आई थी तो अपने हंसमुख और मिलनसार स्वभाव के कारण बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गई। हर कोई उनसे दोस्ती करने को लालायित रहता है हर वक्त उनके घर मिलन जूलने वालों का तांता लगा रहता। धीरे-धीरे जब उनकी गृहस्थी ं बच्चे आए, कार्यभार तथा जिम्मेदारियां बड़ी तो वह गमगीन और चिड़चिड़ी सी रहने लगी। फिर एक साल उनके पति का प्रमोशन भी रूक गया। उन्होंने भी प्रमोशन न होने की बात को इतना महत्व दिया कि हर समय सोच में डूब रहने लगे। परिणामस्वरूप उन्हें उच्च रक्त चाप और हल्का सा दिल का दौरा भी पड़ गया। मिसेज राव अब पूरी तरह बदल चुकी थी। घिसे-पिटे रिकार्ड की तरह अपने घर के दुखड़े हर समय रोते रहने की उनकी आदत बन चुकी थी। आखिर कोई कहां तक उनके दुखड़े सुनता, सब लोग उनसे कन्नी काटने लगे। अब कोई उनके पास पांच मिनट भी नहीं बैठना चाहता था। पीठ पीछे सब कहते 'अरे! उसके पास बैठकर कौन अपना भेजा खराब करें।' यहा तक कि उनकी मेहरी भी जल्दी-जल्दी काम निपटाकर भागना चाहती क्योंकि जब और कोई नहीं सुनता तो वे उसे ही बिठाये रखती और अपने दिल की भड़ास निकालना चाहती।
स्वास्थ्य के लिए हितकर
दर असल यह एक दत की बात है, जैसी भी इंसान डाल ले। कई लोगों को हमेशा रोने के लिए एक कंधा चाहिए, वे यह भी नहीं देखते कि जिसके सामने हम आपना रोना रो रहे हैं, वो कितना हमारा अपना है। हमारा भला चाहने वाला है या सिर्फ हमारे पीछे हमारी हंसी ही उड़ाना जानता है। यदि आप उपरोक्त श्रेणी के लोगों मे नहीं आना चाहते, ऐसा नहीं बनना चाहते कि जिसे देखते ही उबने के डर से लोग किनारा करना चाहें तो जरूरी है कि आप शुरू से ही अपना स्वभाव हास्य-विनोदपूर्ण एवं आशावादी बनाएं। ऐसे इंसान के पास लोग गुड़ पर मक्खी की तरह मंडराएंगे। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रसन्नता निहायत जरूरी है। एक प्रसन्नचित व्यक्ति हर बात में उजला पत्र ही देखेगा तथा उसका व्यवहार सकारात्मक ही होगा। ऐसा व्यक्ति उत्साह से भरपुर जीवन में पराजय की कल्पना तक नहीं करता।
उसका उत्साह उमंग एक जरबरदस्त भीतरी ताकत बन जाता है, जो उसे हर कार्य में सफल होने के लिए 'मोटीवेट' करता है। कहते हैं प्रसन्न रहने में ही चिंराय होने का राज छुपा है। हंसी इंसान के लिए सबसे अच्छी दवा है। अंग्रेजी मे कहावत है 'लाफ्टर इज द बेस्ट मेडिसन' यह दवा मुफ्त मिलती है हर समय हर जगह उपलब्ध है। मोटे लोग अक्सर खुशमिजाज और पतले-दुबले चिड़चिड़े व तुनकमिजाज पाए जाते हैं।
शायद मोटे लोगों की सेहत का राज उनका खुशमिजाज रहना, हंसना और हंसाना ही है। खुलकर हंसने से हमारे फेफड़े ही नहीं बल्कि शरीर की छोटी से छोटी धमनी और रक्तवाहिनी भी प्रभावित होती है। उनमें लहर उठती है, खून का संचार बढ़ता है। इस तरह हम देखते हैं कि हंसी एक अच्छा व्यायाम भी हैं।
डा. बैजामिन लिखते है, 'स्वास्थ्य की दृष्टि से हंसने की आदत डालना बड़ा महत्वपूर्ण है।'
कुछ विद्वान डाक्टरों का कथन है कि हंसी की क्रिया के पश्चात शरीर को वैसी ही ताजगी और स्फूर्ति प्राप्त होती है, जैसी गहरी नींद सोन से।
Wednesday, August 10, 2011
Thursday, July 28, 2011
जीने का आनन्द है संतोष
एक भारतीय संन्यासी विदेश-यात्रा पर गया। वहां के एक प्रमुख राजनेता ने संन्यासी से पूछा- मैंने सुना है, आप स्वयं को सम्राट कहते हैं? किन्तु जिसके पास एक पैसा भी नहीं हो, वह सम्राट कैसे बन सकता है? संन्यासी ने कहा- जिसके जीवन में संतोष और आनन्द का सागर लहराता है, जो किसी के आगे हाथ नहीं पसारता तथा जो स्वयं पर अनुशासन रखता है, वह सच्चा सम्राट होता है।
संन्यासी ही नहीं, एक गृहस्थ भी सच्चा सम्राट बन सकता है, बशर्ते उसके जीवन में संयम हो, वह मात्र लेना ही नहीं, देना भी जानता हो, आत्मनुशासी हो और संतुलित अर्थनीति का विज्ञाता हो। सामान्यतया अर्थ के बिना जीवन-यात्रा सम्यक् सम्पन्न नहीं हो सकती। जीवन-यापन के लिये अर्थ की आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी है। अर्थ के अर्जनकाल में ईमानदारी और उपभोगकाल में सदुपयोग जैसे सिध्दांत आचरण में आ जायें तो संतुलित अर्थनीति बन सकती है।
