आज के हमारे युवाओं को न तो भविव्य की तनहाइयों की फिक्र है, न हीं जिंदगी की वीरानियों की परवाह, क्योकि वो आज में जीता है। इसी सोच के चलते वो रिश्तों की अहमियत को इस कदर नजरअंदाज कर रहा है। यही वजह है कि न अब रिश्ते टिकाऊ होते है, न ही होता है उनमें कमिटमेंट। किसी भी रिश्ते की बुनियाद होती है प्यार और विश्वास। यदि ये दोनों ही चीजें रिश्ते में न हो, तो वो रिश्ता महज समझौता बनकर रहा जाता है। आज हम जिस तेजी से रिश्ते बनाते है, उसे तेजी से उन्हे तोड भी देते है, क्योकि रिश्ते बनाते समय हमें खुद ही नहीं पता होता है कि आखिर ये रिश्ता कब तक टिकेगा। पिछले 10 सालों में तलाक के मामले कुछ शहरों में दोगुने हो गए तो कही-कही इनमें तीन गुना बढोत्तरी हुई है। जहां 90 के दशक में तलाक के औसतन 1000 मामलें हर साल सामने आते थे, वहीं अब ये संख्या बढकर 9000 हो गई है। अधिकतर मामलों में सामंजस्य की कमी या पार्टनर की बेवफाई को ही तलाक का आधार बनाया गया। बदलती लाइफस्टाइल, बढती प्रोफेशनल आकांक्षाएं, न्यूक्लियर फैमिली, रिश्तों में बढती अपेक्षाए ही इन बढती तलाक दरों की मुख्य वजहें हंै। आज महिलाएं भी तलाक की पहल करने में पीछे नहीं है। अगर रिश्ते में जरा-सी भी कमी या अनबन नजर आती है, तो बयाय कोई समाधान निकालने के तलाक को ही अपनी आजादी का आसान रास्ता मानकर लोग रिश्ते तोडने में हिचकते नहीं। अपनों का साथ, प्यार का एहसास जिंदगी को खुशनुमा बना देता है, जीवन में थोडी-बहुत तकरार भी जरूरी है, इसी का नाम तो जिंदगी है, वक्त रहते जिंदगी को संभाल लिया जाए तो बेहतर है, वरना ऎसा न हो कि हम जब गिरे, तो कोई थामनेवाला ही न हो, हम जब रोएं तो किसी का कंधा सिर रखने के लिए न हो।
कारण:
1. अपने तरीके से जिंदगी जीना - अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का फॉर्मूला इन दिनों बहुत फैशन में है, ऎसे में कमिटमेंट्स की उम्मीद किए जाने पर यही सुनने को मिलता है कि इट्स माई लाइफ, मुझे अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की आजादी चाहिए।
2. प्राइवेसी- आज के युवा अपनी लाइफ में प्राइवेसी चाहते हैं, अपने लाइफ पार्टनर से भी। रिलेशनशिप में स्पेस जरूरी होता है, लेकिन इस शब्द को मात्र अपने गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के लिए बचाव के तौर पर ही इस्तेमाल किया जाने लगा है। अपने पार्टनर से चंद सवाल करने का मतलब यह लगाया जाता है कि आप उसे स्पेस नहीं दे रहे, उसकी प्राइवेसी से दखलअंदाजी कर रहे है।
3. एक्स्पेक्ट मोर- आजकल पहले ही एक दूसरे को यह साफ तौर पर कह दिया जाता है कि मुझसे ज्यादा उम्मीद मत रखना, मैं तुम्हारे लिए खुद को नहीं बदलूंगा/बदलूंगी।
4. कमिटमेंट फोबिया - कहते है कुछ लोग कमिटमेंट से डरते है, शायद उन्हें अपने प्यार व रिश्ते पर इतना भरोसा ही नहीं होता कि वो टिक पाएंगा या यूं कह ले कि कुछ लोग इतने मनचले होते है कि एक ही रिश्ते पर टिके रहना उनके बस की बात नहीं।
5. एक रिश्ते में न टिक पाना- एक ही रिश्ते पर पूरी उम्र बिता देने का दौर अब बीत चुका। ऎसे लोगों को अब इमोशनल फूल्स कहा जाता है। रिश्तों को बचाने की बात तो दूर, ठीक से बनने से पहले ही ये बात साफ हो जाती है कि अब तब ठीक लगेगा, साथ रहेंगे, वरना अपने अपने रास्ते।
6. प्रैक्टिकल - रिश्तों में प्रैक्टिकल होना आज जरूरी हो गया है। लोग सोचते है कि आगे बढना है तो प्रैक्टिकल होना जरूरी है। भावनाओं में उलझे रहेंगे, तो जिंदगी उलझ जाएगी। बदलते दौर के साथ नहीं बदलेंगे तो पीछे रहे जाएंगे।
उपाय:
1. बातचीत - किसी भी रिश्ते के लिए यह सबसे पहला और जरूरी स्टेप होता है। बिना बातचीत के रिश्तों में खालीपन आ जाता है। अगर कोई नाराजगी है, शिकायत है तो कहिए, चुप मत रहिए।
2. आदर - आपके मन में अपने पार्टनर के प्रति आदरभाव होना चाहिए। भले ही आप कितने भी बेतकल्लुफ हो एक दूसरे से, लेकिन एक दूसरे के प्रति रिस्पेक्ट बनी रहनी चाहिए। जिस व्यक्ति का आप सम्मान नहीं कर सकते, उससे प्यार कब तक कर पाएंगे।
3. एक बार सोचें - अगर आपके रिश्ते में कोई प्रोब्लम चल रही है तो तैश में आकर कोई फैसला न लें। हो सकता है कुछ समय के लिए आपको रिश्ता बंधन लग रहा हो, लेकिन एक बार शांत मन से दोबारा सोचें कि क्या वाकई ऎसा है। क्या वाकई कहीं कोई गुंजाइश नहीं बची है रिश्तें मेंक् हर हाल में रिश्ते को थोडा समय दे।
4. रोमांस - कभी-कभी समय की कमी और कई कारण से रिश्ता बोझिल हो जाता है, ऎसा न होने दे। प्यार है, तो प्यार का इजहार समय-समय पर करते रहे, पैशन को जिंदा रखने के लिए जरूरी उपाय करते रहे। बाहर जाए, मूवी देखे, पार्टी करे या किसी शांत जगह जाकर तनहाई का मजा ले और रोमांस करे।
5. विश्वास - हर रिश्ता विश्वास पर टिका होता है। आपको अपने साथी पर विश्वास करना चाहिए। अगर आपके रिश्ते में विश्वास नहीं होगा तो आप चाहकर भी एक दूसरे के करीब नहीं आ पांएगे। विश्वास के बिना कोई भी रिश्ता नही टिक सकता। किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले एक मौका जरूर दे।
6. दोस्त बनें - अगर आपको लगता है कि आपका पार्टनर आपसे खुलकर बात नहीं कर पा रहा है या फिर वह आपसे बात करने में झिझकता है तो आप उससे दोस्तों की तरह व्यवहार करें।दोस्ती का रिश्ता एक ऎसा रिश्ता होता है, जहां हम खुद को आजाद समझते है। वो हमारे लिए बंधन नहीं होता, तो अपने रिश्ते में भी वहीं दोस्ताना अंदाज लाएं, जहां रिश्ता बंधन लगे ही न और अगर लगे भी तो ऎसा बंधन, जिससे आप ताउम्र बंधे रहना चाहे।
7. पार्टनर को समझें - हर किसी को यही लगता है कि वही सही है सामने वाला गलत है। लेकिन किसी भी बात का फैयला करने से पहले आप ठंडे दिमाग से सोचे। हो सकता है आपका पार्टनर भी अपनी जगह पर सही हो। हर स्थिति को सामने वाले के नजरिए से भी देखें और उसके बाद ही कोई राय बनाएं। यूं भी हर व्यक्ति अलग होता है, उसकी सोच एकदम हमारे जैसी नहीं हो सकती, तो उससे इतना ज्यादा बदलने की उम्मीद करने से बेहतर है उसके अपने अलग व्यक्तित्व को स्वीकारे। दो अलग सोच रखने वाले लोग भी मिलकर एक अच्छी और कामयाब जिंदगी जी सकते है।
8. आरोप-प्रत्यारोप - आरोप लगाने से कभी किसी रिश्ते में मजबूती नहीं आती। वो मात्र आपके ईगो को संतुष्ट कर सकता है। खुद को सही साबित करने के लिए बहस करने की बजाय आगे किस तरह से समझदारी से अपने रिश्ते को मजबूत बनाया जाए। इस पर विचार होना चाहिए। कोई एक झुक जाए, माफी मांग ले, तो इसमें बुरा ही क्या है।
9. अहंकार को दूर करें - स्वाभिमान और अहंकार में बहुत फर्क होता है। इस फर्क को समझकर अपने रिश्ते को बचाने की कम से कम एक कोशिश तो करे। ईगो को स्वाभिमान का नाम देकर अपने अहं की तुष्टि के लिए रिश्ते को खत्म करने की गलती न करे।
10. रिश्तों की अहमियत को समझें - आप कितने ही प्रैक्टिकल हो, लेकिन जीवन में किसी मोड पर एक साथी, एक हमसफर की जरूरत जरूर महसूस होती है। जीवन का ये सूनापन फिलहाल ग्लैमरस लाइफस्टाइल और आर्थिक कामयाबी के बीच नजर न आ रहा हो, लेकिन कहीं ऎसा न हो कि जब ये अकेलापन नजर आने लगे, तब तक देर हो चुकी हो।
Saturday, August 27, 2011
सेक्स स्ट्रेस से बिगडते रिश्ते
