आत्मविश्वास में कमी आ जाने से व्यक्ति अपने को नाकारा समझ निराशा के गर्त में डूबता चला जाता है। छोटी-छोटी सी बातें उसे उद्वेलित करने लगती है। वह जीवन से सहज ही हार मान कर कभी आत्महत्या तक करने की सोच बैठता है।
ऐसे में उनका बहक जाना भी मुश्किल नहीं। जरा से फुसलाए जाने पर वह शराब के नशे की लत लगा बैठता है। मेनिक डिप्रेसिव के लक्षण उसमें उभर आते हैं जैसे कभी अत्यधिक प्रसन्न प्रफुल्लित तो कभी बेहद दुखी डिप्रेस्ड।
औरतों में उदासी के लक्षण कई बार उनमें बायलॉजिकल परिवर्तन से संबंधित हो सकते हैं। गर्भधारण, रजोनिवृत्ति, मासिक चक्र से पहले या डिलीवरी के बाद उनमें उदासी के फिट पड़ सकते हैं।
आज की तनावभरी जिन्दगी भी इसकी उत्तरदायी मानी जा सकती है उसके अलावा जेनेटिक कारण तो हैं ही।
अगर माता-पिता इस मानसिक रोग से पीड़ित हैं तो बच्चे में इस रोग की आशंका 40 प्रतिशत होती है, किसी एक के पीड़ित होने पर इसकी आधी। हार्मोन का असंतुलन भी उदासी का कारण हो सकता है।
शहरी तनाव का आलम यह है कि बचपन से ही जहां बच्चा नर्सरी में जाने लायक हुआ, उसका बचपन उससे छिनने लगता है। नॉलेज दिमाग में ठूंस-ठूंस कर भरी जाती है। बच्चे के दिमाग पर बहुत स्ट्रेस डाल उसे 'चाइल्ड प्रोडिजी' बनाने की ललक माता-पिता को बच्चे के प्रति संवेदनशील बना देती है।
इससे तंत्रिका तंत्र में समूची या कुछ कमी से उदासी घिर जाती है।
ऐसा नहीं है कि यह बीमारी लाइलाज हो। अगर उचित विधिवत् सही इलाज मिले तो रोग दूर किया जा सकता है। इलाज के सही तरीके हैं- दवाएं, सलाह, मनोचिकित्सा और इलेक्ट्रिक शॉक।
भूलकर भी ओझाओं या झाड़-फूंक करने वालों के चक्कर में न पड़ें। इससे बीमारी ठीक होने के बजाय और बढ़ेगी। इस तरह के ढोंगी लोग आपकी जेब तो साफ करेंगे ही, कभी कभी मरीज की जान भी चली जाती है।
मन से या किसी से भी पूछकर कोई भी दवा कभी न लें। डिग्री होल्डर अनुभवी डाक्टर की सलाह पर चलें।
डिप्रेशन के मरीजों के लिए मनोचिकित्सा तथा सलाह (काउंसलिंग) उपयोगी है। मनोचिकित्सा में रोगी के अंतर्मन की थाह ली जाती है। कई बार रोगी में बचपन से पलती आ रही कुछ ग्रंथियां चिकत्सक के सामने खुलती है। ऐसा उनकी एक्सपर्ट बातचीत के द्वारा ही संभव हो पाता है। बीमारी की जड़ पकड़ में आने पर आगे का इलाज आसान हो जाता है।
केस गंभीर होने तथा मरीज में आत्महत्या की प्रवृत्ति होने पर इलेक्ट्रिक शॉक देकर मरीज का इलाज किया जाता है।
मानसिक रोगों को लेकर समाज में कई गलतफहमियां हैं। लोग इसे रोग नहीं समझते। परिणामस्वरूप वे रोगी से सहानुभूति न रख उसका मजाक बनाने से नहीं चूकते। इससे स्थिति और बिगड़ती है।
मानसिक रोग किसी के अपने हाथ की बात तो नहीं। अन्य रोगों की तरह यह रोग ही है। इसके उपचार में रोगी के परिवार का सहयोग आवश्यक है। रोगी को चाहिए परिवार का स्नेह, प्यार, अपनापन और विश्वास। उसे दिल खोलकर बात करने के लिए प्रेरित करें।
अगर आपको लगता है कि रोगी आत्महत्या कर सकता है तो आपकी उसके प्रति जिम्मेदारी अत्यधिक बढ़ जाती है अगर वह आपका अपना है तो उसे एकाकी न छोड़ें और नींद की गोलियां, छुरी व चाकू जैसे हथियार उसके पास न रहने दें। अगर भावावेश में वह अपना या परिवार का कोई भारी नुकसान करने की सोचे तो उसे धैर्य से समझाएं बगैर उसे यह महसूस कराए कि वह कम अक्ल या नीम पागल है। रोगी स्नेह प्यार मिलने पर जल्दी ठीक हो सकता है। दवाइयां तो अपना असर करती ही हैं।
Wednesday, March 30, 2011
Thursday, March 17, 2011
हमारे तनाव, दु:ख, चिन्ता का कारण हम ही हैं
भारत का विचार दर्शन और जीवन पध्दति संतोष की शिक्षा देती है। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास, कर्म के प्रति आस्था और फल के प्रति विरक्ति का संगीत यहां सुनाई देता है। संतोष का यह भाव जीवन में सादा रहन-सहन और उच्च विचार में दिखाई भी देता है। हम युगों से इस विचार को जी रहे हैं और इसी की शिक्षा जन्म से दी जा रही है फलस्वरूप धन-वैभव, सम्पत्ति के प्रति बहुत ललक सामान्यजन में नहीं पाई जाती। हमारे देश में एक लोकोक्ति प्रचलित है- 'रुखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी, मत ललचाए जी' इसी प्रकार एक अन्य कवि लिखता है- 'गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान'।
ऐसा नहीं है कि भारतीय कहावतें और साहित्य ही यह कहते हैं। हमारे देश के धार्मिक ग्रंथ और शास्त्र भी हमें संतोष ग्रहण करने की शिक्षा देते हैं। श्रीमद् भगवद् में कहा गया है- 'जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड और कांटों से कोई भय नहीं होता, ऐसे ही जिसके मन में संतोष है उसके लिए सर्वदा सब जगह सुख ही सुख है, दु:ख है ही नहीं। (7/15/17) पवित्र ग्रंथ श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय चार और बारह में संतोष धारण करने को कहा गया है। श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है- 'जो स्वत: होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वैत भाव से मुक्त है औरर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता और असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता।' इसी प्रकार बाहरवें अध्याय में कहा गया है- 'जो सुख दु:ख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें, मन तथा बुध्दि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है' इसी प्रकार 19वें श्लोक में कहा गया है- 'किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, वह पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमें सभी दूर सुनाई देता है। इस जयगान में कर्म करने को मना नहीं किया गया है। लोकोक्ति कहती है- 'देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी' अर्थात् लोभ, लालच, प्रलोभन के प्रति हमें सावधान किया गया है क्योंकि यही हमारे लिए तनाव, चिन्ता और दु:ख के कारण हैं। श्रीमद् भगवद गीता भी कहती है- जोर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता' ध्यान दीजिए।