अर्थ अपने आप में एक सम्पत्ति है और ईमानदारी उससे भी सम्पति है। अर्थ ऐसी सम्पति है जो कभी भी धोखा दे सकती है और अधिक से अधिक वर्तमान जीवन तक व्यक्ति के पास रह सकती है। विश्व विजेता सिकंदर जब अंतिम सांसें गिन रहा था, उसे बहुत दु:ख और आश्चर्य हुआ कि ये धन के भंडार मुझे मौत से नहीं बचा सकते। उसने प्रधान सेनापति को यह आदेश दिया कि शवयात्रा के दौरान मेरे दोनों हाथ कफन से बाहर रखे जायें ताकि जनता इस सच्चाई को समझ सके कि- मैं एक तार भी साथ नहीं ले जा रहा हूं। मैं खाली हाथ ही आया था और खाली हाथ ही जा रहा हूं।' जबकि ईमानदारी एक ऐसी सम्पति है जो व्यक्ति को कभी धोखा नहीं दे सकती और वर्तमान जीवन तक नहीं, आगे भी व्यक्ति का साथ निभा सकती है। यदि अर्थ के अर्जन में ईमानदारी नहीं रहती, अहिंसा नहीं रहती, अनुकम्पा का भाव नहीं रहता, तो अर्थनीति का ही एक आयाम है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके जीवन में ईमानदारी बोलती है।
सुजानगढ़ निवासी रूपचंद सेठिया का जीवन आदर्श जीवन था। वे कपड़े का व्यापार करते थे। एक दिन दुकान पर कोई ग्राहक आया। मुनीमजी ने कपड़े का निर्धारित मूल्य उसे बता दिया ग्राहक ने आग्रह किया कि कपड़े का मूल्य कुछ कम किया जाये। मुनीमजी ने कपड़े का मूल्य कम कर दिया और साथ में उसे कुछ कपड़ा भी कम दे दिया। जब रूपचंदजी दुकान में आये तो मुनीमजी ने सारी बात बता दी। सेठजी ने उपालम्भ देते हुए कहा- आपने बेईमानी क्यों की? उसे कपड़ा कम क्यों दिया? सेठजी ने उस ग्राहक को वापस बुलाया और उसका हिसाब किया और साथ में मुनीमजी का हमेशा के लिये हिसाब कर दिया और कहा- मुझे ऐसा मुनीम नहीं चाहिये जो किचिंत् भी अप्रामाणिकता का कार्य करे।
ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं जो इतनी उच्चस्तरीय प्रामाणिक का पालन करते हैं। जिनके पास अर्थ है उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है और जिनके पास अर्थ के प्रति अनाशक्ति और ईमानदारी के प्रति आसक्ति है, उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है। आदमी ऐसा कोई कार्य न करे जिससे किसी को कष्ट हो अथवा नैतिकता खत्म हो। ऐसे व्यक्ति समाज और देश के गौरव हैं जो ईमानदारी पर आंच नहीं आने देते। जो अपनी इज्जत के खातिर लाखों रुपयों का नुकसान स्वीकार कर लेता है। उसके सामने एक ही आदर्श वाक्य रहता है- 'जाए लाख, रहे साख।'
कई व्यक्ति परिश्रम से अर्थार्जन करते हैं और उसका कुछ अंश व्यसन में खर्च कर देते हैं, शराब आदि पी लेते हैं अथवा अन्य कोई नशा कर लेते हैं, जिससे अर्थ की हानि होती है। और स्वास्थ्य भी खराब होता है। जहां, अर्थ का दुरुपयोग होता है, वहां अहिंसक/संतुलित अर्थनीति के विरुध्द बात हो जाती है। अर्थवान व्यक्ति के लिये यह विचारणीय बात होती है कि वह अर्थ का उपयोग किस रूप में करता है। विवेक-सम्पन्न व्यक्ति अर्थ का अपव्यय नहीं करता। बिना प्रयोजन वह एक पाई भी नहीं खोता और विशेष हित का प्रसंग उपस्थित होने पर वह जैन श्रावक भामाशाह बन जाता है। भामाशाह ने मेवाड़ की सुरक्षा के लिये अपना खजाना महाराणा प्रताप को समर्पित कर दिया था।
आदमी अर्जन के साथ विसर्जन की मनोवृति का विकास करे। अपनी इच्छाओं को सीमित करे और व्यक्तिगत भोग और संग्रह की भी सीम करे। व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है, किन्तु आकांक्षाओं की पूर्ति कर पाना मुश्किल होता है। आर्थिक विकास के लिये शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और भावनात्मक संतुलन गौण हो जाए, वह अर्थनीति संतुलित नहीं हो सकती। गरीबी मिटाने के लिये आर्थिक विकास आवश्यक माना गया है, किन्तु उसका उपयोग कुछेक व्यक्तियों तक ही सीमित न रहे। आदमी अपने जीवन में संतोष, आवश्यकता और अर्थ के सदुपयोग को महत्व दे।