आज तनाव या स्ट्रेस हर व्यक्ति के जीवन में है और स्ट्रेस लेवल बढ़ने के कारण शरीर के कई ऎसे हार्मोस प्रभावित होते हैं, जिनकी वजह से सेक्स स्ट्रेस बढ जाता है। सेक्स स्ट्रेस का कोई एक कारण नहीं है। मॉडर्न लाइफस्टाइल व अनेक ऎसी परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं।
सेक्स स्ट्रेस के कारण
1. समय का अभाव: सेक्स क्रिया के लिए समय व तनावरहित वातावरण चाहिए। आजकल की भागदौड भरी जिंदगी में लोगों के पास वक्त का अभाव है और यदि वक्त मिल भी जाता है तो मन तरह-तरह की आशंकाओं से घिरा रहता है। बच्चों का तनाव, आफिस की परेशानियां आदि अनेक बातें ऎसी हैं, जो व्यक्ति को तनाव मुक्त नहीं रहने देती। ऑफिस, घर और अन्य कार्यो की थकान के कारण और तालमेल की कमी के कारण सेक्स के प्रति उदासीनता पैदा हो जाती है।
2. वर्क लोड: जिंदगी में आगे बढने की चाह, बॉस की नजरों में योग्य बने रहने की चाह और पैसे कमाने की दौड में व्यक्ति अपनी सारी ऊर्जा खत्म कर देता है। पैसा कमाने और खुद को बेहतरीन साबित करने की दौड में व्यक्ति दिन-रात काम करता है। वर्क लोड ज्यादा होने से ऑफिस का बचा हुआ काम घर पर पूरा करना पडता है। इस तरह के हाई प्रेशर जॉब के साथ व्यक्ति परिवार के साथ संतुलन नहीं बना पाता। व्यक्ति घर और ऑफिस की जिम्मेदारियों के बीच पिसकर रह जाता है। व्यक्ति देर तक काम करने के बाद इतना थक जाता है कि बिस्तर पर लेटते ही नींद आ जाती है और इससे उसकी सेक्स लाइफ प्रभावित होती है।
3. असुरक्षा की भावना: वर्किग पति-पत्नी के रिश्तों में आजीवन साथ रहने की निश्चिंतता नहीं है। पति-पत्नी दोनों में असुरक्षा की भावना बनी रहती है। क्योंकी दोनों के अहं टकराने की आशंका रहती है। दोनों के कामकाजी होने की वजह से दोनों में से कोई भी समझौता करने के लिए तैयार नहीं रहता। इसलिए महिलाएं भी ज्यादा कमाने की होड में लग जाती है। क्योंकी वे सुरक्षित होना चाहती हैं। इस तरह की स्थिति तनाव व टकराहट को जन्म देती है।
4. विलासिता की चाह: आधुनिक सुख-साधन जुटाना, रिसॉर्ट या विदेश में छुटि्टयां बिताना हर दंपत्ति की इच्छा होती है। सुख-सुविधा की चाहत में व्यक्ति चादर से अधिक पैर पसारता है और इस कारण वह लोन और के्रडिट कार्ड का उपयोग करता है। बाद में किश्तें चुकाने का पे्रशर शरीर और मन दोनों को थका डालता है। इस तरह का फाइनेंनशियल स्ट्रेस व्यक्ति की जिंदगी को पूरी तरह प्रभावित करता है और उसे सेक्स लाइफ के प्रति उदासीन बना देता है।
5. अधूरी जानकारी: आधी अधूरी जानकारियां और गलतफहमी भी तनाव को बढ़ाते हैं। मैगजीन में सेक्स कॉलम में सेक्सोलॉजिस्ट द्वारा पाठकों के प्रश्नों के उत्तर दिए जाते हैं। लेकिन संबंधित लेख या कॉलम में दी गई जानकारी एक सामान्य जानकारी होती है जबकि हर व्यक्ति और उसकी परिस्थिति दूसरे से भिन्न होती है। अधूरी जानकारी से सेक्स स्ट्रेस बढ़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि कपल्स एक दूसरे के लिए समय निकालें। साथ ही उपरोक्त विषयों पर दोनों को विचार-विमर्श करना चाहिए। एक दूसरे को समझना चाहिए और सेक्स स्ट्रेस को नहीं पनपने देना चाहिए।
सेक्स स्ट्रेस के कारण
1. समय का अभाव: सेक्स क्रिया के लिए समय व तनावरहित वातावरण चाहिए। आजकल की भागदौड भरी जिंदगी में लोगों के पास वक्त का अभाव है और यदि वक्त मिल भी जाता है तो मन तरह-तरह की आशंकाओं से घिरा रहता है। बच्चों का तनाव, आफिस की परेशानियां आदि अनेक बातें ऎसी हैं, जो व्यक्ति को तनाव मुक्त नहीं रहने देती। ऑफिस, घर और अन्य कार्यो की थकान के कारण और तालमेल की कमी के कारण सेक्स के प्रति उदासीनता पैदा हो जाती है।
2. वर्क लोड: जिंदगी में आगे बढने की चाह, बॉस की नजरों में योग्य बने रहने की चाह और पैसे कमाने की दौड में व्यक्ति अपनी सारी ऊर्जा खत्म कर देता है। पैसा कमाने और खुद को बेहतरीन साबित करने की दौड में व्यक्ति दिन-रात काम करता है। वर्क लोड ज्यादा होने से ऑफिस का बचा हुआ काम घर पर पूरा करना पडता है। इस तरह के हाई प्रेशर जॉब के साथ व्यक्ति परिवार के साथ संतुलन नहीं बना पाता। व्यक्ति घर और ऑफिस की जिम्मेदारियों के बीच पिसकर रह जाता है। व्यक्ति देर तक काम करने के बाद इतना थक जाता है कि बिस्तर पर लेटते ही नींद आ जाती है और इससे उसकी सेक्स लाइफ प्रभावित होती है।
3. असुरक्षा की भावना: वर्किग पति-पत्नी के रिश्तों में आजीवन साथ रहने की निश्चिंतता नहीं है। पति-पत्नी दोनों में असुरक्षा की भावना बनी रहती है। क्योंकी दोनों के अहं टकराने की आशंका रहती है। दोनों के कामकाजी होने की वजह से दोनों में से कोई भी समझौता करने के लिए तैयार नहीं रहता। इसलिए महिलाएं भी ज्यादा कमाने की होड में लग जाती है। क्योंकी वे सुरक्षित होना चाहती हैं। इस तरह की स्थिति तनाव व टकराहट को जन्म देती है।
4. विलासिता की चाह: आधुनिक सुख-साधन जुटाना, रिसॉर्ट या विदेश में छुटि्टयां बिताना हर दंपत्ति की इच्छा होती है। सुख-सुविधा की चाहत में व्यक्ति चादर से अधिक पैर पसारता है और इस कारण वह लोन और के्रडिट कार्ड का उपयोग करता है। बाद में किश्तें चुकाने का पे्रशर शरीर और मन दोनों को थका डालता है। इस तरह का फाइनेंनशियल स्ट्रेस व्यक्ति की जिंदगी को पूरी तरह प्रभावित करता है और उसे सेक्स लाइफ के प्रति उदासीन बना देता है।
5. अधूरी जानकारी: आधी अधूरी जानकारियां और गलतफहमी भी तनाव को बढ़ाते हैं। मैगजीन में सेक्स कॉलम में सेक्सोलॉजिस्ट द्वारा पाठकों के प्रश्नों के उत्तर दिए जाते हैं। लेकिन संबंधित लेख या कॉलम में दी गई जानकारी एक सामान्य जानकारी होती है जबकि हर व्यक्ति और उसकी परिस्थिति दूसरे से भिन्न होती है। अधूरी जानकारी से सेक्स स्ट्रेस बढ़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि कपल्स एक दूसरे के लिए समय निकालें। साथ ही उपरोक्त विषयों पर दोनों को विचार-विमर्श करना चाहिए। एक दूसरे को समझना चाहिए और सेक्स स्ट्रेस को नहीं पनपने देना चाहिए।
Friday, August 12, 2011
बाहरी दौड़ शान्ति प्रदान नहीं कर सकती
आज देश और दुनिया के जो हालात है वे कोई बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। ऐसा नहीं है कि दुनिया में तरक्की नहीं हुई है। कहां हिंसक जनवरों के बीच रहने वाला गुड़ा-मानव और कहां कंकरीट की गगनचुम्बी अट्टालिकों में रहने वाला आज का शहरी मानव? कहां दिन भर भोजन की खोज में खाईयों-खंदकों को फांदने वाला मानव और कहां आलीशान पांच सितारा होटलों में षड़रसभोजी मानव? कहां पत्रों और छालों के खुरदरे कपड़े पहनने वाला मानव, कहां सिन्थेटिक्स के फूल से हल्के-फुल्के रंगबिरंगे चिकने-चमकीले कपड़े पहनने वाला मानव? कहां एयरबसों और उपग्रहों में ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा करने वाला मानव, कहां प्राकृतिक आपदाओं से घिरा भयभीत मानव? कहां रेडियो, टेलीविजन से रात-दिन मनोरंजन करने वाला मानव, कहां निरक्षर भट्टाचार्य मानव, कहां डिग्रियों का भारी बोझा ढोने वाला मानव? सचमुच आकाश-पाताल का अंतर है। पर प्रश्न उठता है क्या पहले की तुलना में मानव आज ज्यादा शांत, सुखी है।
क्या मनुष्य सुखी बना?
