Thursday, March 14, 2013

जवान और सदाबहार रहने के स्वर्णिम टिप्स



भगवान जिसे अच्छी खुराक खाने की और उसे डाइजेस्ट करने की शक्ति देता है वह व्यक्ति भाग्यशाली है। संसार की 60 प्रतिशत जनता अलग-अलग बीमारियों के कारण अच्छी तरह जीवन के उपभोगों का आनंद नहीं ले पाती। स्वस्थ, सदाबहार एव चिरयौवन की शक्ति दिमाग में है, संकल्प में है, संतुष्टि संयमित जीवन में है। उम्र का प्रभाव हर व्यक्ति पर होता है, उसे प्रभावहीन बनाना एक कला है।
* हमें सदा ध्यान में रखना चहिये कि हम मुंह में क्या डालते हैं और क्या निकालते हैं। जीने की उमंग, जिंदगी में साहस और शक्ति होना आवश्यक है। 80 प्रतिशत बीमारियां मात्र सोचने से ही होती हैं। प्रसन्न रहने की कोशिश यथासंभव करनी चाहिये। दूध और फल जीवनरक्षक हैं। इन्हें खाएं और कायाकल्प करें।
* प्रतिदिन पांच से आठ गिलास पानी पिएं। कम खाओ, गम खाओ, संतुलित खाओ, चिंतामुक्त जीवन जियो। अंकुरित अनाज जीवनरक्षक हैं। दही लस्सी अंतड़ियों का विष निकाल देते हैं। ठंडे प्रदेशों के लोगों का जीवनकाल लम्बा होता है। शुध्द वायु और साफ जल का सेवन करें। ईश्वर स्तुति से मन शांत रखें। ध्यान, रेकी, प्राणायाम, एरोबिक्स करें।
*हर दिन नया दिन मानकर खुश रहें। पुरानी बातें भूल जाएं। सभी विरोधियों को क्षमा करके तटस्थ हो जाएं। मन को उत्साहपूर्वक रखें। जीवन शैली चुस्त-फुर्तीली रखें। जीवेम शरद: शतम का निश्चय रखें।
* सदाबहार रहने का अर्थ है हमेशा जवान रहना और जवान रहने का अभिप्राय: है कि मन की अनुभूति में सदा स्फूर्तिवान रहना। यदि आप पचास वर्ष की उम्र में अपने आपको तीस वर्ष के महसूस करते हैं तो आप में उत्साह उमंग स्वत: पैदा हो जाएंगे- आपके चेहरे पर तीस वर्ष के भाव पैदा स्वत: हो जाएंगे।
* संकल्प से ही काया कल्प हो जाता है-जीवन के अन्त में हमें उतना फल ही प्राप्त होता है जितना हम जीवन को देते हैं- जिंदगी चलती ही रहती है। जिंदगी का दूसरा नाम खोज है। जब तक खोज चलती रहती है, जीवन चलता है, जब खोज बंद हो जाती है, जीवन समाप्त हो जाता है।
) जिंदगी के खेल को साधारण ढंग से लें तो आपको इस खेल में आनंद आएगा। जिसे जीने का आनन्द नहीं आता, समझें उसे जीने की कला नहीं आती।
* जियो और जीने दो। एक अनुकरणीय एवं मार्गदर्शक जीवन जियो। लोग कहें कि क्या जीने का अंदाज है। विश्व में अपने पदचिह्न छोड़ जाओ जिन्हें देखकर आने वाली पीढ़ियां अपना रास्ता ढूंढ सकें।
* अक्सर देखने में आता है कि पल की खबर नहीं, सामान सौ बरस का। जीवन की क्षण भंगुरता को देखकर भी मानव नहीं समझता। वह व्यर्थ में महत्व की आकांक्षा में जीता रहता है। प्रयत्न और कोशिश जीवन का स्वभाव है। इन्हें सहजता से लेना आप पर निर्भर करता है।
* यह जीवन एक विचित्र सपना है जो आसानी से टूट जाता है। जीवन भर हम चुन-चुन कर खुशियों की माला बनाते हैं- जब पहनने का वक्त आता है तो अचानक टूटकर माला दाने-दाने बिखर जाती है।
* जीवन भूल भुलैया का नाम है। जिसका रास्ता हमें मालूम नहीं होता- चलते-चलते जिस मोड़ पर जिंदगी मुड़ जाए हम उसी तरफ मुड़ पड़ते हैं। जलते दीपक से ही बुझे हुए दीपक, जलाए जा सकते हैं। मन रूपी दिये का तेल कभी समाप्त नहीं होने देना चाहिये।
* जिस मनुष्य के पास मनोबल नहीं होता- उसके पास कुछ भी नहीं होता- मानव सामान्यत: एक बहुत ही क्षुद्र जीव है। मनुष्यता एवं आत्मविश्वास ही उसे महान बनाते हैं। जिंदगी सुखपूर्वक जीने का मूलमंत्र यही है कि आप इसे जैसा चाहें बना सकते हैं। उत्कृष्ट मानसिक भावों से हृदय को पवित्र बनाएं।
* अपनी वाकपटुता की क्षमता के कारण मानव पशु से भिन्न है। वह अपनी मूर्खताएं, कमियां छिपा जाता है। जो व्यक्ति कठोर समय में भी दुखी नहीं होता। समभाव रहता है। वह महामानव होता है। जीवन के हवनकुंड में सूर्य से ज्यादा तपिश होती है। निराशा के गीत गाने वाले कभी जीवन का आनंद उठा नहीं सकते।
* सोए हुए मानव को तो उठाया जा सकता है परन्तु जागे हुए व्यक्ति को जगाना बहुत मुश्किल होता है। मानव अपने दु:खों के प्रति सजग न रहकर दूसरों के सुखो से दुखी होता रहता है।
अत: आप अपना जीवन अपने ढंग नियमों से और गति से जिएं। हर एक व्यक्ति के जीने का अंदाज अलग होता है। किसी की नकल न करें।