र् ईष्या है दु:ख का कारण, इसलिए संतोष ग्रहण करने का निर्देश है। कर्म तो करना ही है। सफलता-असफलता का प्रश्न तो तभी उठेगा जब हम कर्म करेंगे। श्रीमद् भगवद गीता युध्दभूमि में गाया गान है। वह कर्मयोग की शिक्षा देता है, इसलिए सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से युध्द करने की प्रेरणा भगवान देते हैं किन्तु कर्म फल के प्रति आसक्ति के दोष के रूप मेंर् ईष्या-जलन से मुक्ति के लिए संतोष को आवश्यक बताया गया है। यदि हम तनाव मुक्त, चिन्ता मुक्त होना चाहते हैं तो निरंतर कर्मरत रह कर भी अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठकर हमें सोचना ही पड़ेगा।
संतोष का जयगान क्यों
हमें यह समझ लेना चाहिए कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमारी सुख शान्ति और समृध्दि के लिए ही किया गया है। इस संबंध में महाभारत के आदि पर्व में वेदव्यासजी जो कहते हैं उस पर ध्यान दीजिए- 'रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा स्वर्ण, सारे पशु और स्त्रियां किसी पुरुष को मिल जाए, तो भी वे सबके सब उसके लिए पर्याप्त नहीं होंगे, वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझ कर शान्ति धारण करें, भोगेच्छा को दवा दें' क्या यह सच नहीं है? इस सच से आज तक कोई इंकार नहीं कर सकता। चाणक्य नीति में कहा गया है- धन, जीवन, स्त्री और भोजन के विषय में सब प्राणी अतृप्ता होकर गए हैं, जाते हैं और जाएंगे' कठोपनिषद में कहा गया है- 'मनुष्य की तृप्ति धन से कभी नहीं हो सकती।'
मनोविज्ञान भी मानता है कि मनुष्य की इच्छाएं अनन्त होती हैं। प्रतिदिन उठती है, बदलती है और आदमी को चंचल करती रहती है। पश्चिमी विचारधारा धन और सम्पत्ति के प्रति ही हमारा असंतोष प्रकट करती है। उसका स्पष्ट संदेश है कि सुख और शान्ति, समृध्दि और सुविधाओं के आधार पर प्राप्त होती है और इन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करना चाहिए। वे खुली प्रतियोगिता और मुक्त व्यापार पर हमारा ध्यान दिलाते हैं जिसके कारण सक्षम योग्य व्यक्ति ही अधिकतम धन अर्जन कर सुख शान्ति पाता है। पश्चिमी विचारधारा इसलिए घोषणा करती है कि जीवन में असंतोष आवश्यक है। आज जो भी प्रगति विज्ञान ने की है उसका श्रेय भी इसी असंतोष को दिया जाता है। भारत सदा से संतोष के गीत गाता रहा इसलिए यहां विज्ञान ने कोई प्रगति नहीं की। हम हर क्षेत्र में पिछड़ गए। कुछ विद्वानों का तो यह भी मत है कि हमारी संतोष वृत्ति के कारण ही हम आलस्य, उदासीनता के मकड़जाल में फंसकर गुलाम बन गए। जीवन में असंतोष हमें कार्य करने, आगे बढ़ने और सुख सुविधाएं देने की प्रेरणा देता है।
क्या यह सच है
यह एक ऐसा विचार है जिस पर हमें ध्यान अवश्य देना चाहिए। हमारे देश में एक कहावत है- 'पैसा पैसे को खींचता है' हमारा अनुभव भी यही है। बड़े उद्योगपतियों के हाथ लम्बे होते हैं। वे विशाल उद्योगों के द्वारा अपनी व्यवस्थाएं ऐसी बनाते हैं जो उनके फलने-फूलने के अनुकूल हो। पवित्र ग्रंथ बाईबिल का भी ऐसा ही संदेश है कि जिसके पास है उसे और दिया जाएगा।
ऐसा नहीं है कि भारत में इस संदेश का ज्ञान नहीं था। भारतीय संस्कृत कवि माघ शिशुपाल वध में कहते हैं- 'मैं ऐसा मानता हूं कि जो अपनी थोड़ी सी सम्पत्ति से ही संतुष्ट हो जाता है विधाता भी स्वयं को कृत्य कृत्य मानकर उसकी सम्पत्ति को नहीं बढ़ाता' इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष का फल स्पष्ट रूप से कड़वा दिखाई देता है।
असंतोष के परिणाम
पश्चिम जगत की दृष्टि व्यक्तिवादी है। वह व्यक्ति के उन्नयन को ही देश और समाज की उन्नति मानता है। पश्चिम में इसलिए निस्संदेह भौतिक प्रगति की है, पश्चिम की दृष्टि 'देह दृष्टि' है। शरीर के अतिरिक्त आत्मा या अन्त:करण होता है, इस ओर उसका ध्यान नहीं है। मानव का अधिकतम कल्याण अर्जन में है- ऐसा वे मानते हैं। उनकी दृष्टि को गलत भी नहीं कहा जा सकता।
विचारणीय प्रश्न यह है कि इस विचार का अंतिम परिणाम क्या होता है। अंतिम परिणाम ही महत्वपूर्ण होता है। इस संबंध में अंग्रेज पादरी टामसफुलर जो कहते हैं उस पर विचार कीजिए। वे कहते हैं- 'यदि तुम्हारी इच्छाएं अनन्त होगी तो तुम्हारी चिन्ताएं व भय भी अनन्त ही होगी।' ऐसा ही संकेत कवि गेटे देते हैं, वे कहते हैं- 'जो स्रोत स्वत: तेरे हृदय से फूट कर नहीं निकलता है, उससे तुझे सच्ची तृप्ति कदापि नहीं मिल सकती।'
उपरोक्त दोनों मत को जान लेने के बाद अब यह विचार करना आवश्यक हो गया है कि असंतोष के मार्ग पर चल कर हमारे भय, तनाव, चिन्ता, अवसाद बढ़ तो नहीं गए हैं? क्या इस मार्ग पर चल कर हम अधिक सुख शान्ति का भोग कर रहे हैं? समृध्दि ने हमारे लिए नई नई सुविधाएं प्रदान की हैं। उससे हमें विश्राम का अधिक समय मिल रहा है? हम कला, संगीत, साहित्य को समृध्द कर रहे हैं। हमारे परिवार अधिक प्रेम, अपनत्व, त्याग और सेवा के गुणों को अपना रहे हैं? समाज और देश में भाईचारा बढ़ा है? सहयोग बढ़ा है, धन सम्पत्ति के अर्जन से वृध्द अपना बुढ़ापा सुखपूर्वक काट रहे हैं। बच्चों में बचपन अधिक आनन्ददायक हो गया है, क्या है इसके परिणाम?