शहरों में जन-संकुलता, कोलाहल, प्रदूषण तथा औद्योगिक हलचल इतनी बढ़ गई है कि मानव उससे तंग आ गया है। भले ही अब भी कुछ लोग पेट की खातिर महानगरों की ओर दौड़ रहे हैं, पर वहां का रहन-सहन इतना अकुलाने वाला हो गया है कि उससे विरक्ति होने लगी है। कृत्रिम स्वाद और स्वार्थी मानसिकता ने भोजन को इतना चटपटा और मिलावटी बना दिया है कि आदमी का स्वास्थ्य ही गड़बड़ाने लगा है। सभ्यता ने उस पर इतने कपड़े लाद दिए हैं कि वह स्वयं चलता-फिरता मॉडल बन गया है। जंगली जानवरों के भय से मुक्त मानव आज आतंकवाद से परेशान हो गया है। बोइंग विमानों एवं राकेटों में घूमने वाला मानव बीमारियों एवं दुर्घटनाओं से दु:खी हो गयी है। उच्च शिक्षा प्राप्त मानव विविध सर्टिफिकेट लिए नौकरी की तलाश में दफ्तरों का चक्कर लगा रहा है।
दु:ख की जड़ कहां है?
तो क्या सचमुच आदमी आज दु:खी है और यदि वह दु:खी है तो कहां है उसके दु:ख की जड़ें? निश्चय ही ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा को समुद्यत मानव फिर से गुफा-मानव नहीं बन सकता। स्वर्ग और नरक को भी वह माने या न माने यह एक अलग सवाल है, पर क्या वह अपने अन्दर निर्मित होने वाले स्वर्ग और नरक से बच सकता है? सचमुच मानव का सुख और दु:ख उसके अपने अन्दर ही निर्मित होता है।
मानसिक दु:ख
असल में मनुष्य का दु:ख आज देह का नहीं अपितु मानव-प्रसूत है। वह बाहर से तो भरा हुआ है, पर अंदर से खाली है। अन्दर का खालीपन ऊपर भी उभरकर आ रहा है। दवाईयां और ट्रेंक्वेलाइजर्स उसे भर नहीं सकते। भले ही आदमी ने नशीली दवाइयों से अपने आपको दु:ख मुक्त करने की कोशिश की हो पर सच तो यह है कि आज वह अपने ही द्वारा निर्मित वैतरणी में फंस गया है। बाहरी समृध्दि आदमी के अंदर के खालीपन को नहीं कर सकती। इसका यह अर्थ नहीं है कि आदमी की जीने के लिए पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। रोटी-पानी के बिना वह जी नहीं सकता। पहनने के लिए कपड़े भी आवश्यक है। रहने के लिए मकान भी आवश्यक है। पर ये सब साध्य नहीं है। ये सब साधन हैं। आज सबसे बड़ी भूल यही हो रही है कि साधनों को ही साध्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
अतिरिक्त अमीरी
जब पदार्थ ही साध्य बन जाता है तो उसे प्राप्त करने की शुध्दता की प्रतिबध्दता नहीं रह जाती। यदि आदमी का साध्य शांति हो तो वह उसी में आनंद का अनुभव कर सकता है जो उसे उपलब्ध है। पदार्थ की आखिर कहीं अंतिम सीमा नहीं हो सकती। बाहरी आकांक्षा हमेशा आगे से आगे बढ़ती जाएगी। यदि मनुष्य की दौड़ बाहर न होकर अन्दर की ओर हो जाए तो उसे जो कुछ प्राप्त है वह उसे भी ठुकरा सकता है। महावीर और बुध्द के पास वैभव की कोई कमी नहीं थी, पर अन्दर की अमीरी जागी तो उन्होंने राजघाट को भी ठुकरा दिया।
साधन ज्यादा, सुख कम
यदि हम आज की तुलना में पुराने जमाने को देखें तो स्पष्ट आभास होगा कि आज जितनी सुख सुविधाएं आम आदमी को प्राप्त है वे पुराने जमाने के शहंशाहों को भी प्राप्त नहीं होगी। मैं जमीन और धन की बात नहीं करता। हो सकता है पुराने शहंशाहों के पास अपार वैभव और जमीन ज्यादा रही होगी, पर साधनों की दृष्टि से देखा जाए तो आज आदमी को जितनी सुख-सुविधाएं प्राप्त है उतनी पुराने अमीरों के पास नहीं थी। फिर भी यदि आज का आदमी सुखी नहीं है तो केवल इसीलिए नहीं है कि वह बाहर की दौड़-दौड़ रहा है। गरीब लोगों की बात छोड़ भी दें, जिनके पास प्रभूत पैसा है वे लोग शायद हैरान है। इसका कारण यही है कि बाहरी दौड़ आदमी को शांति प्रदान नहीं कर सकती। उससे लिए तो मनुष्य को अपने अंदर में ही मील का कोई पत्थर लगाना पड़ेगा।
क्या मनुष्य सुखी बना?
शहरों में जन-संकुलता, कोलाहल, प्रदूषण तथा औद्योगिक हलचल इतनी बढ़ गई है कि मानव उससे तंग आ गया है। भले ही अब भी कुछ लोग पेट की खातिर महानगरों की ओर दौड़ रहे हैं, पर वहां का रहन-सहन इतना अकुलाने वाला हो गया है कि उससे विरक्ति होने लगी है। कृत्रिम स्वाद और स्वार्थी मानसिकता ने भोजन को इतना चटपटा और मिलावटी बना दिया है कि आदमी का स्वास्थ्य ही गड़बड़ाने लगा है। सभ्यता ने उस पर इतने कपड़े लाद दिए हैं कि वह स्वयं चलता-फिरता मॉडल बन गया है। जंगली जानवरों के भय से मुक्त मानव आज आतंकवाद से परेशान हो गया है। बोइंग विमानों एवं राकेटों में घूमने वाला मानव बीमारियों एवं दुर्घटनाओं से दु:खी हो गयी है। उच्च शिक्षा प्राप्त मानव विविध सर्टिफिकेट लिए नौकरी की तलाश में दफ्तरों का चक्कर लगा रहा है।
दु:ख की जड़ कहां है?