Wednesday, March 13, 2013

जीवन जीने की कला-स्वस्थ रहें, खुश रहें



स्वस्थ रहो, खुश रहो, यह सदा ही अच्छे स्वास्थ्य का मूलमंत्र रहा है। इस बार इसी मंत्र को विस्तारपूर्वक समझाने का प्रयास कर रहा हूं। आप यदि चाहते हैं चुस्त और आकर्षक दिखना तो मात्र इसे पढ़ने से काम नहीं चलेगा। आपको कदम बढ़ाकर साथ चलना होगा। सदियों से चले आ रहे वाक्य को ईमानदारी से जीवन में आजमाना होगा।
याद रहे कि हमने ही शतरंज के घोड़े की तरह ढाई घर की चाल चलकर अपने स्वास्थ्य और सुख-चैन को मिट्टी में मिला दिया है। अब जाकर चेत रहे हैं हम! आज हर उम्र के लोग फिटनेस मेनिया से त्रस्त हैं। दूसरों की देखादेखी आप और हम भी कभी सुबह की सैर को निकल पड़ते हैं तो कभी हफ्ता-दस दिन डायटिंग कर लेते हैं। फिर वही दौड़-धूप। वही फास्ट फूड। वही असंतुलित भोजन और अंतत: तनावग्रस्तता।
सभी योग को जरूरी मानने लगे हैं किन्तु तैयार अभी भी नहीं है योगासन और प्राणायाम करने के लिये। फिटनेस, कसरत, पौष्टिक आहार किसी खास वर्ग की बपौती नहीं है। पहले जमाने में जिंदगी इतनी आसान नहीं थी। शारीरिक श्रम बहुत जरूरी था। घर के कामों में ही अच्छी-खासी कसरत हो जाया करती थी। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करता गया, भौतिक सुविधाएं बढ़ने लगी। जिंदगी आसान बनने लगी। श्रम घट गया लेकिन दौड़-धूप बढ़ गयी। खान-पान बदल गया। प्रकृति से दूर होने लगे हमे।
फिटनेस का अर्थ सुडौल शरीर है न कि मांसल सौंदर्य से। शारीरिक फिटनेस कोई एक दिन में नहीं पायी जा सकती। यह तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। हमारे भावनात्मक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिये नियमित व्यायाम, संतुलित आहार, तनाव मुक्ति, पूरी नींद और आराम के साथ व्यसनों से मुक्त जीवन शैली भी जरूरी है।
स्वास्थ्य और फिटनेस के नियमों के विषय में जानकारी होना भर ही नहीं, अपने जीवन में उनका पालन करना भी नितांत जरूरी है।
सही फिटनेस के लिये सही पोस्चर
हमारी फिटनेस ठीक तभी रहेगी जब हम सही ढंग से चलेंगे-फिरेंगे, उठेंगे-बैठेंगे। पोस्चर सही न होने पर कई प्रकार के शारीरिक कष्ट हो सकते हैं जैसे सिर टेढ़ा होने से मुंह टेढ़ा लगेगा, गर्दन टेढ़ी हो जायेगी और उसमें दर्द होगा। आंखों पर भी असर पड़ेगा, वे कमजोर हो जाएंगी। पेट बड़ा हुआ नहीं कि कमर, घुटनों और टांगों में दर्द शुरू हो जायेगी।
पैरों की पोजीशन ठीक नहीं होने से पिंडलियों व एड़ी में दर्द रहने लगता है। हमेशा सीधे चलें। बायां पैर आगे ले जाते समय दायां हाथ और दाएं पैर के साथ बायां हाथ आगे आना चाहिये हाथ-पैर दोनों साथ-साथ चलने चाहिये।
बदलें अपनी बुरी आदतें
सुबह की सैर और शाम को कुछ देर बैडमिंटन या टेनिस खेलना स्वास्थ्य के लिये बहुत फायदेमंद है। स्वस्थ रहने के लिये बहुत जरूरी है हृदय और श्वासन तंत्र सुचारु रूप से काम करें। ब्लडप्रेशर नियंत्रित रखें। कोलेस्ट्राल नियंत्रित रहे। धूम्रपान, मदिरापान से बचें। हर दर्द के लिये पेनकिलर न खाएं। शरीर में अतिरिक्त चर्बी न जमने दें।
मौसमी फलों का सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से फायदेमंद है। बैमौसमी सब्जियों का सेवन न करें। जूस घर पर ही पियें। नमक को नमक समझ कर ही खाएं। विटामिन और खनिज लवण का हमारे स्वास्थ्य से गहरा रिश्ता है। वसा का प्रयोग कम ही करें। कार्बोहाइड्रेट और वसा शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं। कैल्शियम और आयरनयुक्त आहार को प्राथमिकता दें। नशे से बचें।
व्यायाम भी नियमानुसार करें
अक्सर लोग अपनी सुविधा और मर्जी से व्यायाम करते हैं और फिर छोड़ भी देते हैं। सही मार्गदर्शन में व्यायाम करें। उम्र और शारीरिक स्थिति के अनुसार व्यायाम करना चाहिये। व्यायाम नियमानुसार करे। सांस लेने और छोड़ने में तनिक भी लापरवाही घातक सिध्द हो सकती है। गलत पोस्चर में व्यायाम करने से अच्छा है व्यायाम न करें। फिजिकल ट्रेनर से मार्गदर्शन प्राप्त कर व्यायाम करें। योग और एरोबिक्स फिटनेस बनाए रखने के लिये लाभकारी हैं।