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद सादगीप्रिय और मतिव्ययी व्यक्ति थे। राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपये मासिक निर्धारित होते हुए भी उन्होंने कभी पूरा वेतन नहीं लिया। एक बार उनके मित्र ने पूछा- बाबूजी! आप पूरा वेतन क्यों नहीं लेते हैं? डा.राजेंद्र प्रसाद बोले- सभी की मूलभूत आवश्यकताएं बराबर हैं। मेरे लिये उतना ही काफी है जितने से मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। आवशय्कता से अधिक संग्रह करना मैं उचित नहीं मानता।
देश का हर व्यक्ति सादगी और संयम का जीवन जीने लगे प्राणीमात्र के प्रति अनुकम्पा का भाव जाग जाए, ईमानदारी नैतिकता और सदाचार जीवन में आ जाए तो हर एक व्यक्ति सच्चा सम्राट बन सकता है और जीने का आनन्द प्राप्त कर सकता है।
संन्यासी ही नहीं, एक गृहस्थ भी सच्चा सम्राट बन सकता है, बशर्ते उसके जीवन में संयम हो, वह मात्र लेना ही नहीं, देना भी जानता हो, आत्मनुशासी हो और संतुलित अर्थनीति का विज्ञाता हो। सामान्यतया अर्थ के बिना जीवन-यात्रा सम्यक् सम्पन्न नहीं हो सकती। जीवन-यापन के लिये अर्थ की आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी है। अर्थ के अर्जनकाल में ईमानदारी और उपभोगकाल में सदुपयोग जैसे सिध्दांत आचरण में आ जायें तो संतुलित अर्थनीति बन सकती है।
अर्थ अपने आप में एक सम्पत्ति है और ईमानदारी उससे भी सम्पति है। अर्थ ऐसी सम्पति है जो कभी भी धोखा दे सकती है और अधिक से अधिक वर्तमान जीवन तक व्यक्ति के पास रह सकती है। विश्व विजेता सिकंदर जब अंतिम सांसें गिन रहा था, उसे बहुत दु:ख और आश्चर्य हुआ कि ये धन के भंडार मुझे मौत से नहीं बचा सकते। उसने प्रधान सेनापति को यह आदेश दिया कि शवयात्रा के दौरान मेरे दोनों हाथ कफन से बाहर रखे जायें ताकि जनता इस सच्चाई को समझ सके कि- मैं एक तार भी साथ नहीं ले जा रहा हूं। मैं खाली हाथ ही आया था और खाली हाथ ही जा रहा हूं।' जबकि ईमानदारी एक ऐसी सम्पति है जो व्यक्ति को कभी धोखा नहीं दे सकती और वर्तमान जीवन तक नहीं, आगे भी व्यक्ति का साथ निभा सकती है। यदि अर्थ के अर्जन में ईमानदारी नहीं रहती, अहिंसा नहीं रहती, अनुकम्पा का भाव नहीं रहता, तो अर्थनीति का ही एक आयाम है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके जीवन में ईमानदारी बोलती है।
सुजानगढ़ निवासी रूपचंद सेठिया का जीवन आदर्श जीवन था। वे कपड़े का व्यापार करते थे। एक दिन दुकान पर कोई ग्राहक आया। मुनीमजी ने कपड़े का निर्धारित मूल्य उसे बता दिया ग्राहक ने आग्रह किया कि कपड़े का मूल्य कुछ कम किया जाये। मुनीमजी ने कपड़े का मूल्य कम कर दिया और साथ में उसे कुछ कपड़ा भी कम दे दिया। जब रूपचंदजी दुकान में आये तो मुनीमजी ने सारी बात बता दी। सेठजी ने उपालम्भ देते हुए कहा- आपने बेईमानी क्यों की? उसे कपड़ा कम क्यों दिया? सेठजी ने उस ग्राहक को वापस बुलाया और उसका हिसाब किया और साथ में मुनीमजी का हमेशा के लिये हिसाब कर दिया और कहा- मुझे ऐसा मुनीम नहीं चाहिये जो किचिंत् भी अप्रामाणिकता का कार्य करे।
ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं जो इतनी उच्चस्तरीय प्रामाणिक का पालन करते हैं। जिनके पास अर्थ है उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है और जिनके पास अर्थ के प्रति अनाशक्ति और ईमानदारी के प्रति आसक्ति है, उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है। आदमी ऐसा कोई कार्य न करे जिससे किसी को कष्ट हो अथवा नैतिकता खत्म हो। ऐसे व्यक्ति समाज और देश के गौरव हैं जो ईमानदारी पर आंच नहीं आने देते। जो अपनी इज्जत के खातिर लाखों रुपयों का नुकसान स्वीकार कर लेता है। उसके सामने एक ही आदर्श वाक्य रहता है- 'जाए लाख, रहे साख।'