तो क्या सचमुच आदमी आज दु:खी है और यदि वह दु:खी है तो कहां है उसके दु:ख की जड़ें? निश्चय ही ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा को समुद्यत मानव फिर से गुफा-मानव नहीं बन सकता। स्वर्ग और नरक को भी वह माने या न माने यह एक अलग सवाल है, पर क्या वह अपने अन्दर निर्मित होने वाले स्वर्ग और नरक से बच सकता है? सचमुच मानव का सुख और दु:ख उसके अपने अन्दर ही निर्मित होता है।
मानसिक दु:ख
असल में मनुष्य का दु:ख आज देह का नहीं अपितु मानव-प्रसूत है। वह बाहर से तो भरा हुआ है, पर अंदर से खाली है। अन्दर का खालीपन ऊपर भी उभरकर आ रहा है। दवाईयां और ट्रेंक्वेलाइजर्स उसे भर नहीं सकते। भले ही आदमी ने नशीली दवाइयों से अपने आपको दु:ख मुक्त करने की कोशिश की हो पर सच तो यह है कि आज वह अपने ही द्वारा निर्मित वैतरणी में फंस गया है। बाहरी समृध्दि आदमी के अंदर के खालीपन को नहीं कर सकती। इसका यह अर्थ नहीं है कि आदमी की जीने के लिए पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। रोटी-पानी के बिना वह जी नहीं सकता। पहनने के लिए कपड़े भी आवश्यक है। रहने के लिए मकान भी आवश्यक है। पर ये सब साध्य नहीं है। ये सब साधन हैं। आज सबसे बड़ी भूल यही हो रही है कि साधनों को ही साध्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
अतिरिक्त अमीरी
जब पदार्थ ही साध्य बन जाता है तो उसे प्राप्त करने की शुध्दता की प्रतिबध्दता नहीं रह जाती। यदि आदमी का साध्य शांति हो तो वह उसी में आनंद का अनुभव कर सकता है जो उसे उपलब्ध है। पदार्थ की आखिर कहीं अंतिम सीमा नहीं हो सकती। बाहरी आकांक्षा हमेशा आगे से आगे बढ़ती जाएगी। यदि मनुष्य की दौड़ बाहर न होकर अन्दर की ओर हो जाए तो उसे जो कुछ प्राप्त है वह उसे भी ठुकरा सकता है। महावीर और बुध्द के पास वैभव की कोई कमी नहीं थी, पर अन्दर की अमीरी जागी तो उन्होंने राजघाट को भी ठुकरा दिया।
साधन ज्यादा, सुख कम
यदि हम आज की तुलना में पुराने जमाने को देखें तो स्पष्ट आभास होगा कि आज जितनी सुख सुविधाएं आम आदमी को प्राप्त है वे पुराने जमाने के शहंशाहों को भी प्राप्त नहीं होगी। मैं जमीन और धन की बात नहीं करता। हो सकता है पुराने शहंशाहों के पास अपार वैभव और जमीन ज्यादा रही होगी, पर साधनों की दृष्टि से देखा जाए तो आज आदमी को जितनी सुख-सुविधाएं प्राप्त है उतनी पुराने अमीरों के पास नहीं थी। फिर भी यदि आज का आदमी सुखी नहीं है तो केवल इसीलिए नहीं है कि वह बाहर की दौड़-दौड़ रहा है। गरीब लोगों की बात छोड़ भी दें, जिनके पास प्रभूत पैसा है वे लोग शायद हैरान है। इसका कारण यही है कि बाहरी दौड़ आदमी को शांति प्रदान नहीं कर सकती। उससे लिए तो मनुष्य को अपने अंदर में ही मील का कोई पत्थर लगाना पड़ेगा।
तनाव हर स्थिति में हानिकारक है
यह तथ्य न केवल सर्वविदित है वरन् प्रत्येक का अनुभव भी है कि आज का जीवन व्यस्त और तनावपूर्ण है। युवा वृध्द, स्त्री, पुरुष, व्यवसायी और नौकरी पेशा, गरीब और अमीर हर वर्ग तथा हर स्तर का व्यक्ति तनावग्रस्त है। यों तनाव का सामान्य अर्थ मानसिक तनाव से लिया जाता है पर वस्तुत: तनाव तीन प्रकार के होते हैं- शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनाव।
लंबे समय तक लगातार एक ही प्रकार का काम करने और अत्यधिक श्रम करने के कारण जो थकान उत्पन्न होती है उसे शारीरिक तनाव कहा जाता है।
मानसिक तनाव बहुत अधिक सोचने-विचारने या चिंता करने से उत्पन्न होता है। एक घंटे बाद परीक्षा फल घोषित होने वाला है तो दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर हैं, रात में किसी की सहसा याद आ गई तो नींद गायब, यही है- भावनात्मक तनाव।
सामान्यत: घरों में तनाव का कारण पति-पत्नी का आपसी तालमेल न बैठ पाना होता है। पत्नियां, पतियों को उकसाती व उत्तेजित करती हैं और पति, पत्नियों को रसोई आदि के लिये तंग करते हैं। परस्पर संतुलन न बैठ पाने से दोनों तनाव से ग्रसित हो जाते हैं इसका दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता के बीच अनबन व कलह देखकर बच्चे भी तनाव से आक्रान्त हो जाते हैं, फलत: पूरा घर ही नरक बन जाता है। इस नरक से त्राण पाने का रास्ता एक ही है कि परस्पर सामंजस्य बैठाया जाय। प्रेम-आत्मीयता, सद्भावना, सहयोग आदि से वही परिवार स्वर्गीय आनंद का उपवन बन सकता है जो जरा से मतभेद एवं नासमझी के कारण नरक बन गया था। वर्तमान समय में 50 प्रतिशत से अधिक रोगी तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप रोगग्रस्त पाये गये हैं। चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार सिरदर्द, चक्कर आना, आंखों में सुर्खी आना, काम में मन न लगना और लकवा आदि जैसे रोगों का आक्रमण हो जाना, ये सभी अत्यधिक तनाव के ही दुष्परिणाम हैं। ऐसे लोग प्राय: रोगों की उत्पत्ति के लिये कभी मौसम को, कभी आहार को, कभी दूसरों को दोष देते हैं। अधिक तनाव शरीर व मन दोनों के लिये हानिकारक हैं। स्नायुविक तनाव-विशेषज्ञ डा. एडमण्ड जैकवसन का कहना है कि हृदय रोग, रक्तचाप की अधिकता अल्सर, कोलाइटिस आदि सामान्यत: दिखाई देने वाले रोग प्रकारान्तर से तनाव के ही कारण उत्पन्न होते हैं। स्ायु दौर्बल्य, अनिद्रा, चिंता, खिन्नता आदि अनेक रोग तनाव के फलस्वरूप होते हैं।
मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि हृदय रोग का कारण अज्ञात भय, चिंता है, जो अन्तर्मन में व्याप्त हो जाती है। नतीजा यह होता है कि मनुष्य की स्वाभाविक खुशी व प्रफुल्लता छिन जाती है।
इससे रक्तवाहिनी नसें थक जाती हैं। कभी फट भी जाती है, फलत: मस्तिष्क में लकवा भी हो जाता है और शक्कर देने वाली क्लोम ग्रंथियां भी खाली हो जाती हैं और क्लोम रस मिलना बंद हो जाता है। यह ग्रंथि प्रसन्नता के अभाव में कार्य करना बंद कर देती है और क्लोम रस देना भी बंद कर देती है। क्लोम रस न मिलने से शर्करा स्वतंत्र हो जाती है और मूत्र के साथ बहने लगती है। इसी को मधुमेह कहते हैं। मधुमेह रोने, पछताने व शोक करने से भी हो जाता है। तनाव से मुक्त रहने के लिये सूक्ष्मदर्शियों ने यही कहा है कि अपनी क्षमता भर अच्छे से अच्छा काम करें। इसमें बाहरी सहायता या मार्गदर्शन कुछ विशेष कारगर सिध्द नहीं होता। अपने द्वारा उत्पन्न किए तनाव को कोई दूसरा दूर कैसे कर सकता है? तनाव को व्यक्ति स्वयं ही नियंत्रित एवं दूर कर सकता है? दूसरों का मार्गदर्शन थोड़ा बहुत उपयोगी हो सकता है।
स्वाध्याय के द्वारा सहज ही पता चल जाता है कि निरर्थक एवं महत्वहीन बातों को अधिक तूल दे दिया गया और अकारण ही तनाव को आमंत्रित कर लिया गया। वस्तुत: यह झाड़ी के भूत की कल्पना मात्र थी। अपने को तनावग्रस्त न होने देने के लिये दृढ़ निश्चय, लगन एवं सतत् निष्ठापूर्वक सद्कार्यों में नियोजित किए रहना ही सर्वोत्तम उपाय है। सदा सहनशीलता से काम लिया जाए, भविषष्य के भय से भयभीत न हुआ जाय, वास्तविकता को दृष्टिगत रखा जाय, काल्पनिक बाधा या आशंका को स्थान न दिया जाय, वर्तमान में सामने आये काम को पूरी तत्परता से सम्पन्न किया जाय, उसी के संबंध में सोचा जाय, आशावान रहा जाय। ऐसा करने से स्वयं ही अपने भीतर इस प्रकार की शक्ति का अनुभव होगा जो समस्याओं को सुलझाने में सहायक होगी।
लंबे समय तक लगातार एक ही प्रकार का काम करने और अत्यधिक श्रम करने के कारण जो थकान उत्पन्न होती है उसे शारीरिक तनाव कहा जाता है।
मानसिक तनाव बहुत अधिक सोचने-विचारने या चिंता करने से उत्पन्न होता है। एक घंटे बाद परीक्षा फल घोषित होने वाला है तो दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर हैं, रात में किसी की सहसा याद आ गई तो नींद गायब, यही है- भावनात्मक तनाव।