हम सब जानते हैं इन प्रश्नों के उत्तर। असंतोष की आग में सभी जल रहे हैं।र् ईष्या, द्वेष की ज्वाला हमें जला रही है। भाईचारा समाप्त हो गया है। किसी के पास जहर खाने के लिए समय नहीं है। सभी अत्यधिक व्यस्त है, पढ़ना लिखना हम भूल रहे हैं, साहित्य, कला, संगीत, संस्कृति के लिए समय कहां? तनाव, अवसाद बढ़ गए हैं। हृदयरोग, रक्तचाप, डाइबिटीज जैसी बीमारियां अपना साम्राज्य जमा बैठी है। क्या युवा, क्या बालक निराशा के गर्त में न्यायालय पहुंच रहे हैं। परिवारों के झगड़े पुलिस स्टेशन और न्यायालय पहुंच रहे हैं, तलाक बढ़ गए हैं। बचपना संकटग्रस्त है। इन स्थितियों के लिए पश्चिमी हवा का असंतोष ही तो कारण है।
इतना ही नहीं आज, अभी इसी समय करोड़पति बनने की होड़ में राजतंत्र पर घोटाले, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद और खाद्य पदार्थों में मिलावट, नकली दवाइयां के उद्योगों से बाजार भर गया है। कोई किसी पर विश्वास नहीं कर रहा। नारी देह का व्यापार हो या बलात्कार आम बात जैसी लगती है। धन चाहिए- चाहे जैसे मिले, तब सुख शांति, समृध्दि के स्वप्न कहां देख सकते हैं।
हमारे देश की गुलामी का कारण संतोष धारण करना नहीं, वरन् वह लोभ और लालच रहा जिसने जयचन्द और मीर जाफर पैदा किए। आज भी धन के मायाजाल में बड़े-बड़े राजनेता, अधिकारी, पूंजीपति, पत्रकार उलझते दिखते हैं। तब याद आता है कि यह असंतोष की अवधारणा ही है जो देश को देश नहीं समझती। हमारी गुलामी का कारण लोभ, प्रलोभन था जो असंतोष की उपज है। हमारे तनाव, अशान्ति, दु:ख, चिन्ता का कारण हमारे अन्दर ही है। उसका इलाज हमें अपने आप ही करना होगा। हमारेर् ईष्या, द्वेष, लालच, लोभ का इलाज दुनिया में कहीं नहीं है। हमने ही अपने अंदर आग लगाई है, हम ही इसे संतोष के जल से बुझा सकते हैं। भारतीय दर्शन में इसीलिए संतोष का जयगान किया गया है। असंतोष की आग कभी खत्म नहीं हो सकती। सादा जीवन उच्च विचार ही इसकी एकमात्र दवा है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय कहावतें और साहित्य ही यह कहते हैं। हमारे देश के धार्मिक ग्रंथ और शास्त्र भी हमें संतोष ग्रहण करने की शिक्षा देते हैं। श्रीमद् भगवद् में कहा गया है- 'जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड और कांटों से कोई भय नहीं होता, ऐसे ही जिसके मन में संतोष है उसके लिए सर्वदा सब जगह सुख ही सुख है, दु:ख है ही नहीं। (7/15/17) पवित्र ग्रंथ श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय चार और बारह में संतोष धारण करने को कहा गया है। श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है- 'जो स्वत: होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वैत भाव से मुक्त है औरर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता और असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता।' इसी प्रकार बाहरवें अध्याय में कहा गया है- 'जो सुख दु:ख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें, मन तथा बुध्दि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है' इसी प्रकार 19वें श्लोक में कहा गया है- 'किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, वह पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमें सभी दूर सुनाई देता है। इस जयगान में कर्म करने को मना नहीं किया गया है। लोकोक्ति कहती है- 'देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी' अर्थात् लोभ, लालच, प्रलोभन के प्रति हमें सावधान किया गया है क्योंकि यही हमारे लिए तनाव, चिन्ता और दु:ख के कारण हैं। श्रीमद् भगवद गीता भी कहती है- जोर् ईष्या नहीं करता, जो सफलता असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता' ध्यान दीजिए।र् ईष्या है दु:ख का कारण, इसलिए संतोष ग्रहण करने का निर्देश है। कर्म तो करना ही है। सफलता-असफलता का प्रश्न तो तभी उठेगा जब हम कर्म करेंगे। श्रीमद् भगवद गीता युध्दभूमि में गाया गान है। वह कर्मयोग की शिक्षा देता है, इसलिए सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से युध्द करने की प्रेरणा भगवान देते हैं किन्तु कर्म फल के प्रति आसक्ति के दोष के रूप मेंर् ईष्या-जलन से मुक्ति के लिए संतोष को आवश्यक बताया गया है। यदि हम तनाव मुक्त, चिन्ता मुक्त होना चाहते हैं तो निरंतर कर्मरत रह कर भी अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठकर हमें सोचना ही पड़ेगा।