कई व्यक्ति परिश्रम से अर्थार्जन करते हैं और उसका कुछ अंश व्यसन में खर्च कर देते हैं, शराब आदि पी लेते हैं अथवा अन्य कोई नशा कर लेते हैं, जिससे अर्थ की हानि होती है। और स्वास्थ्य भी खराब होता है। जहां, अर्थ का दुरुपयोग होता है, वहां अहिंसक/संतुलित अर्थनीति के विरुध्द बात हो जाती है। अर्थवान व्यक्ति के लिये यह विचारणीय बात होती है कि वह अर्थ का उपयोग किस रूप में करता है। विवेक-सम्पन्न व्यक्ति अर्थ का अपव्यय नहीं करता। बिना प्रयोजन वह एक पाई भी नहीं खोता और विशेष हित का प्रसंग उपस्थित होने पर वह जैन श्रावक भामाशाह बन जाता है। भामाशाह ने मेवाड़ की सुरक्षा के लिये अपना खजाना महाराणा प्रताप को समर्पित कर दिया था।
आदमी अर्जन के साथ विसर्जन की मनोवृति का विकास करे। अपनी इच्छाओं को सीमित करे और व्यक्तिगत भोग और संग्रह की भी सीम करे। व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है, किन्तु आकांक्षाओं की पूर्ति कर पाना मुश्किल होता है। आर्थिक विकास के लिये शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और भावनात्मक संतुलन गौण हो जाए, वह अर्थनीति संतुलित नहीं हो सकती। गरीबी मिटाने के लिये आर्थिक विकास आवश्यक माना गया है, किन्तु उसका उपयोग कुछेक व्यक्तियों तक ही सीमित न रहे। आदमी अपने जीवन में संतोष, आवश्यकता और अर्थ के सदुपयोग को महत्व दे।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद सादगीप्रिय और मतिव्ययी व्यक्ति थे। राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपये मासिक निर्धारित होते हुए भी उन्होंने कभी पूरा वेतन नहीं लिया। एक बार उनके मित्र ने पूछा- बाबूजी! आप पूरा वेतन क्यों नहीं लेते हैं? डा.राजेंद्र प्रसाद बोले- सभी की मूलभूत आवश्यकताएं बराबर हैं। मेरे लिये उतना ही काफी है जितने से मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। आवशय्कता से अधिक संग्रह करना मैं उचित नहीं मानता।
देश का हर व्यक्ति सादगी और संयम का जीवन जीने लगे प्राणीमात्र के प्रति अनुकम्पा का भाव जाग जाए, ईमानदारी नैतिकता और सदाचार जीवन में आ जाए तो हर एक व्यक्ति सच्चा सम्राट बन सकता है और जीने का आनन्द प्राप्त कर सकता है।
Sunday, June 26, 2011
सुखी एवं शांत जीवन जीने के सूत्र
दुनिया के लोग हमें वैसे नजर आते हैं, जैसा हमारा अंत:करण होता है। जैसी हमारी सोच होती है, वैसे ही हम बन जाते हैं। जिस व्यक्ति का अंत:करण सत्यनिष्ठ पवित्र एवं दयालु होगा वह धरती पर रहता हुआ भी स्वर्ग का आनन्द ले रहा होगा। इसलिए आप अपने अहम् और मैं को अपने मन-मस्तिष्क में से बाहर निकाल फैंके। हमारे स्वभाव से यदि अभिमान या घमंड निकल जाए तो हमारा शरीर इतना पुलकित हो जाता है जैसे शरीर में चुभा हुआ कांटा बाहर निकल जाता है। जिन लोगों का अंत:करण मलिन एवं अपवित्र होता है। उन लोगों के मन में ईश्वर का प्रवेश नहीं हो सकता। जैसे मैले दर्पण में सूर्य का प्रतिबिम्ब कभी नहीं पड़ सकता है। यदि शीशा साफ हो तभी इसमें प्रतिबिंब दृष्टिगोचर हो सकता है।
मानव हृदय के अन्दर ईश्वर की उपस्थिति को अंत:करण कहते हैं। हमारी सोच ही हमें भयरहित या कायर बनाती है अत: अपने विचारों को बुलंद रखें। अंत:करण की आवाज को ईश्वरीय आवाज माना जाता है। जो बात दिल कहे और मन या अंत:करण करने को मना करे उसे नहीं मानना चाहिए।
जब आप बोलते हैं चलते हैं देखते हैं तो आपके चेहरे की बनावट शरीर के संकेतों या बाडी लैंग्वेज से आपके सारे व्यक्तित्व का आभास हो जाता है। आपका आत्म सम्मान, आपकी महानता का घोतक है। जो अपना सम्मान स्वयं करता है, सभी लोग उसका भी सम्मान करते हैं। जिसने काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार को जीत लिया है, वह बहुत से कष्टों से बच सकता है। काम संतुलित, सीमित यथा समय और मर्यादा में रहना चाहिए। क्रोध तो यमराज है जब क्रोध आता है तो बुध्दिमत्ता बाहर निकल जाती है। इंद्रियों की गुलामी पराधीनता से कहीं ज्यादा दुखदायी होती है। अत: अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करना बुध्दिमानी का काम है। बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो और बुरा मत देखो। जो इन्द्रियों पर वश और विवेक नहीं रखता, वह मूर्ख है।
हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां है। दस कर्म इन्द्रियां हैं। जो लोग इन्द्रियों की संतुष्टि के चक्रव्यूह में फंसते हैं वे मृत्यु की तरफ अग्रसर होते जाते हैं। हिरण मधुर संगीत की तरफ आकर्षित होता है और शिकारग्रस्त होकर जान गंवा देता है। हाथी हथिनों की तरफ आकर्षित होकर कभी-कभी जान गंवा बैठता है। पतंगा अग्नि में भस्म हो जाता है। मछलियां जीभ के स्वाद के लिए लालच में फंसकर कांटे में अटक जाती है। इन सभी की भांति मानव भी इन्द्रियों की लोलुपता के कारण फंसकर रह जाता है। अविवेकी और चंचल प्रवृत्ति की इन्द्रियां बेखबर सारथी के दुष्ट घोड़ों की भांति बेकाबू होकर बिदक जाती है। मानव को चाहिए कि वह कछुए की भांति बन जाए जो अपने सब अंगों को समेट लेता है। जो मानव अपनी इन्द्रियों के वश में भी नहीं रहता वह मानव महामानव बन जाता है। आकाश की तरह मानव की इच्छाएं भी असीम और अनंत होती है। हमारी अपूर्ण और अनुचित इच्छाएं ही हमारे दुख का मुख्य कारण है। कामनाओं के वशीभूत मानव सारा जीवन दुखी रहता है। चाह गई- चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जाको कछु न चाहिए सोई शाहनशाह। मानव की समाप्ति हो जाती है, परन्तु उसकी अभिलाषाओं का अन्त नहीं होता। रात्रि दिन की चाह में समाप्त हो जाती है। दुख में सभी लोग सुख की कामना करना चाहते हैं। यह इच्छाएं मानव की चिर-अतृप्त ही रहती है, जैसी हमारी इच्छाएं होती है वैसे ही हमारे मन के भाव बन जाते हैं। उसी प्रकार की झलक हमारे मुख मंडल पर छा जाती है। संसार में इज्जत के साथ और सुख आनन्द के संग जीने का यही प्रज्ञा सूत्र है कि हम बाहर से जो कुछ दिखना चाहते हैं, वास्तव में वैसा ही होने का प्रयत्न करें।
मानव हृदय के अन्दर ईश्वर की उपस्थिति को अंत:करण कहते हैं। हमारी सोच ही हमें भयरहित या कायर बनाती है अत: अपने विचारों को बुलंद रखें। अंत:करण की आवाज को ईश्वरीय आवाज माना जाता है। जो बात दिल कहे और मन या अंत:करण करने को मना करे उसे नहीं मानना चाहिए।
जब आप बोलते हैं चलते हैं देखते हैं तो आपके चेहरे की बनावट शरीर के संकेतों या बाडी लैंग्वेज से आपके सारे व्यक्तित्व का आभास हो जाता है। आपका आत्म सम्मान, आपकी महानता का घोतक है। जो अपना सम्मान स्वयं करता है, सभी लोग उसका भी सम्मान करते हैं। जिसने काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार को जीत लिया है, वह बहुत से कष्टों से बच सकता है। काम संतुलित, सीमित यथा समय और मर्यादा में रहना चाहिए। क्रोध तो यमराज है जब क्रोध आता है तो बुध्दिमत्ता बाहर निकल जाती है। इंद्रियों की गुलामी पराधीनता से कहीं ज्यादा दुखदायी होती है। अत: अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करना बुध्दिमानी का काम है। बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो और बुरा मत देखो। जो इन्द्रियों पर वश और विवेक नहीं रखता, वह मूर्ख है।
हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां है। दस कर्म इन्द्रियां हैं। जो लोग इन्द्रियों की संतुष्टि के चक्रव्यूह में फंसते हैं वे मृत्यु की तरफ अग्रसर होते जाते हैं। हिरण मधुर संगीत की तरफ आकर्षित होता है और शिकारग्रस्त होकर जान गंवा देता है। हाथी हथिनों की तरफ आकर्षित होकर कभी-कभी जान गंवा बैठता है। पतंगा अग्नि में भस्म हो जाता है। मछलियां जीभ के स्वाद के लिए लालच में फंसकर कांटे में अटक जाती है। इन सभी की भांति मानव भी इन्द्रियों की लोलुपता के कारण फंसकर रह जाता है। अविवेकी और चंचल प्रवृत्ति की इन्द्रियां बेखबर सारथी के दुष्ट घोड़ों की भांति बेकाबू होकर बिदक जाती है। मानव को चाहिए कि वह कछुए की भांति बन जाए जो अपने सब अंगों को समेट लेता है। जो मानव अपनी इन्द्रियों के वश में भी नहीं रहता वह मानव महामानव बन जाता है। आकाश की तरह मानव की इच्छाएं भी असीम और अनंत होती है। हमारी अपूर्ण और अनुचित इच्छाएं ही हमारे दुख का मुख्य कारण है। कामनाओं के वशीभूत मानव सारा जीवन दुखी रहता है। चाह गई- चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जाको कछु न चाहिए सोई शाहनशाह। मानव की समाप्ति हो जाती है, परन्तु उसकी अभिलाषाओं का अन्त नहीं होता। रात्रि दिन की चाह में समाप्त हो जाती है। दुख में सभी लोग सुख की कामना करना चाहते हैं। यह इच्छाएं मानव की चिर-अतृप्त ही रहती है, जैसी हमारी इच्छाएं होती है वैसे ही हमारे मन के भाव बन जाते हैं। उसी प्रकार की झलक हमारे मुख मंडल पर छा जाती है। संसार में इज्जत के साथ और सुख आनन्द के संग जीने का यही प्रज्ञा सूत्र है कि हम बाहर से जो कुछ दिखना चाहते हैं, वास्तव में वैसा ही होने का प्रयत्न करें।
Sunday, June 5, 2011
डिप्रेशन से कैसे उबरें
देखने में आया है कि चिंता में डूबा व्यक्ति इससे उबर नहीं पाता और न जाने क्या-क्या बीमारियां उसे घेर लेती हैं। हर बीमारी का इलाज है लेकिन 'चिंता' इसका कोई इलाज नहीं। जो व्यक्ति इसे पाल लेता है, वह खुद ही इससे उबर सकता है। किसी के समझाने से वह नहीं समझ पाता। हमारे अवचेतन मन में कुछ डर,भय, चिंता जन्म लेती है, जो पनपकर हमारे शरीर की ऊर्जा को नष्ट करती हैं। फिर हमें धीरे-धीरे अंदर से खोखला करती है। फिर एक दिन ऐसा आता है कि बाहरी बीमारी या मुसीबत हमें घेर लेती है। जो कि ठीक होने का नाम नहीं लेती है। इसलिए हमें खुश रहकर चिंता मुक्त रहना चाहिए। चिंता से डिप्रेशन आता है और डिप्रेशन वाले व्यक्ति को निम्न तकलीफों का सामना करना पड़ता है।
* वह अकेलापन महसूस करता है या फिर शुरू में अकेला रहना चाहता है।
* छोटी-छोटी बात पर रोना , झगड़ना या चिंतित हो जाना।
* शरीर दुबला होता जाना।
* खाना कम हो जाना।
* शरीर की पाचन शक्ति कमजोर हो जाना। शरीर कमजोर होना। शरीर में दर्द।
* डॉक्टरों के पास जाना पर उन्हें पता न चलना।
* अपने बारे में खुलकर बात न करना।
* बेवजह किसी बात का भय, घर वाले या सगे-संबंधी भी अच्छे न लगे।
* बेवजह रोना-धोना, चिल्लाना।
* अकेले रहने पर डर या अपने पर से भरोसा खोना।
* अपने काम के बारे में ऐसा लगना मैं नहीं कर सकता। ताकत खत्म होती नजर आना।
* कोई भयंकर बीमारी हो जाने का डर।
* ऐसे व्यक्ति को डिप्रेशन से मुक्त कराना बड़ा मुश्किल कार्य है पर उसके परिवार के सदस्य मिलकर इसे दूर कर सकते हैं।
* मरीज को अकेला नहीं छोड़ें।
* उससे बातचीत करते रहें, उसे सुबह-शाम टहलने ले जायें।
* डॉक्टर से सलाह लेते हुए कुछ न कुछ छुपाये।
* सिर, शरीर की मालिश करें।
* बादाम, रोगन, देशी घी सिर में डालें और मालिश करने के बाद आराम करने को कहें।
* बाहर घूमने ले जायें। मन पसंद संगीत सुनायें।
* जो काम मरीज को अच्छा लगे धीरे-धीरे वहीं करें।
* अगर मरीज का कोई शौक है तो उसे पूरा करने दें। संसार को सुंदर मानकर आनंद लें।
* व्यक्ति को अपना कार्य खुद करने दें। बागवानी करें। कुदरत को देखें।
* उसे संगीत, फिल्मों या सजावट का कुछ भी शौक हो उसे करने दें।
* मरीज कुछ समय निकालकर संगीत सुनें एवं नाच सकते हों तो नाचें, दिल खोलकर बंद कमरे में नृत्य करें।
* अपने को व्यक्ति खुद समझा सकता है। दूसरा व्यक्ति नहीं। व्यक्ति के कमरे में अच्छे पोस्टर, अच्छी बातें लिखकर टांगे।
* भगवान का नाम लें, कीर्तन करें। मंदिर में जाकर बैठें, प्रार्थना करें।
* स्वच्छ एवं पौष्टिक भोजन नियमित करें। रैकी, एरोबिक्स, ध्यान करें। हर क्षण को जियें।
* वह अकेलापन महसूस करता है या फिर शुरू में अकेला रहना चाहता है।
* छोटी-छोटी बात पर रोना , झगड़ना या चिंतित हो जाना।
* शरीर दुबला होता जाना।
* खाना कम हो जाना।
* शरीर की पाचन शक्ति कमजोर हो जाना। शरीर कमजोर होना। शरीर में दर्द।
* डॉक्टरों के पास जाना पर उन्हें पता न चलना।