सामान्यत: घरों में तनाव का कारण पति-पत्नी का आपसी तालमेल न बैठ पाना होता है। पत्नियां, पतियों को उकसाती व उत्तेजित करती हैं और पति, पत्नियों को रसोई आदि के लिये तंग करते हैं। परस्पर संतुलन न बैठ पाने से दोनों तनाव से ग्रसित हो जाते हैं इसका दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता के बीच अनबन व कलह देखकर बच्चे भी तनाव से आक्रान्त हो जाते हैं, फलत: पूरा घर ही नरक बन जाता है। इस नरक से त्राण पाने का रास्ता एक ही है कि परस्पर सामंजस्य बैठाया जाय। प्रेम-आत्मीयता, सद्भावना, सहयोग आदि से वही परिवार स्वर्गीय आनंद का उपवन बन सकता है जो जरा से मतभेद एवं नासमझी के कारण नरक बन गया था। वर्तमान समय में 50 प्रतिशत से अधिक रोगी तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप रोगग्रस्त पाये गये हैं। चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार सिरदर्द, चक्कर आना, आंखों में सुर्खी आना, काम में मन न लगना और लकवा आदि जैसे रोगों का आक्रमण हो जाना, ये सभी अत्यधिक तनाव के ही दुष्परिणाम हैं। ऐसे लोग प्राय: रोगों की उत्पत्ति के लिये कभी मौसम को, कभी आहार को, कभी दूसरों को दोष देते हैं। अधिक तनाव शरीर व मन दोनों के लिये हानिकारक हैं। स्नायुविक तनाव-विशेषज्ञ डा. एडमण्ड जैकवसन का कहना है कि हृदय रोग, रक्तचाप की अधिकता अल्सर, कोलाइटिस आदि सामान्यत: दिखाई देने वाले रोग प्रकारान्तर से तनाव के ही कारण उत्पन्न होते हैं। स्ायु दौर्बल्य, अनिद्रा, चिंता, खिन्नता आदि अनेक रोग तनाव के फलस्वरूप होते हैं।
मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि हृदय रोग का कारण अज्ञात भय, चिंता है, जो अन्तर्मन में व्याप्त हो जाती है। नतीजा यह होता है कि मनुष्य की स्वाभाविक खुशी व प्रफुल्लता छिन जाती है।
इससे रक्तवाहिनी नसें थक जाती हैं। कभी फट भी जाती है, फलत: मस्तिष्क में लकवा भी हो जाता है और शक्कर देने वाली क्लोम ग्रंथियां भी खाली हो जाती हैं और क्लोम रस मिलना बंद हो जाता है। यह ग्रंथि प्रसन्नता के अभाव में कार्य करना बंद कर देती है और क्लोम रस देना भी बंद कर देती है। क्लोम रस न मिलने से शर्करा स्वतंत्र हो जाती है और मूत्र के साथ बहने लगती है। इसी को मधुमेह कहते हैं। मधुमेह रोने, पछताने व शोक करने से भी हो जाता है। तनाव से मुक्त रहने के लिये सूक्ष्मदर्शियों ने यही कहा है कि अपनी क्षमता भर अच्छे से अच्छा काम करें। इसमें बाहरी सहायता या मार्गदर्शन कुछ विशेष कारगर सिध्द नहीं होता। अपने द्वारा उत्पन्न किए तनाव को कोई दूसरा दूर कैसे कर सकता है? तनाव को व्यक्ति स्वयं ही नियंत्रित एवं दूर कर सकता है? दूसरों का मार्गदर्शन थोड़ा बहुत उपयोगी हो सकता है।
स्वाध्याय के द्वारा सहज ही पता चल जाता है कि निरर्थक एवं महत्वहीन बातों को अधिक तूल दे दिया गया और अकारण ही तनाव को आमंत्रित कर लिया गया। वस्तुत: यह झाड़ी के भूत की कल्पना मात्र थी। अपने को तनावग्रस्त न होने देने के लिये दृढ़ निश्चय, लगन एवं सतत् निष्ठापूर्वक सद्कार्यों में नियोजित किए रहना ही सर्वोत्तम उपाय है। सदा सहनशीलता से काम लिया जाए, भविषष्य के भय से भयभीत न हुआ जाय, वास्तविकता को दृष्टिगत रखा जाय, काल्पनिक बाधा या आशंका को स्थान न दिया जाय, वर्तमान में सामने आये काम को पूरी तत्परता से सम्पन्न किया जाय, उसी के संबंध में सोचा जाय, आशावान रहा जाय। ऐसा करने से स्वयं ही अपने भीतर इस प्रकार की शक्ति का अनुभव होगा जो समस्याओं को सुलझाने में सहायक होगी।
Thursday, August 11, 2011
मन को शत्रु नहीं, मित्र बनाओ
मन शरीर का एक शक्तिशाली और कमजोर हिस्सा है बस उसका उपयोग हमें वैसा करना पड़ता है जैसे कहा गया है कि मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। अगर हम किसी भी काम में अपने मन से हार जाएंगे तो हमें हार की प्राप्ति होगी अगर मन को सफलता प्राप्ति के उस स्तर तक कर्म करने में लगाएंगे तो जीत अवश्य होगी।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।
मन को शत्रु नहीं, मित्र बनाओ
मन शरीर का एक शक्तिशाली और कमजोर हिस्सा है बस उसका उपयोग हमें वैसा करना पड़ता है जैसे कहा गया है कि मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। अगर हम किसी भी काम में अपने मन से हार जाएंगे तो हमें हार की प्राप्ति होगी अगर मन को सफलता प्राप्ति के उस स्तर तक कर्म करने में लगाएंगे तो जीत अवश्य होगी।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।
मन को शत्रु नहीं, मित्र बनाओ
मन शरीर का एक शक्तिशाली और कमजोर हिस्सा है बस उसका उपयोग हमें वैसा करना पड़ता है जैसे कहा गया है कि मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। अगर हम किसी भी काम में अपने मन से हार जाएंगे तो हमें हार की प्राप्ति होगी अगर मन को सफलता प्राप्ति के उस स्तर तक कर्म करने में लगाएंगे तो जीत अवश्य होगी।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।
मन हमारे विचारों का उदगम स्थल है विचारों का जन्म मन से होता है और उससे उठने वाले विचार हमारे व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण का निर्माण करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मन ही मनुष्य के बंधक और मोक्ष का कारण हैं। विषयों में आसक्त मन बंधन का और निर्विषय मन मोक्ष का कारण बनता है।
महापुरुषों के अनुसार मन की पांच मुख्य विशेषताएं हैं, एक मन चंचल होता है, मन मैला होता है, मन सदा भूखा रहता है, मन पागल है, मन मूर्ख है। मन के चंचल होने का अर्थ है कि मन हमेशा गतिमान रहता है कभी भी स्थिर नहीं रहता। मन मैले का अर्थ है इसमें बुरे विचार जल्दी जन्म लेते हैं।
भूखे मन का अर्थ है कि यह कभी तृप्त नहीं होता, एक भूख मिटाओ तो दूसरी भूख लगती है। मन पागल इसलिये है कि यह बार-बार धोखा खाता है, फिर भी उन विषयों के पीछे दौड़ता है। मन मूर्ख इसलिये है इसे जितना भी समझाओ आसानी से नहीं समझता। मन की इन विशेषताओं के कारण मन को मनुष्य का शत्रु कहा गया है।
इसलिये साधक को हमेशा सचेत रहना चाहिये। गुरुजन भी यही कहते हैं मन को मनमानी मत करने दो नहीं तो मन पतन की ओर ले जाएगा जिसका अंत बस पछतावा है। गुरुजनों के अनुसार, अगर एक मन को जीत लिया तो समझो जग को जीत लिया।
मन के दो दोष मुख्य माने गये हैं एक स्थाई और दूसरा अस्थाई लोभ, मोह, आसक्ति, मान-सम्मान स्थाई दोष हैं जो हमेशा मन में बने रहते हैं। जिनका शमन तम, विवेक, वैराग्य और सत्संग से कर सकते हैं पर काम और क्रोध अस्थाई दोष हैं जो थोड़े समय के लिए उत्पन्न होते हैं इनका शमन हम सावधान रहकर कर सकते हैं। इसलिये मन को सबसे बड़ा शत्रु और मित्र माना जाता है। मन ही हमारी उन्नति और अवनति का मूल साधक है। शत्रु की भूमिका मन तब निभाता है जब विषयों में आसक्त होता है और हमें पतन की ओर ले जाता है। मित्र की भूमिका मन तब निभाता है जब वो परमात्मा में आसक्त हो जाता है।
मन बहुत चंचल, तेज और हठी है वह इंद्रियों का दास बनकर भोगों के पीछे दौड़ते रहता है। उस समय मन मस्त घोड़े के समान होता है। जैसे वायु को रोकना मुश्किल है वैसे मन को वश में करना मुश्किल होता है। मन को वश में करने के लिये अपने से संघर्ष करना पड़ता है। अगर संघर्ष पूरे मनोवेश से है तो मन वश में हो जाता है पर जहां थोड़ी ढील हुई मन वश से बाहर रहता है।
विषयों से मन को ऊपर उठाये बिना हम दिव्यता के असीम संसार में नहीं प्रवेश कर सकते। विषयों का आकर्षण बहुत बड़ा है। इसे दृढ़ संकल्प द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को मित्र हम तभी बना सकते हैं जब हम उसे प्रशिक्षित करें, प्रकाशित करें। मन को ईश्वरीय चिंतन में लगाकर प्रकाशित कर सकते हैं। हमें अपने मन का दृष्टा बनना होगा। हर विचार हर विषय पर नजर रखनी होगी कि क्या गलत और सही है।
वैसे तो प्रकृति का नियम है जब हमें कुछ अच्छा या उच्च स्तर का मिलता है तब मन निम्न वस्तु को स्वयं छोड़ देता है। इसी प्रकार जब मनको यह अनुभव हो जायेगा कि ब्रह्मानंद का रस विषयानंद से कहीं अधिक मीठा है तो वह श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़ेगा।
भागवान कृष्ण भगवत गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि मन जहां-जहां जाये जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब जब जाए, उसको वहां वहां, उस कारण से वैसे-वैसे और तब तब हटाकर परमात्मा में लगाएं। जब तक संसार की वस्तुएं सुंदर और सुखप्रद लगेंगी तब तक मन उनमें लगा रहेगा। जब मन को समझ आ जाएगा कि संसार के विषय दु:ख कारक हैं तो मन उधर नहीं जायेगा। मन को उनसे हटाने के लिये उनके दोषों और दु:खों को महसूस करना चाहिये।
इसी प्रकार धीरे-धीरे मन में उनके लिये वैराग्य उत्पति होगी और मन ईश्वर की ओर लगेगा। तब मन आपका सच्चा मित्र बन जाएगा और दिव्यानंद को प्राप्त होगा। बस मन से दोस्ती करो, बुरे विचारों से मन को बाहर निकालो, अपनी इंद्रियों पर काबू पाओ और स्वयं को परमात्मा के साक्षात्कार के लिये तैयार करो। और सिध्द करो मन अच्छा तो सब अच्छा।
जियो जिन्दगी-जी भर के...
