एक भारतीय संन्यासी विदेश-यात्रा पर गया। वहां के एक प्रमुख राजनेता ने संन्यासी से पूछा- मैंने सुना है, आप स्वयं को सम्राट कहते हैं? किन्तु जिसके पास एक पैसा भी नहीं हो, वह सम्राट कैसे बन सकता है? संन्यासी ने कहा- जिसके जीवन में संतोष और आनन्द का सागर लहराता है, जो किसी के आगे हाथ नहीं पसारता तथा जो स्वयं पर अनुशासन रखता है, वह सच्चा सम्राट होता है।
संन्यासी ही नहीं, एक गृहस्थ भी सच्चा सम्राट बन सकता है, बशर्ते उसके जीवन में संयम हो, वह मात्र लेना ही नहीं, देना भी जानता हो, आत्मनुशासी हो और संतुलित अर्थनीति का विज्ञाता हो। सामान्यतया अर्थ के बिना जीवन-यात्रा सम्यक् सम्पन्न नहीं हो सकती। जीवन-यापन के लिये अर्थ की आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी है। अर्थ के अर्जनकाल में ईमानदारी और उपभोगकाल में सदुपयोग जैसे सिध्दांत आचरण में आ जायें तो संतुलित अर्थनीति बन सकती है।
अर्थ अपने आप में एक सम्पत्ति है और ईमानदारी उससे भी सम्पति है। अर्थ ऐसी सम्पति है जो कभी भी धोखा दे सकती है और अधिक से अधिक वर्तमान जीवन तक व्यक्ति के पास रह सकती है। विश्व विजेता सिकंदर जब अंतिम सांसें गिन रहा था, उसे बहुत दु:ख और आश्चर्य हुआ कि ये धन के भंडार मुझे मौत से नहीं बचा सकते। उसने प्रधान सेनापति को यह आदेश दिया कि शवयात्रा के दौरान मेरे दोनों हाथ कफन से बाहर रखे जायें ताकि जनता इस सच्चाई को समझ सके कि- मैं एक तार भी साथ नहीं ले जा रहा हूं। मैं खाली हाथ ही आया था और खाली हाथ ही जा रहा हूं।' जबकि ईमानदारी एक ऐसी सम्पति है जो व्यक्ति को कभी धोखा नहीं दे सकती और वर्तमान जीवन तक नहीं, आगे भी व्यक्ति का साथ निभा सकती है। यदि अर्थ के अर्जन में ईमानदारी नहीं रहती, अहिंसा नहीं रहती, अनुकम्पा का भाव नहीं रहता, तो अर्थनीति का ही एक आयाम है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके जीवन में ईमानदारी बोलती है।
सुजानगढ़ निवासी रूपचंद सेठिया का जीवन आदर्श जीवन था। वे कपड़े का व्यापार करते थे। एक दिन दुकान पर कोई ग्राहक आया। मुनीमजी ने कपड़े का निर्धारित मूल्य उसे बता दिया ग्राहक ने आग्रह किया कि कपड़े का मूल्य कुछ कम किया जाये। मुनीमजी ने कपड़े का मूल्य कम कर दिया और साथ में उसे कुछ कपड़ा भी कम दे दिया। जब रूपचंदजी दुकान में आये तो मुनीमजी ने सारी बात बता दी। सेठजी ने उपालम्भ देते हुए कहा- आपने बेईमानी क्यों की? उसे कपड़ा कम क्यों दिया? सेठजी ने उस ग्राहक को वापस बुलाया और उसका हिसाब किया और साथ में मुनीमजी का हमेशा के लिये हिसाब कर दिया और कहा- मुझे ऐसा मुनीम नहीं चाहिये जो किचिंत् भी अप्रामाणिकता का कार्य करे।
ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं जो इतनी उच्चस्तरीय प्रामाणिक का पालन करते हैं। जिनके पास अर्थ है उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है और जिनके पास अर्थ के प्रति अनाशक्ति और ईमानदारी के प्रति आसक्ति है, उन्हें भी धनवान कहा जा सकता है। आदमी ऐसा कोई कार्य न करे जिससे किसी को कष्ट हो अथवा नैतिकता खत्म हो। ऐसे व्यक्ति समाज और देश के गौरव हैं जो ईमानदारी पर आंच नहीं आने देते। जो अपनी इज्जत के खातिर लाखों रुपयों का नुकसान स्वीकार कर लेता है। उसके सामने एक ही आदर्श वाक्य रहता है- 'जाए लाख, रहे साख।'
कई व्यक्ति परिश्रम से अर्थार्जन करते हैं और उसका कुछ अंश व्यसन में खर्च कर देते हैं, शराब आदि पी लेते हैं अथवा अन्य कोई नशा कर लेते हैं, जिससे अर्थ की हानि होती है। और स्वास्थ्य भी खराब होता है। जहां, अर्थ का दुरुपयोग होता है, वहां अहिंसक/संतुलित अर्थनीति के विरुध्द बात हो जाती है। अर्थवान व्यक्ति के लिये यह विचारणीय बात होती है कि वह अर्थ का उपयोग किस रूप में करता है। विवेक-सम्पन्न व्यक्ति अर्थ का अपव्यय नहीं करता। बिना प्रयोजन वह एक पाई भी नहीं खोता और विशेष हित का प्रसंग उपस्थित होने पर वह जैन श्रावक भामाशाह बन जाता है। भामाशाह ने मेवाड़ की सुरक्षा के लिये अपना खजाना महाराणा प्रताप को समर्पित कर दिया था।
आदमी अर्जन के साथ विसर्जन की मनोवृति का विकास करे। अपनी इच्छाओं को सीमित करे और व्यक्तिगत भोग और संग्रह की भी सीम करे। व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है, किन्तु आकांक्षाओं की पूर्ति कर पाना मुश्किल होता है। आर्थिक विकास के लिये शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और भावनात्मक संतुलन गौण हो जाए, वह अर्थनीति संतुलित नहीं हो सकती। गरीबी मिटाने के लिये आर्थिक विकास आवश्यक माना गया है, किन्तु उसका उपयोग कुछेक व्यक्तियों तक ही सीमित न रहे। आदमी अपने जीवन में संतोष, आवश्यकता और अर्थ के सदुपयोग को महत्व दे।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद सादगीप्रिय और मतिव्ययी व्यक्ति थे। राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपये मासिक निर्धारित होते हुए भी उन्होंने कभी पूरा वेतन नहीं लिया। एक बार उनके मित्र ने पूछा- बाबूजी! आप पूरा वेतन क्यों नहीं लेते हैं? डा.राजेंद्र प्रसाद बोले- सभी की मूलभूत आवश्यकताएं बराबर हैं। मेरे लिये उतना ही काफी है जितने से मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। आवशय्कता से अधिक संग्रह करना मैं उचित नहीं मानता।
देश का हर व्यक्ति सादगी और संयम का जीवन जीने लगे प्राणीमात्र के प्रति अनुकम्पा का भाव जाग जाए, ईमानदारी नैतिकता और सदाचार जीवन में आ जाए तो हर एक व्यक्ति सच्चा सम्राट बन सकता है और जीने का आनन्द प्राप्त कर सकता है।