* अपने बारे में खुलकर बात न करना।
* बेवजह किसी बात का भय, घर वाले या सगे-संबंधी भी अच्छे न लगे।
* बेवजह रोना-धोना, चिल्लाना।
* अकेले रहने पर डर या अपने पर से भरोसा खोना।
* अपने काम के बारे में ऐसा लगना मैं नहीं कर सकता। ताकत खत्म होती नजर आना।
* कोई भयंकर बीमारी हो जाने का डर।
* ऐसे व्यक्ति को डिप्रेशन से मुक्त कराना बड़ा मुश्किल कार्य है पर उसके परिवार के सदस्य मिलकर इसे दूर कर सकते हैं।
* मरीज को अकेला नहीं छोड़ें।
* उससे बातचीत करते रहें, उसे सुबह-शाम टहलने ले जायें।
* डॉक्टर से सलाह लेते हुए कुछ न कुछ छुपाये।
* सिर, शरीर की मालिश करें।
* बादाम, रोगन, देशी घी सिर में डालें और मालिश करने के बाद आराम करने को कहें।
* बाहर घूमने ले जायें। मन पसंद संगीत सुनायें।
* जो काम मरीज को अच्छा लगे धीरे-धीरे वहीं करें।
* अगर मरीज का कोई शौक है तो उसे पूरा करने दें। संसार को सुंदर मानकर आनंद लें।
* व्यक्ति को अपना कार्य खुद करने दें। बागवानी करें। कुदरत को देखें।
* उसे संगीत, फिल्मों या सजावट का कुछ भी शौक हो उसे करने दें।
* मरीज कुछ समय निकालकर संगीत सुनें एवं नाच सकते हों तो नाचें, दिल खोलकर बंद कमरे में नृत्य करें।
* अपने को व्यक्ति खुद समझा सकता है। दूसरा व्यक्ति नहीं। व्यक्ति के कमरे में अच्छे पोस्टर, अच्छी बातें लिखकर टांगे।
* भगवान का नाम लें, कीर्तन करें। मंदिर में जाकर बैठें, प्रार्थना करें।
* स्वच्छ एवं पौष्टिक भोजन नियमित करें। रैकी, एरोबिक्स, ध्यान करें। हर क्षण को जियें।
Sunday, May 22, 2011
हंसना हंसाना ही जिन्दगी है
आज की जिन्दगी में सिवाय भाग दौड़ के हैं ही क्या? जिन्दगी की इस भागदौड़ में इंसान के लिए सुख यौवन और स्वास्थ्य कल्पना ही बन कर रह जाती है। इस बेढंगी जिन्दगी की जिंदादिल जिंदगी बनाने के एक ही सहज उपाय है, हंसना-हंसाना, मौज मनाना। अगर चेहरे पर हंसी, दिल में खुशी, हो तो स्वास्थ्य पर भागदौड़ का ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। हंसने-हंसाने का यह मतलब नहीं कि दिन रात इंसान हंसता और हंसाता ही रहे। इंसान अगर दिन में तीन चार बार खुश होकर जोर से खिलखिला कर हंस ले तो उसके सारे कष्ट, परेशानियां व रोग दूर हो जाते हैं। खिलखिला कर हंसने फेफड़ों पर एक के बाद एक तीन चार झटके लगते हैं। प्रत्येक झटके के साथ रक्त वाहिनी नलिकाओं का रक्त हृदय तक पहुंचता है तथा रक्त का संचार बढ़ता ही जाता है जिससे फेफड़ों में स्वच्छ वायु पहुंचती है और दूषित वायु दूर होती है। साथ ही साथ भोजन पचता भी है, जिससे लोगों को पेट संबंधी कोई रोग नहीं हो पाता। एक निराश व्यक्ति जो कभी हंसता ही नहीं है, अगर उसे देखा जाये तो पता चलता है कि उसे किसी भयंकर रोग ने घेर लिया है या उसकी आयु सीमित है जिस तरह जिंदगी जीने के लिए अच्छी वायु और अच्छा वातावरण का होना जरूरी है ठीक उसी तरह जिंदगी के सच्चे मजे के लिए हंसना जरूरी है। आजकल तो डाक्टर रोगी को हंसा-हंसा कर ठीक कर देते हैं। निराश व्यक्ति हंसता नहीं है जिससे उसके अन्दर का विकार दूर हो नहीं रहता, मन प्रसन्न होता और हृदय का रक्तचाप बढ़ जाता है। इसकी तुलना में हंसने वाला व्यक्ति स्वस्थ और रोगहीन रहता है। डाक्टरों का कहना है कि हंसना एक उत्तम व्यायाम है जिससे मस्तिष्क में प्रचुर मात्रा से रक्त संचार होता है, स्मरण शक्ति बढ़ती है और छोटे बड़े रोग छू मंतर हो जाते हैं। इसलिए यौवन को तरोताजा बनाये रखने के लिए जिन्दगी का सच्चा लेने के लिए स्वास्थ्य उत्तम रखने के लिए और पतझड़ सी जिन्दगी में हरियाली लाने के लिए हंसना बहुत जरूरी है। तो आइये हम आज से ही भागदौड़ की जिन्दगी की रफ्तार बढ़ायें क्योंकि अर्थयुग में इसका काफी महत्व है पर एक मंत्र याद कर लें कर कि हंसना हंसाना ही जिन्दगी है। इसे जानने से नहीं, अपनाने से होगा। अत: खूब हंसिए और जिन्दगी को जिंदा दिल बनाये रखिए।
Saturday, May 7, 2011
भावनाएं भी डालती हैं स्वास्थ्य पर प्रभाव