Friday, February 1, 2013

सुख और दुख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है



हमारे शरीर और बुध्दि से परे भी एक ऐसी प्यास और एक अभीप्सा विद्यमान है, जिसे बाहर से सब कुछ पाकर भी शान्त नहीं किया जा सकता। वस्तुतः हम अपने आप में इतने परिपूर्ण और समर्थ हैं कि बाहर से कुछ पाने की अपेक्षा ही नहीं रहती। लेकिन कृत्रिम अपेक्षाओं के जाल में हम इस कदर फंसे रहते हैं कि भीतर झांकने का अवकाश भी नहीं मिलता।
व्यक्ति की हर कामना पूरी हो जाए, यह नितांत असंभव है। ऐसी स्थिति में उसके मानस में निरन्तर एक चुभन-सी बनी रहती है जो उसे कभी भी शान्ति से नहीं सोने देती।
अपेक्षाओं को जगत् से मुड़कर ही व्यक्ति उस रसातीत रस का अनुभव कर सकता है जिसके सामने स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पकवान भी नीरस और फीके प्रतीत होने लगते हैं। उसे बाह्य निरपेक्ष सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए भगवान महावीर ने चार उपाय सुझाए हैं, जो सुख शय्या के नाम से पुकारे जाते हैं।
सत्यनिष्ठ के लिए स्वयं में विश्वास होना अत्यन्त अपेक्षित है। स्वयं अपेक्षित है। स्वयं के प्रति विश्वस्त व्यक्ति ही दूसरों के प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रहने वाला सत्य के प्रति अविश्वस्त हो ही नहीं सकता।
अपने लक्ष्य, प्रवृत्ति और प्रगति के प्रति भी विश्वास होना जरूरी है। संदेहशील व्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकता। वह नीरस और कटा हुआ जीवन जीता है। उसे न अपने अस्तित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व पर भरोसा होता है और न दूसरों पर। संदेह मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। उससे पारस्परिक स्ेह और सौहार्द के स्रोत सूख जाता है। मन सदा भय और आशंका से भरा रहता है। दबा हुआ भय और आशंका कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अनेक समस्याओं में यह संदेहवृत्ति ही कार्य करती है। जीवन के लिए जितना श्वास का महत्व है उतना ही महत्व समाज में विश्वास का है।
व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृध्दि अधिक दिखती है और अपनी कम। अपनी उपलब्धि में असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति पराई उपलब्धि से जलता रहता है या उस पर हस्तक्षेप करता रहता है। इससे अनेक उलझनें सामने आती हैं। दूसरे की प्रगति के प्रति असहिष्णुता मानवीय दुर्बलता है। पारिवारिक, जातीय, सामाजिक, धार्मिक और भाषायी विवादों की जड़ यह असहिष्णु वृत्ति ही है। इसी वृत्ति ने न जाने कितनी बार मानव जाति के युध्दों की लपेटों में झोंका है। वस्तुतः सुख-शांति और आनन्द को पाने के लिए कहीं जाने की अपेक्षा नहीं है। वह स्वयं के भीतर हैं।
व्यक्ति का चैतन्य जागरण जितना स्वल्प होता है, मन और इन्द्रियां उतने ही बाहर दौड़ते हैं। ऊर्जा और चेतना का बहाव भीतर न होकर बाहर की ओर होने लगता है। बहिर्मुख व्यक्ति बाह्य के प्रति आसक्त रहता है। लेकिन उसे भी कभी संतोष नहीं मिलता। असंतुष्ट मानस की बगिया में आनन्द के फूल खिल नहीं सकते। इसलिए महावीर ने सुझाया 'दृष्ट पदार्थों से उदासीन रहो।' यह विरक्ति ही अंतर्दर्शन का मूल और आनन्द का स्रोत है।
वेदना दो प्रकार की होती है, शारीरिक और मानसिक। शारीरिक वेदना प्रगति में बाधक बन सकती है पर घातक नहीं। घातक बनती है मानसिक वेदना। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां, उतार-चढ़ाव और घुमाव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पथ में आते हैं। दुर्बल मानस उनसे बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता है। वह जरा सी अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न हो जाता है। दोनों परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाये रखना अत्यंत अपेक्षित है। परिस्थिति विजय का सुन्दर उपक्रम है- उनसे ऊपर उठ जाना। यदि हम ऊपर उठ जायेंगे तो परिस्थितियों का प्रवाह नीचे से बह जायेगा। यदि हम उस प्रवाह में बैठ जायेंगे तो वह बहा ले जायेगा।
जो तटस्थ होकर प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों को सहना जानता है, वह सचमुच जीना जानता है और कुछ कर गुजरना भी जानता है।
शान्ति किसी बाहरी साम्राज्य को जीतने से नहीं, आत्म साम्राज्य को पाने से उपलब्ध होती है।
सुख और दुःख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है। उसकी नियंत्रित वृत्तियां जहां उसकी राहों में फूल बिछाती हैं, वहां अनियंत्रित वृत्तियां शूल बन कर उसके प्राणों में प्रतिक्षण चुभन पैदा करती रहती हैं।
भगवान महावीर ने एक आध्यात्मिक औषधि अवश्य बताई है जिसके सेवन से व्यक्ति क्षण भर में अनगिनत मनोव्याधियों से छुटकारा पा सकता है। उस दिव्य औषधि का नाम है 'समता'
विषम मन के धरातल पर ही दुःख का अंकुरण होता है। उन अंकुरों से विक्षोभ, व्याकुलता, दुराग्रह, प्रतिशोध आदि के फूल खिलते हैं और पुनः फलते हैं अनेक प्रकार की समस्याओं के विषैले फल। समता एक ऐसा रसायन है, जिसके छिड़काव में उन विषैले पौधों का समूल उन्मूलन हो सकता है। मेधावी व्यक्ति उस रसायन से मानसिक विक्षोभ या लक्ष्य के प्रति होने वाले अनास्थाभाव के अंकुरों को पनपने से पहले ही समाप्त कर देता है।
कोई भी व्यक्ति यदि अशान्त होता है तो वह अपने ही चिंतन और गलत कार्यों से होता है। इसके विपरीत जिसके मन में समत्व प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके पांव कभी गलत दिशा में नहीं उठते। उसके हाथ कभी गलत कार्यों में संलिप्ति नहीं होते।
विषमताओं के तूफान से जब जब जीवन नौका विपदाओं के अन्तहीन सागर में डूबने लगे तब तब यदि हम उस नौका के मस्तूल पर प्रसन्नता की पताकाएं फहरा दें और समता का लंगर डाल दें तो निश्चय ही हमारा जहाज सुरक्षित रह जायेगा और हमारा जीवन समाप्त होने से उबर जायेगा।
सचमुच समता एक ऐसा लंगर है जो हर परिस्थिति में हमारे जीवन जहाज को संतुलित और नियंत्रित रख सकता है। उसका प्रयोग हम चाहें कितनी बार करें, वह समाप्त नहीं होगा।
इन सुख शय्याओं में सोने वाले व्यक्ति काल्पनिक या अतृप्त वासनाओं के कारण उभरने वाले सपनों में नहीं खोते, अपितु दिव्य लोक में विहार करते हैं, जहां सर्वत्र आनन्द बिखरा पड़ा है।