जीवन लम्बा नहीं, सुन्दर होना चाहिए। हमारे जीवन की डोर हमारे ही हाथों में है। भगवान भी उसी की सहायता करते हैं जो स्वयं की सहायता खुद करते हैं। जिन्दगी, जिन्दादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं? यह जीवन आपका है। इसके निर्माता या विध्वसंक आप स्वयं हैं-
* जीवन एक लंबा नाटक है। इसमें आपका अभिनय कैसा हो, यह आपको सोचना है। सुन्दर मूर्ति की भांति जीवन चारों तरफ से सुन्दर होना चाहिए।
* यदि आप आशावादी विचार धारा रखते हैं तो आपकी जिन्दगी में परेशानियां कम हो सकती है।
* जीवन को समृध्द एवं विविधता पूर्ण आपको स्वयं ही बनाना है। आपका धर्म, आपका सद्व्यवहार एवं सुन्दर दिनचर्या ही है।
* र् ईष्या, उदासी मन में न आने दें। इससे आपकी सुन्दरता कम होती है। चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं।
* आज, अभी इसी वक्त का ही जीवन है। जो बीत गया वह सपना है, भविष्य कल्पना है। सुखी वर्तमान से ही भविष्य स्वर्णिम बनता है।
* यह संसार-सदा से ही है- न हम रहेंगे, न तुम रहोगे-वक्त के साथ दुनिया का कारवां चलता रहेगा। यह मत समझें कि हम न होंगे तो दुनिया रूक जायेगी।
* हम जिन्दगी में दो ही कारणों से असफल होते हैं। एक तो बिना विचारे हम कुछ काम कर जाते हैं और कुछ बेसिर- पैर के काम कर जाते हैं।
* जिन्दगी का फलसफा एक पियानों की भांति माना गया है। सफेद स्वर सुख के द्योतक है और काले स्वर दुख की परिभाषा करते हैं। यदि दोनों स्वर ठीक से बजाए जाएं तो मधुर संगीत निकलता है।
* हवा में उड़ता हुआ कागज अपने भाग्य के कारण उड़ता है परन्तु पक्षी अपनी ऊर्जा एवं परिश्रम के कारण उड़ जाता है। जिन्दगी में परिश्रम से आगे बढ़ा जा सकता है। पक्षी बनें, कागज मत बनें।
* जिन्दगी के रंगमंच पर कभी रिहर्सल नहीं चलती- हर दिन एक नया और बढ़िया शो दें। यहां रिवाइंड नहीं होता अत: अपना बैस्ट शाट देवें और सफल हो जाए।
* किसी से मुस्कान मत मांगें, परन्तु मुस्कान देने की कोशिश करें। प्यार न मांगें, वरन देवें। यह न कहें कि मैं आपके बिना नहीं रह सकता अपितु कहे- कि मैं आप ही के लिए जीवित हूं- यही आनन्द और उत्सव का रहस्य है।
यदि जिन्दगी में कोई रूकावट आपके नीचे हैं तो उसके ऊपर से निकल जाएं- यदि आपके ऊपर रूकावट है तो उसके नीचे से सरक जाएं।
* जीवन एक लंबा नाटक है। इसमें आपका अभिनय कैसा हो, यह आपको सोचना है। सुन्दर मूर्ति की भांति जीवन चारों तरफ से सुन्दर होना चाहिए।
* यदि आप आशावादी विचार धारा रखते हैं तो आपकी जिन्दगी में परेशानियां कम हो सकती है।
* जीवन को समृध्द एवं विविधता पूर्ण आपको स्वयं ही बनाना है। आपका धर्म, आपका सद्व्यवहार एवं सुन्दर दिनचर्या ही है।
* र् ईष्या, उदासी मन में न आने दें। इससे आपकी सुन्दरता कम होती है। चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं।
* आज, अभी इसी वक्त का ही जीवन है। जो बीत गया वह सपना है, भविष्य कल्पना है। सुखी वर्तमान से ही भविष्य स्वर्णिम बनता है।
* यह संसार-सदा से ही है- न हम रहेंगे, न तुम रहोगे-वक्त के साथ दुनिया का कारवां चलता रहेगा। यह मत समझें कि हम न होंगे तो दुनिया रूक जायेगी।
* हम जिन्दगी में दो ही कारणों से असफल होते हैं। एक तो बिना विचारे हम कुछ काम कर जाते हैं और कुछ बेसिर- पैर के काम कर जाते हैं।
* जिन्दगी का फलसफा एक पियानों की भांति माना गया है। सफेद स्वर सुख के द्योतक है और काले स्वर दुख की परिभाषा करते हैं। यदि दोनों स्वर ठीक से बजाए जाएं तो मधुर संगीत निकलता है।
* हवा में उड़ता हुआ कागज अपने भाग्य के कारण उड़ता है परन्तु पक्षी अपनी ऊर्जा एवं परिश्रम के कारण उड़ जाता है। जिन्दगी में परिश्रम से आगे बढ़ा जा सकता है। पक्षी बनें, कागज मत बनें।
* जिन्दगी के रंगमंच पर कभी रिहर्सल नहीं चलती- हर दिन एक नया और बढ़िया शो दें। यहां रिवाइंड नहीं होता अत: अपना बैस्ट शाट देवें और सफल हो जाए।
* किसी से मुस्कान मत मांगें, परन्तु मुस्कान देने की कोशिश करें। प्यार न मांगें, वरन देवें। यह न कहें कि मैं आपके बिना नहीं रह सकता अपितु कहे- कि मैं आप ही के लिए जीवित हूं- यही आनन्द और उत्सव का रहस्य है।
यदि जिन्दगी में कोई रूकावट आपके नीचे हैं तो उसके ऊपर से निकल जाएं- यदि आपके ऊपर रूकावट है तो उसके नीचे से सरक जाएं।
जियो जिन्दगी-जी भर के...
जीवन लम्बा नहीं, सुन्दर होना चाहिए। हमारे जीवन की डोर हमारे ही हाथों में है। भगवान भी उसी की सहायता करते हैं जो स्वयं की सहायता खुद करते हैं। जिन्दगी, जिन्दादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं? यह जीवन आपका है। इसके निर्माता या विध्वसंक आप स्वयं हैं-
* जीवन एक लंबा नाटक है। इसमें आपका अभिनय कैसा हो, यह आपको सोचना है। सुन्दर मूर्ति की भांति जीवन चारों तरफ से सुन्दर होना चाहिए।
* यदि आप आशावादी विचार धारा रखते हैं तो आपकी जिन्दगी में परेशानियां कम हो सकती है।
* जीवन को समृध्द एवं विविधता पूर्ण आपको स्वयं ही बनाना है। आपका धर्म, आपका सद्व्यवहार एवं सुन्दर दिनचर्या ही है।
* र् ईष्या, उदासी मन में न आने दें। इससे आपकी सुन्दरता कम होती है। चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं।
* आज, अभी इसी वक्त का ही जीवन है। जो बीत गया वह सपना है, भविष्य कल्पना है। सुखी वर्तमान से ही भविष्य स्वर्णिम बनता है।
* यह संसार-सदा से ही है- न हम रहेंगे, न तुम रहोगे-वक्त के साथ दुनिया का कारवां चलता रहेगा। यह मत समझें कि हम न होंगे तो दुनिया रूक जायेगी।
* हम जिन्दगी में दो ही कारणों से असफल होते हैं। एक तो बिना विचारे हम कुछ काम कर जाते हैं और कुछ बेसिर- पैर के काम कर जाते हैं।
* जिन्दगी का फलसफा एक पियानों की भांति माना गया है। सफेद स्वर सुख के द्योतक है और काले स्वर दुख की परिभाषा करते हैं। यदि दोनों स्वर ठीक से बजाए जाएं तो मधुर संगीत निकलता है।
* हवा में उड़ता हुआ कागज अपने भाग्य के कारण उड़ता है परन्तु पक्षी अपनी ऊर्जा एवं परिश्रम के कारण उड़ जाता है। जिन्दगी में परिश्रम से आगे बढ़ा जा सकता है। पक्षी बनें, कागज मत बनें।
* जिन्दगी के रंगमंच पर कभी रिहर्सल नहीं चलती- हर दिन एक नया और बढ़िया शो दें। यहां रिवाइंड नहीं होता अत: अपना बैस्ट शाट देवें और सफल हो जाए।
* किसी से मुस्कान मत मांगें, परन्तु मुस्कान देने की कोशिश करें। प्यार न मांगें, वरन देवें। यह न कहें कि मैं आपके बिना नहीं रह सकता अपितु कहे- कि मैं आप ही के लिए जीवित हूं- यही आनन्द और उत्सव का रहस्य है।
यदि जिन्दगी में कोई रूकावट आपके नीचे हैं तो उसके ऊपर से निकल जाएं- यदि आपके ऊपर रूकावट है तो उसके नीचे से सरक जाएं।
* जीवन एक लंबा नाटक है। इसमें आपका अभिनय कैसा हो, यह आपको सोचना है। सुन्दर मूर्ति की भांति जीवन चारों तरफ से सुन्दर होना चाहिए।
* यदि आप आशावादी विचार धारा रखते हैं तो आपकी जिन्दगी में परेशानियां कम हो सकती है।
* जीवन को समृध्द एवं विविधता पूर्ण आपको स्वयं ही बनाना है। आपका धर्म, आपका सद्व्यवहार एवं सुन्दर दिनचर्या ही है।
* र् ईष्या, उदासी मन में न आने दें। इससे आपकी सुन्दरता कम होती है। चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं।
* आज, अभी इसी वक्त का ही जीवन है। जो बीत गया वह सपना है, भविष्य कल्पना है। सुखी वर्तमान से ही भविष्य स्वर्णिम बनता है।
* यह संसार-सदा से ही है- न हम रहेंगे, न तुम रहोगे-वक्त के साथ दुनिया का कारवां चलता रहेगा। यह मत समझें कि हम न होंगे तो दुनिया रूक जायेगी।
* हम जिन्दगी में दो ही कारणों से असफल होते हैं। एक तो बिना विचारे हम कुछ काम कर जाते हैं और कुछ बेसिर- पैर के काम कर जाते हैं।
* जिन्दगी का फलसफा एक पियानों की भांति माना गया है। सफेद स्वर सुख के द्योतक है और काले स्वर दुख की परिभाषा करते हैं। यदि दोनों स्वर ठीक से बजाए जाएं तो मधुर संगीत निकलता है।
* हवा में उड़ता हुआ कागज अपने भाग्य के कारण उड़ता है परन्तु पक्षी अपनी ऊर्जा एवं परिश्रम के कारण उड़ जाता है। जिन्दगी में परिश्रम से आगे बढ़ा जा सकता है। पक्षी बनें, कागज मत बनें।
* जिन्दगी के रंगमंच पर कभी रिहर्सल नहीं चलती- हर दिन एक नया और बढ़िया शो दें। यहां रिवाइंड नहीं होता अत: अपना बैस्ट शाट देवें और सफल हो जाए।
* किसी से मुस्कान मत मांगें, परन्तु मुस्कान देने की कोशिश करें। प्यार न मांगें, वरन देवें। यह न कहें कि मैं आपके बिना नहीं रह सकता अपितु कहे- कि मैं आप ही के लिए जीवित हूं- यही आनन्द और उत्सव का रहस्य है।
यदि जिन्दगी में कोई रूकावट आपके नीचे हैं तो उसके ऊपर से निकल जाएं- यदि आपके ऊपर रूकावट है तो उसके नीचे से सरक जाएं।
Wednesday, August 10, 2011
हंसकर देखिये, जिंदगी खिल उठेगी
अंग्रेजी में एक कहावत है 'लाफ एंड द वर्ल्ड लाफ विद यू, वीप एंड यू वीप अलोन'। जी हां, रोने वाले का जीवन में कोई साथ नहीं और हंसने वाले को देखकर अनजान लोग भी बरबस ही उसकी ओर आकर्षित हो उठते हैं। हंसते-मुस्कुराते चेहरों को सब देखना पसंद करते हैं लेकिन मुंह लटकाये उदास झल्लाया हुआ चेहरा किस को अपनी ओर आकर्षित नहीं करता। फोटो खींचने के पहले आपसे 'चीज' इसीलिए बुलवाया जाता कि आपकी दंतपंक्ति झलकने लगे और मुस्कान से आपका चेहरा खिल उठे तथा आपको फोटो एक खुशनुमा यादगार बन जाए।
ईश्वर का वरदान
प्रसन्नता हमें ईश्वर से वरदान के रूप में मिली है, इसकी महत्ता हमें समझानी चाहिए। कहते हैं 'एक तंदरूस्ती हजार नियामत' तंदुरूस्ती का राज प्रसन्न रहना भी है। अधिकतर बीमारियां मन की उपज या शरीर और मन की मिली-जुली 'साइकोसमेटिक' देना होती है जिसे प्रसन्न रहकर आसानी से दूर किया जा सकता है।
यह सच है कि हमारे सुख और दुख बाहरी कम, भीतरी ज्यादा होते हैं यानी हमारा मन ही हमार सुख-दुख का आधार होता है। चित्त प्रसन्न रखने से दुख स्वत: ही दूर हो जाते हैं। प्रसन्नचित इंसान की बुध्दि भी अपनी पूरी क्षमता से कार्य करती है। दुखी मन होने पर सोचने समझने की बुध्दि भी क्षीण हो जाती है। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कुछ इसी तरह की बात कही है। खुलकर ठहाका लगाने से दुख के घने बादल भी छंट जाते हैं, तनाव दूर हो जाता है। जिंदगी उसे प्यार लगने लगी है। निराश जीवन में आशा का संचार होने लगता है।
जीवन में हर इंसान को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। खासकर आज की भागदौड़, आपाधापी वाली जिंदगी में छोटे-बड़े से लेकर हर कोई तनावों से घिरा है। न केवल आज की समस्या बल्कि आने वाले कल की समस्या और असुरक्षा भी इंसान का चैन हर लेती है संभावित असंभावित सब तरह की समस्याएं मिलकर इंसान का जीना दूभर कर देती है। नतीजा होता है चेहरे पर पड़ती चिंता की रेखाएं और असमय पड़ती झुर्रियां।
कहा भी गया है 'चिंता चिता समान' इस अग्नि में इंसान धीमे-धीमे सुलगता रहता है। नतीजतन उसे कई तरह के रोग लग जाते हैं। उच्च रक्त चाप दिल की बीमारी, मस्तिष्क के विकार इत्यादि। यही नहीं, चमड़ी के रोग तथा स्त्रियों में कुछ स्त्री रोग का कारण भी चिंता ही है। यह चिन्ता आधुनिक जमाने, आज के रहन सहन और सभ्यता की देन है। आज के भौतिक युग में पैसा ही हमारा भगवान बन गया है किस तरह ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए, इसी निन्यानवे के फेर में हम जीवन की अमूल्य निधि 'हंसी' से हाथ धो बैठे हैं। आज सुख, संतोष, आनन्द इत्यादि जैसे ख्वाब की बातें बनकर रह गई हैं। अगर हम खुलकर हंस नहीं सकते, हमारी हंसी गायव हो गई है तो उस पैसे के ढेर का क्या लाभ, जिसकी हमें इतनी कीमत चुकानी पड़ी है।
मिसेज राव जब शादी होकर नई-नई हमारी कालोनी में आई थी तो अपने हंसमुख और मिलनसार स्वभाव के कारण बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गई। हर कोई उनसे दोस्ती करने को लालायित रहता है हर वक्त उनके घर मिलन जूलने वालों का तांता लगा रहता। धीरे-धीरे जब उनकी गृहस्थी ं बच्चे आए, कार्यभार तथा जिम्मेदारियां बड़ी तो वह गमगीन और चिड़चिड़ी सी रहने लगी। फिर एक साल उनके पति का प्रमोशन भी रूक गया। उन्होंने भी प्रमोशन न होने की बात को इतना महत्व दिया कि हर समय सोच में डूब रहने लगे। परिणामस्वरूप उन्हें उच्च रक्त चाप और हल्का सा दिल का दौरा भी पड़ गया। मिसेज राव अब पूरी तरह बदल चुकी थी। घिसे-पिटे रिकार्ड की तरह अपने घर के दुखड़े हर समय रोते रहने की उनकी आदत बन चुकी थी। आखिर कोई कहां तक उनके दुखड़े सुनता, सब लोग उनसे कन्नी काटने लगे। अब कोई उनके पास पांच मिनट भी नहीं बैठना चाहता था। पीठ पीछे सब कहते 'अरे! उसके पास बैठकर कौन अपना भेजा खराब करें।' यहा तक कि उनकी मेहरी भी जल्दी-जल्दी काम निपटाकर भागना चाहती क्योंकि जब और कोई नहीं सुनता तो वे उसे ही बिठाये रखती और अपने दिल की भड़ास निकालना चाहती।
स्वास्थ्य के लिए हितकर
दर असल यह एक दत की बात है, जैसी भी इंसान डाल ले। कई लोगों को हमेशा रोने के लिए एक कंधा चाहिए, वे यह भी नहीं देखते कि जिसके सामने हम आपना रोना रो रहे हैं, वो कितना हमारा अपना है। हमारा भला चाहने वाला है या सिर्फ हमारे पीछे हमारी हंसी ही उड़ाना जानता है। यदि आप उपरोक्त श्रेणी के लोगों मे नहीं आना चाहते, ऐसा नहीं बनना चाहते कि जिसे देखते ही उबने के डर से लोग किनारा करना चाहें तो जरूरी है कि आप शुरू से ही अपना स्वभाव हास्य-विनोदपूर्ण एवं आशावादी बनाएं। ऐसे इंसान के पास लोग गुड़ पर मक्खी की तरह मंडराएंगे। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रसन्नता निहायत जरूरी है। एक प्रसन्नचित व्यक्ति हर बात में उजला पत्र ही देखेगा तथा उसका व्यवहार सकारात्मक ही होगा। ऐसा व्यक्ति उत्साह से भरपुर जीवन में पराजय की कल्पना तक नहीं करता।
उसका उत्साह उमंग एक जरबरदस्त भीतरी ताकत बन जाता है, जो उसे हर कार्य में सफल होने के लिए 'मोटीवेट' करता है। कहते हैं प्रसन्न रहने में ही चिंराय होने का राज छुपा है। हंसी इंसान के लिए सबसे अच्छी दवा है। अंग्रेजी मे कहावत है 'लाफ्टर इज द बेस्ट मेडिसन' यह दवा मुफ्त मिलती है हर समय हर जगह उपलब्ध है। मोटे लोग अक्सर खुशमिजाज और पतले-दुबले चिड़चिड़े व तुनकमिजाज पाए जाते हैं।
शायद मोटे लोगों की सेहत का राज उनका खुशमिजाज रहना, हंसना और हंसाना ही है। खुलकर हंसने से हमारे फेफड़े ही नहीं बल्कि शरीर की छोटी से छोटी धमनी और रक्तवाहिनी भी प्रभावित होती है। उनमें लहर उठती है, खून का संचार बढ़ता है। इस तरह हम देखते हैं कि हंसी एक अच्छा व्यायाम भी हैं।
डा. बैजामिन लिखते है, 'स्वास्थ्य की दृष्टि से हंसने की आदत डालना बड़ा महत्वपूर्ण है।'
कुछ विद्वान डाक्टरों का कथन है कि हंसी की क्रिया के पश्चात शरीर को वैसी ही ताजगी और स्फूर्ति प्राप्त होती है, जैसी गहरी नींद सोन से।
ईश्वर का वरदान
प्रसन्नता हमें ईश्वर से वरदान के रूप में मिली है, इसकी महत्ता हमें समझानी चाहिए। कहते हैं 'एक तंदरूस्ती हजार नियामत' तंदुरूस्ती का राज प्रसन्न रहना भी है। अधिकतर बीमारियां मन की उपज या शरीर और मन की मिली-जुली 'साइकोसमेटिक' देना होती है जिसे प्रसन्न रहकर आसानी से दूर किया जा सकता है।
यह सच है कि हमारे सुख और दुख बाहरी कम, भीतरी ज्यादा होते हैं यानी हमारा मन ही हमार सुख-दुख का आधार होता है। चित्त प्रसन्न रखने से दुख स्वत: ही दूर हो जाते हैं। प्रसन्नचित इंसान की बुध्दि भी अपनी पूरी क्षमता से कार्य करती है। दुखी मन होने पर सोचने समझने की बुध्दि भी क्षीण हो जाती है। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कुछ इसी तरह की बात कही है। खुलकर ठहाका लगाने से दुख के घने बादल भी छंट जाते हैं, तनाव दूर हो जाता है। जिंदगी उसे प्यार लगने लगी है। निराश जीवन में आशा का संचार होने लगता है।
जीवन में हर इंसान को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। खासकर आज की भागदौड़, आपाधापी वाली जिंदगी में छोटे-बड़े से लेकर हर कोई तनावों से घिरा है। न केवल आज की समस्या बल्कि आने वाले कल की समस्या और असुरक्षा भी इंसान का चैन हर लेती है संभावित असंभावित सब तरह की समस्याएं मिलकर इंसान का जीना दूभर कर देती है। नतीजा होता है चेहरे पर पड़ती चिंता की रेखाएं और असमय पड़ती झुर्रियां।
कहा भी गया है 'चिंता चिता समान' इस अग्नि में इंसान धीमे-धीमे सुलगता रहता है। नतीजतन उसे कई तरह के रोग लग जाते हैं। उच्च रक्त चाप दिल की बीमारी, मस्तिष्क के विकार इत्यादि। यही नहीं, चमड़ी के रोग तथा स्त्रियों में कुछ स्त्री रोग का कारण भी चिंता ही है। यह चिन्ता आधुनिक जमाने, आज के रहन सहन और सभ्यता की देन है। आज के भौतिक युग में पैसा ही हमारा भगवान बन गया है किस तरह ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए, इसी निन्यानवे के फेर में हम जीवन की अमूल्य निधि 'हंसी' से हाथ धो बैठे हैं। आज सुख, संतोष, आनन्द इत्यादि जैसे ख्वाब की बातें बनकर रह गई हैं। अगर हम खुलकर हंस नहीं सकते, हमारी हंसी गायव हो गई है तो उस पैसे के ढेर का क्या लाभ, जिसकी हमें इतनी कीमत चुकानी पड़ी है।
मिसेज राव जब शादी होकर नई-नई हमारी कालोनी में आई थी तो अपने हंसमुख और मिलनसार स्वभाव के कारण बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गई। हर कोई उनसे दोस्ती करने को लालायित रहता है हर वक्त उनके घर मिलन जूलने वालों का तांता लगा रहता। धीरे-धीरे जब उनकी गृहस्थी ं बच्चे आए, कार्यभार तथा जिम्मेदारियां बड़ी तो वह गमगीन और चिड़चिड़ी सी रहने लगी। फिर एक साल उनके पति का प्रमोशन भी रूक गया। उन्होंने भी प्रमोशन न होने की बात को इतना महत्व दिया कि हर समय सोच में डूब रहने लगे। परिणामस्वरूप उन्हें उच्च रक्त चाप और हल्का सा दिल का दौरा भी पड़ गया। मिसेज राव अब पूरी तरह बदल चुकी थी। घिसे-पिटे रिकार्ड की तरह अपने घर के दुखड़े हर समय रोते रहने की उनकी आदत बन चुकी थी। आखिर कोई कहां तक उनके दुखड़े सुनता, सब लोग उनसे कन्नी काटने लगे। अब कोई उनके पास पांच मिनट भी नहीं बैठना चाहता था। पीठ पीछे सब कहते 'अरे! उसके पास बैठकर कौन अपना भेजा खराब करें।' यहा तक कि उनकी मेहरी भी जल्दी-जल्दी काम निपटाकर भागना चाहती क्योंकि जब और कोई नहीं सुनता तो वे उसे ही बिठाये रखती और अपने दिल की भड़ास निकालना चाहती।
स्वास्थ्य के लिए हितकर
दर असल यह एक दत की बात है, जैसी भी इंसान डाल ले। कई लोगों को हमेशा रोने के लिए एक कंधा चाहिए, वे यह भी नहीं देखते कि जिसके सामने हम आपना रोना रो रहे हैं, वो कितना हमारा अपना है। हमारा भला चाहने वाला है या सिर्फ हमारे पीछे हमारी हंसी ही उड़ाना जानता है। यदि आप उपरोक्त श्रेणी के लोगों मे नहीं आना चाहते, ऐसा नहीं बनना चाहते कि जिसे देखते ही उबने के डर से लोग किनारा करना चाहें तो जरूरी है कि आप शुरू से ही अपना स्वभाव हास्य-विनोदपूर्ण एवं आशावादी बनाएं। ऐसे इंसान के पास लोग गुड़ पर मक्खी की तरह मंडराएंगे। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रसन्नता निहायत जरूरी है। एक प्रसन्नचित व्यक्ति हर बात में उजला पत्र ही देखेगा तथा उसका व्यवहार सकारात्मक ही होगा। ऐसा व्यक्ति उत्साह से भरपुर जीवन में पराजय की कल्पना तक नहीं करता।
उसका उत्साह उमंग एक जरबरदस्त भीतरी ताकत बन जाता है, जो उसे हर कार्य में सफल होने के लिए 'मोटीवेट' करता है। कहते हैं प्रसन्न रहने में ही चिंराय होने का राज छुपा है। हंसी इंसान के लिए सबसे अच्छी दवा है। अंग्रेजी मे कहावत है 'लाफ्टर इज द बेस्ट मेडिसन' यह दवा मुफ्त मिलती है हर समय हर जगह उपलब्ध है। मोटे लोग अक्सर खुशमिजाज और पतले-दुबले चिड़चिड़े व तुनकमिजाज पाए जाते हैं।
शायद मोटे लोगों की सेहत का राज उनका खुशमिजाज रहना, हंसना और हंसाना ही है। खुलकर हंसने से हमारे फेफड़े ही नहीं बल्कि शरीर की छोटी से छोटी धमनी और रक्तवाहिनी भी प्रभावित होती है। उनमें लहर उठती है, खून का संचार बढ़ता है। इस तरह हम देखते हैं कि हंसी एक अच्छा व्यायाम भी हैं।
डा. बैजामिन लिखते है, 'स्वास्थ्य की दृष्टि से हंसने की आदत डालना बड़ा महत्वपूर्ण है।'
कुछ विद्वान डाक्टरों का कथन है कि हंसी की क्रिया के पश्चात शरीर को वैसी ही ताजगी और स्फूर्ति प्राप्त होती है, जैसी गहरी नींद सोन से।
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