संतोष का जयगान क्यों
हमें यह समझ लेना चाहिए कि संतोष रूपी गुण का जयगान हमारी सुख शान्ति और समृध्दि के लिए ही किया गया है। इस संबंध में महाभारत के आदि पर्व में वेदव्यासजी जो कहते हैं उस पर ध्यान दीजिए- 'रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा स्वर्ण, सारे पशु और स्त्रियां किसी पुरुष को मिल जाए, तो भी वे सबके सब उसके लिए पर्याप्त नहीं होंगे, वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझ कर शान्ति धारण करें, भोगेच्छा को दवा दें' क्या यह सच नहीं है? इस सच से आज तक कोई इंकार नहीं कर सकता। चाणक्य नीति में कहा गया है- धन, जीवन, स्त्री और भोजन के विषय में सब प्राणी अतृप्ता होकर गए हैं, जाते हैं और जाएंगे' कठोपनिषद में कहा गया है- 'मनुष्य की तृप्ति धन से कभी नहीं हो सकती।'
मनोविज्ञान भी मानता है कि मनुष्य की इच्छाएं अनन्त होती हैं। प्रतिदिन उठती है, बदलती है और आदमी को चंचल करती रहती है। पश्चिमी विचारधारा धन और सम्पत्ति के प्रति ही हमारा असंतोष प्रकट करती है। उसका स्पष्ट संदेश है कि सुख और शान्ति, समृध्दि और सुविधाओं के आधार पर प्राप्त होती है और इन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करना चाहिए। वे खुली प्रतियोगिता और मुक्त व्यापार पर हमारा ध्यान दिलाते हैं जिसके कारण सक्षम योग्य व्यक्ति ही अधिकतम धन अर्जन कर सुख शान्ति पाता है। पश्चिमी विचारधारा इसलिए घोषणा करती है कि जीवन में असंतोष आवश्यक है। आज जो भी प्रगति विज्ञान ने की है उसका श्रेय भी इसी असंतोष को दिया जाता है। भारत सदा से संतोष के गीत गाता रहा इसलिए यहां विज्ञान ने कोई प्रगति नहीं की। हम हर क्षेत्र में पिछड़ गए। कुछ विद्वानों का तो यह भी मत है कि हमारी संतोष वृत्ति के कारण ही हम आलस्य, उदासीनता के मकड़जाल में फंसकर गुलाम बन गए। जीवन में असंतोष हमें कार्य करने, आगे बढ़ने और सुख सुविधाएं देने की प्रेरणा देता है।
क्या यह सच है
यह एक ऐसा विचार है जिस पर हमें ध्यान अवश्य देना चाहिए। हमारे देश में एक कहावत है- 'पैसा पैसे को खींचता है' हमारा अनुभव भी यही है। बड़े उद्योगपतियों के हाथ लम्बे होते हैं। वे विशाल उद्योगों के द्वारा अपनी व्यवस्थाएं ऐसी बनाते हैं जो उनके फलने-फूलने के अनुकूल हो। पवित्र ग्रंथ बाईबिल का भी ऐसा ही संदेश है कि जिसके पास है उसे और दिया जाएगा।
ऐसा नहीं है कि भारत में इस संदेश का ज्ञान नहीं था। भारतीय संस्कृत कवि माघ शिशुपाल वध में कहते हैं- 'मैं ऐसा मानता हूं कि जो अपनी थोड़ी सी सम्पत्ति से ही संतुष्ट हो जाता है विधाता भी स्वयं को कृत्य कृत्य मानकर उसकी सम्पत्ति को नहीं बढ़ाता' इस प्रकार हम देखते हैं कि संतोष का फल स्पष्ट रूप से कड़वा दिखाई देता है।
असंतोष के परिणाम
पश्चिम जगत की दृष्टि व्यक्तिवादी है। वह व्यक्ति के उन्नयन को ही देश और समाज की उन्नति मानता है। पश्चिम में इसलिए निस्संदेह भौतिक प्रगति की है, पश्चिम की दृष्टि 'देह दृष्टि' है। शरीर के अतिरिक्त आत्मा या अन्त:करण होता है, इस ओर उसका ध्यान नहीं है। मानव का अधिकतम कल्याण अर्जन में है- ऐसा वे मानते हैं। उनकी दृष्टि को गलत भी नहीं कहा जा सकता।
विचारणीय प्रश्न यह है कि इस विचार का अंतिम परिणाम क्या होता है। अंतिम परिणाम ही महत्वपूर्ण होता है। इस संबंध में अंग्रेज पादरी टामसफुलर जो कहते हैं उस पर विचार कीजिए। वे कहते हैं- 'यदि तुम्हारी इच्छाएं अनन्त होगी तो तुम्हारी चिन्ताएं व भय भी अनन्त ही होगी।' ऐसा ही संकेत कवि गेटे देते हैं, वे कहते हैं- 'जो स्रोत स्वत: तेरे हृदय से फूट कर नहीं निकलता है, उससे तुझे सच्ची तृप्ति कदापि नहीं मिल सकती।'
उपरोक्त दोनों मत को जान लेने के बाद अब यह विचार करना आवश्यक हो गया है कि असंतोष के मार्ग पर चल कर हमारे भय, तनाव, चिन्ता, अवसाद बढ़ तो नहीं गए हैं? क्या इस मार्ग पर चल कर हम अधिक सुख शान्ति का भोग कर रहे हैं? समृध्दि ने हमारे लिए नई नई सुविधाएं प्रदान की हैं। उससे हमें विश्राम का अधिक समय मिल रहा है? हम कला, संगीत, साहित्य को समृध्द कर रहे हैं। हमारे परिवार अधिक प्रेम, अपनत्व, त्याग और सेवा के गुणों को अपना रहे हैं? समाज और देश में भाईचारा बढ़ा है? सहयोग बढ़ा है, धन सम्पत्ति के अर्जन से वृध्द अपना बुढ़ापा सुखपूर्वक काट रहे हैं। बच्चों में बचपन अधिक आनन्ददायक हो गया है, क्या है इसके परिणाम?
हम सब जानते हैं इन प्रश्नों के उत्तर। असंतोष की आग में सभी जल रहे हैं।र् ईष्या, द्वेष की ज्वाला हमें जला रही है। भाईचारा समाप्त हो गया है। किसी के पास जहर खाने के लिए समय नहीं है। सभी अत्यधिक व्यस्त है, पढ़ना लिखना हम भूल रहे हैं, साहित्य, कला, संगीत, संस्कृति के लिए समय कहां? तनाव, अवसाद बढ़ गए हैं। हृदयरोग, रक्तचाप, डाइबिटीज जैसी बीमारियां अपना साम्राज्य जमा बैठी है। क्या युवा, क्या बालक निराशा के गर्त में न्यायालय पहुंच रहे हैं। परिवारों के झगड़े पुलिस स्टेशन और न्यायालय पहुंच रहे हैं, तलाक बढ़ गए हैं। बचपना संकटग्रस्त है। इन स्थितियों के लिए पश्चिमी हवा का असंतोष ही तो कारण है।
इतना ही नहीं आज, अभी इसी समय करोड़पति बनने की होड़ में राजतंत्र पर घोटाले, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद और खाद्य पदार्थों में मिलावट, नकली दवाइयां के उद्योगों से बाजार भर गया है। कोई किसी पर विश्वास नहीं कर रहा। नारी देह का व्यापार हो या बलात्कार आम बात जैसी लगती है। धन चाहिए- चाहे जैसे मिले, तब सुख शांति, समृध्दि के स्वप्न कहां देख सकते हैं।
हमारे देश की गुलामी का कारण संतोष धारण करना नहीं, वरन् वह लोभ और लालच रहा जिसने जयचन्द और मीर जाफर पैदा किए। आज भी धन के मायाजाल में बड़े-बड़े राजनेता, अधिकारी, पूंजीपति, पत्रकार उलझते दिखते हैं। तब याद आता है कि यह असंतोष की अवधारणा ही है जो देश को देश नहीं समझती। हमारी गुलामी का कारण लोभ, प्रलोभन था जो असंतोष की उपज है। हमारे तनाव, अशान्ति, दु:ख, चिन्ता का कारण हमारे अन्दर ही है। उसका इलाज हमें अपने आप ही करना होगा। हमारेर् ईष्या, द्वेष, लालच, लोभ का इलाज दुनिया में कहीं नहीं है। हमने ही अपने अंदर आग लगाई है, हम ही इसे संतोष के जल से बुझा सकते हैं। भारतीय दर्शन में इसीलिए संतोष का जयगान किया गया है। असंतोष की आग कभी खत्म नहीं हो सकती। सादा जीवन उच्च विचार ही इसकी एकमात्र दवा है।
Wednesday, March 16, 2011
आत्मबोध से ही आध्यात्मिक ज्ञान संभव है
हमारा जीवन आध्यात्मिक कैसे हो? हम अध्यात्म की ओर अग्रसर कैसे हों? ऐसे प्रश्न अक्सर किये जाते हैं। इनका उत्तर जानने से पूर्व हमें अध्यात्म क्या है, इसे जानना होगा। अध्यात्म यानी आत्मा का ज्ञान, अपने निज स्वरूप का ज्ञान, जिसे आत्मबोध भी कहते हैं। आत्मज्ञान होते ही हमें अमृतत्व की प्राप्ति हो सकती है।
प्राचीन ऋषियों ने इसको जाना था। उन्होंने आत्मबोध के साथ-साथ साधना एवं तपस्या द्वारा अपने जीवन में परमात्मा से साक्षात्कार भी किया था। हमारा मन बड़ा चंचल है। इसमें विचारों का प्रवाह होता रहता है।
इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी उत्पन्न हो जाती है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। कहते हैं मन तो मन ही है। यह किसी के वश में नहीं रहता। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।
मन का दूसरा नाम विचार है। विचारों का प्रवाह है मन जैसे जल का प्रचंड प्रवाह बहता है तो वह इधर उधर बहकर बिना किसी उपयोग के व्यर्थ चला जाता है वैसे ही मस्तिष्क में आ रहे विचारों का प्रवाह भी व्यर्थ ही चला जाता है।
मन की गति को कोई नहीं जान सकता। एक क्षण में कभी मन हजारों मील दूर के स्थान पर पहुंच जाता है तो कभी हजारों वर्षों पूर्व के इतिहास में। मन की शक्ति असीमित है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि अगर हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर सकें तो सारे विश्व को जीत सकते हैं।
आत्मज्ञान तथा आत्मबोध से ही मन को नियमित किया जा सकता है। हमारे मन में शुभ विचार आवें, इसके लिये हमें सद्पुरुषों के साथ सत्संग, सद्ग्रंथों का अध्ययन, मनन, चिंतन करना चाहिये।
मन शुध्द दूध की तरह है। बाल्यावस्था में हमारा मन इसी तरह शुध्द व पवित्र होता है किन्तु दूध में पानी मिलाया जावे तो दूध पतला हो जायेगा, दूध में गंदा पानी मिलाया जायेगा तो दूध गंदा हो जायेगा किन्तु इस दूध को गरम करके दही बनाकर मथा जावे तो इससे प्राप्त नवनीत या मक्खन पानी से प्रभावित नहीं होगा। नवनीत को पानी में डाल दिया जाये तो पानी पर तैरात रहेगा।
इसी तरह दैवी विचार या सद्विचारों को अपनाने से अर्थात् उनका श्रवण, मनन, चिंतन व अंगीकार करने से हमारा मन निर्मल, स्वच्छ व शांत हो जायेगा। ये सद्विचार हमारे जीवन को ऊंचाई पर ले जायेंगे।
यदि आप भी आध्यात्मिक ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहते हैं तो अपने मन को सद्कार्यों की ओर लगावें। प्रतिदिन सद्साहित्य का स्वाध्याय करें। मन से अहं वर् ईष्या को दूर कर सबके प्रति स्ेह व प्रेम की भावना रखें।
छोटी-छोटी बांतों पर क्रोध प्रकट करने से मन में अशांति उत्पन्न होती है जिस व्यक्ति में अशांति, अहं तथा असंतोष है उसे परमानंद नहीं प्राप्त हो सकता है। हर स्थिति में मन निर्मल एवं प्रसन्न रहे, यही आध्यात्मिक ज्ञान है। इसके लिये आत्म सुधार, आत्म निर्माण तथा आत्मविकास की यात्रा जारी रखिये।
प्राचीन ऋषियों ने इसको जाना था। उन्होंने आत्मबोध के साथ-साथ साधना एवं तपस्या द्वारा अपने जीवन में परमात्मा से साक्षात्कार भी किया था। हमारा मन बड़ा चंचल है। इसमें विचारों का प्रवाह होता रहता है।
इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी उत्पन्न हो जाती है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। कहते हैं मन तो मन ही है। यह किसी के वश में नहीं रहता। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।
मन का दूसरा नाम विचार है। विचारों का प्रवाह है मन जैसे जल का प्रचंड प्रवाह बहता है तो वह इधर उधर बहकर बिना किसी उपयोग के व्यर्थ चला जाता है वैसे ही मस्तिष्क में आ रहे विचारों का प्रवाह भी व्यर्थ ही चला जाता है।
मन की गति को कोई नहीं जान सकता। एक क्षण में कभी मन हजारों मील दूर के स्थान पर पहुंच जाता है तो कभी हजारों वर्षों पूर्व के इतिहास में। मन की शक्ति असीमित है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि अगर हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर सकें तो सारे विश्व को जीत सकते हैं।
आत्मज्ञान तथा आत्मबोध से ही मन को नियमित किया जा सकता है। हमारे मन में शुभ विचार आवें, इसके लिये हमें सद्पुरुषों के साथ सत्संग, सद्ग्रंथों का अध्ययन, मनन, चिंतन करना चाहिये।
मन शुध्द दूध की तरह है। बाल्यावस्था में हमारा मन इसी तरह शुध्द व पवित्र होता है किन्तु दूध में पानी मिलाया जावे तो दूध पतला हो जायेगा, दूध में गंदा पानी मिलाया जायेगा तो दूध गंदा हो जायेगा किन्तु इस दूध को गरम करके दही बनाकर मथा जावे तो इससे प्राप्त नवनीत या मक्खन पानी से प्रभावित नहीं होगा। नवनीत को पानी में डाल दिया जाये तो पानी पर तैरात रहेगा।
इसी तरह दैवी विचार या सद्विचारों को अपनाने से अर्थात् उनका श्रवण, मनन, चिंतन व अंगीकार करने से हमारा मन निर्मल, स्वच्छ व शांत हो जायेगा। ये सद्विचार हमारे जीवन को ऊंचाई पर ले जायेंगे।
यदि आप भी आध्यात्मिक ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहते हैं तो अपने मन को सद्कार्यों की ओर लगावें। प्रतिदिन सद्साहित्य का स्वाध्याय करें। मन से अहं वर् ईष्या को दूर कर सबके प्रति स्ेह व प्रेम की भावना रखें।
छोटी-छोटी बांतों पर क्रोध प्रकट करने से मन में अशांति उत्पन्न होती है जिस व्यक्ति में अशांति, अहं तथा असंतोष है उसे परमानंद नहीं प्राप्त हो सकता है। हर स्थिति में मन निर्मल एवं प्रसन्न रहे, यही आध्यात्मिक ज्ञान है। इसके लिये आत्म सुधार, आत्म निर्माण तथा आत्मविकास की यात्रा जारी रखिये।
Tuesday, March 8, 2011
रोना भी सेहत के लिए जरूरी है
यह तो सभी लोग जानते हैं कि हंसना सेहत के लिए लाभदायक होता है लेकिन बहुत ही कम लोगों को मालूम है कि सेहत के लिए रोना भी आवश्यक होता है। गम या मातम के क्षणों में न रोया जाए तो छाती और कलेजा फटने लगता है। ऐसे क्षणों में रोने से दिल हल्का हो जाता है। यदि बच्चा जन्म लेते ही न रोए तो चिंता का विषय बन जाता है। न रोने से उसकी जान जा सकती है, इसलिए उसे रुलाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाता है। किसी की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी या पुत्र वगैरह रोएं नहीं और गुमसुम होकर बैठ जाएं तो सबको चिंता होने लगती है कि कहीं ये पागल न हो जाए। शोकग्रस्त व्यक्ति के नहीं रोने से उसके दिमाग पर इतना दबाव पड़ता है कि वह पागल भी हो सकता है। शायद इसीलिए किसी की मृत्यु होने पर या मातम के क्षणों में परिवार की महिलाएं जार-बेजार रोती हैं ताकि दिल पर पड़े गम का भार हल्का हो जाए और वे अपने को हल्का महसूस करें।
गम या मातम के क्षणों में आंसू को नहीं रोकना चाहिए क्योंकि ऐसे क्षणों में आंसू का बहना सेहत के लिए बहुत आवश्यक होता है। आंसुओं के बहने से हृदय की पीड़ा और गदन की अकड़न दूर होती है। रोने से आंसू के साथ शरीर से अनेकों विजातीय पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। आंखों में घुसे धूलकण निकल आते हैं जिससे आंखें रोगग्रस्त नहीं होती।
बच्चे के रोने से उसे प्राणवायु मिलती है। आंसू के बहने से व्यक्ति आसानी से तनावमुक्त हो जाता है। आंसुओं को रोकने से दिल और दिमाग पर बोझ पड़ता है जिसके दबाव से दिल और दिमाग फटने लगते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम तनावग्रस्त होती हैं तथा कभी तनावग्रस्त होते ही उनके आंसू निकल आते हैं। इसलिए महिलाएं हृदय रोगों का शिकार कम होती हैं और उनकी औसत आयु भी पुरुषों की तुलना में अधिक होती है।
रूलाई का सारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। रोने से दिल का दबाव दूर होकर दिल हल्का हो जाता है। कभी-कभी खुशी के क्षणों में भी आंसू निकल आते हैं जिन्हें खुशी के आंसू कहा जाता है। जब दुल्हन की विदाई होती है और वह मां-बाप, भाई व अन्य लोगों से गले मिलती है तो सबके आंसू निकल आते हैं जो खुशी के आंसू होते हैं। विदाई के गीत भी बड़े मार्मिक होते हैं जिन्हें सुनकर बरबस आंसू निकल आते हैं। प्राचीन काल में रूदाली (गम या मातम के क्षणों में पैसे लेकर रोने वाली महिलाएं) होती थीं जिन्हें ऐसे क्षणों पर बड़े लोग रोने के लिए बुलाते थे। आज भी कई धनाढ्य परिवारों में गम के क्षणों में रोने के लिए उन्हें बुलाया जाता है ताकि उनकी रूलाई सुनकर अन्य संबंधी भी रोएं। बुजुर्गों का कहना है कि हंसोगे तो जग हंसेगा लेकिन रोने वाले के साथ कोई नहीं रोएगा। रोने में कोई साथ दे या न दे लेकिन जिसे गम या चोट लगेगी वह तो रोएगा ही। किसी के साथ देने का इंतजार वह थोड़े ही करेगा?
गम या मातम के क्षणों में आंसू को नहीं रोकना चाहिए क्योंकि ऐसे क्षणों में आंसू का बहना सेहत के लिए बहुत आवश्यक होता है। आंसुओं के बहने से हृदय की पीड़ा और गदन की अकड़न दूर होती है। रोने से आंसू के साथ शरीर से अनेकों विजातीय पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। आंखों में घुसे धूलकण निकल आते हैं जिससे आंखें रोगग्रस्त नहीं होती।
बच्चे के रोने से उसे प्राणवायु मिलती है। आंसू के बहने से व्यक्ति आसानी से तनावमुक्त हो जाता है। आंसुओं को रोकने से दिल और दिमाग पर बोझ पड़ता है जिसके दबाव से दिल और दिमाग फटने लगते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम तनावग्रस्त होती हैं तथा कभी तनावग्रस्त होते ही उनके आंसू निकल आते हैं। इसलिए महिलाएं हृदय रोगों का शिकार कम होती हैं और उनकी औसत आयु भी पुरुषों की तुलना में अधिक होती है।
रूलाई का सारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। रोने से दिल का दबाव दूर होकर दिल हल्का हो जाता है। कभी-कभी खुशी के क्षणों में भी आंसू निकल आते हैं जिन्हें खुशी के आंसू कहा जाता है। जब दुल्हन की विदाई होती है और वह मां-बाप, भाई व अन्य लोगों से गले मिलती है तो सबके आंसू निकल आते हैं जो खुशी के आंसू होते हैं। विदाई के गीत भी बड़े मार्मिक होते हैं जिन्हें सुनकर बरबस आंसू निकल आते हैं। प्राचीन काल में रूदाली (गम या मातम के क्षणों में पैसे लेकर रोने वाली महिलाएं) होती थीं जिन्हें ऐसे क्षणों पर बड़े लोग रोने के लिए बुलाते थे। आज भी कई धनाढ्य परिवारों में गम के क्षणों में रोने के लिए उन्हें बुलाया जाता है ताकि उनकी रूलाई सुनकर अन्य संबंधी भी रोएं। बुजुर्गों का कहना है कि हंसोगे तो जग हंसेगा लेकिन रोने वाले के साथ कोई नहीं रोएगा। रोने में कोई साथ दे या न दे लेकिन जिसे गम या चोट लगेगी वह तो रोएगा ही। किसी के साथ देने का इंतजार वह थोड़े ही करेगा?
Monday, March 7, 2011
क्रोध को सर्जनात्मक दिशा दीजिये
प्रसिध्द यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस ने एक बार कहा था कि क्रोध मूर्खता से आरंभ होता है और पश्चात्ताप से इसका अंत होता है। सदियों पहले कही गयी यह बात आज भी शत प्रतिशत सच है। क्रोध करना एक महज मानदी वृति है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसे क्रोध न आता हो। सच तो यह है कि अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनी भी अपने क्रोध पर विजय प्राप्त करने में असफल देखे गये हैं। किंतु सिर्फ इसलिए क्रोध पर नियंत्रण पा का कोई प्रयत्न ही नहीं किया जाए, यह बात वस्तुत: स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि सभी जीवों में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो क्रोध की हानियां जानता है और साथ ही उसके दायरे को निश्चित ही कम भी कर सकता है।
अन्य संवेगों की तरह क्रोध भी व्यक्ति की एक विचलित और विक्षुब्ध अवस्था है। यह न केवल भावनात्मक स्तर पर, बल्कि मनुष्य को उसके बौध्दिक और व्यवहारगत स्तर पर भी विचलित करता है। मनुष्य गुस्से की गिरफ्त में अपनी बुध्दि खो बैठता है, उसका स्वाभाविक आचरण असहज हो जाता है और फिर क्रोध कोई सुखद अनुभूति भी नहीं है। इतना ही नहीं, क्रोध में व्यक्ति की शारीरिक स्थिति सामान्य नहीं रह पाती। मांसपेशियां या तो तन जाती हैं, या फिर एकदम शिथिल पड़ जाती हैं। उसकी रासायनिक ग्रंथियां ज्यादा या कम काम करने लगती हैं। होंठ सूख जाते हैं। आंखों में आंसू भर आ सकते हैं। चेहरा लाल पड़ जाता है, शरीर कांपने लगता है।
व्यक्ति पूर्णत: अशांत हो जाता है। ऐसे में आदमी आखिर क्या करे? क्रोध मनुष्य को जितना कुरूप और पाशविक बनाता है, शायद ही कोई अन्य चीज उसे इतना विकृत करती हो। लेकिन क्रोध की अभिव्यक्ति को दबाना तो क्रोध को खुले तौर पर व्यक्त करने से भी अधिक खतरनाक हो सकता है। शायद इसलिए कहा गया है, 'गुस्सा थूक दो भाई। अपनी भड़ास निकाल दो।' एक अच्छे और सटीक शब्द के अभाव में इसे क्रोध का भड़ासवादी सिध्दांत कहा जा सकता है।
बेशक क्रोध का दमन क्रोध को नष्ट नहीं करता। गुस्सा अपनी अभिव्यक्ति के लिए कोई दूसरा और शायद ज्यादा खतरनाक रास्ता ढूंढ लेता है और इस प्रकार लगातार क्रोध का दमन शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्ति को अस्वस्थ कर सकता है। लेकिन भड़ास निकालना भी इसका कोई स्वीकार करने योग्य समाधान नहीं है। निश्चित ही कुछ देर के लिए जब आप आपे से बाहर होकर गाली देते हैं, मारपीट करते हैं, तोड़फोड़ मचाते हैं, तो आपका विक्षोभ थोड़ा कम होता है। लेकिन इससे सामने वाले के मन में, जिस पर आप भड़ास निकाल रहे होते हैं, एक तीव्र प्रतिक्रिया भी होती है, जो पूरी परिस्थिति पर अपना प्रभाव डालती है और उसे दूषित कर सकती है। क्रोध करना दूसरों में उत्तेजना जगाना है। मालाबार में एक कहावत है कि गुस्सा करना बर्र के छत्ते में पत्थर मारना है। ध्यान देने की बात यह है कि क्रोध सदैव परिस्थितिजन्य होता है। अत: क्रोध के साथ हमारा सही बर्ताव क्या हो, यह समझने के लिए जरूरी है कि हम उस परिस्थिति के मूल में जाएं, जो क्रोध उत्पन्न करती है, और उन कारकों को ही दूर करें जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। अत: न तो क्रोध का दमन सही है और न ही भड़ास निकालना। क्रोध के कारकों का विश्लेषण ही उसे शांत कर सकता है।
हमें चाहिए कि हम अपने क्रोध को थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दें। सिनेका ने कहा था कि क्रोध का सर्वोच्च इलाज विलम्ब है। शायद इसलिए क्रोध आने पर इससे पहले कि आप गुस्से में कोई नाजायज हरकत कर बैठें, 10 तक गिनती गिनने के लिए कहा जाता है। अधिक गुस्से में बेशक 100 तक गिनिए। लेकिन क्रोध रहते कोई काम न करें। शांत होने के बाद परिस्थिति का आकलन करें।
कुछ लोग क्रोध के लिए क्रोध करते हैं। वे तामसिक हैं। कुछ अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए क्रोध करते हैं। उनकी वृति राजसिक है। लेकिन एक क्रोध सात्विक क्रोध हो सकता है, जो न्याय प्रियता के आग्रह को उपजता है। यह सही बात पर दृढ़ रहने के लिए हमें बल देता है। सत्य के लिए हमारे उत्साह को बढ़ाता है। अत: गुस्सा आने पर हमेशा चुप रहे, यह जरूरी नहीं है। यदि क्रोध का मुद्दा कोई ऐसा है, जिसका सामाजिक नैतिक आयाम भी है तो बेशक लड़ पड़िए। लेकिन संयम यहां भी अनिवार्य है। बुध्दिमानी इसी में है कि आपका क्रोध सीमित दायरे में रहे। ऐसा क्रोध घृणा में कभी नहीं बदलता। जब मनुष्य सात्विक क्रोध में होता है तो आप पाएंगे, वह आश्चर्यजनक रूप से शांत भी रहता है। उबलिए नहीं। अपने क्रोध को एक सर्जनात्मक दिशा दीजिए और इसका उपयोग समाज को सही मोड़ देने के लिए कीजिए।
अन्य संवेगों की तरह क्रोध भी व्यक्ति की एक विचलित और विक्षुब्ध अवस्था है। यह न केवल भावनात्मक स्तर पर, बल्कि मनुष्य को उसके बौध्दिक और व्यवहारगत स्तर पर भी विचलित करता है। मनुष्य गुस्से की गिरफ्त में अपनी बुध्दि खो बैठता है, उसका स्वाभाविक आचरण असहज हो जाता है और फिर क्रोध कोई सुखद अनुभूति भी नहीं है। इतना ही नहीं, क्रोध में व्यक्ति की शारीरिक स्थिति सामान्य नहीं रह पाती। मांसपेशियां या तो तन जाती हैं, या फिर एकदम शिथिल पड़ जाती हैं। उसकी रासायनिक ग्रंथियां ज्यादा या कम काम करने लगती हैं। होंठ सूख जाते हैं। आंखों में आंसू भर आ सकते हैं। चेहरा लाल पड़ जाता है, शरीर कांपने लगता है।
व्यक्ति पूर्णत: अशांत हो जाता है। ऐसे में आदमी आखिर क्या करे? क्रोध मनुष्य को जितना कुरूप और पाशविक बनाता है, शायद ही कोई अन्य चीज उसे इतना विकृत करती हो। लेकिन क्रोध की अभिव्यक्ति को दबाना तो क्रोध को खुले तौर पर व्यक्त करने से भी अधिक खतरनाक हो सकता है। शायद इसलिए कहा गया है, 'गुस्सा थूक दो भाई। अपनी भड़ास निकाल दो।' एक अच्छे और सटीक शब्द के अभाव में इसे क्रोध का भड़ासवादी सिध्दांत कहा जा सकता है।
बेशक क्रोध का दमन क्रोध को नष्ट नहीं करता। गुस्सा अपनी अभिव्यक्ति के लिए कोई दूसरा और शायद ज्यादा खतरनाक रास्ता ढूंढ लेता है और इस प्रकार लगातार क्रोध का दमन शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्ति को अस्वस्थ कर सकता है। लेकिन भड़ास निकालना भी इसका कोई स्वीकार करने योग्य समाधान नहीं है। निश्चित ही कुछ देर के लिए जब आप आपे से बाहर होकर गाली देते हैं, मारपीट करते हैं, तोड़फोड़ मचाते हैं, तो आपका विक्षोभ थोड़ा कम होता है। लेकिन इससे सामने वाले के मन में, जिस पर आप भड़ास निकाल रहे होते हैं, एक तीव्र प्रतिक्रिया भी होती है, जो पूरी परिस्थिति पर अपना प्रभाव डालती है और उसे दूषित कर सकती है। क्रोध करना दूसरों में उत्तेजना जगाना है। मालाबार में एक कहावत है कि गुस्सा करना बर्र के छत्ते में पत्थर मारना है। ध्यान देने की बात यह है कि क्रोध सदैव परिस्थितिजन्य होता है। अत: क्रोध के साथ हमारा सही बर्ताव क्या हो, यह समझने के लिए जरूरी है कि हम उस परिस्थिति के मूल में जाएं, जो क्रोध उत्पन्न करती है, और उन कारकों को ही दूर करें जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। अत: न तो क्रोध का दमन सही है और न ही भड़ास निकालना। क्रोध के कारकों का विश्लेषण ही उसे शांत कर सकता है।
हमें चाहिए कि हम अपने क्रोध को थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दें। सिनेका ने कहा था कि क्रोध का सर्वोच्च इलाज विलम्ब है। शायद इसलिए क्रोध आने पर इससे पहले कि आप गुस्से में कोई नाजायज हरकत कर बैठें, 10 तक गिनती गिनने के लिए कहा जाता है। अधिक गुस्से में बेशक 100 तक गिनिए। लेकिन क्रोध रहते कोई काम न करें। शांत होने के बाद परिस्थिति का आकलन करें।
कुछ लोग क्रोध के लिए क्रोध करते हैं। वे तामसिक हैं। कुछ अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए क्रोध करते हैं। उनकी वृति राजसिक है। लेकिन एक क्रोध सात्विक क्रोध हो सकता है, जो न्याय प्रियता के आग्रह को उपजता है। यह सही बात पर दृढ़ रहने के लिए हमें बल देता है। सत्य के लिए हमारे उत्साह को बढ़ाता है। अत: गुस्सा आने पर हमेशा चुप रहे, यह जरूरी नहीं है। यदि क्रोध का मुद्दा कोई ऐसा है, जिसका सामाजिक नैतिक आयाम भी है तो बेशक लड़ पड़िए। लेकिन संयम यहां भी अनिवार्य है। बुध्दिमानी इसी में है कि आपका क्रोध सीमित दायरे में रहे। ऐसा क्रोध घृणा में कभी नहीं बदलता। जब मनुष्य सात्विक क्रोध में होता है तो आप पाएंगे, वह आश्चर्यजनक रूप से शांत भी रहता है। उबलिए नहीं। अपने क्रोध को एक सर्जनात्मक दिशा दीजिए और इसका उपयोग समाज को सही मोड़ देने के लिए कीजिए।
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