बुरे विचारों का मस्तिष्क में हर समय चिंतन करते रहना रोगों का मूल कारण है। नीच और हीन विचारों से मनुष्य का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता चला जा रहा है।
बुरे विचार अपने साथ चिंता, भय, क्रोध, कलह आदि लाते हैं। ये ऐसी अग्नियां हैं जो थोड़े ही दिनों में सारा भाग जलाकर आदमी को खोखला कर देती है।
हर घड़ी स्वार्थ, भय, चिंता, अनुदारता और लोभ से भरे विचार मस्तिष्क में रहने से गंभीर बीमारी का आगमन दिखाने लगता है। अच्छी और कीमती दवाइयां भी बेअसर होने लगती हैं। असयम मानसिक रोगी को मौत के मुंह में जाते देखा जाता है।
शरीर में समस्त ज्ञान तंतुओं का संबंध मस्तिष्क से रहता है और वहीं से प्रेरणा प्राप्त होती है। मन मस्तिष्क में उठने वाले विचारों का, रस उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों, पाचन अवयवों और शरीर के अंगों पर असर पड़ता रहता है। इस संबंध में कुछ शरीर शास्त्रियों की सम्मतियां इस प्रकार हैं।
डा.आल्टन लिखते हैं कि भय,र् ईष्या, घृणा, निराशा, अविश्वास और मानसिक विकार शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं को मंद करके खून को सुखा देते हैं। डा. वेन लिखते हैं संताप और मनोव्यथा के कारण कई लोगों की मृत्यु हो गयी और अनेकों का मस्तिष्क खराब हो गया।
डारबिन साहब कहते हैं चिरकालीन चिंता से रक्त की गति धीमी हो जाती है और चेहरे पर पीलापन मांस-पेशियों में शुष्कता आ जाती है, पलकें झूल पड़ती हैं, छाती बैठ जाती है, गरदन झुक जाती है एवं होंठ, जबड़ा और सिर आदि गिर जाते हैं। हंसते आदमी पर घोर उदासी छा जाती है।
डा. तुकेने का कथन है कि पागलपन, लकवा, हैजा, यकृत रोग, बालों का जल्दी सफेद होना, गंजापन, रक्त की कमी, गर्भपात, मूत्र रोग, चर्म रोग, फोड़े, पसीने की अधिकता, दांत जल्दी गिरना आदि रोगों की जड़ में भय या संताप छिपा रहता है।
उपरोक्त सम्मतियों से यह स्पष्ट होता है कि मन में बुरे विचार लाने से शरीर का अनिष्ट होता है, अत: स्वस्थ रहने की इच्छा रखने वालों को चाहिये कि सदैव प्रसन्न रहें, दुष्ट विचारों को पास न फटकने दें। जिन्हें बुरे विचार घेरे रहते हैं, उन्हेंं स्वास्थ्य एवं सतसंग करना चाहिये। अच्छा साहित्य जो समाधानकारी हो का पठन पाठ्न करना अति उत्तम रहता है।
व्रत, अनुष्ठान, जप, गोदान, अन्नदान आदि कार्य बीमारी दूर करने के लिये कराने का हिंदू धर्म शास्त्रों में विधान है और उसका पालन निष्ठापूर्वक होता है। इन कार्यों में रहस्य यह है कि रोगी में त्याग, उदारता वाली भावनाएं पनप जाएं और कठिन कष्ट को दूर कर दें। जिन रोगियों को धन की सुविधा न हो, उन्हें 'राम नाम' या 'गायत्री महामंत्र' अथवा अन्यमंत्र जपने की क्रिया करनी चाहिये।
इस तरह भावनाओं में परिवर्तन से मानसिक स्तर पर रोगी को काफी राहत महसूस होगी। मन के कोने में जगह बनाकर बैठे दुष्ट विचारों का निष्कासन प्रारंभ होगा और उनके स्थान पर सदवृत्तियों से परिपूर्ण विचार स्थान लेने लगेंगे। रोगी जो मानसिक स्तर पर बीमार था। अपने को हल्का व स्वस्थ अनुभव करने लगेगा। ऐसा तत्काल तो नहीं लेकिन कुछ समय गुजरने पर स्थायी लाभ अवश्य मिल कर रहता है। शर्त एक ही है कि क्रम बना रहना चाहिये।
