मृत्यु का नाम सुनते ही साधारण व्यक्ति के होश उड़ जाते हैं और एक क्षण के लिये वह जैसे मर-सा जाता है। मृत्यु से डरने का मानव का स्वभाव-सा बन गया है। साधारण सा रोग, मामूली सी घटना, मृत्यु का विचार आदि शंकाजनक संयोग आते ही कमजोर आदमी कांप उठता है और सोचने लगता है कि कहीं वह बीमारी हमारे प्राण न ले ले। कहीं वह शत्रु हमें मार डालने की नहीं सोच रहा हो। संभव है वहां जाने से हम किसी घातक घटना के शिकार बन जाएं। मृत्यु के भय से मनुष्य खाने-पीने और प्रतिकूलताओं से जमकर मोर्चा लेने से डरता रहता है।
मृत्युभय उपहासास्पद
यही नहीं, किसी की मृत्यु देखकर, किसी दुर्घटना का समाचार सुनकर भी व्यक्ति अपनी मृत्यु की शंका से आक्रांत हो जाता है। यहां तक कभी-कभी स्वयं भी अकेले में संसार अपनी आयु के बीत गये वर्षों पर विचार करने से भी वह मृत्यु भय से उध्दिग्न हो उठता है। अंधेरे अथवा अपरिचित स्थानों में निर्भयतापूर्वक पदार्पण करने से भी उसे मृत्यु की शंका निरुत्साहित कर देती है। नि:संदेह मृत्यु का भय बड़ा ही व्यापक तथा चिरस्थायी होता है।
यदि इस मृत्यु-भय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो यह बड़ा ही क्षुद्र तथा उपहासास्पद ही प्रतीत होगा। पहले तो जो अनिवार्य है, आवश्यंभावी है, उसके विषय में डरना क्या? जब मृत्यु अटल है और एक दिन सभी को मरना ही है, तब उसके विषय में शंका का क्या प्रयोजन हो सकता है? यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने लायक नहीं है। हमारे पूर्वजों की एक लम्बी परंपरा मृत्यु के मुख में चली जा चुकी है और आगे भी आने वाले प्रजा उनका अनुसरण करती ही जाएगी, तब बीच में हमें क्या अधिकार रह जाता है कि उस निश्चित नियति के प्रति भयाकुल अथवा शंकाकुल होते रहें। मृत्यु को यदि जीवन का अंतिम एवं अपरिहार्य अतिथि मानकर उसकी ओर से निश्चित हो जाएं, तो न जाने अन्य कितने भयों से हम अनायास ही मुक्ति पा जायेंगे। मृत्यु का भय ही वस्तुत: सरे भयों की जड़ अथवा बीज है।
मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है, जो इस मानव जीवन का महत्व नहीं समझते और इस लंबी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। कामों को अधूरा छोड़कर ढेर लगा लेने वाले जब देखते हैं कि उनकी जीवन-अवधि की परिसमाप्ति निकट आ गयी है और उनके तमाम काम अधूरे पड़े हैं, तब वे मृत्यु के भय से कांप उठते हैं। सोचते हैं, मेरी जिंदगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरंतर बढ़ा चला आ रहा अभियान रुक जाता, तो मैं अपने काम पूरे कर लेता, किंतु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप चोटी पकड़कर घसीट ले जाती है।
गांधीजी का कथन
यदि मृत्यु से भयभीत होने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं सन्नध्द बना देता है, सुरक्षा के प्रबंधों तथा व्यवस्था के लिये सक्रिय रहता है, उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोड़ने से उतना नहीं डरता, जितना मरने के बाद न जाने क्या गति होगी, इस विचार से भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे भयानक तथा अंधेरे लोकों में भटकना होगा।
जीवन का चेतन तत्व
इस साधारण पक्ष के साथ-साथ मृत्यु के संबंध में एक अधिक गहरा और सत्य पक्ष भी है। जो इसका दार्शनिक पक्ष कहा जाता है। मनुष्य का जीवन दो तत्वों से मिलकर बना है। शरीर और उसमें निवास करने वाली चेतना। जीवन का चेतन-तत्व ही तो वास्तव में हम हैं। यह मृत्तिका पिंड तो उस चेतन की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। उसका वाहन भर ही है। रथ में बैठकर चलने वाला मनुष्य यदि स्वयं को रथ मान ले, तो उसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य को स्वयं अपने को ही नष्ट मान लेना चाहिये, किंतु ऐसा होता कहां है? रथ अथवा वाहन के नष्ट हो जाने पर भी उसका रथी अथवा सवार यथावत बना ही रहती है। हां, जब उसको अपने वाहन के प्रति अनुचित ममता हो जाती है, उसे ही अपना अस्तित्व एवं सर्वस्व मान बैठता है, तो अवश्य ही उसके नष्ट होने अथवा नष्ट होने की कल्पना से दु:ख होता है, किन्तु यह तो अज्ञान है। इसको किसी भी प्रकार से मान्यता नहीं दी जा सकती।