आशावादी इंसान दु:ख-सुख, खुशी-गम के दायरों में रहते हुए अपने आपको स्वस्थ रखते हैं। उनके विचार में भगवान ने जीवन जीने के लिए दिया है। उस जीवन का भरपूर आनन्द उठाने के लिए कुछ समस्याओं का सामना तो करना ही पड़ता है। निराशावादी इसे अलग तरीके से सोचते हैं। थोड़े से दु:ख आने पर वे महसूस करते हैं कि सारे दु:ख और गम मेरे लिए ही हैं। इस प्रकार के व्यक्ति अप्रसन्न और खिन्न रहने पर अक्सर बीमार पड़ जाते हैं। भावनाएं स्वास्थ्य पर प्रतिकूल और अनुकूल प्रभाव डालती है। अच्छी भावनाओं के होते मन प्रफुल्लित रहता है, बुरी भावनाओं के होते हुए मन उदास रहता है। अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए भावनाओं पर नियंत्रण रखें। दूसरों से नाराज होना, उन पर गुस्सा करना,र् ईष्या करना, दूसरों की गलतियां चुनते रहना, मन की बात मन में रखकर कुढ़ते रहना, दूसरों की निन्दा करना, बुराई करना और अपनी आलोचना सुनकर तिलमिलाना, ये सब बातें हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है। शुरू-शुरू में अपने अंदर ऐसे भाव पैदा करने मुश्किल हैं परन्तु धीरे-धीरे भावनाओं पर काबू पाया जा सकता है। कभी-कभी किसी बात पर क्रोध आए तो घर से बाहर टहलने चले जाना चाहिए या फिर अपने को किसी काम में व्यस्त कर लें। थोड़े समय बाद क्रोध दूर हो जायेगा। कोई आपकी गलती निकालता है या निंदा करता है तो उस बात को गंभीरता से न लेते हुए अनदेखा कर दें। कभी परिवार में या मित्रों से किसी बात पर मन-मुटाव या गलतफहमी हो जाये तो खुलकर बात करने से मन हल्का हो जाता है।
Wednesday, April 27, 2011
जीवन में मुस्कुराना सीखिए
आज के संघर्षमय वातावरण में हमें तनावयुक्त चेहरे तो बहुत नजर आते हैं परन्तु मुस्कुराते हुए चेहरे तो कहीं विलुप्त हो गए हैं, इसलिए कभी कोई मुस्कुराता चेहरा दिख जाता है तो अनायास ही सबको आकर्षित कर लेता है। आज अधिकतर लोग अपनी परिस्थितियों और माहौल के कारण क्षुब्ध हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति मुस्कुराना ही भूल जाए। मुस्कुराते हुए न केवल आपका व्यक्तित्व प्रभावशाली लगता है बल्कि आपकी मुस्कुराहट कई अन्य लोगों को मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। कठिन परिस्थितियों में मुस्कुराना आसान तो नहीं होता परन्तु चिंता या तनावयुक्त चेहरे से आपको दुख के सिवाय क्या मिल सकता है। मुस्कुरा कर हम अपने दिल से कुछ देर के लिए ही सही, तनावों को दूर कर देते हैं।
मुस्कुराहटें आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली तो बनाती ही है, साथ ही आपका सकारात्मक दृष्टिकोण भी झलकाती हैं। आपकी मुस्कुराहट आशा की वह किरण है, जो हर परिस्थिति में अपना प्रकाश बिखेरती रहती है और उम्मीद को बांधे रखती है। व्यक्ति अगर आशावादी होता है तो कठिन क्षण कब बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। अगर व्यक्ति अपने दुख के कारण मुस्कुराना भूल जाए तो वह खुद तो प्रभावित होता ही है उसके चेहरे को देखकर उसके परिवारजन व हितैषी भी उदास हो जाते हैं इसलिए उनके सुख के लिए ही सही, उनको खुश रखने की खातिर आपकी हल्की मुस्कान ही बहुत है।
मुस्कुराहटें आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली तो बनाती ही है, साथ ही आपका सकारात्मक दृष्टिकोण भी झलकाती हैं। आपकी मुस्कुराहट आशा की वह किरण है, जो हर परिस्थिति में अपना प्रकाश बिखेरती रहती है और उम्मीद को बांधे रखती है। व्यक्ति अगर आशावादी होता है तो कठिन क्षण कब बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। अगर व्यक्ति अपने दुख के कारण मुस्कुराना भूल जाए तो वह खुद तो प्रभावित होता ही है उसके चेहरे को देखकर उसके परिवारजन व हितैषी भी उदास हो जाते हैं इसलिए उनके सुख के लिए ही सही, उनको खुश रखने की खातिर आपकी हल्की मुस्कान ही बहुत है।
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