बुरे विचार अपने साथ चिंता, भय, क्रोध, कलह आदि लाते हैं। ये ऐसी अग्नियां हैं जो थोड़े ही दिनों में सारा भाग जलाकर आदमी को खोखला कर देती है।
हर घड़ी स्वार्थ, भय, चिंता, अनुदारता और लोभ से भरे विचार मस्तिष्क में रहने से गंभीर बीमारी का आगमन दिखाने लगता है। अच्छी और कीमती दवाइयां भी बेअसर होने लगती हैं। असयम मानसिक रोगी को मौत के मुंह में जाते देखा जाता है।
शरीर में समस्त ज्ञान तंतुओं का संबंध मस्तिष्क से रहता है और वहीं से प्रेरणा प्राप्त होती है। मन मस्तिष्क में उठने वाले विचारों का, रस उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों, पाचन अवयवों और शरीर के अंगों पर असर पड़ता रहता है। इस संबंध में कुछ शरीर शास्त्रियों की सम्मतियां इस प्रकार हैं।
डा.आल्टन लिखते हैं कि भय,र् ईष्या, घृणा, निराशा, अविश्वास और मानसिक विकार शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं को मंद करके खून को सुखा देते हैं। डा. वेन लिखते हैं संताप और मनोव्यथा के कारण कई लोगों की मृत्यु हो गयी और अनेकों का मस्तिष्क खराब हो गया।
डारबिन साहब कहते हैं चिरकालीन चिंता से रक्त की गति धीमी हो जाती है और चेहरे पर पीलापन मांस-पेशियों में शुष्कता आ जाती है, पलकें झूल पड़ती हैं, छाती बैठ जाती है, गरदन झुक जाती है एवं होंठ, जबड़ा और सिर आदि गिर जाते हैं। हंसते आदमी पर घोर उदासी छा जाती है।
डा. तुकेने का कथन है कि पागलपन, लकवा, हैजा, यकृत रोग, बालों का जल्दी सफेद होना, गंजापन, रक्त की कमी, गर्भपात, मूत्र रोग, चर्म रोग, फोड़े, पसीने की अधिकता, दांत जल्दी गिरना आदि रोगों की जड़ में भय या संताप छिपा रहता है।
उपरोक्त सम्मतियों से यह स्पष्ट होता है कि मन में बुरे विचार लाने से शरीर का अनिष्ट होता है, अत: स्वस्थ रहने की इच्छा रखने वालों को चाहिये कि सदैव प्रसन्न रहें, दुष्ट विचारों को पास न फटकने दें। जिन्हें बुरे विचार घेरे रहते हैं, उन्हेंं स्वास्थ्य एवं सतसंग करना चाहिये। अच्छा साहित्य जो समाधानकारी हो का पठन पाठ्न करना अति उत्तम रहता है।
व्रत, अनुष्ठान, जप, गोदान, अन्नदान आदि कार्य बीमारी दूर करने के लिये कराने का हिंदू धर्म शास्त्रों में विधान है और उसका पालन निष्ठापूर्वक होता है। इन कार्यों में रहस्य यह है कि रोगी में त्याग, उदारता वाली भावनाएं पनप जाएं और कठिन कष्ट को दूर कर दें। जिन रोगियों को धन की सुविधा न हो, उन्हें 'राम नाम' या 'गायत्री महामंत्र' अथवा अन्यमंत्र जपने की क्रिया करनी चाहिये।
इस तरह भावनाओं में परिवर्तन से मानसिक स्तर पर रोगी को काफी राहत महसूस होगी। मन के कोने में जगह बनाकर बैठे दुष्ट विचारों का निष्कासन प्रारंभ होगा और उनके स्थान पर सदवृत्तियों से परिपूर्ण विचार स्थान लेने लगेंगे। रोगी जो मानसिक स्तर पर बीमार था। अपने को हल्का व स्वस्थ अनुभव करने लगेगा। ऐसा तत्काल तो नहीं लेकिन कुछ समय गुजरने पर स्थायी लाभ अवश्य मिल कर रहता है। शर्त एक ही है कि क्रम बना रहना चाहिये।