जीवन की अपेक्षा अधिक सुंडा
अब इतने पर भी यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से भयभीत होता है, तो यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह जो कुछ है वह अपने को न मानकर वह मानता है, जो वास्तव में है नहीं। इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि दिन भर काम करने के बाद शरीर थक जाता है, तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य मीठी नींद सो कर दूसरे दिन के लिये नयी स्फूर्ति तथा शक्ति से भर जाता है। तब जीवन की एक लंबी अवधि तक चलते रहने के लिये मृत्यु रूपी नींद की गोद में चली जाती है, तो इसमें खेद की क्या बात है? मृत्यु एक विश्राम लेकर वह पुन: किसी दूसरे शरीर में जागती है और नवीन स्फूर्ति, नये उत्साह से अपने लक्ष्य, मोक्ष की ओर अग्रसर हो चलती है। एक नहीं हजार तर्क और युक्तियों से यह बात सिध्द होती है कि मृत्यु, यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाय, तो जीवन से कहीं अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका ही पाई जाती है। महत्मा गांधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है। इसको देख समझकर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई कारण हो सकता है। वे लिखते हैं- 'मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुंदर होना चाहिये। जन्म से पूर्व मां के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है, उसे छोड़ देता हूं, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनाएं ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिये एक ही है।
जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिये। सदाचार तथा पुण्य परमार्थ से आलोकित जिंदगी में तो आनंद है ही मृत्यु के पश्चात तो अक्षय आनंद के कोष खुल जाते है। मृत्यु का भय छोड़िये और अपने पुण्य पुरुषार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों पर एक वीर योध्दा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिए।
मृत्युभय उपहासास्पद
यही नहीं, किसी की मृत्यु देखकर, किसी दुर्घटना का समाचार सुनकर भी व्यक्ति अपनी मृत्यु की शंका से आक्रांत हो जाता है। यहां तक कभी-कभी स्वयं भी अकेले में संसार अपनी आयु के बीत गये वर्षों पर विचार करने से भी वह मृत्यु भय से उध्दिग्न हो उठता है। अंधेरे अथवा अपरिचित स्थानों में निर्भयतापूर्वक पदार्पण करने से भी उसे मृत्यु की शंका निरुत्साहित कर देती है। नि:संदेह मृत्यु का भय बड़ा ही व्यापक तथा चिरस्थायी होता है।
यदि इस मृत्यु-भय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो यह बड़ा ही क्षुद्र तथा उपहासास्पद ही प्रतीत होगा। पहले तो जो अनिवार्य है, आवश्यंभावी है, उसके विषय में डरना क्या? जब मृत्यु अटल है और एक दिन सभी को मरना ही है, तब उसके विषय में शंका का क्या प्रयोजन हो सकता है? यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने लायक नहीं है। हमारे पूर्वजों की एक लम्बी परंपरा मृत्यु के मुख में चली जा चुकी है और आगे भी आने वाले प्रजा उनका अनुसरण करती ही जाएगी, तब बीच में हमें क्या अधिकार रह जाता है कि उस निश्चित नियति के प्रति भयाकुल अथवा शंकाकुल होते रहें। मृत्यु को यदि जीवन का अंतिम एवं अपरिहार्य अतिथि मानकर उसकी ओर से निश्चित हो जाएं, तो न जाने अन्य कितने भयों से हम अनायास ही मुक्ति पा जायेंगे। मृत्यु का भय ही वस्तुत: सरे भयों की जड़ अथवा बीज है।
मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है, जो इस मानव जीवन का महत्व नहीं समझते और इस लंबी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। कामों को अधूरा छोड़कर ढेर लगा लेने वाले जब देखते हैं कि उनकी जीवन-अवधि की परिसमाप्ति निकट आ गयी है और उनके तमाम काम अधूरे पड़े हैं, तब वे मृत्यु के भय से कांप उठते हैं। सोचते हैं, मेरी जिंदगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरंतर बढ़ा चला आ रहा अभियान रुक जाता, तो मैं अपने काम पूरे कर लेता, किंतु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप चोटी पकड़कर घसीट ले जाती है।
गांधीजी का कथन
यदि मृत्यु से भयभीत होने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं सन्नध्द बना देता है, सुरक्षा के प्रबंधों तथा व्यवस्था के लिये सक्रिय रहता है, उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोड़ने से उतना नहीं डरता, जितना मरने के बाद न जाने क्या गति होगी, इस विचार से भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे भयानक तथा अंधेरे लोकों में भटकना होगा।
जीवन का चेतन तत्व
इस साधारण पक्ष के साथ-साथ मृत्यु के संबंध में एक अधिक गहरा और सत्य पक्ष भी है। जो इसका दार्शनिक पक्ष कहा जाता है। मनुष्य का जीवन दो तत्वों से मिलकर बना है। शरीर और उसमें निवास करने वाली चेतना। जीवन का चेतन-तत्व ही तो वास्तव में हम हैं। यह मृत्तिका पिंड तो उस चेतन की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। उसका वाहन भर ही है। रथ में बैठकर चलने वाला मनुष्य यदि स्वयं को रथ मान ले, तो उसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य को स्वयं अपने को ही नष्ट मान लेना चाहिये, किंतु ऐसा होता कहां है? रथ अथवा वाहन के नष्ट हो जाने पर भी उसका रथी अथवा सवार यथावत बना ही रहती है। हां, जब उसको अपने वाहन के प्रति अनुचित ममता हो जाती है, उसे ही अपना अस्तित्व एवं सर्वस्व मान बैठता है, तो अवश्य ही उसके नष्ट होने अथवा नष्ट होने की कल्पना से दु:ख होता है, किन्तु यह तो अज्ञान है। इसको किसी भी प्रकार से मान्यता नहीं दी जा सकती।
जीवन की अपेक्षा अधिक सुंडा
अब इतने पर भी यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से भयभीत होता है, तो यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह जो कुछ है वह अपने को न मानकर वह मानता है, जो वास्तव में है नहीं। इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि दिन भर काम करने के बाद शरीर थक जाता है, तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य मीठी नींद सो कर दूसरे दिन के लिये नयी स्फूर्ति तथा शक्ति से भर जाता है। तब जीवन की एक लंबी अवधि तक चलते रहने के लिये मृत्यु रूपी नींद की गोद में चली जाती है, तो इसमें खेद की क्या बात है? मृत्यु एक विश्राम लेकर वह पुन: किसी दूसरे शरीर में जागती है और नवीन स्फूर्ति, नये उत्साह से अपने लक्ष्य, मोक्ष की ओर अग्रसर हो चलती है। एक नहीं हजार तर्क और युक्तियों से यह बात सिध्द होती है कि मृत्यु, यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाय, तो जीवन से कहीं अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका ही पाई जाती है। महत्मा गांधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है। इसको देख समझकर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई कारण हो सकता है। वे लिखते हैं- 'मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुंदर होना चाहिये। जन्म से पूर्व मां के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है, उसे छोड़ देता हूं, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनाएं ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिये एक ही है।
जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिये। सदाचार तथा पुण्य परमार्थ से आलोकित जिंदगी में तो आनंद है ही मृत्यु के पश्चात तो अक्षय आनंद के कोष खुल जाते है। मृत्यु का भय छोड़िये और अपने पुण्य पुरुषार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों पर एक वीर योध्दा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिए।